संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों के रहस्य की व्याख्या - अध्याय 11

ऐसा लगता है जैसे इस अवधि में मनुष्य की आँखों के लिए, परमेश्वर के कथनों में कोई बदलाव नहीं हुआ है, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग उन नियमों को समझने में असमर्थ हैं जिनके माध्यम से परमेश्वर बोलता है, और उसके वचनों के संदर्भ को नहीं समझते हैं। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, लोग नहीं मानते कि इन वचनों में कोई नया रहस्य है; इसलिए, वे असाधारण रूप से नया जीवन जीने में असमर्थ हैं, बल्कि गतिहीन और बेजान जीवन जीते हैं। किन्तु परमेश्वर के कथनों में, हम देखते हैं कि गहरे स्तर का अर्थ है, ऐसा जो मनुष्य के लिए अथाह और अगम्य दोनों है। आज, मनुष्य के लिए परमेश्वर के ऐसे वचनों को पढ़ने के लिए खुशकिस्मत होना ही सबसे बड़ा आशीष है। यदि इन वचनों को कोई भी नहीं पढ़ता, तो मनुष्य सदैव अभिमानी, दंभी, स्वयं से अनभिज्ञ, और इस बात से अनजान होता कि वह कितना असफल है। परमेश्वर के गहन, अथाह वचनों को पढ़ने के बाद, लोग चुपके से उनकी प्रशंसा करते हैं, और उनके हृदय में, सच्चा दृढ़-विश्वास होता है जिसमें झूठ का दाग नहीं होता; उनके हृदय खरी वस्तु बन जाते हैं, न कि नकली माल। वास्तव में लोगों के हृदय में यही होता है। हर एक के हृदय में उसकी अपनी कहानी है। मानो वह स्वयं से कह रहा हो: "सर्वाधिक संभावना इस बात की है कि यह स्वयं परमेश्वर द्वारा बोला गया था—यदि परमेश्वर नहीं, तो और कौन ऐसे वचन बोल सकता था? ऐसे वचन मैं क्यों नहीं बोल सकता? ऐसा कार्य मैं क्यों नहीं कर सकता? ऐसा प्रतीत होता है कि देहधारी परमेश्वर जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है सच में वास्तविक है, और वह परमेश्वर स्वयं है! अब मैं संदेह नहीं करूँगा। अन्यथा, निश्चय ही ऐसा हो सकता है कि जब परमेश्वर का हाथ आए, तो पछताने का भी मौका न मिले! ..." अधिकांश लोग अपने हृदय में ऐसा ही सोचते हैं। यह कहना उचित है कि जब से परमेश्वर ने बोलना शुरू किया तब से लेकर आज तक, सभी लोग परमेश्वर के वचनों के सहारे के बिना गिर गए होते। ऐसा क्यों कहा जाता है कि यह सब कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाता है, मनुष्य के द्वारा नहीं? यदि परमेश्वर कलीसिया के जीवन को सहारा देने के लिए वचनों का उपयोग नहीं करता, तो हर कोई एकदम से गायब हो जाता। क्या यह परमेश्वर का सामर्थ्य नहीं है? क्या यह सच में मनुष्य की वाक्पटुता है? क्या यह अकेले मनुष्य की विलक्षण प्रतिभाएँ हैं? बिलकुल नहीं! विश्लेषण के बिना, किसी को नहीं पता होगा कि उसकी नसों में किस प्रकार का रक्त बह रहा है, वे इस बात से अनभिज्ञ होंगे कि उनके कितने हृदय हैं, या कितने मस्तिष्क हैं, और उन सभी को लगेगा कि वे परमेश्वर को जानते हैं। क्या वे नहीं जानते कि उनके ज्ञान में अभी भी विरोध निहित है? परमेश्वर के ये कहने में कोई हैरानी नहीं, "मनुष्यजाति में प्रत्येक व्यक्ति को मेरे आत्मा के अवलोकन को स्वीकार करना चाहिए, अपने हर वचन और कार्य की बारीकी से जाँच करनी चाहिए, और इसके अलावा, मेरे चमत्कारिक कर्मों पर विचार करना चाहिए।" इससे यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर के वचन निरुद्देश्य और आधारहीन नहीं हैं। परमेश्वर ने कभी किसी भी मनुष्य के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया है; यहाँ तक कि अय्यूब को भी, उसके समस्त विश्वास के बावजूद, क्षमा नहीं किया गया था—उसका भी विश्लेषण किया गया था, और शर्म से मुँह छिपाने लायक नहीं छोड़ा था। और आज के लोगों के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं। इस प्रकार, परमेश्वर तत्काल पूछता है: "पृथ्वी पर राज्य के आगमन के समय तुम लोग कैसा महसूस करते हो?" परमेश्वर के इस प्रश्न का कोई खास मतलब नहीं है, किन्तु यह लोगों को व्याकुल कर देता है: "हम क्या महसूस करते हैं? हम अभी भी नहीं जानते कि राज्य कब आएगा, तो हम भावनाओं की बात कैसे कर सकते हैं? इससे भी अधिक, हमें कोई आभास नहीं है। यदि मुझे कुछ महसूस करना होता, तो मैं 'चकित' होता, और कुछ नहीं।" वास्तव में, यह प्रश्न परमेश्वर के वचनों का उद्देश्य नहीं है। सबसे अधिक, "जब मेरे पुत्र एवं लोग मेरे सिंहासन की ओर उमड़ पड़ते हैं, तो मैं महान सफेद सिंहासन के सम्मुख औपचारिक रूप से न्याय आरम्भ करता हूँ," यह अकेला वाक्य समस्त आध्यात्मिक क्षेत्र के घटनाक्रमों का सार है। कोई भी नहीं जानता कि इस समय के दौरान परमेश्वर आध्यात्मिक क्षेत्र में क्या करना चाहता है, और जब परमेश्वर इन वचनों को कहता है तभी लोगों में थोड़ी जागृति आती है। चूँकि परमेश्वर के कार्य के भिन्न-भिन्न कदम हैं, पूरे विश्व में परमेश्वर के कार्य भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। इस समय के दौरान, परमेश्वर मुख्यतः परमेश्वर के पुत्रों और लोगों को बचाता है, जिसका मतलब है कि स्वर्गदूतों की चरवाही में, परमेश्वर के पुत्र और लोग स्वयं का निपटाया जाना और टूटना स्वीकार करना शुरू करते हैं, वे आधिकारिक रूप से अपने विचारों और अवधारणाओं को दूर करना, और दुनिया के हर निशान को अलविदा कहना शुरू करते हैं; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर द्वारा बोला गया "महान सफेद सिंहासन के सम्मुख न्याय" आधिकारिक रूप से आरंभ होता है। क्योंकि यह परमेश्वर का न्याय है, इसलिए परमेश्वर को अपनी वाणी में बोलना चाहिए—हालाँकि विषयवस्तु भिन्न होती है, फिर भी उद्देश्य हमेशा एक समान होता है। आज, जिस लहजे में परमेश्वर बोलता है उसे देखने पर, ऐसा लगता है कि उसके वचन लोगों के किसी समूह को निर्देशित हैं। वास्तव में, इन सबके अलावा, ये वचन समस्त मानवजाति की प्रकृति को संबोधित करते हैं। वे सीधे इंसान के दिल पर असर करते हैं, वे मनुष्य की भावनाओं को नहीं बख्शते, और वे उसके पूरे सार को प्रकट करते, कुछ भी नहीं छोड़ते, कुछ भी नहीं जाने देते। आज से आरंभ करके, परमेश्वर आधिकारिक रूप से मनुष्य के असली चेहरे को प्रकट करता है, और इस प्रकार "अपनी आत्मा की आवाज़ को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जारी करता हूँ।" अंततः जो प्रभाव प्राप्त होता है वह है: "अपने वचनों के माध्यम से, मैं उनमें से सभी लोगों और चीज़ों को निर्मल कर दूँगा जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर हैं, ताकि भूमि अब और गंदी और व्यभिचारी न रहे, बल्कि एक पवित्र राज्य बन जाए।" ये वचन राज्य का भविष्य प्रस्तुत करते हैं, जो कि पूरी तरह से मसीह के राज्य का है, जैसा कि परमेश्वर ने कहा है, "सब अच्छा फल हैं, सभी मेहनती किसान हैं।" स्वाभाविक रूप से, यह पूरे विश्व में घटित होगा, सिर्फ चीन तक सीमित नहीं रहेगा।

जब परमेश्वर बोलना और कार्य करना आरंभ करता है तभी लोगों को अपनी अवधारणाओं में उसके बारे में थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है। आरंभ में, यह ज्ञान केवल उनकी अवधारणाओं में ही मौजूद होता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, लोगों के विचार तेजी से निरर्थक और मनुष्य के लिए अनुपयुक्त होते जाते हैं; इस प्रकार, वे उस सब पर विश्वास करने लगते हैं जो परमेश्वर कहता है, इस हद तक कि वे "अपनी चेतना में व्यावहारिक परमेश्वर के लिए स्थान बना रहे हैं।" लोगों की चेतना-मात्र में ही व्यावहारिक परमेश्वर की जगह है। हालाँकि असलियत में, वे परमेश्वर को नहीं जानते, और केवल खोखले वचन बोलते हैं। फिर भी अतीत की तुलना में, उन्होंने बहुत अधिक प्रगति की है—जबकि अभी भी उनमें स्वयं व्यावहारिक परमेश्वर से बहुत अंतर है। परमेश्वर हमेशा ऐसा क्यों कहता है, "प्रत्येक दिन मैं लोगों के अनवरत प्रवाह के बीच चलता हूँ, और प्रत्येक दिन मैं प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कार्य करता हूँ"? परमेश्वर जितना अधिक ऐसी बातें कहता है, लोग उतना ही अधिक आज के व्यावहारिक स्वयं परमेश्वर के कार्यों से उनकी तुलना कर सकते हैं, और वे वास्तविकता में व्यावहारिक परमेश्वर को बेहतर ढंग से जान सकते हैं। क्योंकि परमेश्वर के वचनों को देह के परिप्रेक्ष्य से बोला जाता है, और मानवजाति की भाषा का उपयोग किया जाता है, इसलिए लोग परमेश्वर के वचनों को भौतिक चीज़ों के साथ रखकर आंकते हैं और एक बड़ा प्रभाव प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त, बार-बार परमेश्वर लोगों के दिलों में "स्वयं" की छवि की और वास्तविक "स्वयं" की बात करता है, जिससे लोग अपने हृदय में परमेश्वर की छवि को शुद्ध करने के लिए और अधिक इच्छुक हो जाते हैं, और इस प्रकार व्यावहारिक स्वयं परमेश्वर को जानने और उसके साथ जुड़ने के इच्छुक हो जाते हैं। यह परमेश्वर के वचनों की बुद्धिमत्ता है। परमेश्वर जितनी अधिक ऐसी बातें कहता है, उतना ही अधिक लोगों के परमेश्वर के ज्ञान को लाभ मिलता है, और इसलिए परमेश्वर कहता है, "यदि मैं देहधारी नहीं होता, तो मनुष्य ने मुझे कभी भी नहीं जाना होता, और यदि उसने मुझे जान भी लिया होता, तो क्या इस प्रकार का ज्ञान अभी भी एक धारणा नहीं होता?" निस्संदेह, यदि लोगों को अपनी अवधारणाओं के अनुसार परमेश्वर को जानना अपेक्षित होता, तो यह उनके लिए आसान होता; वे निश्चिंत और खुश होते, और इस प्रकार लोगों के दिलों में परमेश्वर हमेशा के लिए अज्ञात रहता, व्यावहारिक नहीं, जिससे साबित होता कि शैतान, न कि परमेश्वर, पूरे ब्रह्मांड पर प्रभुत्व रखता है; इस प्रकार, परमेश्वर के ये वचन कि "मैंने अपनी सत्ता वापस ले ली है" हमेशा के लिए खोखले होकर रह जाते।

जब दिव्यता सीधे कार्य करना शुरू करती है तभी वह समय भी होता है जब राज्य आधिकारिक रूप से मनुष्य की दुनिया में उतरता है। लेकिन यहाँ जो कहा गया है वह यह कि राज्य मनुष्य के बीच उतरता है, न कि राज्य मनुष्य के बीच आकार लेता है—और इस प्रकार आज जो बोला जाता है वह राज्य का निर्माण है, न कि यह कैसे आकार लेता है। परमेश्वर हमेशा क्यों कहता है, "सभी चीज़ें मौन हो जाती हैं"? कहीं ऐसा तो नहीं कि सभी चीजें रुक कर स्थिर हो जाती हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़े-बड़े पहाड़ सचमुच मौन हो जाते हैं? तो लोगों को इस बात की कोई समझ क्यों नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर के वचन गलत हैं? या परमेश्वर बढ़-चढ़ाकर बता रहा है? क्योंकि परमेश्वर सब-कुछ एक निश्चित वातावरण में करता है, इसलिए कोई भी इस बारे में नहीं जानता, या इसे अपनी आँखों से नहीं देख सकता, लोग तो बस इतना ही कर सकते हैं कि वे परमेश्वर को बोलते हुए सुनें। क्योंकि परमेश्वर जिस महिमा के साथ कार्य करता है उसके कारण, जब परमेश्वर आता है, तो ऐसा लगता है मानो स्वर्ग में और पृथ्वी पर भारी परिवर्तन हुआ है; और परमेश्वर को लगता है जैसे सभी इस क्षण को देख रहे हैं। आज, तथ्य अभी तक ज्ञात नहीं हुए हैं। लोगों ने परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ के केवल छोटे से हिस्से को ही समझा है। सही अर्थ को उस समय की प्रतीक्षा है जब वे अपनी अवधारणाओं को शुद्ध कर लेंगे; तभी वे जान पाएँगे कि देहधारी परमेश्वर आज पृथ्वी पर और स्वर्ग में क्या कर रहा है। चीन में परमेश्वर के लोगों में केवल बड़े लाल अजगर का जहर ही नहीं है, उनमें बड़े लाल अजगर की प्रकृति भी काफी मात्रा में है, और अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है। लेकिन परमेश्वर इस बारे में सीधे तौर पर बात नहीं करता, बड़े लाल अजगर के जहर के बारे में बस थोड़ा-सा ज़िक्र करता है। इस तरह, वह सीधे तौर पर इंसान के दाग उजागर नहीं करता, जो इंसान की प्रगति के लिए अधिक लाभकारी है। बड़े लाल अजगर के सपोले दूसरों के सामने बड़े लाल अजगर के वंशज कहलाना पसंद नहीं करते। लगता है जैसे "बड़े लाल अजगर" का संबोधन उन्हें शर्मिंदा करता है; उनमें से कोई भी इन शब्दों के बारे में बात करने को तैयार नहीं है, इसलिए परमेश्वर बस इतना कहता है, "मेरे कार्य का यह चरण मुख्य रूप से तुम लोगों पर केन्द्रित है, और चीन में मेरे देहधारण के महत्व का एक पहलू है।" और संक्षेप में, परमेश्वर मुख्यतः बड़े लाल अजगर के सपोलों के मूल प्रतिनिधियों को जीतने के लिए आता है, जो कि चीन में परमेश्वर के देहधारण का अभिप्राय है।

"जब मैं व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच आता हूँ, तो स्वर्गदूत साथ-साथ चरवाही का कार्य आरम्भ कर देते हैं।" वास्तव में, इसे अक्षरशः नहीं लिया जाता है कि जब स्वर्गदूत सभी लोगों के बीच अपना कार्य शुरू करते हैं तभी परमेश्वर का आत्मा मनुष्य की दुनिया में आता है। बल्कि ये दोनों कार्य—दिव्यता का कार्य और स्वर्गदूतों की चरवाही—साथ-साथ किए जाते हैं। इसके बाद, परमेश्वर स्वर्गदूतों की चरवाही के बारे में थोड़ी-बहुत बात करता है। जब वह कहता है कि "सभी पुत्र और लोग न केवल परीक्षाओं और चरवाही को प्राप्त करते हैं, बल्कि अपनी आँखों से सभी प्रकार के दर्शनों की घटनाओं का अवलोकन करने में भी समर्थ हो जाते हैं," तो अधिकांश लोग "दर्शन" शब्द के बारे में ढेरों कल्पनाएँ करने लगते हैं। दर्शन का अर्थ लोगों की कल्पनाओं में अलौकिक घटनाओं का घटना है। लेकिन कार्य की विषय-वस्तु व्यावहारिक स्वयं परमेश्वर का ज्ञान ही रहती है। दर्शन वे साधन हैं जिनके द्वारा स्वर्गदूत कार्य करते हैं। वे लोगों को स्वर्गदूतों के अस्तित्व का बोध कराने के लिए, उन्हें एहसास या सपने देते हैं। लेकिन स्वर्गदूत इंसान के लिए अदृश्य ही बने रहते हैं। जिस तरीके से वे परमेश्वर के पुत्रों और लोगों के बीच कार्य करते हैं, वह उन्हें प्रत्यक्ष रूप से प्रबुद्ध और रोशन करने के लिए है, जिसमें उनसे निपटना और उनका टूटना भी शामिल है। वे शायद ही कभी धर्मोपदेश देते हैं। स्वाभाविक रूप से, लोगों के बीच समागम अपवाद है; चीन के बाहर के देशों में यही हो रहा है। परमेश्वर के वचनों में हर इंसान के रहन-सहन की परिस्थितियों का प्रकटन शामिल है—स्वाभाविक रूप से, इसका मुख्य निशाना बड़े लाल अजगर के सपोले हैं। इंसान की तमाम अवस्थाओं में से, परमेश्वर केवल उन्हीं को चुनता है जो आदर्श-रूप होती हैं। इस प्रकार, परमेश्वर के वचन लोगों को नंगा कर देते हैं, उन्हें कोई शर्म भी नहीं आती, या उनके पास तेज़ प्रकाश से छिपने का समय नहीं होता, और वे अपने ही खेल में मात खा जाते हैं। इंसान का तरह-तरह का व्यवहार ऐसी ढेर सारी कलाकृतियाँ हैं, जिन्हें परमेश्वर प्राचीन काल से आज तक बनाता आ रहा है, और जिन्हें वह कल भी बनाना जारी रखेगा। वह केवल इंसान की भद्दी तस्वीर ही बनाता है: कुछ लोग, आँखों की रोशनी चले जाने के कारण दुःखी होकर अंधेरे में रोते हुए नज़र आते हैं, कुछ हँसते हैं, कुछ लोग भयंकर लहरों के थपेड़े खाते हैं, कुछ घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर भटक रहे होते हैं, कुछ लोग, धनुष-टंकार से चौंके हुए पक्षी की तरह, पहाड़ों में जंगली जानवरों के शिकार हो जाने के डर से, काँपते हुए, विशाल बीहड़ के बीच रास्ता खोज रहे होते हैं। परमेश्वर के हाथों में, ऐसे बहुत से बदसूरत तौर-तरीके मार्मिक, सजीव-सी झाँकियाँ बन जाते हैं, उनमें से अधिकाँश देखने में बहुत भयानक होते हैं, या लोगों के रोंगटे खड़े कर देने, उन्हें बेचैन और भ्रमित कर देने के लिए काफी होते हैं। परमेश्वर की नज़रों में, मनुष्य में जो कुछ भी अभिव्यक्त होता है वह केवल कुरूपता है, और भले ही यह करुणा उत्पन्न कर दे, फिर भी यह है तो कुरूपता ही। परमेश्वर से मनुष्य के मतभेद का बिंदुपथ यह है कि मनुष्य की कमजोरी दूसरों के प्रति दया दिखाने की उसकी प्रवृत्ति में निहित है। लेकिन, परमेश्वर हमेशा मनुष्य के प्रति एक-सा ही रहा है, जिसका अर्थ है कि उसका दृष्टिकोण हमेशा एक-सा है। वह हमेशा ऐसा दयावान नहीं होता जैसा कि लोग मानते हैं, उस अनुभवी माँ की तरह जिसके मन में हमेशा उसके बच्चे ही छाए रहते हैं। सच्चाई ये है कि अगर परमेश्वर बड़े लाल अजगर को जीतने के लिए कई तरह के तरीके न आज़माना चाहता, तो ऐसा संभव नहीं था कि वह मनुष्य की सीमाओं को झेलकर, इस तरह के अपमान के आगे आत्मसमर्पण करता। परमेश्वर के स्वभाव के अनुसार, लोग जो कुछ भी करते और कहते हैं वह सब परमेश्वर के क्रोध को भड़काता है, और उन्हें ताड़ना दी जानी चाहिए। परमेश्वर की नज़रों में, उनमें से एक भी मानक पर खरा नहीं उतरता, और सभी इसी लायक हैं कि परमेश्वर उन्हें मार गिराये। चीन में परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों के कारण, इसके अलावा, बड़े लाल अजगर की प्रकृति के कारण, और इस कारण भी कि चीन बड़े लाल अजगर का देश है, और ऐसी भूमि है जिसमें देहधारी परमेश्वर रहता है, परमेश्वर को अपना क्रोध पी जाना चाहिए और बड़े लाल अजगर के सभी सपोलों को जीत लेना चाहिए; फिर भी वह बड़े लाल अजगर के सपोलों से हमेशा घृणा करता रहेगा, यानी वह बड़े लाल अजगर की हर चीज़ से हमेशा घृणा करेगा—और यह कभी नहीं बदलेगा।

किसी को आज तक परमेश्वर के किसी भी कार्य का ज्ञान नहीं रहा है, न ही उसके कार्यों को कभी किसी चीज़ के द्वारा देखा गया है। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर सिय्योन में वापस आया, तो इस बारे में कौन जानता था? इस प्रकार, "मैं चुपचाप मनुष्यों के बीच आता हूँ, और चुपचाप चला जाता हूँ। क्या किसी ने कभी मुझे देखा है?" जैसे वचन दर्शाते हैं कि इंसान में निस्संदेह आध्यात्मिक क्षेत्र की घटनाओं को स्वीकार करने के गुणों का अभाव है। अतीत में, जब परमेश्वर सिय्योन लौटा तो, उसने कहा था कि "सूर्य तेजस्वी है, चंद्रमा चमकदार है"। क्योंकि लोग अभी भी सिय्योन में परमेश्वर की वापसी के बारे में विचारमग्न हैं—क्योंकि वे अभी तक इसे भूले नहीं हैं—इसलिए, लोगों की अवधारणाओं के अनुरूप होने के लिए, सीधे तौर पर परमेश्वर कहता है "सूर्य तेजस्वी है, चंद्रमा चमकदार है"। परिणामस्वरूप, जब लोगों की अवधारणाओं को परमेश्वर के वचनों से चोट पहुँचती है, तो वे देखते हैं कि परमेश्वर के कार्य बहुत चमत्कारिक हैं, और देखते हैं कि उसके वचन गहरे और अथाह हैं, और सभी के लिए अबूझ हैं; इसलिए, वे इस मामले को पूरी तरह से अलग रख देते हैं, और अपनी आत्माओं में थोड़ी-बहुत स्पष्टता का एहसास करते हैं, मानो परमेश्वर पहले ही सिय्योन में लौट आया हो, इसलिए लोग इस मामले पर अधिक ध्यान नहीं देते। तब से, वे परमेश्वर के वचनों को एक हृदय और एक मन से स्वीकार करते हैं, और इस बात से खीजते नहीं कि परमेश्वर के सिय्योन लौटने के बाद तबाही आएगी। तभी लोग परमेश्वर के वचनों पर पूरा ध्यान देते हुए, और उन पर और आगे विचार करने की इच्छा न रखते हुए, परमेश्वर के वचनों को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं।

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