परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है (भाग दो)

तुम्हारे साथ चाहे जो कुछ भी हो, तुम्हें चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए और सत्य के परिप्रेक्ष्य से उन्हें संभालना चाहिए। इस तरीके से समस्याओं का पता लगाना आसान होता है, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को देखकर तुम चीजों के सार की असलियत को आसानी से समझने में सक्षम रहोगे। कुछ लोग चीजों को हमेशा सीख के आधार पर देखते हैं। वे चीजों का अध्ययन और विश्लेषण हमेशा अपने दिमाग के आधार पर करते हैं या फिर अपनी दैहिक दृष्टि से चीजों को देखते और महत्व देते हैं। इसलिए वे समस्याओं के सार की असलियत नहीं समझ पाते और हमेशा रास्ता भटक जाते हैं। ऐसा कई दशक तक चल सकता है—वे चीजों को स्पष्ट रूप से देखे बिना मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, कभी-कभी तुम बीमार पड़ते हो तो सोचते हो कि यह वस्तुगत कारणों वाली कोई आम बीमारी है, कि यह न तो परमेश्वर का अनुशासन है और न ही कोई समस्या है, जबकि वास्तव में इसमें बहुत बड़ी समस्या है। अगर तुम इस मामले में सूक्ष्मता से विचारशील हो और परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोज सकते हो, तो फिर कभी-कभी, जब पवित्र आत्मा कोई अर्थ बताएगा, तो तुम अपनी किसी कमी या अपने स्वभाव की समस्या को पहचानने में सक्षम रहोगे। परमेश्वर तुम्हें कोई बीमारी इसलिए देता है ताकि तुम तपकर निखरो, कष्ट उठाओ, तुम अपनी सूक्ष्म जाँच और चिंतन-मनन के लिए अपने आध्यात्मिक जगत में लौट सको, और यह देख सको कि वास्तव में इस बीमारी का संबंध किस चीज से है। जब तुम अपनी जाँच के लिए अपने आध्यात्मिक जगत की गहराई में लौटते हो, तो तुम समस्या की जड़ को खोज सकते हो और अपनी भ्रष्टता के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। जरा-सा भी कष्ट सहे बिना तुम्हें हमेशा यही लगेगा कि तुम महान हो, और तुम इस भ्रष्टता का पता लगाने में नाकाम रहोगे। तब तुम उस सत्य को नहीं समझ पाओगे जिसकी तुम्हें जरूरत है। क्या तुम लोगों को इसका अनुभव है? पवित्र आत्मा सब कुछ बहुत समयबद्ध तरीके से करता है, लोगों की आवश्यकता के अनुसार और उनके वर्तमान आध्यात्मिक कद और दशा के अनुसार करता है। पहले कहा जा चुका है कि परमेश्वर का कार्य समयबद्ध और नपा-तुला होता है, और बिना किसी देरी के ठीक समय पर होता है। तुम इसे अपने वास्तविक अनुभव में देख चुके हो। हर बार जब तुम किसी चीज का सामना करते हो, तो पवित्र आत्मा फौरन तुम्हें प्रेरित और प्रबुद्ध करता है, लेकिन तुम सहयोग नहीं करते हो। तुम बहुत ही सुन्न रहते हो। कभी-कभी तुम यह अनुमान लगा लेते हो कि क्या हो रहा है और अधिक गहराई से समझने का जतन किए बिना इसे वहीं छोड़ देते हो। तुम केवल बोधात्मक समझ से संतुष्ट हो जाते हो और इतने भर से ही सोच लेते हो कि तुम इसे समझते हो, लेकिन वास्तव में तुम्हें सच्ची समझ नहीं आई है। आगे बढ़ने का मार्ग हासिल करने से पहले तुम्हें अपनी बोधात्मक समझ को तार्किक समझ के स्तर तक बढ़ाना चाहिए। अगर पवित्र आत्मा तुम्हें फिर से प्रेरित करे और तुम अभी भी इसे अनदेखा करते हो और इसे स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज नहीं करना चाहते हो, तो तुम जल्द ही भूल जाओगे। तुम्हें यह रोशनी, यह व्यावहारिक चीज हासिल नहीं होगी, और यह बहुत-ही शर्म की बात होगी। मेहनती लोग चीजों को स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज कर लेते हैं और बाद में जब वे अपनी टिप्पणियाँ दोबारा देखते हैं तो उन्हें गजब का एहसास होता है। वे इस आधार पर कुछ रोशनी पाने में सक्षम रहते हैं। जो व्यक्ति लापरवाह होता है और जिसे कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, उसे इस रोशनी का एहसास नहीं होता—वह तो ये भी नहीं जानता कि रोशनी क्या चीज है। ये रोशनी उसके भीतर कौंधती है और अलोप हो जाती है, और अगर वह हमेशा ऐसे ही बना रहा, तो पवित्र आत्मा उसमें कार्य नहीं करेगा। सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें संवेदनशील और सूक्ष्मता से विचारशील होना पड़ेगा; आलस छोड़ना पड़ेगा। तुम्हें तत्परता से सहयोग भी करना होगा। जब तुम्हें कोई अवधारणात्मक समझ मिले, तो इसे हाथ से न निकलने दो, इस पर जल्दी से विचार करो और परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम्हें प्रार्थना कैसे करनी चाहिए? तुम्हें जो प्रबोधन मिला है, उस पर अपनी प्रार्थना को केंद्रित करो। कभी-कभी तुम्हें यह अपना ही विचार लग सकता है, और इसमें कोई दिक्कत नहीं है। जब तक तुम्हें आनंद और स्पष्टता का एहसास होता रहे, प्रार्थना और खोज करते रहो। इस नई रोशनी का पता लगाना और इसे सही ढंग से समझना सबसे ज्यादा मायने रखता है। अगर प्रार्थना करते समय शब्द खूब अच्छी तरह निकलते हैं और तुम सहज महसूस करते हो, तुम फिर से प्रबुद्ध हो जाते हो और तुम्हारा मन रोशन हो जाता है, तो तुम्हें इस नई रोशनी को स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि कभी-कभी तुम जब अच्छी दशा में होते हो तो चीजें याद रख लेते हो, लेकिन जब बुरी दशा में होते हो तो भूल जाते हो। लोग कोई लेख लिखते हुए कई-कई पृष्ठ भर सकते हैं, लेकिन जब अपनी अनुभवजन्य गवाही या परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान की बारी आती है, तो वे एक शब्द भी नहीं लिख सकते हैं। उनमें अभी भी वास्तविकता का अभाव है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता को महत्व नहीं देते, जो साफ दिखाता है कि उन्हें यह नहीं पता कि क्या महत्वपूर्ण है, क्या गौण है, क्या सबसे जरूरी है या उन्हें क्या हासिल करना चाहिए। इस वजह से, वे पवित्र आत्मा का प्रबोधन खो बैठते हैं। अपने पास छोटी-सी नोटबुक रखना सबसे अच्छा है, ताकि जब भी तुम्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करे और नई रोशनी मिले, तो तुम तुरंत इसे पकड़ सको और स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज कर लो। पवित्र आत्मा हर समय और हर जगह कार्य करता है। कोई किसी भी स्थिति में हो, जब तक वह परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करता है और सत्य की खोज कर सकता है, तब तक पवित्र आत्मा उसे प्रबुद्ध करता है। यहाँ तक कि जब तुम काम में डूबे रहते हो और थककर चूर महसूस करते हो, तब भी अगर तुम खोज और प्रार्थना करोगे तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है। जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो या सत्य पर संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है। जब तुम परमेश्वर के वचनों पर मनन और आत्मचिंतन करते हो, तो वह तुम्हें प्रबुद्ध करता है। जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करे, तो इसे लिख डालो, इस पर मनन करो, और तुम्हारा मन निर्मल हो जाएगा। जब तुम्हें वास्तव में सत्य समझ में आ जाएगा, तो तुम पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे। जब तुम इस तरह से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, तो तुम जो फसल काटोगे वह बढ़ती जाएगी। तथ्य यह है कि तुम लोग पवित्र आत्मा के अधिकांश प्रबोधन को गँवा चुके हो। तुम उड़ाऊ पुत्रों की तरह हो जो अपनी विरासत को बर्बाद करते हैं, पवित्र आत्मा द्वारा अपने पर किए सभी कार्यों को गँवा रहे हो, परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनाए जाने के कई अवसर खो रहे हो! पवित्र आत्मा ने बहुत सारा काम किया है, फिर भी तुम इसे पकड़ पाने में असफल हो। क्या तुम सचमुच कह सकते हो कि परमेश्वर तुम्हारे प्रति दयालु नहीं है? तथ्य यह नहीं है कि परमेश्वर ने तुम पर पर्याप्त दया नहीं की—बल्कि यह है कि तुमने इसे हासिल नहीं किया है।

पवित्र आत्मा के कार्य की एक खास शैली होती है, और इसके बारे में निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए। अगर कोई निष्कर्ष निकालने लगे, तो वह कई चीजों का निष्कर्ष निकालने में सक्षम रहेगा। इतना तय है कि इसमें कुछ न कुछ हासिल होगा। उदाहरण के लिए, प्रार्थना को ही ले लो। कई अवसरों पर तुम प्रार्थना से काफी प्रबोधन हासिल कर सकते हो, लेकिन अगर तुम चौकन्ने नहीं हो, तो इस बारे में अनभिज्ञ रहोगे। भले ही तुम्हारे मुँह से प्रबोधन के कुछ शब्द निकल सकते हैं, लेकिन ध्यान केंद्रित नहीं करोगे तो तुम्हें इन शब्दों का पता ही नहीं चलेगा। तुम्हें सिर्फ यह लगेगा कि तुमने अच्छी प्रार्थना की, जबकि तुम्हारी प्रार्थना में वास्तव में ऐसे शब्द थे जिन्हें पवित्र आत्मा ने प्रबुद्ध और रोशन किया था। ये सब नई रोशनी थे, लेकिन तुमने इन्हें अपने दिमाग से निकल जाने दिया। पवित्र आत्मा का कार्य जिस खास तरीके से लोगों की सबसे अधिक मदद करता है, वह है उन्हें प्रबुद्ध और रोशन करना, उन्हें सत्य और परमेश्वर के इरादे समझने में मदद करना, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करने योग्य बनाना और सही रास्ते से न भटकने देना। लोगों को प्रबुद्ध करने के पीछे पवित्र आत्मा के कार्य का लक्ष्य क्या है? कभी इसका कार्य रास्ता दिखाना होता है; कभी यह तुम्हें याद दिलाता है, कभी इसके कारण तुममें विवेक आता है; तो कभी यह तुम्हें रोशन कर सत्य को समझने में मदद करता है, और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देता है। जब तुम अपनी राह भटक जाते हो, तो वह बैसाखी की तरह तुम्हारा सहारा बनकर मदद करता है, तुम्हें सही राह पर ले जाता है और तुम्हारा मार्गदर्शन करता है। पवित्र आत्मा जिस रोशनी और ज्ञान से लोगों को प्रबुद्ध करता है, वो लोगों की अपनी-अपनी पृष्ठभूमि के कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन वो सत्य का खंडन या विरोध कतई नहीं करते हैं। अगर हर किसी को इस तरह से अनुभव होने लगे कि उसमें सच्ची खोज और प्रार्थना है, वास्तविक समर्पण है, पवित्र आत्मा लगातार प्रबुद्ध कर उनका मार्गदर्शन कर रहा है, और अगर वे विचारों से तीव्र और सूक्ष्म हैं, और उन चीजों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने में सक्षम हैं जिन्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता है, तो उनका आध्यात्मिक कद बहुत तेजी से बढ़ेगा। तब वे मौके का फायदा उठा चुके होंगे। पवित्र आत्मा के कार्य की एक विशेषता है कि यह बड़ी तेजी से होता है। यह पलक झपकते ही पूरा हो जाता है, यह बुरी आत्माओं के कार्य की तरह नहीं है जो हमेशा लोगों को इस तरह से काम करने के लिए उकसाता और मजबूर करता है कि वे किसी अन्य तरीके से कार्य न कर सकें। कभी-कभी पवित्र आत्मा लोगों को यह एहसास दिलाने का काम करता है कि वे खतरे की कगार पर हैं, इससे वे असहज और बहुत परेशान हो जाते हैं। ऐसा विशेष परिस्थितियों में होता है। आम तौर पर जब लोग परमेश्वर के निकट आते हैं, और सत्य की खोज करते हैं, या जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो पवित्र आत्मा उन्हें कोई एहसास या सूक्ष्म विचार या ख्याल देता है। या, वह तुम्हें कोई वाक्य या संदेश दे सकता है। मानो कि यह कोई आवाज हो, पर इसमें आवाज नहीं भी है; यह कुछ याद दिलाने जैसा है, और तुम इसका अर्थ समझ सकते हो। अगर तुम अपने समझे हुए उस अर्थ को ग्रहण करते जाते हो और उसे उचित शब्दों में व्यक्त करते हो, तो तुम्हें जरूर कुछ न कुछ हासिल होगा, और यह दूसरों को भी शिक्षित करेगा। अगर लोग हमेशा इसी तरह अनुभव करें, तो वे धीरे-धीरे अनेक सत्य समझने लगेंगे। अगर लोगों के पास हमेशा पवित्र आत्मा का कार्य रहता है, और हमेशा एक नई रोशनी उनकी अगुआई करती है, तो वे सच्चे मार्ग से कभी नहीं भटकेंगे। भले ही तुम्हारे साथ कभी कोई संगति न करता हो, कोई भी तुम्हें राह न दिखाता हो, और तुम्हारे पास कोई कार्य व्यवस्था न हो, अगर तुम पवित्र आत्मा की दिखाई दिशा में चलते हो, तो कभी नहीं भटकोगे। प्रभु यीशु के पुनर्जीवित होने और स्वर्ग में आरोहण के बाद पतरस ने उसे देखा, मगर कभी-कभार और बस कुछ ही बार। जैसा कि लोग सोचते हैं, वह प्रभु यीशु को न तो अक्सर देख पाता था, न जब चाहे तब देख पाता था, और न ही तब जब वह समझ में न आने वाली किसी चीज के बारे में प्रार्थना करता था। यह सब वैसा नहीं था जैसा लोग सोचते हैं। क्या परमेश्वर को देखना इतना आसान है? परमेश्वर आसानी से लोगों के सामने नहीं आता। परमेश्वर ने ज्यादातर समय पतरस को पवित्र आत्मा के कार्य के जरिए चीजें समझाईं। पतरस ने जो हासिल किया, उसे तुम लोग क्यों नहीं हासिल कर सकते? इन सबसे क्या साबित होता है? यह साबित करता है कि तुम लोगों की काबिलियत नाकाफी है, तुम्हारे पास समझने की शक्ति नहीं है, और तुम चिंतन-मनन से चीजों को समझने में असमर्थ हो। तुम चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करो, तुम्हें इसे हमेशा परमेश्वर के वचनों में जो सत्य है उसके अनुसार देखना चाहिए। अगर लोग अपने साथ घटने वाली चीजों के मामले में हमेशा अपने ही विचारों और दिमाग के अंदर घुटते रहें, उन चीजों को मानवीय तरीकों से संभालते रहें, तो उनके हाथ कुछ नहीं आने वाला। जब पतरस के साथ कुछ हुआ तो उसने क्या सोचा? उसने प्रभु यीशु के वचनों के अनुसार चिंतन-मनन किया, और वह इस तरह परमेश्वर के इरादों का पता लगाने में सफल रहा। और बाद में, जब प्रभु यीशु ने स्वर्गारोहण कर लिया, तब भी पतरस परमेश्वर के इरादों को समझने में सक्षम क्यों था? वह पवित्र आत्मा के प्रबोधन के जरिए ऐसा करने में सफल रहा। अगर वह पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस न कर पाता और प्रभु यीशु पुनर्जीवित होने और स्वर्ग आरोहण के बाद उसके सामने प्रकट नहीं होते, तो वह परमेश्वर के इरादों को कैसे समझ पाता? देहधारी परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा लोग सोचते हैं कि वह व्यक्तिगत और अनवरत रूप से लोगों को पूर्ण बनाने के लिए रोज उनका मार्गदर्शन करता है। ऐसा नहीं है। पवित्र आत्मा का कार्य साझेदारी में होता है। साझेदारी के कार्य में अधिकांश काम आत्मा करती है। प्रमुख कार्य देह करती है, और जब यह कार्य पूरा हो जाता है, तो बाकी बचे छोटे-छोटे मुद्दे समझने के लिए पवित्र आत्मा लोगों को प्रबुद्ध करता है। अगर लोग इसे पूरी तरह समझ न सकें और केवल एक अंश ही ग्रहण कर सकें, तो आगे के ब्योरे नहीं समझ पाएँगे—और अगर वे इन्हें समझ नहीं पाते तो वे बदलेंगे नहीं और कोई प्रगति नहीं करेंगे।

जिन लोगों को पवित्र आत्मा के कार्य या प्रबोधन का अनुभव नहीं है, उनके लिए ये चीजें समझ पाना आसान नहीं है। दरअसल, पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबोधन की एक खास शैली है। जब भी पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबोधन का उल्लेख किया जाता है, उसके बारे में लोग हमेशा गलत समझ बैठते हैं, वे सोचते हैं कि पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने से पहले उन्हें बहुत अधिक कष्ट सहने पड़ेंगे या भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। क्या यह इंसानी धारणा नहीं है? चूँकि लोग आलसी होते हैं और उनका दिल निष्ठुर होता है, इसलिए वे आम तौर पर अपनी आत्मा की अनुभूतियों पर ध्यान नहीं देते, और जब कभी वहाँ थोड़ी-सी रोशनी और प्रबोधन होता है, वे इसे नाचीज समझकर खारिज कर देते हैं। अगर तुम सारा दिन अपने काम में बिता देते हो, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और विनियमों से चिपके रहते हो, दैहिक इच्छाओं और रोमांस की जिंदगी जीते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारा प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं करेगा। वह किसी सूरत में ऐसा नहीं करेगा। तुम्हें और प्रार्थना करनी चाहिए, पवित्र आत्मा के कार्य खोजने चाहिए, यह खोजना चाहिए कि पवित्र आत्मा के कार्य को कैसे प्राप्त करें और कैसे हाथ से न जाने दें। परमेश्वर से प्रार्थना करो : “हे परमेश्वर! मुझ पर काम कर, मुझे पूर्ण बना और बदल दे, हर चीज में मुझे तेरे इरादे समझने लायक और तेरी आकांक्षाओं के सामने समर्पण करने वाला बना। तेरे हाथों मेरे उद्धार में तेरा महान प्रेम और तेरा इरादा शामिल है। भले ही लोग विद्रोही होते हैं और तेरा प्रतिरोध करते हैं, भले ही उनकी प्रकृति धोखा देने की होती है, लेकिन मैं अब लोगों को बचाने का तेरा इरादा समझता हूँ और तेरे साथ सहयोग करना चाहता हूँ। मेरे सामने और ज्यादा हालात पैदा कर, मुझे परीक्षाओं, मुसीबतों से गुजरने दे, इन मुसीबतों में अपना हाथ देखने दे, अपने कार्य देखने दे, ताकि मैं तेरे इरादों को समझ कर इनके सामने समर्पण कर सकूँ। मुझे स्वच्छंद मत बनने दे, बल्कि ऐसा बना कि मेरे पैर मजबूती से जमीन पर टिके रहें।” प्रार्थना इस तरह करो, और बार-बार करो; पवित्र आत्मा से विनती करो कि वह सदा तुम पर कार्य करे और तुम्हें राह दिखाए। पवित्र आत्मा जब यह देखता है कि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो और जो करना चाहिए वही कर रहे हो, तो वह तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए कुछ परिस्थितियाँ खड़ी करता है और फिर यह देखने के लिए कड़ी परीक्षा लेता है कि क्या तुम इससे उबर सकते हो। कुछ लोग शायद इसे न झेल सकें। वे कहेंगे, “हे परमेश्वर, यह तो भारी मुसीबत है—मैं इसे नहीं झेल सकता!” तो वे फिर इस मामले में विफल हो चुके होंगे। अगर तुम्हें वाकई लगता है कि तुम बहुत विकट स्थिति में हो, तो परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करो : “हे परमेश्वर, तुमने मुझे जिस स्थिति में डाला है, वह बहुत विकट है। मैं इसे झेल तो नहीं सकता, लेकिन मैं कोशिश करने के लिए तैयार हूँ। मेरे आध्यात्मिक कद के अनुसार व्यवस्था कर और मुझे यह समझने में मदद कर कि तेरे इरादे क्या हैं, चाहे मैं मामूली कष्ट में हूँ या भारी कष्ट में, और मुझे न तो रास्ते से भटकने देना और न शिकायतें करने देना। मुझे पूरी तरह समर्पण करने लायक बना, ताकि मैं तुझे संतुष्ट कर सकूँ। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मैं मामूली कष्ट में हूँ या भारी कष्ट में, जब तक इसके पीछे तेरी आकांक्षाएँ हैं, मैं बिना कोई शिकायत किए इनके प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हूँ। मैं तेरी आकांक्षाओं के खिलाफ नहीं जा सकता, और कष्ट चाहे जितना भी बढ़ता रहे, इसे जब तक सह सकूँगा तब तक तुझसे माँगता रहूँगा।” तुम्हें आत्मविश्वास और निडरता से प्रार्थना करनी चाहिए। डरो या भागो मत। जब पवित्र आत्मा देखता है कि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, जो तुम्हें करना चाहिए वही कर रहे हो, तुम वास्तव में अपने दिल में परमेश्वर को चाहते हो और सत्य का अनुसरण करते हो, तो वह शायद तुम्हें एक कठिन स्थिति में डाल दे और इससे उबरने के लिए बड़ी हिम्मत दे—और फिर तुम जीत चुके होगे। तुम्हारे लिए किसी बेहद कठिन स्थिति पर काबू पाना कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझने से कहीं ज्यादा ऊँची बात है। यह गवाही देने का मामला है।

दैनिक जीवन में लोग तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आते हैं और अगर उनके पास सत्य नहीं है और वे प्रार्थना कर इसे खोजते नहीं हैं, तो फिर उनके लिए प्रलोभन छोड़ना मुश्किल होगा। चाहे स्त्री-पुरुषों के संबंधों का उदाहरण ही ले लो। कई लोग इस प्रकार के प्रलोभन नहीं छोड़ पाते, और इस तरह की स्थिति आते ही इसमें फँस जाते हैं। क्या इससे यह पता नहीं चलता कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है? जिन लोगों के पास सत्य नहीं होता है, वे ऐसे ही दयनीय होते हैं, और कोई गवाही नहीं दे पाते हैं। कुछ लोग पैसे से जुड़ी स्थितियों का सामना करते हुए प्रलोभन में फँस जाते हैं। जब वे दूसरे धनवान लोगों को देखते हैं तो शिकायत करने लगते हैं, “उनके पास इतना पैसा कैसे है और मैं इतना गरीब क्यों हूँ? यह अन्याय है!” जब उनके साथ ऐसा होता है तो वे शिकायत करते हैं, और वे इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते या उसके आयोजनों और व्यवस्था के प्रति समर्पण नहीं कर पाते। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो हमेशा रुतबे पर ध्यान धरे रहते हैं, और ऐसे प्रलोभन सामने आने पर इन पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते। जैसे, कोई अविश्वासी उन्हें किसी आधिकारिक पद पर रखना चाहता है, उन्हें कई लाभ देना चाहता है, तो वे डिगे बिना नहीं रह पाते। वे सोचने लगते हैं, “क्या इसे स्वीकार करना चाहिए?” वे प्रार्थना करते हैं, मनन करते हैं, और फिर कहते हैं : “हाँ—मुझे स्वीकारना ही होगा!” वे अपना मन बना चुके होते हैं, उनके और आगे खोजने का कोई अर्थ नहीं होता है। वे इस आधिकारिक पद और लाभों को स्वीकारने का पक्का फैसला कर चुके होते हैं, लेकिन वे लौटकर परमेश्वर पर विश्वास भी करना चाहते हैं, उन्हें डर होता है कि वे परमेश्वर पर विश्वास से प्राप्त आशीष गँवा बैठेंगे। इसलिए वे उससे प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मेरी परीक्षा ले।” अब तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए बचा ही क्या है? तुम पहले ही अपना आधिकारिक ओहदा संभालने का मन बना चुके हो। तुम इस मामले में दृढ़ता से खड़े नहीं रह पाए, और पहले ही इस प्रलोभन में फँस चुके हो। क्या तुम्हें अब भी परीक्षा देने की जरूरत है? तुम परमेश्वर की परीक्षा देने लायक नहीं हो। तुम्हारा आध्यात्मिक कद पिद्दी भर है, क्या तुम परीक्षा दे भी पाओगे? कुछ दूसरे घिनौने लोग भी होते हैं जो कोई भी फायदा देखकर होड़ करने लगते हैं। पवित्र आत्मा ठीक उनके बगल में होता है, देखता रहता है कि वे क्या विचार व्यक्त करते हैं, उनका रवैया क्या है और वह उनकी परीक्षा लेने लगता है। कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “भले ही परमेश्वर मुझ पर मेहरबानी कर रहा हो, मुझे यह नहीं चाहिए। मेरे पास पहले से बहुत है, और परमेश्वर पहले ही मुझ पर मेहरबान है। मुझे न तो अच्छे भोजन की परवाह है, न अच्छे कपड़ों की, मुझे तो बस सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को हासिल कर सकने की चिंता है। मैंने जो सत्य हासिल किया है वह मुझे परमेश्वर ने मुफ्त में दिया है। मैं तो इन चीजों के लायक भी नहीं हूँ।” पवित्र आत्मा उनके दिलों की पड़ताल करके उन्हें और भी प्रबुद्ध करता है, उन्हें और समझने लायक बनाता है, उनमें और उत्साह भरता है, और उनके लिए सत्य को और भी समझने लायक बना देता है। लेकिन ऐसे घिनौने लोग किसी फायदे को देखकर सोचते हैं, “किसी और से पहले मैं इसे लपक लेता हूँ। अगर वे इसे किसी और को देते हैं तो मैं उन्हें डपटूँगा और मुसीबत खड़ी कर दूँगा। मैं उन्हें दिखा दूँगा कि मैं किस मिट्टी का बना हूँ, और फिर देखता हूँ कि वे अगली बार कैसे किसी और को देते हैं!” पवित्र आत्मा देखता है कि वे इस प्रकार के हैं और वह उनका खुलासा कर देता है। उनकी कुरूपता उजागर हो चुकी होती है, और ऐसे व्यक्तियों को दंड मिलना ही चाहिए। वे चाहे कितने ही साल से विश्वास करते आ रहे हों, यह उनके काम नहीं आएगा। उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा! कई बार पवित्र आत्मा लोगों पर तब दया दिखाता है जब उन्हें इसकी कोई उम्मीद नहीं होती है। अगर परमेश्वर तुम पर दया नहीं दिखाता है, तो तुम्हें दंड भी तब मिलेगा जब तुम्हें उम्मीद नहीं होगी। तो देख लो, सत्य का अनुसरण न करने वालों के लिए चीजें कितनी खतरनाक हैं।

जब लोगों में अपने साथ होने वाली चीजों के बारे में अंतर्दृष्टि की कमी होती है, और वे यह नहीं जानते कि क्या करना उचित है, तो उन्हें पहले क्या करना चाहिए? उन्हें पहले प्रार्थना करनी चाहिए; प्रार्थना पहले आती है। प्रार्थना करने से क्या प्रकट होता है? यही कि तुम धर्मनिष्ठ हो, तुम्हारे पास कुछ हद तक परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, तुम परमेश्वर को खोजना जानते हो, और यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर को पहले स्थान पर रखते हो। जब तुम्हारे दिल में परमेश्वर होता है, और वहाँ उसके लिए जगह होती है, और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो, तो फिर तुम धर्मनिष्ठ ईसाई हो। कई बुजुर्ग विश्वासी हैं, जो रोज एक ही समय और स्थान पर प्रार्थना में घुटने टेकते हैं। वे हर बार एक-दो घंटे घुटने टेके रहते हैं लेकिन उन्हें इस तरह घुटने टेके चाहे कितने ही साल हो चुके हों, इससे उनकी पाप की कई समस्याएँ दूर नहीं हुई हैं। इस बात को पहले एक तरफ रख देते हैं कि ऐसी धार्मिक प्रार्थना किसी काम की है या नहीं। कम से कम ये बुजुर्ग भाई-बहन थोड़े धर्मनिष्ठ तो हैं। इस मामले में वे युवाओं से काफी बेहतर हैं। अगर तुम परमेश्वर के सामने जीना और उसके कार्य का अनुभव करना चाहते हो, तो जब तुम्हें कुछ होता है तो पहली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है प्रार्थना। प्रार्थना करने का मतलब यह नहीं है कि रटे-रटाए वाक्यांश बिना सोचे-समझे दोहरा दो और बस छुट्टी पा लो; इससे तुम कहीं नहीं पहुँचोगे। तुम्हें दिल से प्रार्थना करना सीखना है। हो सकता है कि ऐसा आठ-दस बार करने के बाद भी तुम्हें कुछ फर्क न दिखाई दे, लेकिन निराश मत होओ : तुम्हें अभ्यास करते जाना है। जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहले प्रार्थना करो। पहले परमेश्वर को बताओ और उसे स्थिति सँभालने दो। परमेश्वर को मदद करने दो, तुम्हारा मार्गदर्शन करने दो, रास्ता दिखाने दो। यह साबित करेगा कि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, और तुम परमेश्वर को सर्वोपरि रखते हो। जब तुम्हें कुछ होता है या तुम किसी कठिनाई का सामना करते हो और निराश और गुस्सा हो जाते हो, तो यह तुम्हारे हृदय में परमेश्वर की अनुपस्थिति और उसका भय न मानने की निशानी है। अपने असल जीवन में तुम्हारे सामने जो भी कठिनाइयाँ आएँ, तुम्हें परमेश्वर के सामने आना चाहिए। पहला काम है प्रार्थना में घुटने टेकना। यही सबसे महत्वपूर्ण है। प्रार्थना दिखाती है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए स्थान है। जब तुम कठिनाई में होते हो, तो परमेश्वर की ओर देखना और सत्य की खोज में उससे प्रार्थना करना दर्शाता है कि तुम्हारे पास एक हद तक परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है; अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर न होता तो तुम ऐसा न करते। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, फिर भी उसने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया!” ऐसा नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पहले यह देखना चाहिए कि प्रार्थना करते समय तुम्हारा इरादा सही है या नहीं। अगर तुम ईमानदारी से सत्य की खोज करते हो, और अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो कोई हो सकता है कि किसी विशेष मामले में परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करे और इसे समझने दे। हर हाल में परमेश्वर तुम्हें समझा देगा। अगर परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध न करे, तो तुम अपने आप नहीं समझ पाओगे। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो मनुष्य के विचार से परे हैं, फिर चाहे तुम्हारे पास समझने की शक्ति हो या नहीं, और तुम कितने भी काबिल हो। जब तुम समझते भी हो, तो क्या यह तुम्हारे अपने दिमाग की उपज है? परमेश्वर के इरादों और पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में, अगर पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करता, तो तुम्हें ऐसा कोई नहीं मिलेगा जो इसका अर्थ जानता हो। जब परमेश्वर खुद तुम्हें बताता है कि इसका क्या अर्थ है, तभी तुम जानोगे। और इसलिए, जब तुम्हारे साथ कुछ होता है तो पहली चीज है प्रार्थना करना। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपने विचार, मत और दृष्टिकोण व्यक्त करने चाहिए, और समर्पण की मानसिकता के साथ उससे सत्य खोजना चाहिए; यही अभ्यास लोगों को करना चाहिए। बेमन से प्रार्थना करने से तुम्हें कोई नतीजा नहीं मिलेगा, और तुम्हें यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध नहीं किया है। मैंने पाया है कि परमेश्वर पर अपनी आस्था में कुछ लोग केवल धार्मिक अनुष्ठानों का पालन और धार्मिक कृत्य करते हैं। परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं होता; वे तो पवित्र आत्मा के कार्य को भी नकार देते हैं। वे न तो प्रार्थना करते हैं, न परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं। वे बस सभा में जाते रहते हैं, और कुछ नहीं। क्या यही परमेश्वर पर आस्था है? वे अपने ढंग से विश्वास करते जाते हैं, लेकिन परमेश्वर उनकी आस्था से गायब है। उनके दिल में परमेश्वर नहीं है, वे अब और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहते, वे अब परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए भी तैयार नहीं हैं। तो क्या वे गैर-विश्वासी नहीं बन गए हैं? विशेष रूप से कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अक्सर सामान्य मामले सँभालते हैं। वे जीवन प्रवेश पर कभी ध्यान नहीं देते, बल्कि सामान्य कार्यों को अपना मुख्य काम मानते हैं। इससे वे कार्य प्रबंधक बनकर रह गए हैं, और ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए अनिवार्य है। नतीजतन, बीस-तीस वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके पास बताने के लिए कोई जीवन-अनुभव नहीं होता, और उन्हें परमेश्वर का कोई सच्चा ज्ञान नहीं होता है। वे केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत सुना सकते हैं। क्या वे इस तरह नकली अगुआ नहीं बन गए हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर पर अपने विश्वास में, वे अपने उचित कर्तव्यों को नहीं निभाते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की अपनी समझ पर भरोसा करने से कुछ हल नहीं होगा। परीक्षा लेते, विपदा झेलते या बीमार पड़ते ही वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करने लगते हैं। उन्हें सच्चा आत्मज्ञान नहीं है, और उनके पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है। यह दिखाता है कि उन्होंने इतने साल से परमेश्वर पर विश्वास के दौरान सत्य का अनुसरण नहीं किया, वे केवल दुनियादारी में व्यस्त रहे, नतीजतन उन्होंने खुद को नष्ट कर दिया है। लोग चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हों, अगर उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि वे गिरें नहीं, बुराई न करें, हटा न दिए जाएँ, तो उन्हें कम से कम कुछ सत्यों की समझ हासिल करनी चाहिए। इतना तो उनमें होना ही चाहिए। कुछ लोग आधे-अधूरे दिल से उपदेश सुनते हैं, और परमेश्वर के वचनों पर विचार नहीं करते। उनके साथ चाहे कुछ भी हो जाए, वे सत्य की तलाश नहीं करते। वे शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझने मात्र से संतुष्ट रहते हैं, और मान लेते हैं कि उन्होंने सत्य हासिल कर लिया है। फिर जब परीक्षा ली जाती है तो उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता, उनके दिल शिकवे-शिकायतों से भरे होते हैं जिन्हें वे बताना तो चाहते हैं मगर बताने की हिम्मत नहीं करते। क्या ऐसे लोग निपट दयनीय नहीं होते हैं? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा अनमने रहते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते हैं। वे हमेशा खुद को सही ठहराते रहते हैं, लिहाजा भिन्न-भिन्न तरह से उनका भोंडापन सामने आ जाता है, उनका खुलासा करके हटा दिया जाता है, और वे अंत तक कभी भी खुद को नहीं जान पाते हैं। भला उनके कुछ धर्म-सिद्धांत समझ लेने भर में क्या तुक है? इसमें कोई तुक नहीं है। लोग चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते आए हों, केवल धर्म-सिद्धांत समझ पाने और इनका बखान कर सकने का कोई फायदा नहीं है। उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया, बल्कि भटक चुके हैं। इसलिए, जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है और तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके इरादे खोजते हो, तो समस्या हल करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है सत्य की समझ प्राप्त करना। यही सही मार्ग है, और तुम्हें इस तरह से निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।

1997

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