सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 6)

अंतिम दिनों में, सृष्टिकर्ता ने सभी के सामने ये वचन कहे और सभी तरह के लोगों का खुलासा किया। अब, सत्य, सच्चा मार्ग और सृष्टिकर्ता के कथन सभी तरह के लोगों के सामने हैं और सभी तरह के विचार और मत प्रकट कर दिए गए हैं : कुछ विचार और राय विकृत होते हैं, कुछ अपने आप को बड़ा बताने वाले और अभिमानी होते हैं, कुछ रुढ़िवादी होते हैं जिनमें पारंपरिक संस्कृति का पालन किया जाता है और सड़ चुके होते हैं और कई तो मूर्खतापूर्ण और नासमझी भरे होते हैं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो सत्य से घृणा करते हैं और उसके विरोधी होते हैं, जो पागल कुत्तों की तरह अपना गुस्सा निकालते हैं और सत्य और सकारात्मक बातों को बहुत हल्के में लेते हुए उसकी आलोचना करते हैं और लापरवाही से उसकी निंदा करते हैं। वे किसी भी सकारात्मक बात और सत्य की अभिव्यक्ति की अनियंत्रित ढंग से आलोचना और निंदा करना चाहते हैं और यह जानने की कोशिश नहीं करते कि यह सही है या गलत है, अथवा उसमें सत्य है या नहीं। ऐसे लोग पशु और शैतान होते हैं। जब मानव का सामना सत्य और सच्चे मार्ग से होता है, तो उनके अनेक अलग-अलग विचार होते हैं जो उनकी संकीर्ण सोच, हठधर्मिता, कट्टरता, घमंड की शैतानी कुरूपता का खुलासा करती और उसे उजागर करती है। कुछ सत्य की खोज करते हुए तुम्हें इन्हें पहचानना सीखना होगा, अपनी अंतर्दृष्टि व्यापक बनानी होगी। यदि ये चीजें उन लोगों में प्रकट होती हैं जो अंतिम दिनों के परमेश्वर के कार्यों पर विश्वास नहीं करते हैं और उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं, तो क्या तुम स्वयं ऐसा व्यवहार करोगे? कभी-कभी ऐसा व्यवहार दिखाने का तुम्हारा तरीका अलग हो सकता है, तुम्हारे कहने का तरीका भी अलग हो सकता है, लेकिन वास्तव में तुम वह स्वभाव प्रकट करते हो जो गैर-विश्वासी प्रकट करते हैं। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जब कुछ लोग प्रभु यीशु को स्वीकार कर यह मानते हैं कि इस पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति जो प्रभु यीशु को स्वीकार नहीं करता है, वह निकृष्ट है। उन्हें लगता है कि चूँकि उन्होंने प्रभु यीशु के क्रूस के उद्धार को स्वीकार कर लिया है, वे उत्कृष्ट बन गए हैं और सभी उनसे नीचे हैं। यह कैसा स्वभाव है? उनमें अंतर्दृष्टि नहीं है, वे बहुत संकीर्ण सोच के हैं, बहुत घमंडी और अपने आप को बड़ा मानने वाले लोग हैं। वे देखते हैं कि दूसरे लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं लेकिन वे यह नहीं देखते कि वे भी उसी प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं। क्या तुम लोग भी ऐसी चीजें करते हो? बिल्कुल तुम ऐसा करते हो, क्योंकि सभी मानवों के भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल एक जैसे होते हैं और केवल परमेश्वर के कार्य और उसके उद्धार के कारण, उसके कार्य की आवश्यकता से या उसके प्रारब्ध के कारण ही प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति के प्रकृति सार, तलाश और इच्छा में अंतर होता है। कुछ लोगों में हृदय या आत्मा नहीं होती। वे मुर्दा या पशु तुल्य होते हैं जो आस्था को नहीं समझते। ऐसे लोग पूरी मानव जाति के सबसे निकृष्ट लोग होते हैं जिन्हें मानव नहीं माना जा सकता। जो लोग परमेश्वर के नए कार्यों को स्वीकार करते हैं, वे सत्य को बेहतर समझते हैं, परमेश्वर के प्रति उनकी अंतर्दृष्टि और समझ अधिक होती है और उनके सिद्धांत और विचार उच्च स्तर के होते हैं। ठीक उन लोगों की तरह, जो ईसाई धर्म में विश्वास करते हैं, वे यहोवा में विश्वास रखने वाले नियम से बंधे लोगों की तुलना में परमेश्वर को बेहतर समझते हैं और उन्हें सृष्टिकर्ता की रचना और कार्यों की बेहतर जानकारी होती है, जो लोग तीसरे चरण के कार्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें ईसाई धर्म में विश्वास करने वालों की तुलना में परमेश्वर की बेहतर समझ होती है। चूँकि परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण पिछले चरण से ऊँचा होता है, इसलिए इसी के अनुरूप लोगों की समझ भी निश्चित रूप से बढ़ती जाएगी। लेकिन यदि तुम इसे दूसरी दृष्टि से देखो तो कार्य के इस चरण को स्वीकार करने के बाद तुम लोग जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, वह सार में वैसा ही होता है जैसा धर्म का पालन करने वाले प्रकट करते हैं। एकमात्र अंतर यह है कि तुमने कार्य के इस चरण को पहले ही स्वीकार कर लिया है, कई उपदेश सुने हैं, कई सत्य समझ लिए हैं, अपने प्रकृति सार को वास्तव में समझ लिया है और सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करते हुए सच में खुद को किसी न किसी अर्थ में परिवर्तित कर लिया है। तो, जब तुम धर्म का पालन करने वालों का व्यवहार देखते हो, तुम लोग सोचते हो कि वे तुमसे ज्यादा भ्रष्ट हैं। लेकिन वास्तव में, यदि तुम खुद को उनके साथ रखकर देखोगे तो पाओगे कि परमेश्वर और सत्य के प्रति लोगों का रवैया एक ही होता है, तुम सभी अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और वरीयताओं के अनुसार काम करते हो और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव समान ही होते हैं। यदि उन्होंने इस चरण का कार्य स्वीकार किया होता, इन उपदेशों को सुना होता और यह सत्य समझा होता तो तुममें और उनके बीच ज्यादा फर्क न होता। इस बात से तुम क्या समझते हो? तुम देख सकते हो कि सत्य लोगों में परिवर्तन लाता है, कि परमेश्वर द्वारा बोले गए ये वचन और उसके द्वारा दिए गए ये उपदेश पूरी मानव जाति के लिए उद्धार हैं और वे चीजें हैं जिनकी मानव जाति को जरूरत है। वे केवल किसी एक समूह, जाति, वर्ग या वर्ण के लोगों को खुश करने के लिए नहीं है। पूरी मानव जाति को शैतान ने भ्रष्ट बना दिया है और सबके पास शैतानी स्वभाव है। उनके भ्रष्ट सार में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है; अंतर है तो केवल उनके वर्ण व जातीय समूह में और उस परिवेश और सामाजिक व्यवस्था में जिसमें वे पले-बढ़े हैं, या उनकी पारंपरिक संस्कृति, पृष्ठभूमि और शिक्षा-दीक्षा में थोड़ा अंतर हो सकता है। लेकिन ये सभी बस बाहरी चीजें हैं—पूरी मानव जाति को एक ही शैतान ने भ्रष्ट बनाया है और उनका भ्रष्ट प्रकृति सार एक ही है। इसलिए, परमेश्वर द्वारा कहे गए ये वचन और किया गया यह कार्य किसी विशेष जातीय समूह या देश पर लक्षित नहीं होते बल्कि पूरी मानव जाति पर लक्षित होते हैं। अलग-अलग जातियों की संस्कृति या पृष्ठभूमि में अंतर होने पर भी, उनकी शिक्षा के स्तर में अंतर होने पर भी, परमेश्वर की दृष्टि में उनके भ्रष्ट स्वभाव एक ही होते हैं। इसलिए, भले ही उसके कार्य का एक चरण, दूसरी जगहों पर उसके कार्य के प्रसार के नमूने के रूप में पहले केवल किसी एक स्थान पर किया जाता है, लेकिन यह पूरी मानव जाति पर समान रूप से लागू होता है, और यह पूरी मानव जाति को बचा और उसका पोषण कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं, “यूरोप और अन्य देशों के लोग बड़े लाल अजगर की संतान नहीं हैं, इसलिए, क्या परमेश्वर का यह कहना अनुचित नहीं है कि पूरी मानव जाति बहुत भ्रष्ट है?” क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं, सही नहीं है। पूरी मानवजाति का प्रकृति सार एक है जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है।) सही कहा—“बड़े लाल अजगर की संतान” किसी एक जाति के लोगों के लिए एक नाम मात्र है, इसका यह अर्थ नहीं कि जिनका नाम ऐसा है या जिनका नाम ऐसा नहीं है, उनका सार अलग है। वास्तव में उनके सार अभी भी एक ही हैं। सभी मनुष्य उस दुष्ट के हाथों में हैं; उन सभी को शैतान ने भ्रष्ट बना दिया है और उनका भ्रष्ट प्रकृति सार बिल्कुल एक समान हैं। जब चीन के लोग परमेश्वर द्वारा बोले गए ये वचन सुनते हैं तो वे विद्रोह और विरोध करते हैं; उनकी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं; वे ऐसी चीजों का प्रदर्शन करते हैं। जब ये वचन किसी अन्य जाति के लोगों में दोहराए जाते हैं तो वे भी अपनी कल्पनाएँ, धारणाएँ, विद्रोह, घमंड, आत्मतुष्टता और यहाँ तक कि अपना विरोध भी जताते हैं—यह बिल्कुल एक समान है। पूरी मानव जाति, फिर चाहे उनकी जाति या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जो भी हो, भ्रष्ट लोगों के उस व्यवहार को ही प्रदर्शित करती है जिसे परमेश्वर उजागर करता है।

भ्रष्ट स्वभाव समस्त मानवजाति में समान रूप से विद्यमान हैं; वे सभी एक जैसे हैं, उनमें विभिन्नताओं की तुलना में समानताएँ अधिक हैं, और कोई स्पष्ट अंतर नहीं है। परमेश्वर जिन वचनों को बोलता है और जो सत्य व्यक्त करता है, वे केवल एक जाति, एक देश, या एक विशेष जन-समूह को ही नहीं बचाते हैं—परमेश्वर समस्त मानवजाति को बचाता है। यह तुम लोगों को क्या दिखाता है? क्या मानवजाति में कोई ऐसा है जिसने शैतान के भ्रष्टाचार का अनुभव न किया हो, और जो किसी अलग श्रेणी या वर्ग के लोगों से संबंधित हो? क्या कोई ऐसा है जो परमेश्वर की संप्रभुता से परे हो? (नहीं, ऐसा कोई नहीं है।) मेरे इन वचनों का क्या अर्थ है? परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति पर संप्रभुता रखता है और संपूर्ण मानवजाति को एक ही परमेश्वर ने बनाया था। वे चाहे किसी भी जातीय समूह से हों, किसी भी प्रकार के मानव हों, या कितने भी सक्षम हों, सभी परमेश्वर ने ही बनाए थे। मनुष्य की दृष्टि में, कुछ लोग दूसरे लोगों से अलग और श्रेष्ठ हैं, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, सभी एक जैसे हैं; परमेश्वर की दृष्टि में हर इंसान समान है। तुम इसे कहाँ देखते हो? वर्ण और भाषा के अंतर तो महज प्रकटन हैं, लेकिन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनके प्रकृति सार एक जैसे हैं; मामले का सत्य यही है। शैतानी भ्रष्ट स्वभाव वाले सभी इंसानों के लिए परमेश्वर के वचन परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, उसके वचन उनके भ्रष्ट स्वभावों पर लक्षित होते हैं और वे उनके समस्त भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर सकते हैं। इससे पता चलता है कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, वे मानवजाति का पोषण कर सकते हैं, उसे स्वच्छ कर और बचा सकते हैं; इसे नकारा नहीं जा सकता। अब, परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में व्यक्त किए गए वचन पहले से ही दुनिया के सभी देशों और जातियों में फैल चुके हैं—यह एक तथ्य है! और इस बारे में मनुष्य की प्रतिक्रिया क्या रही? (सभी प्रकार की प्रतिक्रियाएँ आई।) और ये सभी प्रकार की प्रतिक्रियाएँ मनुष्य के सार के बारे में क्या दर्शाती या प्रतिबिंबित करती हैं? वे दिखाती हैं कि मनुष्य का प्रकृति सार एक जैसा है, उनकी प्रतिक्रियाएँ वैसी ही हैं जैसी की फरीसियों और यहूदियों की उस समय थीं जब प्रभु यीशु कार्य करने आया था : उन्हें सत्य से विरक्ति है, वे परमेश्वर के बारे में कल्पनाओं और धारणाओं से भरे हुए हैं, और परमेश्वर में उनके विश्वास का अस्तित्व मायावी कल्पनाओं और धारणाओं के बीच है। मानवजाति समग्र रूप से परमेश्वर को नहीं जानती और उसका विरोध करती है। परमेश्वर के वचन सुनने पर, उनकी पहली प्रतिक्रिया, या उनके प्रकृति सार में जो चीजें हैं, जिन्हें वे स्वाभाविक रूप से प्रकट करते हैं, वे परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और शत्रुता हैं; यह उन सभी में एक समान है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों से सामना होने पर उनकी सभी नकारात्मक अभिव्यक्तियाँ और विचार, भ्रष्ट मानव जाति के प्रकृति सार से पैदा होते हैं, और वे इस मानवजाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ वैसी ही हैं जैसी प्रभु यीशु के आने पर परमेश्वर के बारे में मुख्य याजकों, शास्त्रियों और फरीसियों की थीं; वे नहीं बदले हैं। धर्म में विश्वास रखने वाले लोग 2,000 वर्षों से क्रूस ढो रहे हैं, लेकिन वे वैसे ही हैं, कतई नहीं बदले हैं। जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता है, तो ये चीजें वे स्वाभाविक रूप से प्रदर्शित करते हैं और ये चीजें उनमें से नैसर्गिक रूप से निकलती हैं, और यही परमेश्वर के प्रति उनका रवैया है। तो, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करता है, तो क्या उसका भ्रष्ट स्वभाव ठीक किया जा सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं किया जा सकता।) चाहे वह कितने भी लंबे समय से विश्वास करता रहा हो, यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान नहीं कर सकेगा। दो हजार साल पहले, फरीसियों ने प्रभु यीशु का प्रचंड प्रतिरोध किया और उसकी निंदा की, और उसे क्रूस पर चढ़ा दिया। अब, धार्मिक जगत में पादरी, एल्डर, फादर और बिशप अभी भी देहधारी परमेश्वर का उग्र प्रतिरोध और निंदा करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे फरीसियों ने किया था। यदि कोई उनके बीच जाकर गवाही देता है कि परमेश्वर देहधारी है, तो उसे पकड़ कर मौत के घाट उतारा जा सकता है, और यदि देहधारी परमेश्वर उपदेश देने के लिए प्रमुख धर्मों के आराधना स्थलों पर जाए, तो वे निश्चित रूप से उसे अब भी क्रूस पर चढ़ा देंगे या उसे सत्ता में बैठे लोगों के हवाले कर देंगे। वे उसके साथ बिल्कुल भी नरमाई से पेश नहीं आएँगे, क्योंकि भ्रष्ट मनुष्यों का प्रकृति सार पूरी तरह एक जैसा ही है। जब तुम ये शब्द सुनते हो तो क्या तुम्हारे अंदर कोई प्रतिक्रिया होती है? क्या तुम्हें लगता है कि जिन लोगों ने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं किया है, वे काफी भयावह हैं? (कुछ हद तक।) यह बहुत भयावह बात है! हाथ में बाइबल और क्रूस रखना, कानून पर भरोसा करना, फरीसियों के कपड़े या याजकों के परिधान पहनना, और मंदिरों में सार्वजनिक रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध और निंदा करना—क्या ये सब ऐसी चीजें नहीं हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने वाले सरेआम दिन के उजालों में करते हैं? परमेश्वर की निंदा और प्रतिरोध करने वाले लोग कहाँ हैं? उन्हें ढूँढ़ने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों में से जो कोई भी सत्य स्वीकार नहीं करता है और सत्य से विमुख है, वह परमेश्वर का विरोधी, मसीह-विरोधी और फरीसी है।

यदि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और उसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो वे कभी भी परमेश्वर को नहीं जान पाएँगे। जब लोग परमेश्वर को नहीं जानते, तो वे हमेशा उसके प्रति शत्रुतापूर्ण रहेंगे और उनके लिए परमेश्वर के अनुकूल होना संभव नहीं है। भले ही तुम्हारा हृदय व्यक्तिपरक रूप से परमेश्वर से प्रेम करने की कितनी भी इच्छा रखता हो और उसका प्रतिरोध नहीं करना चाहता हो, यह व्यर्थ है। केवल इच्छा रखना, या खुद को नियंत्रित करना व्यर्थ है, क्योंकि यह एक अनैच्छिक मामला है जो लोगों की प्रकृति तय करती है। इसलिए, तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए जिसके पास सत्य है, सत्य का अभ्यास करने का प्रयास करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग देना चाहिए, सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना चाहिए, और परमेश्वर के साथ अनुकूलता प्राप्त करनी चाहिए; यही सही रास्ता है। तुम्हें अपने हृदय में जानना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य का अनुसरण करना है, और तुम्हें कुछ व्यावहारिकताओं की समझ होनी चाहिए कि सत्य का अनुसरण करते समय तुम्हें किन पहलुओं से शुरुआत करनी चाहिए, साथ ही तुम्हें क्या करने की आवश्यकता है, अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करें, अपने आस-पास हर प्रकार के व्यक्तियों से कैसे पेश आएँ, हर प्रकार के मामलों और चीजों से कैसे पेश आएँ, उनसे पेश आते समय कैसा दृष्टिकोण अपनाएँ, और पेश आने का कौन-सा तरीका सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या सत्य सिद्धांत नहीं समझते हो, और केवल नियमों का पालन करने और उन विनियमों तथा तर्क, धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, चीजों को परिभाषित करने में सक्षम हो, तो अभ्यास करने का तुम्हारा तरीका गलत है, और यह बस यही साबित करता है कि इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते समय, तुमने केवल विनियमों का अक्षरशः पालन किया है, लेकिन सत्य नहीं समझा है और तुम्हारे पास वास्तविकता नहीं है। विनियमों का पालन करना और धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीना तुम्हारे लिए थकाऊ और कठिन है, लेकिन यह सब प्रयास व्यर्थ हैं और इसके लिए परमेश्वर तुम्हारी लेशमात्र भी स्वीकृति नहीं देगा। तुम थकने के ही लायक हो! यदि परमेश्वर के वचन पढ़ते या उपदेश और संगति सुनते समय तुममें आध्यात्मिक समझ और विशुद्ध बोध है, तो जितना अधिक तुम अनुभव करोगे, उतना अधिक तुम समझोगे और प्राप्त करोगे, और जो चीजें तुम समझोगे वे सब व्यावहारिक और सत्य के अनुरूप होंगी। तब, तुमने सत्य और जीवन प्राप्त कर लिया होगा। यदि कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद तुमने जो चीजें प्राप्त की हैं और समझी हैं, वे अभी भी धर्म-सिद्धांत और विनियमों की चीजें हैं, अभी भी धारणाओं और कल्पनाओं की चीजें हैं, और उन नियमों और विनियमों की चीजें हैं जो तुम्हें बांध कर रखते हैं, तो तुम्हारा काम तमाम हो चुका है। इससे साबित होता है कि तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, और तुम्हारे पास जीवन नहीं है। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, और चाहे तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने में सक्षम हो, तुम अभी भी एक बेतुके और भ्रमित व्यक्ति हो। हालाँकि इसे इस तरह से कहना अच्छा नहीं लगता, लेकिन यह एक तथ्य है। ऐसे बहुत लोग हैं जो कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, लेकिन यह नहीं समझते कि परमेश्वर के घर में सत्य और मसीह की ही सत्ता है, और पवित्र आत्मा सभी पर संप्रभुता रखता है। ऐसे लोगों के पास कुछ भी समझ नहीं होती है, और वे अंधों के समान होते हैं। कुछ लोग देखते हैं कि परमेश्वर लोगों का न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है, लोगों के एक समूह को पूर्ण बनाता है, लेकिन कई अन्य लोगों को हटा देता है, और इसलिए वे परमेश्वर के प्रेम और यहाँ तक कि उसकी धार्मिकता पर भी संदेह करते हैं। क्या ऐसे लोगों में समझने की क्षमता है? क्या उनमें कोई समझ है? यह कहना उचित है कि वे बेतुके लोग हैं, उनमें समझने की बिल्कुल भी क्षमता नहीं है। बेतुके लोग चीजों को हमेशा बेहूदे ढंग से देखते हैं; केवल वे ही लोग चीजों को सटीक और तथ्यों के अनुसार देख सकते हैं, जो सत्य समझते हैं।

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