सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 2)
परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को कुछ महत्वपूर्ण चीजों की समझ अवश्य होनी चाहिए। कम से कम, उन्हें अपने दिल में यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है; परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को कौन-से सत्यों को समझना चाहिए; किसी को परमेश्वर के समक्ष समर्पण का अभ्यास कैसे करना चाहिए; साथ ही, परमेश्वर के समक्ष समर्पण में व्यक्ति को किन सत्यों को और परमेश्वर के किन वचनों को समझना चाहिए और उसमें कौन-सी वास्तविकताएँ होनी चाहिए, जिससे परमेश्वर को संतुष्ट किया जा सके। अगर तुम में ऐसी आस्था और ऐसा संकल्प है, तो भले ही कभी-कभी तुम्हारी कुछ धारणाएँ हों या कुछ करने के इरादे हों, तुम्हारे लिए उन्हें त्याग पाना आसान रहेगा। जिन लोगों में ऐसी आस्था नहीं है, वे हमेशा समर्पण के मामले में चुनाव करते रहते हैं। कभी-कभी वे मीन-मेख निकालने लगेंगे, विवादास्पद बन जाएँगे, मन में नाराजगी रखेंगे, खीजकर शिकायत करेंगे...। समय-समय पर उनमें हर तरह का विद्रोही व्यवहार दिखाई देगा! यह केवल एकाध बार होने वाली पारिस्थितिक घटनाएँ नहीं होती हैं, न ही यह कोई क्षणिक विचार होता है, बल्कि उनमें विद्रोही वचन बोलने और विद्रोही कार्य करने की क्षमता होती है। यह खास तौर से अत्यधिक विद्रोही स्वभाव को दर्शाता है। लोग भ्रष्ट स्वभाव वाले होते हैं और भले ही उन्होंने परमेश्वर के समक्ष समर्पण का संकल्प लिया हो, उनका समर्पण सीमित होता है; सापेक्ष होता है और यह आकस्मिक, क्षणिक और परिस्थितिगत भी होता है। यह संपूर्ण नहीं होता। भ्रष्ट स्वभाव के साथ उनका विद्रोह विशेष रूप से अधिक उग्र होता है। वे परमेश्वर को स्वीकारते हैं, लेकिन उसके समक्ष समर्पण नहीं कर सकते, और वे उसके वचनों को सुनने के इच्छुक तो होते हैं, लेकिन उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकते। वे जानते हैं कि परमेश्वर नेक है और वे उससे प्रेम करना चाहते हैं, लेकिन नहीं कर सकते। वे परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह नहीं सुन सकते, उसे हर चीज का आयोजन करने नहीं दे सकते, और अभी भी अपनी पसंद-नापसंद रखते हैं, अपने इरादे और मंशाएँ रखते हैं, और उनकी अपनी अलग योजनाएँ, विचार और काम करने के अपने तरीके होते हैं। वे अपने तरीके, अपनी पद्धतियों से काम करना चाहते हैं, अर्थात् वे किसी भी तरह से परमेश्वर के समक्ष समर्पण नहीं कर सकते। वे केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर सकते हैं और परमेश्वर के प्रति विद्रोह करते हैं। लोग इतने विद्रोही होते हैं! मनुष्य की प्रकृति न केवल भ्रष्ट स्वभाव वाली यानी सतही-आत्मतुष्टि, खुदगर्जी, अभिमान वाली या कभी-कभी परमेश्वर के प्रति झूठ और छल करने वाली है, बल्कि मनुष्य का सार बिल्कुल शैतान के सार जैसा हो चुका है। स्वर्गदूत ने परमेश्वर को कैसे धोखा दिया था? और आजकल के लोग क्या कर रहे हैं? स्पष्ट कहें तो तुम इसे स्वीकार करो या न करो, आजकल लोग न केवल शैतान की तरह परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं, बल्कि मन से, अपनी सोच और विचारधारा से परमेश्वर के सीधे विरोधी हुए जा रहे हैं। यह शैतान का किया-धरा है कि वह मानवजाति को भ्रष्ट करके दानव बनाए जा रहा है; मनुष्य सही अर्थों में शैतान का प्यादा बन चुका है। शायद तुम लोग कहोगे : “हम परमेश्वर के विरोधी नहीं हैं। परमेश्वर जो भी कहता है, उसे हम सुनते हैं।” यह सतही बात है; ऐसा लगता है कि परमेश्वर जो भी कहता है, उसे तुम सिर्फ सुनते हो। असल में, जब मैं औपचारिक रूप से सहभागिता करता और बोलता हूँ, तब अधिकांश लोगों की कोई धारणा नहीं होती; वे अच्छा व्यवहार करते और आज्ञाकारी होते हैं, लेकिन जब मैं सामान्य मानवता में बोलता और कार्य करता हूँ या सामान्य मानवता से जीवन जीता और कार्य करता हूँ, तो उनमें धारणाएँ उत्पन्न होती हैं। वे अपने दिलों में मेरे लिए जगह बनाना चाहते हैं, इसके बावजूद वे मेरे अनुरूप नहीं ढल सकते, और सत्य की चाहे जितनी सहभागिता हो, पर वे अपनी धारणाओं को नहीं छोड़ सकते। यह दिखाता है कि मनुष्य परमेश्वर के सामने केवल तुलनात्मक रूप से समर्पण करता है, पूरी तरह से नहीं। तुम जानते हो कि वह परमेश्वर है और यह भी जानते हो कि देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता होनी ही चाहिए, तो फिर तुम परमेश्वर के समक्ष पूरी तरह समर्पण क्यों नहीं कर सकते? परमेश्वर ने, मनुष्य के पुत्र, मसीह के रूप में देहधारण किया; उसमें दिव्यता और सामान्य मानवता, दोनों है। बाहर से उसमें सामान्य मानवता है, लेकिन इस सामान्य मानवता के भीतर उसकी दिव्यता बनी रहती है और काम करती है। अब, परमेश्वर ने मसीह के रूप में देहधारण कर लिया है, जिसमें दिव्यता और मानवता है। फिर भी कुछ लोग उसके कुछ दिव्य वचनों और कार्यों के प्रति ही समर्पण कर पाते हैं, केवल उसके दिव्य वचनों और गंभीर भाषा को ही परमेश्वर के वचन मान पाते हैं, जबकि उसके द्वारा सामान्य मानवता में बोले गए वचनों और किए गए कार्यों की अवहेलना कर देते हैं। कुछ लोगों के दिलों में अपने कुछ विचार और धारणाएँ भी होती हैं और वे मानते हैं कि केवल उसकी दिव्य भाषा ही परमेश्वर के वचन हैं और उसकी मानवीय भाषा परमेश्वर के वचन नहीं हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्यों को स्वीकार कर सकते हैं? क्या परमेश्वर उन्हें शुद्ध और पूर्ण बना सकता है? वे ऐसा नहीं बन सकते, क्योंकि ऐसे लोग बेतुकी सोच रखते हैं और सत्य को कभी नहीं खोज सकते। संक्षेप में कहें तो मनुष्य के भीतर की दुनिया बहुत ही जटिल है और ये विद्रोही मामले खास तौर से पेचीदे होते हैं—इस पर विस्तार से बात करने की जरूरत नहीं है। लोग परमेश्वर की दिव्यता के प्रति समर्पण कर सकते हैं, लेकिन उसके सामान्य मानवता में किए गए कुछ कार्यों और बोले गए वचनों के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, जो दिखाता है कि उन्होंने सही अर्थों में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है। परमेश्वर के प्रति लोगों का समर्पण हमेशा सशर्त रहता है; वे वही सुनते हैं, जिसे वे सही और उचित मानते हैं, और वे जिन बातों को गलत और अनुचित मानते हैं, उन्हें नहीं सुनना चाहते। वे जिन बातों को नहीं सुनना चाहते या वे जिन कार्यों को नहीं कर सकते, उनके प्रति समर्पण नहीं करते। क्या इसे सच्चा समर्पण कहा जा सकता है? बिल्कुल नहीं। यह दिखाता है कि लोगों के स्वभाव ठीक नहीं हैं, उनका स्वभाव खास तौर से नीचतापूर्ण और खराब है—यह बहुत महत्वपूर्ण बात है! यानी, जब लोग परमेश्वर के समक्ष कुछ हद तक समर्पण करते भी हैं, तो भी यह हमेशा चुनिंदा विषयों पर और सशर्त समर्पण होता है और कभी भी परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं होता। अगर यह कहा जाता है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर को सुनकर उसके प्रति समर्पण करता है, तो यह केवल तुलनात्मक कथन होता है, क्योंकि तुमने उन लोगों के हितों को नहीं छुआ है या सच में उनकी काट-छाँट नहीं की है, तुमने सीधे तौर पर और बेबाकी से उनकी काट-छाँट नहीं की है। जब तुम सच में उनकी काट-छाँट करते हो, तो वे तुम्हारे विरोध में आ जाएँगे और पूरे दिन नाराज रहेंगे। अगर तुम उन्हें कुछ पूछोगे तो वे जवाब नहीं देंगे और अगर तुम उन्हें कुछ करने के लिए कहोगे तो वे उसे नहीं करना चाहेंगे। अगर तुम उन्हें कुछ ऐसा करने के लिए कहोगे जो वे करना नहीं चाहते तो वे चीजों को तोड़ना-फोड़ना शुरू कर देंगे और तुम्हारे सामने अपनी जिद नहीं छोड़ेंगे। किसी व्यक्ति का स्वभाव कितना खराब हो सकता है! यह जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, तुम उससे इस तरह का व्यवहार क्यों करते हो? यह तब के फरीसियों और पौलुस से अलग नहीं है। क्या पौलुस जानता था कि यीशु परमेश्वर है? उसने यीशु के शिष्यों को क्यों सताया? उसने उनमें से कई को गिरफ्तार क्यों किया? अंत में, यीशु ने देखा कि पौलुस ने अपने जुल्मों की इंतहा कर दी है और तब दमिश्क की सड़क पर उसे गिरा दिया। उसके चारों तरफ एक प्रकाश फैल गया और पौलुस जमीन पर गिर गया। गिरने के बाद उसने यीशु से पूछा : “हे प्रभु, तू कौन है?” यीशु ने उससे कहा : “मैं यीशु हूँ, जिसे तू सताता है” (प्रेरितों 9:5)। तब से पौलुस अधिक अनुशासित हो गया। अगर यीशु ने “प्रकाश” न फैलाया होता और उसे नीचे न गिराया होता तो पौलुस यीशु को स्वीकार तक नहीं करता, उसके लिए प्रचार करना तो दूर की बात थी। इससे क्या साबित होता है? इससे साबित होता है कि लोगों की प्रकृति जितनी ज्यादा से ज्यादा खराब हो सकती है, उतनी खराब है।
लोग अक्सर कहते हैं : “हम सभी मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव है; हममें से कोई भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता,” और “मनुष्य बहुत आत्मतुष्ट और खुदगर्ज होते हैं। वे हमेशा यही मानते हैं कि वे अच्छे हैं और दूसरों से बेहतर हैं!” वास्तव में, यह बिल्कुल सतही समझ है; यह भ्रष्ट स्वभाव का केवल एक छोटा-सा पहलू है। तुम परमेश्वर के विरुद्ध अपनी प्रकृति में शामिल और उसके लिए प्रतिरोधी विचारों और इरादों की चर्चा क्यों नहीं करते? परमेश्वर चाहता है कि तुम कोई काम इस तरीके से करो और तुम्हें किसी दूसरे तरीके से करना होता है। परमेश्वर किसी तरीके से काम करता है और तुम चाहते हो कि वह किसी दूसरे तरीके से काम करे। क्या यह परमेश्वर का विरोध नहीं है? हर व्यक्ति का स्वभाव इसी तरह का है; कोई इससे बच नहीं सकता। शायद कुछ लोग कहेंगे : “यह मुझ पर लागू नहीं होता, मुझे मालूम नहीं!” ऐसा इसलिए, क्योंकि तुम परमेश्वर के संपर्क में नहीं आए हो। जैसे ही तुम उसके संपर्क में आओगे और एक सप्ताह बाद धीरे-धीरे उसे जानने लगोगे, इस बात की गारंटी है कि तुममें बदलाव आएगा और तुम अपनी सच्चाई सामने लाओगे। यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बात नहीं है और न तुम्हें कम आँका जा रहा है। आजकल न केवल लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता है; बल्कि उनकी प्रकृति भी भ्रष्ट हो चुकी है। उनकी सामान्य मानवता पहले ही इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि यह पूरी तरह खत्म हो चुकी है; यानी कि अब लोगों में सामान्य मानवता बची ही नहीं है। देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता है, लेकिन सभी मनुष्य भ्रष्ट स्वभाव वाले हैं, और सामान्य मानवता के मामले में ज्यादा कुछ बचा नहीं है, जिसके कारण उनके लिए परमेश्वर से तालमेल बना पाना असंभव हो गया है। उन्हें निश्चित रूप से कई मामलों में परमेश्वर से मतभेद और विवाद रहेगा और यहाँ तक कि वे उसके खिलाफ खड़े हो जाएँगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं है। कोई लोगों से यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि “चूंकि तुम मानते हो कि वह परमेश्वर है, तो तुम्हें उसके सामने समर्पण कर देना चाहिए, भले ही वह कुछ भी कहे,” यह अपेक्षा तो बिल्कुल नहीं कर सकता कि वह हर मामले में परमेश्वर के आगे झुक जाए। यह झुक जाने या समर्पण करने का मामला नहीं है; लोग सृजित प्राणी हैं, और आखिरकार परमेश्वर परमेश्वर है और मनुष्य मनुष्य है—उनके बीच एक सीमा तो होनी ही चाहिए। व्यवस्था के युग में अब्राहम के नौकर ने यहोवा परमेश्वर से कैसे प्रार्थना की? “हे मेरे स्वामी अब्राहम के परमेश्वर यहोवा” (उत्पत्ति 24:12)। उसने दोनों के स्थानों का बहुत स्पष्ट अंतर बताया, जबकि आजकल के लोग मानते हैं : “परमेश्वर हमसे बहुत अलग नहीं है। उसमें भी सामान्य मानवता है और उसकी अपनी आवश्यकताएँ हैं, सभी तरह की भावनाएँ हैं, जीवन है और सामान्य मानवीय गतिविधियाँ हैं। भले ही वह दिव्य कर्म करता है, लेकिन उसमें सामान्य मानवता तो होनी ही है!” जैसे ही लोगों को अपने भीतर “सामान्य मानवता” का ऐसा थोड़ा-बहुत अनुमान होगा, वे परमेश्वर के कार्यों, उसके वचनों और स्वभाव का मनुष्य की सामान्य मानवता के अनुरूप निर्धारण करने लगेंगे और उसके दिव्य सार से इनकार करने लगेंगे। यह एक बहुत बड़ी गलती है; इससे परमेश्वर को जानना असंभव हो जाता है, है न? तुम लोग परमेश्वर के संपर्क में नहीं आए हो; तुम लोगों में से कौन यह कहने की हिम्मत रखता है, “अगर मैं एक वर्ष तक परमेश्वर के संपर्क में रहूँ तो मैं गारंटी देता हूँ कि मैं विद्रोही बिल्कुल नहीं होऊँगा”? कोई भी इतना आश्वस्त नहीं हो सकता। अधिकांश लोग परमेश्वर में 10 या 20 वर्षों से अधिक समय तक से विश्वास करते आए हैं, मगर कोई भी उसके प्रति सच्चा समर्पण नहीं रख पाता। ये बात यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि शैतान ने लोगों को बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है और शैतानी स्वभाव ने पहले ही लोगों के दिलों में घर कर लिया है; कुछ ऐसी भ्रष्ट चीजें हैं जिन्हें तुम लोग खुद खोज भी नहीं सकते। मैंने कई बातें कहीं, बहुत-से सत्य व्यक्त किए, फिर भी शायद ही कोई व्यक्ति सचमुच सत्य को समझ सकता है। अब लोग जिद्दी और सिरफिरे हो गए हैं; वे बेहद सुन्न और सुस्त हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि वे बस थोड़े से अनजान हैं—उनका विद्रोही स्वभाव पहले ही आकार ले चुका है, लेकिन तुम लोगों ने अभी भी स्पष्ट रूप से यह देखा नहीं है।
कुछ लोग मसीह से एक या दो दिन साक्षात्कार होने के बाद ही पाते हैं कि वे तो उसे जानते ही नहीं और कुछ हद तक सीमित हो जाते हैं : “यह परमेश्वर है!” उनके दिलों में यह विचार आता है, लेकिन उससे संपर्क होने के 10 दिन या दो सप्ताह बाद वे धीरे-धीरे उसे ज्यादा जानने लगते हैं और उसके अधिक नजदीक आ जाते हैं, वे खुले दिल से सोचते हैं और अब अपनी और उसकी मनोदशा के बीच अंतर नहीं करते। ऐसा लगता है मानो दोनों में बिल्कुल समानता हो, कोई पदानुक्रम नहीं हो; वे सोचते हैं कि परमेश्वर को अपने जीवन और आनंद को उनसे बाँटना चाहिए। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि ये लोग ऐसा कैसे हो सकते हैं? अगर मुझे हमेशा उनकी काट-छाँट करना और उन्हें उपदेश देना होता तो वे जरूर शिष्ट और समर्पित होते। कभी-कभी जब मैं किसी से बराबरी में बात करता हूँ, वे सोचते हैं : “देखो, परमेश्वर मेरे लिए कितना अच्छा है!” तुम्हारे लिए अच्छा होना यह सिद्ध नहीं करता कि तुम्हारा स्वभाव विद्रोही नहीं है या तुम्हारा प्रकृति सार अच्छा है। क्या ऐसा नहीं है? कुछ लोगों के साथ जब मैं थोड़े बेहतर तरीके से पेश आता हूँ और उन्हें देखकर थोड़ा मुस्कुरा देता हूँ, तो वे ब्रह्मांड में अपनी जगह ही भूल जाते हैं, भूल जाते हैं कि वे कहाँ से आए हैं, उनकी पहचान और सार क्या है—वे यह सब भूल जाते हैं। लगता है लोगों की प्रकृति सच में खराब है; उनके पास कोई समझ नहीं है! अगर कुछ लोग मानते हैं कि वे बहुत अच्छे हैं तो आगे बढ़ें और कुछ समय तक परमेश्वर के संपर्क में रहकर देखें कि कैसे उनके भीतर का सारा विद्रोह और प्रतिरोध उजागर हो जाता है। कुछ समय तक परमेश्वर के साथ जुड़े रहो—मैं तुम्हें याद नहीं दिलाऊँगा, न डाँट-फटकार या काट-छाँट करूँगा, और कोई व्यक्ति तुमसे सहभागिता भी नहीं करेगा; तुम खुद ही अनुभव करोगे और हम देखेंगे कि तुम्हें किस हद तक अनुभव होता है। सत्य को प्राप्त किए बिना, तुम निश्चित रूप से बुरी तरह विफल रहोगे, जिसका परिणाम सोचा भी नहीं जा सकता। लोगों के विद्रोही स्वभाव बहुत गंभीर हैं; उनके दिलों में दूसरों के लिए जगह नहीं बन पाती! तुम्हारा विद्रोही स्वभाव, शैतानी प्रकृति और अहंकारी दिल दूसरे लोगों को जगह नहीं दे सकता। शायद कुछ लोगों में, कुछ समय तक मेरे संपर्क में रहने के बाद कुछ गलत सोच पनपने लगे; अगर इनका समाधान नहीं हुआ, और वे धारणाओं या आलोचनाओं का रूप ले लें, तो वे खुद को खतरे में पाएँगे। कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम बिल्कुल साधारण और सामान्य हो। मैं प्रभु यीशु में अपने विश्वास के लिहाज से ऐसा नहीं हूँ।” यीशु में तुम्हारे विश्वास के मामले में भी ऐसा ही है। अगर तुम लोग यीशु के युग में होते तो तुम फरीसियों से बेहतर नहीं होते, तुम्हारे मन में धारणाएँ भरी होतीं। यह मत सोचो कि तुम यहूदा से बेहतर होते। उसने प्रभु को धोखा दिया और उसका धन अपने उपयोग के लिए चुरा लिया; तुम शायद उसे धोखा नहीं दे पाते या कलीसिया का धन बेपरवाही से खर्च नहीं कर पाते, लेकिन ऐसे व्यक्ति नहीं होते, जो प्रभु के प्रति समर्पित हो, और तुम निश्चित रूप से धारणाओं, विद्रोह और प्रतिरोध से भरे होते। प्रभु यीशु के वचन और कार्य परमेश्वर का प्रकटन और कार्य हैं। यहूदा ने प्रभु का विरोध क्यों किया? उसका स्वभाव बहुत खराब था; वह मसीह को अपने दिल में जगह नहीं दे सका और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार पर अड़ा रहा। क्या तब पतरस ने भी बहुत यातनाएँ नहीं सही? अंत में, चूंकि उस समय दूसरों की तुलना में उसमें थोड़ी बेहतर मानवता थी और चूंकि वह परमेश्वर से प्रेम बनाए रख सका था, उसे आखिरकार पूर्ण बनाया गया। उस समय, उसके मन में भी यीशु के बारे में कुछ धारणाएँ और राय थी, लेकिन चूंकि वह परमेश्वर से प्रेम बनाए रख सका था, अंततः उसने प्रभु यीशु के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त किया। इसलिए शेखी मत बघारो; इस बात की गारंटी मत दो कि जिस चीज का तुम्हें अनुभव ही नहीं है, उसमें तुम सफल हो सकते हो और पूरे अंक प्राप्त कर सकते हो। यह सच्चाई या यथार्थवादी बात नहीं है। पहले तुम्हें इसका अनुभव प्राप्त करना होगा; सिर्फ तभी तुम्हारे द्वारा दिया गया ज्ञान और अंतर्दृष्टि व्यावहारिक होगी। यह मत कहो : “परमेश्वर, मेरे घर आओ, मैं वादा करता हूँ कि मैं दूसरों की तरह तुम्हें नाराज नहीं करूँगा। मैं वादा करता हूँ कि मैं दूसरों की तरह अमानवीय व्यवहार नहीं करूँगा।” यह निश्चित नहीं है, क्योंकि लोगों के भीतर की सामान्य मानवता पहले ही नष्ट हो चुकी है; उनकी सामान्य मानवता खत्म हो चुकी है, और उसी तरह उनकी अंतरात्मा और विवेक भी—जो सामान्य मानवता की सामान्य समझ है, सरलता और ईमानदारी से बोलना और ध्यान देकर सुन पाना, समर्पण कर पाना, ये सभी सकारात्मक चीजें लोगों के भीतर से पहले ही खत्म हो चुकी हैं। इसलिए जीवन जीने और अपने लक्ष्यों के संबंध में लोगों के सिद्धांत पहले ही बदल चुके हैं; वे सभी शैतानी फलसफे मानने लगे हैं और उन पर शैतानी प्रकृति हावी है। उनकी बातें धूर्तता और कपट से भरी हुई हैं, वे हवा का रुख देखकर बढ़ते हैं और मीठी-मीठी बातें करने में माहिर हैं—वे मानते हैं कि इस तरह जीना बहुत बढ़िया है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि मनुष्य बहुत अधिक भ्रष्ट हैं? इतने भ्रष्ट होने पर क्या लोगों के पास अभी भी कोई सामान्य मानवता है? तुम मानते हो कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है, जिसे तुम केवल थोड़े अहंकारी, आत्मतुष्ट और घमंडी होना, बातचीत में कुछ हद तक कपटपूर्ण होना या अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कुछ हद तक अनमना होना मानते हो—बस, और कुछ नहीं। लेकिन यह ज्ञान बहुत उथला है; बिल्कुल सतही है। मुख्य बात यह है कि मनुष्य प्रकृति से ही बुरा है, लोग बुराई को सम्मान देते हैं और परमेश्वर को ठुकराकर उसका प्रतिरोध करते हैं, और उनकी सामान्य मानवता पृथ्वी पर से पहले ही लुप्त हो चुकी है। क्या ऐसा ही नहीं है? तो लोगों को सृजित प्राणी होने के मानक पर खरा उतरने के लिए क्या करना चाहिए? मुख्य बात यह है कि परमेश्वर के वचनों से अभ्यास का रास्ता खोजा जाए, उन्हें अभ्यास में लाने का उपयुक्त तरीका खोजा जाए। तुम सभी लोग जानते हो कि मानवजाति में कोई भी असाधारण रूप से बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं है, तो अब यह क्यों कहा जाता है कि कुछ लोगों में मानवता है और दूसरे लोगों में नहीं है? क्या जिन लोगों में मानवता है, वे सचमुच इन सत्यों को अभ्यास में ला सकते हैं? वे भी इन्हें अभ्यास में नहीं ला सकते; केवल तुलनात्मक रूप से यह कहा जा सकता है कि वे लोग थोड़े अधिक दयालु और उदार दिल वाले हैं और अपने काम के प्रति थोड़े ज्यादा जिम्मेदार हैं—लेकिन यह सब तुलनात्मक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं। अगर तुम किसी का मूल्यांकन करते हो और कहते हो कि यह व्यक्ति पूरी तरह अच्छा है और इसमें कोई दोष या विद्रोहशीलता नहीं है, यह सभी बातों का पूरी तरह पालन करता है और समर्पित है और अपने कर्तव्यों के निर्वहन में बिल्कुल भी अनमना नहीं है तो क्या यह अतिशयोक्ति नहीं होगी? क्या यह तथ्यों के अनुरूप है? क्या सचमुच ऐसा कोई व्यक्ति है? अगर तुम लोगों की चीजों की समझ ऐसी है तो यह विकृत समझ है। लेकिन अगर तुम लोग यह मानते हो कि, “हम मनुष्यों का कुछ नहीं हो सकता। हममें से कोई भी अच्छा नहीं है, तो परमेश्वर में विश्वास रखने का फायदा क्या है? मैं बस विश्वास करना बंद कर दूँगा और अपनी मृत्यु का इंतजार करूँगा!” यह भी बेवकूफी है। तुम लोग हमेशा चरम पर पहुँच जाते हो, मानो तुम सीधी-सरल बात ही नहीं समझते; तुम हमेशा या तो बिल्कुल इस तरफ झुकते हो या उस तरफ। अगर मैं अधिक सभ्य और शिष्ट शब्दों में बताऊँ, तो तुम लोग खुद को नहीं जान सकोगे, लेकिन अगर मैं बहुत रुखाई और सख्ती से कहूँ तो तुम लोगों के मुँह लटक जाएँगे, तुम निराश हो जाओगे और खुद ही प्रयास करना छोड़ दोगे। जब कुछ लोग परमेश्वर के न्याय और निंदा के वचन सुनते हैं, वे तुरंत पंगु हो जाते हैं और मानते हैं कि उनका काम खत्म हो गया, उनके बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रही। ये लोग वही हैं, जिन्हें बचाना सबसे मुश्किल होता है, क्योंकि वे सीधी-सरल बातें नहीं समझते! अब, जब परमेश्वर लोगों से बात करता और उन्हें उजागर करता है, तो यह मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति के मूल कारणों को समझाने और यह समझाने के लिए होता है कि मनुष्य परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह क्यों करता है। इन चीजों को उजागर करना लोगों के लिए फायदेमंद है। अगर इन चीजों को उजागर न किया जाए, तो तुम अंत तक खुद को कभी जाने बिना ही विश्वास करते रहोगे, हमेशा यही कहोगे कि स्वर्गदूत में भी यही सब भरा है या कहोगे कि यह व्यक्ति अहंकारी है और वह व्यक्ति विद्रोही है। अपने बारे में क्या ख्याल है? ऐसे लोग भी हैं जो हमेशा कहते हैं, “हम वाकई परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं,” लेकिन फिर भी वे अपनी विद्रोहशीलता का मूल कारण नहीं जानते और उन दशाओं को या उनके सार को नहीं समझ पाते। इसका अर्थ यह है कि वे बदल नहीं सकते और उनको बचाया नहीं जा सकता। क्या तुम लोग इन वचनों को समझ सकते हो? (हाँ।)
मैंने अभी-अभी जो सहभागिता की उसके दो प्राथमिक पहलू हैं। एक पहलू यह है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के मामले में व्यक्ति को सच्चा समर्पण प्राप्त करना चाहिए, सृजित प्राणी होने के मानक पर पूरी तरह खरा उतरना चाहिए। दूसरा है लोगों के भीतर की विद्रोहशीलता को उजागर करना और उनकी प्रकृति को उजागर करना, जिससे वे खुद को जान सकें। अगर उन्हें इस तरह उजागर नहीं किया जाता है और उन्हें अपने बारे में जानकारी नहीं मिलती है तो सभी कहेंगे कि वे अच्छे हैं और दूसरों से बेहतर हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “मैं भी बहुत ज्यादा भ्रष्ट हूँ,” लेकिन जब वे कुछ समय तक दूसरों से बात करते हैं, तो मानते हैं कि वे अभी भी दूसरों से बेहतर हैं, यह सोचकर कि : “मैं कोई अच्छा नहीं हूँ; मैं देखता हूँ कि तुम भी बेहतर नहीं हो और वास्तव में मुझसे भी बदतर हो!” यह मत सोचो कि तुम दूसरों से बेहतर हो। तुम सिर्फ कल्पना के आधार पर दूसरों से बेहतर नहीं हो जाते हो; लोगों की विद्रोही प्रकृति बिल्कुल एक जैसी है। क्या यह बात स्पष्ट समझ में आई? अब जबकि हमने इस बारे में सहभागिता पूरी कर ली है, तो तुम सब क्या सोचते हो? तुम लोग क्या यह सोच रहे हो : “मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ, और मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित था। आज, जब परमेश्वर ने सहभागिता पूरी कर ली है, तो मुझे अंततः महसूस हुआ कि मेरा परमेश्वर के प्रति समर्पण सच्चा नहीं है, और मैं अभी भी उसे परमेश्वर नहीं मानता हूँ। मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण भी नहीं कर पा रहा—मेरे पास कोई समझ नहीं है और मेरी आस्था बहुत डांवाडोल है!” अगर तुमको वाकई इस तरह का ज्ञान है, तो आशा है कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर आ सकते हो और उसके प्रति समर्पण करने वालों में से एक बन सकते हो; केवल तभी तुम उद्धार पा सकते हो।
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