भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 57)

तुम लोगों को अब स्वयं द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव की थोड़ी-बहुत पहचान हो गई है। जब तुम्हें यह स्पष्टता से समझ आ जाता है कि तुम अब भी नियमित रूप से कौन-सी भ्रष्ट चीजें प्रकट कर सकते हो और संभावित रूप से ऐसी कौन-सी चीजें कर सकते हो जो सत्य के विपरीत हैं, तब अपने भ्रष्ट स्वभाव को साफ करना आसान हो जाएगा। क्यों, कई मामलों में, लोग खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते? क्योंकि हर समय, और हर तरह से, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में होते हैं, जो उन्हें सभी चीजों में विवश और परेशान करते हैं। जब सब कुछ अच्छा चल रहा होता है, और वे लड़खड़ाते नहीं या नकारात्मक नहीं होते, तो कुछ लोग हमेशा यह महसूस करते हैं कि उनके पास आध्यात्मिक कद है, और जब किसी दुष्ट इंसान, नकली अगुआ या कोई मसीह-विरोधी का खुलासा कर उसे निकाला जाता है तो यह देखकर उनके मन में कोई विचार नहीं आता। वे सभी के सामने यह शेखी भी बघारते हैं कि, “कोई भी लड़खड़ा सकता है, लेकिन मैं नहीं। हो सकता है कि कोई और परमेश्वर से प्रेम न करे, लेकिन मैं करता हूँ।” उन्हें लगता है कि वे किसी भी स्थिति या हालात में अपनी गवाही पर अडिग रह सकते हैं। और नतीजा क्या होता है? एक दिन आता है जब उनकी परीक्षा ली जाती है और वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते और कुड़कुड़ाते हैं। क्या यह विफल होना नहीं है, क्या यह लड़खड़ाना नहीं है? जब लोगों की परीक्षा ली जाती है तो उससे ज्यादा कोई चीज लोगों का खुलासा नहीं करती। परमेश्वर इंसान के अंतरतम हृदय की पड़ताल करता है, और लोगों को किसी भी समय डींग नहीं मारनी चाहिए। वे जिस चीज के बारे में डींग मारते हैं, वहीं देर-सबेर, एक दिन वे लड़खड़ाएँगे। दूसरों को लड़खड़ाते और किसी परिस्थिति में असफल होते देखकर वे इसके बारे में कुछ नहीं सोचते, और यहाँ तक सोचते हैं कि वे खुद कुछ गलत नहीं कर सकते, कि वे मजबूती से खड़े हो सकेंगे—लेकिन उस परिस्थिति में वे खुद भी लड़खड़ा जाते और असफल हो जाते हैं। यह कैसे हो सकता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग अपने प्रकृति सार को पूरी तरह से नहीं समझते; अपने प्रकृति सार की समस्याओं के बारे में उनके ज्ञान की गहराई अभी भी अपर्याप्त है, इसलिए सत्य को अभ्यास में लाना उनके लिए बहुत कठिन है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बहुत धोखेबाज होते हैं, और अपनी कथनी-करनी में बेईमान होते हैं, लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि उनका भ्रष्ट स्वभाव किस संबंध में सबसे गंभीर है, तो वे कहेंगे, “मैं थोड़ा धोखेबाज हूँ।” वे केवल इतना कहते हैं कि वे थोड़े धोखेबाज हैं, लेकिन वे यह नहीं कहते कि उनकी प्रकृति ही धोखा देने की है, और वे यह नहीं कहते कि वे धोखेबाज हैं। अपनी भ्रष्ट अवस्था के बारे में उनका ज्ञान उतना गहरा नहीं होता, और वे उसे गंभीरता से नहीं लेते, और न ही उसे उतनी गहराई से देखते हैं जितनी गहराई से दूसरे देखते हैं। दूसरे लोगों के परिप्रेक्ष्य से, यह व्यक्ति बहुत धोखेबाज और बहुत कुटिल है, और उसके हर शब्द में चाल है, उसकी बातें और कार्य कभी ईमानदार नहीं होते—लेकिन वह व्यक्ति खुद को इतनी गहराई से नहीं जान पाता। उसके पास जो भी ज्ञान होता है, वह केवल सतही होता है। जब भी वह बोलता और कार्य करता है, तो वह अपनी प्रकृति का कुछ भाग प्रकट करता है, लेकिन वह इससे अनजान होता है। वह मानता है कि उसका इस तरह से कार्य करना भ्रष्टता उजागर करना नहीं है, उसे लगता है कि वह पहले ही सत्य को अमल में ला चुका है—लेकिन देखने वालों के लिए, यह व्यक्ति बहुत कुटिल और धोखेबाज है, उसकी बातें और काम बेईमानी से भरे हैं। कहने का अर्थ यह है कि लोगों को अपनी प्रकृति की बहुत सतही समझ होती है, और उनकी इस समझ तथा परमेश्वर के उन वचनों के बीच बहुत बड़ा अंतर होता है, जो उनका न्याय कर उन्हें उजागर करते हैं। परमेश्वर जो उजागर करता है उसमें कोई गलती नहीं है, बल्कि इंसान अपनी ही प्रकृति को भली-भाँति गहराई से नहीं समझता। लोगों को स्वयं की मौलिक या जरूरी समझ नहीं है; इसके बजाय, वे अपने कार्यों और बाहरी खुलासों को जानने पर ध्यान केंद्रित करते और अपनी ऊर्जा लगाते हैं। भले ही कुछ लोग कभी कभार अपने आत्मज्ञान के बारे में कुछ कहने में समर्थ हों, यह बहुत अधिक गहरा नहीं होगा। किसी ने कभी भी नहीं सोचा है कि कोई एक काम करने या कोई चीज प्रकट करने के कारण वह एक निश्चित प्रकार का व्यक्ति है या उसकी एक निश्चित प्रकार की प्रकृति है। परमेश्वर ने मनुष्य की प्रकृति और सार को उजागर कर दिया है, लेकिन लोग समझते हैं कि उनके चीजों को करने के तरीके और बोलने के तरीके दोषपूर्ण और खराब हैं; नतीजतन, उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना अपेक्षाकृत अधिक मेहनत का काम होता है। लोग सोचते हैं कि उनकी गलतियाँ बस लापरवाही से प्रकट क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, न की उनकी प्रकृति के खुलासे हैं। जब लोग इस तरह से सोचते हैं, तो उनके लिए स्वयं को वास्तव में जानना बहुत कठिन हो जाता है, और उनके लिए सत्य को समझना और उसका अभ्यास करना बहुत कठिन हो जाता है। चूँकि वे सत्य को नहीं जानते और उसके लिए उनमें प्यास नहीं होती, इसलिए सत्य को अभ्यास में लाते समय वे केवल अनमने ढंग से विनियमों का पालन करते हैं। लोग अपनी स्वयं की प्रकृति को बहुत बुरा नहीं मानते हैं, और उन्हें नहीं लगता कि वह इतनी बुरी है कि उसे नष्ट या दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के मानकों के अनुसार, लोग अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं, वे अभी भी उद्धार के मानकों से दूर हैं, क्योंकि लोगों के पास केवल कुछ तरीके हैं जो बाहर से सत्य का उल्लंघन करते नहीं प्रतीत होते, जबकि वस्तुतः वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होते।

लोगों के व्यवहार या आचरण में बदलाव का अर्थ उनकी प्रकृति में बदलाव नहीं है। इसका कारण यह है कि लोगों के आचरण में बदलाव मौलिक रूप से उनके मूल स्वरूप को नहीं बदल सकते, उनकी प्रकृति को तो वे बिल्कुल भी नहीं बदल सकते। केवल जब लोग सत्य समझते हैं, अपने प्रकृति सार को जानते हैं, और सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं, तभी उनका अभ्यास पर्याप्त रूप से गहरा, और कुछ तय विनियमों का पालन करने से भिन्न हो सकता है। आज जिस तरह से लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, वह अभी भी मानक के अनुरूप नहीं है, और वह सत्य की अपेक्षाओं पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर सकता। लोग केवल सत्य के एक अंश का अभ्यास करते हैं, और केवल कुछ विशेष अवस्थाओं और परिस्थितियों में होने पर ही थोड़ा-सा सत्य अभ्यास में ला सकते हैं; ऐसा नहीं है कि वे सभी हालातों और परिस्थितियों में सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं। जब किसी अवसर पर व्यक्ति खुश होता है और उसकी अवस्था अच्छी होती है, या जब वह दूसरों के साथ सहभागिता कर रहा होता है और उसके दिल में अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, तो वह अस्थायी रूप से कुछ ऐसे काम करने में सक्षम होता है जो सत्य के अनुरूप होते हैं। लेकिन जब वह ऐसे लोगों के साथ रहता है, जो नकारात्मक होते हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वह इन लोगों से प्रभावित हो जाता है, तो वह अपने हृदय में अपना मार्ग खो देता है और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो जाता है। इससे पता चलता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और वह अभी भी वास्तव में सत्य को नहीं समझता। कुछ इंसान ऐसे होते हैं, जो सही लोगों द्वारा मार्गदर्शन और अगुआई किए जाने पर सत्य को अमल में लाने में सक्षम होते हैं; लेकिन किसी नकली अगुआ या मसीह-विरोधी से गुमराह और परेशान किए जाने पर वे न केवल सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि यह भी संभावना होती है कि वे गुमराह होकर उन्हीं लोगों का अनुसरण भी करने लगें। ऐसे लोग अभी भी खतरे में हैं, है न? ऐसे लोग, इस तरह के आध्यात्मिक कद के साथ, सभी मामलों और स्थितियों में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो ही नहीं सकते। अगर वे सत्य का अभ्यास करते भी हैं, तो यह केवल तभी होगा जब वे अच्छे मूड में हों या दूसरों द्वारा उनका मार्गदर्शन किया जाए; किसी अच्छे इंसान द्वारा उनकी अगुआई न किए जाने पर, वे कभी-कभार ऐसी चीजें कर सकते हैं जो सत्य का उल्लंघन करती हैं, और वे परमेश्वर के वचनों से भटक जाएँगे। और यह क्यों होता है? यह इस वजह से होता है, क्योंकि तुम केवल अपनी कुछ ही अवस्थाएँ जान पाए हो, और तुम्हें अपने प्रकृति सार का ज्ञान नहीं है, और तुम्हें अभी देह-सुख से विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने वाला आध्यात्मिक कद प्राप्त करना है; इसलिए, भविष्य में तुम क्या करोगे, इस पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है, और तुम इस बात की गारंटी नहीं दे सकते कि तुम किसी भी स्थिति या परीक्षण में दृढ़ रह सकोगे। कई बार तुम ऐसी अवस्था में होते हो कि तुम सत्य को व्यवहार में ला सकते हो और ऐसा लगता है कि तुम कुछ बदल गए हो, लेकिन फिर भी, एक भिन्न परिस्थिति में तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हो। यह अनायास ही हो जाता है। कभी तुम सत्य का अभ्यास कर पाते हो, और कभी तुम नहीं कर पाते। किसी क्षण, तुम समझते हो, और अगले ही क्षण तुम भ्रमित हो जाते हो। वर्तमान में, तुम कुछ बुरा नहीं कर रहे, लेकिन शायद कुछ ही देर में करोगे। इससे साबित होता है कि भ्रष्ट चीजें अभी भी तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, और यदि तुम सचमुच खुद को नहीं जान पाते, तो इन चीजों का समाधान करना आसान नहीं होगा। यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव की पूरी समझ हासिल नहीं कर पाते, और अंततः उन चीजों को करने में सक्षम होते हो जो परमेश्वर का विरोध करती हैं, तो तुम खतरे में हो। यदि तुम अपनी प्रकृति की असलियत समझ सकते हो और उससे नफरत कर सकते हो, तो तुम अपने आपको नियंत्रित करने, अपने आपसे विद्रोह करने और सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम होगे।

आजकल लोग सत्य में प्रवेश करने और इसका अभ्यास करने को प्राथमिकता नहीं देते, वे सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने और समझने पर ही ध्यान देते हैं, उन्हें लगता है कि उनकी अपनी मनोवैज्ञानिक जरूरतों को पूरा करना, और उदास न होना या नकारात्मक न होना ही काफी है। चाहे सत्य पर संगति करने पर तुम्हें उस समय कितनी ही मदद मिली हो, तुम बाद में सत्य का अभ्यास नहीं करते—यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि तुम सिर्फ सत्य सुनने या समझने पर ही ध्यान देते हो, लेकिन इसका अभ्यास करने पर ध्यान नहीं देते। क्या तुममें से किसी ने सारांश निकाला है कि सत्य के एक तत्व का अभ्यास कैसे किया जाए, या सत्य का वह तत्व कितनी अवस्थाओं से संबंधित है? नहीं! तुम इन चीजों का सारांश कैसे निकाल सकते हो? इन चीजों का सारांश निकालने के लिए तुम्हें खुद उनका अनुभव करना होगा; शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की संगति करने से कोई फायदा नहीं। यह मनुष्य की सभी मुश्किलों में सबसे बड़ी मुश्किल है—सत्य का अभ्यास करने में दिलचस्पी न होना। कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है या नहीं, यह उसके अनुसरण पर निर्भर करता है। कुछ लोग सुसमाचार फैलाने के लिए खुद को सत्य के साथ लैस कर लेते हैं, बाकी लोग दूसरों को बताने और दिखावा करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, न कि सत्य का अभ्यास करने और खुद को बदलने के लिए। जो लोग इन चीजों पर ध्यान देते हैं, उन्हें सत्य का अभ्यास करने में संघर्ष करना पड़ता है। यह भी मनुष्यों की मुश्किलों में से एक है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे लगता है कि मैं अब कुछ सत्यों का अभ्यास करने में सक्षम हूँ; ऐसा नहीं है कि मैं किसी भी सत्य का अभ्यास करने में पूरी तरह से अक्षम हूँ। कुछ परिस्थितियों में, मैं सत्य के अनुसार कार्य कर सकता हूँ, इसका मतलब है कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य का अभ्यास करता है और इसे धारण करता है।” पहले की तुलना में या जब तुमने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, तब से तुम्हारी अवस्था थोड़ी ही बदली है। अतीत में, तुम्हें कुछ समझ नहीं आता था, न ही तुम्हें पता था कि सत्य क्या है या भ्रष्ट स्वभाव क्या है। अब तुम उनके बारे में कुछ चीजें जानते हो, और तुम्हारे पास कुछ अच्छे रास्ते हैं, लेकिन तुम्हारे अंदर बस एक छोटे से हिस्से में ही बदलाव हुआ है; यह तुम्हारे स्वभाव का वास्तविक परिवर्तन नहीं है, क्योंकि तुम विशाल और गहरे सत्यों का अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो जो तुम्हारी प्रकृति से संबंधित हैं। तुम्हारे अतीत के सापेक्ष, तुम्हारे अंदर कुछ बदलाव जरूर आए हैं, लेकिन यह परिवर्तन तुम्हारी मानवता में आया छोटा-सा बदलाव ही है; स्वभावगत परिवर्तन से तुलना करने पर तुम बहुत पीछे रह जाते हो। इसका मतलब है कि तुम सत्य का अभ्यास करने के मुकाम तक अभी नहीं पहुँचे हो। कई बार, लोग उस अवस्था में होते हैं जहाँ वे नकारात्मक नहीं होते हैं, और उनके पास ऊर्जा होती है, लेकिन उन्हें लगता है कि उनके पास सत्य को जानने और उसका अभ्यास करने का कोई रास्ता नहीं है, और वे यह जानने के इच्छुक नहीं होते कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। यह कैसे होता है? कई बार तुम मार्ग को नहीं समझ पाते, इसलिए तुम सिर्फ विनियमों का पालन करते हो और सोचते हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, और परिणाम यह होता है कि तुम अभी भी मुश्किलों का हल निकालने में सक्षम नहीं होते। तुम अपने हृदय में महसूस करते हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो और अपनी वफादारी दिखा रहे हो, और तुम हैरान होते हो कि अभी भी समस्याएँ क्यों आ रही हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम अपने अच्छे इरादों के आधार पर काम कर रहे हो, अपने व्यक्तिपरक प्रयासों का प्रयोग कर रहे हो—तुम परमेश्वर के इरादे नहीं खोजते, सत्य की अपेक्षाओं के अनुसार काम नहीं करते या सिद्धांतों का पालन नहीं करते हो। परिणामतः, तुम खुद को हमेशा परमेश्वर के मानकों से बहुत नीचे महसूस करते हो, तुम्हारा हृदय असहज रहता है, और तुम अनायास ही नकारात्मक बन जाते हो। एक व्यक्ति की व्यक्तिपरक इच्छाएँ और व्यक्तिपरक प्रयास सत्य की अपेक्षाओं से बहुत अलग हैं, और वे प्रकृति में भी अलग हैं। लोगों के बाहरी दृष्टिकोण सत्य की जगह नहीं ले सकते, और उन्हें पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार नहीं किया जाता, जबकि सत्य परमेश्वर के इरादों की सटीक अभिव्यक्ति है। कुछ लोग जो सुसमाचार फैलाते हैं, वे सोचते हैं, “मैंने काफी कष्ट सहा है और कीमत चुकाई है, और मैं पूरा दिन सुसमाचार का उपदेश देने में व्यस्त रहता हूँ। तुम कैसे कह सकते हो कि मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा हूँ?” तो मैं तुमसे पूछता हूँ : तुम अपने हृदय में कितने सत्य रखते हो? जब तुम सुसमाचार का उपदेश देते हो तब सत्य के अनुरूप कितनी चीजें करते हो? क्या तुम परमेश्वर के इरादों को समझते हो? तुम खुद भी नहीं बता सकते कि तुम सिर्फ काम कर रहे हो या सत्य का अभ्यास कर रहे हो, क्योंकि तुम केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने और परमेश्वर से अनुग्रह लेने के लिए अपने कार्यों का उपयोग करने पर ध्यान देते हो, और तुम खुद को मापने के लिए “सभी चीजों में सत्य के अनुरूप होने के लिए परमेश्वर के इरादे खोजकर उसे संतुष्ट करने” के मानक का प्रयोग नहीं करते। अगर तुम कहते हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो इस अवधि के दौरान तुम्हारे स्वभाव में कितना बदलाव हुआ है? परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम कितना बढ़ा है? खुद को इस तरह से मापते हुए, तुम्हारे हृदय में साफ हो जाएगा कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं।

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