भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 51)

जब कोई फटकार और काट-छाँट का सामना करने पर बहाने बनाने का आदी होता है तो क्या चल रहा होता है? यह एक प्रकार का स्वभाव है जो बहुत अहंकारी, आत्मतुष्ट और बहुत हठी होता है। अहंकारी और हठी लोगों को सत्य स्वीकारना बहुत मुश्किल लगता है। जब वे कुछ ऐसा सुनते हैं जो उनके परिप्रेक्ष्यों, राय और विचारों के साथ मेल नहीं खाता, तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि दूसरे जो कहते हैं वो सही है या गलत, या यह किसने कहा, या यह किस संदर्भ में कहा गया था, या चाहे यह उनकी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से संबंधित था। वे इन चीजों की परवाह नहीं करते; उनके लिए सबसे जरूरी उनकी अपनी भावनाओं को संतुष्ट करना है। क्या यह हठी होना नहीं है। हठी होने से अंत में लोगों को क्या नुकसान होते हैं? उनके लिए सत्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। सत्य को स्वीकार नहीं करने की वजह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है, और अंतिम परिणाम यह है कि वे आसानी से सत्य को हासिल नहीं कर पाते। जो कुछ भी मनुष्य के प्रकृति-सार से स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वह सत्य के विरोध में होता है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है; ऐसी कोई भी चीज न तो सत्य के अनुरूप होती है और न ही सत्य के आस-पास होती है। इसलिए, उद्धार पाने के लिए सत्य को स्वीकारना और उसका अभ्यास करना आवश्यक है। अगर कोई सत्य स्वीकार नहीं कर सकता और हमेशा अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार ही चलना चाहता है, तो वह व्यक्ति कभी भी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो पहली बात यह कि अगर चीजें तुम्हारे अनुसार न हों, तो आवेश में आने से बचना चाहिए। पहले मन को शांत करो और परमेश्वर के सामने मौन रहो, मन ही मन उससे प्रार्थना करो और उससे खोजो। हठी मत बनो; पहले समर्पित हो जाओ। ऐसी मानसिकता से ही तुम समस्याओं का बेहतर समाधान कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीने में दृढ़ रह सको, और तुम पर चाहे जो भी मुसीबत आए, उसमें उससे प्रार्थना करने और रास्ता दिखाने के लिए कहने में समर्थ हो, और तुम समर्पण की मानसिकता से उसका सामना कर सकते हो, तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के कितने खुलासे हो चुके हैं, या तुमने पहले क्या-क्या अपराध किए हैं—अगर तुम सत्य की खोज करो, तो उन सभी समस्याओं को हल कर पाओगे। तुम्हारे सामने कैसी भी परीक्षाएँ आएँ, तुम दृढ़ रह पाओगे। अगर तुम्हारी मानसिकता सही है, तुम सत्य स्वीकार पाते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसके प्रति समर्पण करते हो तो तुम सत्य पर अमल करने में पूरी तरह सक्षम हो। भले ही तुम कभी-कभी थोड़े विद्रोही और प्रतिरोधी हो सकते हो और कभी-कभी रक्षात्मक समझ दिखाते हो और समर्पण नहीं कर पाते हो, पर यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी विद्रोही प्रवृत्ति को बदल सको, तो तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो। ऐसा करने के बाद, इस पर विचार करो कि तुम्हारे अंदर विद्रोह और प्रतिरोध क्यों पैदा हुआ। कारण का पता लगाओ, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो, और तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के उस पहलू को शुद्ध किया जा सकता है। ऐसी ठोकरें खाने और गिरकर उठने के बाद, जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने लगोगे, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा। और फिर, तुम्हारे अंदर सत्य का राज हो जाएगा और वह तुम्हारा जीवन बन जाएगा। उसके बाद, तुम्हारे सत्य के अभ्यास में कोई और बाधा नहीं आएगी। तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर पाओगे और तुम सत्य वास्तविकता को जिओगे। इस दौरान तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का व्यावहारिक अनुभव और सीधा तजुर्बा मिलेगा। बाद में तुम्हारे साथ कभी कुछ होगा, तो तुम जान जाओगे कि इस तरह से कैसे अभ्यास करें जो परमेश्वर के प्रति समर्पणकारी हो और किस तरह का व्यवहार परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है। जब तुम्हारे हृदय में ये चीजें स्पष्ट होंगी, तो भी क्या तुम सत्य-वास्तविकता पर संगति करने में असमर्थ रहोगे? अगर तुम्हें अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करने को कहा जाए, तो तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि तुमने कई चीजों का अनुभव किया होगा और अभ्यास के सिद्धांतों को जाना होगा। तुम जैसे भी बात करो, वह वास्तविक होगी, और जो भी तुम बोलो, यह व्यावहारिक होगा। और अगर तुम्हें शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर चर्चा करने को कहा जाएगा तो तुम इसके लिए तैयार नहीं होगे—तुम उनसे दिल से विमुख हो चुके होगे। क्या तुम तब सत्य-वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर चुके होगे? जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे कुछ ही वर्षों के प्रयास से इसका अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, और फिर सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके लिए सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं है, भले ही वे ऐसा करना चाहते हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे बहुत ज्यादा विद्रोही होते हैं। जब भी उन्हें किसी मामले में सत्य का अभ्यास करने की जरूरत होती है, वे हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हैं और उनकी अपनी समस्याएं होती हैं, इसलिए सत्य का अभ्यास करना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा। भले ही वे प्रार्थना और खोज कर सकते हैं, और सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हो सकते हैं, लेकिन जब उनके साथ कुछ होता है, जब वे मुश्किलों का सामना करते हैं, उनकी भ्रमित मानसिकता सामने आ जाती है, और उनका विद्रोही स्वभाव बाहर आ जाता है, उनके मन-मस्तिष्क पर काले बादल छाने लगते हैं। उनका विद्रोही स्वभाव कितना गंभीर होगा! अगर उनके हृदय का छोटा-सा हिस्सा भी भ्रमित है, और बड़ा हिस्सा परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहता है, तो उनके लिए सत्य का अभ्यास करना थोड़ा कम मुश्किल होगा। शायद वे कुछ देर के लिए प्रार्थना कर सकते हैं, या हो सकता है कि कोई उनके साथ सत्य पर संगति करे; अगर वे इसे उसी पल समझ लेते हैं, उनके लिए अभ्यास करना आसान होगा। अगर उनका भ्रम इतना बड़ा है कि यह उनके हृदय के बहुत बड़े हिस्से पर काबिज है, जिसमें विद्रोही होना प्राथमिक है और समर्पण बाद में आता है, तो उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। और जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते वे सभी अत्यधिक या पूरी तरह से विद्रोही हैं, पूरी तरह से भ्रमित हैं। ये लोग इस हद तक भ्रमित हैं कि कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाएंगे, इसलिए उन पर लगाई गई कितनी भी ऊर्जा किसी काम की नहीं होगी। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उनमें सत्य के लिए मजबूत प्रेरणा होती है; अगर उन्हें प्रेरित करने वाली चीज बड़ी और बहुतायत में है और सत्य के बारे में उनके साथ स्पष्ट रूप से संगति कर दी गई है तो वे निश्चित रूप से इसका अभ्यास कर सकेंगे। सत्य से प्रेम करना कोई साधारण बात नहीं है; सिर्फ थोड़ी सी इच्छा होने मात्र से कोई सत्य से प्रेम नहीं कर सकता। उन्हें उस बिंदु तक पहुंचना होगा, जहां वे परमेश्वर के वचन को समझ सकें, वे प्रयास करें और मुश्किलों का सामना करें और सत्य को अभ्यास में लाने की कीमत चुकाएं। यह वही व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है। जो व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, वह अपने अनुसरण में दृढ़ रह सकता है, फिर चाहे उसके कितने भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हों या उसने चाहे कितने भी अपराध किए हों। चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए, वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, सत्य की खोज कर सकते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं। ऐसे अनुभव के दो या तीन वर्ष के बाद, उनकी कोशिशें रंग ला सकती हैं, और साधारण मुश्किलें उनके लिए बाधा नहीं बनेंगी। अगर उन्हें गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़े, तो असफल होने पर भी यह सामान्य बात है, क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। जब तक वे सामान्य परिस्थितियों में सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, तब तक उम्मीद है। जब वे परमेश्वर को जान लेते हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है तो उनके लिए गंभीर चुनौतियों का समाधान निकालना भी आसान होता है; कोई भी चुनौती उनके लिए समस्या नहीं रह जाती है। जब तक लोग परमेश्वर के वचनों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ते हैं और सत्य की ज्यादा संगति करते हैं, और अगर वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, फिर चाहे उनके सामने कैसी भी मुश्किलें आएं और वे उन समस्याओं के समाधान के लिए पवित्र आत्मा के कार्य पर निर्भर रहें, तो उनके लिए सत्य को समझना और उसका अभ्यास करना आसान हो जाएगा और उनका भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे छूटने लगेगा। सत्य का अभ्यास करने के हर कार्य के साथ वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का थोड़ा-सा पीछा छोड़ते हैं और सत्य का और अभ्यास करने से उनका भ्रष्ट स्वभाव और ज्यादा छूटता है। यह प्राकृतिक नियम है। अगर लोग देख लें कि वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं और वे इसका समाधान आत्मसंयम और धैर्य से करें तो क्या वे सफल होंगे? यह आसान नहीं होगा। अगर वे उसी ढंग से समाधान निकाल सकें, तो परमेश्वर को न्याय और ताड़ना का अपना कार्य करने की कोई जरूरत नहीं होगी। भ्रष्ट स्वभाव के समाधान के लिए मनुष्य को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसी पर भरोसा करना चाहिए, सत्य की खोज करना और आत्म-चिंतन में खुद को जानना चाहिए और पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा करना चाहिए। यही है वह उपाय जो समाधान कर सकता है। अगर लोग सहयोग नहीं करते हैं, वे नहीं जानते कि आत्म-चिंतन कैसे करें, सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं पहचानते हैं, पश्चात्ताप नहीं करते हैं, और दैहिक इच्छा और शैतान से घृणा नहीं करते हैं, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव अपने आप नहीं छूटेगा। यहीं पर पवित्र आत्मा का कार्य सबसे अद्भुत है; जब तक लोगों में सत्य के लिए प्यास होगी और वे अपने स्वभाव में बदलाव लाएँगे, परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा और उनका मार्गदर्शन करेगा। लोग अनजाने में ही एक साथ सत्य को समझ लेंगे और स्वयं को भी जान पाएंगे, और इस बिंदु पर वे सत्य से प्रेम करना शुरू कर देंगे और इसके लिए लालायित रहेंगे। वे अपने हृदय से शैतान की प्रकृति और स्वभाव से घृणा करने में सक्षम होंगे, इससे उनके लिए दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना आसान होगा और उन्हें सत्य का अभ्यास करना बहुत आसान लगने लगेगा। इस बिंदु पर आकर धीरे-धीरे उनका भ्रष्ट स्वभाव बदलेगा और उनमें अब परमेश्वर के प्रति कोई विद्रोह नहीं रहेगा; किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज से बाधित हुए बिना वे पूरी तरह से उसके प्रति समर्पण कर पाएँगे। यह उनके जीवन स्वभाव में एक पूर्ण परिवर्तन है।

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