भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 49)
मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में बेहूदगियों और बुराइयों के अलावा और कुछ भी नहीं है। इनमें से सबसे गंभीर बात है मनुष्य का अहंकारी स्वभाव और इससे प्रकट होने वाली चीजें, यानी, खास आत्मतुष्टता और अभिमान, यह मानना कि वह दूसरों की तुलना में अधिक शक्तिशाली है, किसी के भी प्रति समर्पण करने की अनिच्छा, अंतिम निर्णय स्वयं का ही हो, इसके लिए लगातार आग्रह करना, सभी मामलों में दिखावा करना, अपने कार्यों में चापलूसी और प्रशंसा की चाहत रखना, दूसरों से घिरे रहने की निरंतर इच्छा रखना और हमेशा आत्म-केंद्रित रहना, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पाले रखना और हमेशा एक राजा के रूप में शासन करने तथा ताज और पुरस्कार पाने की चाहत रखना—ये सभी मुद्दे गंभीर भ्रष्ट स्वभाव की श्रेणी में आते हैं। बाकी तो बस नियमित समस्याएँ हैं। उदाहरण के लिए, कुछ गलत विचार रखना, बेतुकी सोच, कुटिलता और छल, ईर्ष्या, स्वार्थ, विवादप्रिय होना और सिद्धांतों के बिना कार्य करना, ये सब सबसे आम भ्रष्ट स्वभाव हैं। कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभाव में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और सबसे अलग है, वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसे परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह के व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे जो इतने घमंडी होते हैं कि अपना विवेक खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते, यहाँ तक कि अपनी ही बड़ाई कर गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिल्कुल भी भय नहीं होता। यदि लोग उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ उनके दिल में परमेश्वर के प्रति भय हो तो सबसे पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए उतना ही अधिक भय होगा और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं।
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