सत्य का अनुसरण कैसे करें (3) भाग चार
भाई-बहनों के बीच छद्म-विश्वासियों के अलावा 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, “अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?” जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, “मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! इस उम्र में अब और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मुझे कोई चिंता नहीं रही या मैं किसी चीज को लेकर व्याकुल नहीं हूँ, मेरे बच्चे बड़े हो चुके हैं और उनकी देखभाल के लिए या उन्हें बड़ा करने के लिए मेरी जरूरत नहीं है, इसलिए जीवन में मेरी सबसे बड़ी कामना सत्य का अनुसरण करने की है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की है और अपनी बची-खुची उम्र में उद्धार प्राप्त करने की है। हालाँकि मेरी असली स्थिति, उम्र से धुंधला गई आँखों की रोशनी, मन की उलझनों, खराब सेहत, अपना कर्तव्य अच्छी तरह न निभा पाने, और यथासंभव कार्य करने पर भी कभी-कभी समस्याएँ खड़ी होते देखकर लगता है कि उद्धार प्राप्त करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।” वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचकर व्याकुल हो जाते हैं, और फिर सोचते हैं, “लगता है कि अच्छी चीजें सिर्फ युवाओं के साथ ही होती हैं, बूढ़ों के साथ नहीं। लगता है चीजें जितनी भी अच्छी हों, मैं अब उनका आनंद नहीं ले पाऊँगा।” वे इन चीजों के बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, जितना झुँझलाते हैं, उतने ही व्याकुल हो जाते हैं। वे अपने बारे में सिर्फ चिंता ही नहीं करते, बल्कि आहत भी होते हैं। अगर वे रोते हैं तो उन्हें लगता है कि यह बात सचमुच रोने लायक नहीं है, और अगर नहीं रोते, तो वह पीड़ा, वह चोट हमेशा उनके साथ बनी रहती है। तो फिर उन्हें क्या करना चाहिए? खास तौर से कुछ ऐसे बड़े-बूढ़े हैं, जो अपना सारा वक्त परमेश्वर के लिए खपने और अपना कर्तव्य निभाने में बिताना चाहते हैं, मगर वे शारीरिक रूप से बीमार हैं। कुछ को उच्च रक्तचाप है, कुछ को मधुमेह है, कुछ को पेट की बीमारियाँ हैं, और उन लोगों की शारीरिक ताकत उनके कर्तव्य की अपेक्षाओं की बराबरी नहीं कर पाती, और इसलिए वे झुँझलाते हैं। वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, “मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?” चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक-समान होते हैं और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। इसलिए बूढ़े लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि बूढ़े होने और युवाओं की तुलना में उनकी असाधारण आकांक्षाओं के कम होने, और उनके स्थिर हो पाने के कारण उनकी महत्वाकांक्षाएँ या आकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं, और उनमें कम भ्रष्ट स्वभाव होते हैं—यह एक भ्रांति है। युवा लोग पद के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े पद के लिए जोड़-तोड़ नहीं कर सकते? युवा सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर सकते हैं और मनमानी कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े ऐसा नहीं कर सकते? (हाँ, जरूर कर सकते हैं।) युवा घमंडी हो सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े घमंडी नहीं हो सकते? लेकिन बड़े-बूढ़े जब घमंडी होते हैं, तो ज्यादा उम्र के कारण वे उतने आक्रामक नहीं होते और इसलिए यह उनका घमंड तेज-तर्रार नहीं होता। युवा अपने लचीले हाथ-पैर और फुर्तीले दिमाग के कारण अहंकार का ज्यादा स्पष्ट दिखावा करते हैं, जबकि बड़े-बूढ़े अपने सख्त हाथ-पाँव और हठीले दिमाग के कारण अहंकार का कम स्पष्ट दिखावा करते हैं। लेकिन उनके अहंकार और भ्रष्ट स्वभावों का सार एक-समान होता है। किसी बूढ़े व्यक्ति ने चाहे जितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, या चाहे जितने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसका भ्रष्ट स्वभाव कायम रहेगा। मिसाल के तौर पर, अकेले रहने वाले कुछ बड़े-बूढ़े अपने बल पर जीने के आदी होते हैं, और अपने रंग-ढंग में पक्के हो जाते हैं : खाने, सोने और आराम करने का उनका निश्चित समय और उनकी अपनी व्यवस्थाएँ होती हैं, और वे अपने जीवन में चीजों के क्रम को बाधित नहीं होने देना चाहते। ये बड़े-बूढ़े बाहर से तो बड़े अद्भुत-से लगते हैं, लेकिन उनमें अभी भी भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और लंबे समय तक उनसे जुड़े रहने के बाद ही तुमको इसका पता चल पाता है। कुछ बूढ़े लोग बेहद सनकी और घमंडी होते हैं; उन्हें बस वही चाहिए जो वे खाना चाहते हैं, और जब वे मौज-मस्ती के लिए कहीं जाना चाहें, तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता। जब वे कुछ करने का मन बना लेते हैं, तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें नहीं रोक सकती। उन्हें कोई नहीं बदल सकता, और वे ताजिंदगी सनकी ही रहते हैं। ऐसे जिद्दी बड़े-बूढ़े आवारा युवाओं से भी ज्यादा तकलीफदेह होते हैं! इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं, “बड़े-बूढ़े युवाओं जितने गहराई से भ्रष्ट नहीं होते। बड़े-बूढ़ों ने ऐसे जमाने में अपना जीवन गुजारा जो बहुत रूढ़िवादी था, जब सब-कुछ मना या बंद होता था, और इसलिए बड़े-बूढ़ों की यह पीढ़ी उतनी भ्रष्ट नहीं है,” क्या यह कहना सही है? (नहीं।) यह बस अपनी खातिर बाल की खाल निकालना है। युवा लोग दूसरों के साथ काम करना पसंद नहीं करते, तो क्या बड़े-बूढ़े भी ऐसे नहीं हो सकते? (जरूर हो सकते हैं।) कुछ बड़े-बूढ़ों का स्वभाव युवाओं से भी ज्यादा गंभीर रूप से भ्रष्ट होता है, वे हमेशा अपने बुढ़ापे का हवाला देते हैं, अपने जमाने पर यह कहकर गर्व करते हैं, “मैं उम्र में सयाना हूँ। तुम्हारी उम्र ही क्या है? मैं बड़ा हूँ या तुम? तुम यह नहीं सुनना चाहोगे, लेकिन मुझे तुमसे कहीं ज्यादा अनुभव है मैंने तुमसे कहीं ज्यादा किया है, और तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी। मैं अनुभवी और जानकार हूँ। तुम बच्चे क्या समझोगे? मैं परमेश्वर में तब से विश्वास रख रहा था, जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे!” क्या यह ज्यादा तकलीफदेह नहीं है? (जरूर है।) एक बार “बड़े-बूढ़े” की उपाधि पा लेने के बाद बूढ़े लोग ज्यादा तकलीफदेह हो सकते हैं। तो ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है और यही नहीं, भ्रष्ट स्वभावों के मामले में भी उम्र असंगत होती है। शैतान हजारों-लाखों वर्षों से, करोड़ों वर्षों से अस्तित्व में रहा है, और वह अब भी शैतान है, फिर भी हमें “शैतान” के पहले एक गुणवाचक विशेषण जोड़ देना चाहिए और वह है “बूढ़ा शैतान,” जिसका अर्थ है कि यह चरम सीमा तक दुष्ट है, सही है न? (हाँ।) तो बड़े-बूढ़ों को कैसे अभ्यास करना चाहिए? एक पहलू यह है कि तुम्हें युवाओं वाली मनःस्थिति रखनी चाहिए, सत्य का अनुसरण कर खुद को जानना चाहिए, और खुद को जान लेने के बाद प्रायश्चित्त करना चाहिए। एक और पहलू यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य पालन में सिद्धांत खोजने चाहिए, और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें खुद को यह कहकर सत्य का अनुसरण करने से खारिज नहीं करना चाहिए कि तुम बूढ़े हो, तुम्हारी उम्र बहुत ज्यादा है, तुम युवाओं जैसे सक्रिय विचार नहीं रखते, तुममें युवाओं जैसे भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं, कि तुमने इस जीवन में सभी चीजों का अनुभव कर लिया है, सभी चीजों को गहराई से देख लिया है, और इसलिए तुम्हारी कोई प्रचंड महत्वाकांक्षा या आकांक्षा नहीं है। इस बात से तुम वास्तव में यह कहना चाहते हो, “मेरे भ्रष्ट स्वभाव उतने गंभीर नहीं हैं, इसलिए सत्य का अनुसरण तुम युवा लोगों के लिए है। हम बड़े-बूढ़े लोगों से इसका कोई लेना-देना नहीं। हम बड़े-बूढ़े परमेश्वर के घर में बस अपने बूते का कार्य और प्रयास करते हैं, और बस इससे हमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा लिया होगा और हम बचा लिए जाएँगे। परमेश्वर द्वारा लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, मसीह-विरोधी स्वभावों और मसीह-विरोधी सार का खुलासा करने की बात करें तो इसे समझने की जरूरत तुम युवाओं को है। तुम लोग इसे ध्यान से सुन सकते हो, और यह काफी है कि हम तुम लोगों का अच्छा आतिथ्य करें और तुम्हें सुरक्षित रखने के लिए आसपास के माहौल पर नजर रखें। हम बड़े-बूढ़ों की महत्वाकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं। हम बूढ़े हो रहे हैं, हमारे दिमाग धीरे-धीरे प्रतिक्रिया देते हैं, और इसीलिए हमारी तमाम प्रतिक्रियाएँ सकारात्मक होती हैं। मरने से पहले हम दयालु हो जाते हैं। लोग जब बूढ़े हो जाते हैं, तो उनका बर्ताव अच्छा हो जाता है, इसलिए हम शिष्ट लोग हैं।” वे दरअसल कहना चाहते हैं कि उनके स्वभाव भ्रष्ट नहीं हैं। हमने कब कहा कि बड़े-बूढ़ों को सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं है, या तुम्हारी उम्र के अनुसार सत्य के अनुसरण में अंतर होता है? क्या हमने कभी ऐसा कहा? नहीं, हमने नहीं कहा। परमेश्वर के घर में और सत्य के मामले में क्या बड़े-बूढ़ों का कोई विशेष समूह होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। सत्य के मामले में उम्र असंगत है, जैसे कि यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी भ्रष्टता की गहराई, तुम सत्य का अनुसरण करने योग्य हो या नहीं, तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, या तुम्हारे बचाए जाने की संभाव्यता क्या है, इसमें असंगत है। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।) हमने इतने वर्षों से सत्य पर संगति की है, लेकिन हमने कभी भी लोगों की अलग-अलग उम्र के अनुसार विभिन्न प्रकार के सत्यों पर संगति नहीं की। न युवाओं के लिए न ही बड़े-बूढ़ों के लिए कभी भी सत्य पर विशेष रूप से अलग संगति की गई है, न ही इस आधार पर उनके भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा किया गया है, न ही यह कहा गया है कि उनकी उम्र, सख्त सोच, और नई चीजों को न स्वीकार कर पाने के कारण, उनके भ्रष्ट स्वभाव सहज रूप से कम होकर बदल जाते हैं—ये बातें कभी नहीं कही गई हैं। एक भी सत्य की संगति खास तौर पर लोगों की उम्र के अनुसार और बूढ़ों को बाहर रखकर नहीं की गई। कलीसिया, परमेश्वर के घर में या परमेश्वर के समक्ष बूढ़े लोगों का कोई विशेष समूह नहीं होता, बल्कि वे किसी भी दूसरे उम्र के समूहों जैसे ही होते हैं। वे किसी भी तरह से विशेष नहीं हैं, बात बस इतनी है कि वे दूसरों के मुकाबले थोड़ा ज्यादा समय जी चुके हैं, वे इस संसार में दूसरों से कुछ वर्ष पहले आए, उनके बाल दूसरों से थोड़े ज्यादा सफेद हैं, और उनके शरीर दूसरों के मुकाबले थोड़ा पहले बूढ़े हो गए हैं; इन चीजों के अलावा कोई फर्क नहीं है। इसलिए अगर बूढ़े लोग हमेशा सोचते हैं, “मैं बूढ़ा हूँ, यानी इसका अर्थ है कि मैं अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति हूँ, मुझमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, बस थोड़ी-सी भ्रष्टता है,” तो क्या यह भ्रांतिपूर्ण समझ नहीं है? (जरूर है।) क्या यह थोड़ी बेशर्मी नहीं है? कुछ बड़े-बूढ़े चालाक दुष्ट बूढ़े होते हैं, चरम सीमा तक कपटी होते हैं। वे कहते हैं कि उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, यहाँ तक कि उनके भ्रष्ट स्वभाव खत्म हो चुके हैं, जबकि दरअसल उनके भ्रष्ट स्वभाव के सतत उद्गार दूसरों से कम नहीं होते। असलियत में ऐसे बहुत-से तरीके हैं जिनसे हम इस किस्म के बूढ़े व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव और मानवता की गुणवत्ता का बयान कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, “चालाक बूढ़े दुष्ट” और “बूढ़ा व्यक्ति बुद्धिमान और शक्तिशाली होता है, अनुभव यौवन को पछाड़ देता है”—इन दोनों में “बूढ़ा” शब्द का इस्तेमाल होता है, सही है न? (सही है।) दूसरे और कौन-से विवरण हैं जिनमें “बूढ़ा” शब्द का इस्तेमाल होता है? (बूढ़े षड्यंत्रकारी।) हाँ, यह अच्छा है, “बूढ़े षड्यंत्रकारी।” देखा, इन सब में “बूढ़ा” शब्द इस्तेमाल हुआ है। फिर “बूढ़ा शैतान” और “बूढ़े दानव” भी हैं—ठेठ वरिष्ठ! बूढ़े लोगों के समूह का हिस्सा बनने पर लोग क्या मानते हैं? वे मानते हैं, “हमारे सारे भ्रष्ट स्वभाव खत्म हो चुके हैं। भ्रष्ट स्वभाव तुम युवा लोगों का मामला है। तुम लोग हमसे ज्यादा गहराई से भ्रष्ट हो।” क्या यह जान-बूझकर लाई गई विकृति नहीं है? वे खुद को अच्छा दिखाना चाहते हैं, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना चाहते हैं, लेकिन बात दरअसल यह नहीं है और चीजें ऐसी नहीं हैं। “बूढ़े दानव,” “बूढ़ा शैतान,” “बूढ़े षड्यंत्रकारी,” “चालाक बूढ़े दुष्ट,” “अपने बुढ़ापे का दिखावा करना”—“बूढ़े” शब्द का इस्तेमाल करने वाले ऐसे विवरण अच्छी बातें नहीं हैं, ये सकारात्मक बातें नहीं हैं।
हम अभी बड़े-बूढ़ों को चेतावनी देने, उन्हें परामर्श देने, उनका मार्गदर्शन करने, और युवाओं को बचाव की सुई लगाने के लिए इस पर संगति कर रहे हैं। ये बातें कहने का प्रयोजन मुख्य रूप से किस समस्या को सुलझाना है? यह इन बड़े-बूढ़ों के संताप, व्याकुलता और चिंता को दूर करने और यह सुनिश्चित करने के लिए है कि वे समझ लें कि यह संताप, व्याकुलता और चिंता फालतू और गैर-जरूरी है। अगर तुम कोई कर्तव्य निभाना चाहते हो, और तुम किसी कर्तव्य-निर्वहन के लिए उपयुक्त हो, तो क्या परमेश्वर का घर तुम्हें मना करेगा? (नहीं।) परमेश्वर का घर यकीनन तुम्हें कर्तव्य निभाने का एक अवसर देगा। वह बिल्कुल नहीं कहेगा, “तुम कर्तव्य नहीं निभा सकते, क्योंकि तुम बूढ़े हो। बाहर जाओ। हम तुम्हें मौका नहीं देंगे।” नहीं, परमेश्वर का घर सभी लोगों से उचित बर्ताव करता है। जब तक तुम कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हो, और कोई छिपा हुआ खतरा नहीं है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें अवसर देगा, और तुम्हारी क्षमता के अनुसार तुम्हें कोई एक कर्तव्य निभाने देगा। यही नहीं, अगर तुम खुद को जान कर सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो क्या कोई तुम्हारा मजाक उड़ाकर कहेगा, “तुम जैसा बूढ़ा आदमी क्या सत्य के अनुसरण के योग्य है?” क्या कोई तुम्हारा मजाक उड़ाएगा? (नहीं।) क्या कोई कहेगा, “तुम बूढ़े और भ्रमित हो। तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने की क्या तुक है? परमेश्वर तुम जैसे बूढ़े व्यक्ति को नहीं बचाएगा?” (नहीं।) कोई नहीं कहेगा। सत्य के समक्ष सभी बराबर हैं, और सबके साथ उचित व्यवहार होता है। बात बस इतनी है कि शायद तुम सत्य का अनुसरण न करो, और हमेशा यह सोचकर अपनी उम्र और अनुभव का फायदा उठाकर लोगों से छल करो, “मैं बूढ़ा हूँ, मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा सकता।” दरअसल, तुम अपनी क्षमता के अनुसार बहुत-से कर्तव्य निभा सकते हो। अगर तुम कोई भी कर्तव्य नहीं निभाते, और इसके बजाय अपने बुढ़ापे का दिखावा करते हो, दूसरों को ज्ञान देना चाहते हो, तो तुम्हारी बात कौन सुनना चाहेगा? कोई नहीं। तुम हमेशा कहते हो, “अरे, तुम युवा लोग बस चीजें नहीं समझते!” और “अरे, तुम युवा लोग बस स्वार्थी हो!” और “अरे, तुम युवा लोग बस घमंडी हो!” और “अरे, तुम युवा लोग बस आलसी हो। हम बड़े-बूढ़े मेहनती हैं, और हमारे जमाने में हम फलाँ-फलाँ थे।” ऐसी बातें कहने का क्या फायदा? अपने “शानदार” इतिहास की शेखी मत बघारो; कोई नहीं सुनना चाहता। इन पुराने ढर्रे की चीजों के बारे में बात करना बेकार है; वे सत्य नहीं दर्शातीं। अगर तुम किसी चीज के बारे में बात करना चाहते हो, तो सत्य के साथ कुछ प्रयास करो, सत्य को थोड़ा और समझो, खुद को जानो, खुद को बस किसी दूसरे साधारण इंसान की तरह देखो न कि किसी विशेष समूह के सदस्य के रूप में, जिसका दूसरों द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए, जिसकी दूसरे आराधना करें, जिसे दूसरे ऊँचा दर्जा दें, और जिसके चारों ओर दूसरों की भीड़ लग जाए। यह एक असाधारण आकाँक्षा है, एक गलत सोच है। उम्र तुम्हारी पहचान का प्रतीक चिह्न नहीं है, उम्र योग्यता नहीं दर्शाती, और उम्र वरिष्ठता नहीं दर्शाती, और यह तो बिल्कुल भी नहीं दर्शाती कि तुम्हें सत्य या मानवता हासिल है, और उम्र तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों को हल्का नहीं कर सकती। तो तुम बस दूसरे लोगों जैसे ही हो। हमेशा खुद को दूसरों से अलग करने और स्वयं को पवित्र दर्शाने के लिए खुद पर “बूढ़ा” होने का तमगा मत लगाओ। यह दिखाता है कि तुम खुद को बिल्कुल भी नहीं जानते! जब तक जीवित हैं, तब तक बड़े-बूढ़ों को सत्य और जीवन-प्रवेश का अनुसरण करने का और ज्यादा प्रयास करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य करना चाहिए; सिर्फ इसी प्रकार उनका आध्यात्मिक कद बढ़ सकता है। बूढ़े लोगों को खुद को दूसरों से वरिष्ठ समझकर अपने बुढ़ापे का दिखावा नहीं करना चाहिए। युवा हर प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर सकते हैं, वैसे ही तुम भी कर सकते हो; युवा हर तरह की बेवकूफी कर सकते हैं, वैसे ही तुम भी कर सकते हो; युवा धारणाएँ छुपाए होते हैं, वैसे ही बूढ़े भी छुपाए होते हैं; युवा विद्रोही हो सकते हैं, वैसे ही बूढ़े भी हो सकते हैं; युवा मसीह-विरोधी स्वभाव दर्शा सकते हैं, वैसे ही बूढ़े भी दर्शा सकते हैं; युवाओं की महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ प्रचंड होती हैं, वैसे ही बूढ़ों की भी होती हैं, रत्ती भर फर्क नहीं होता; युवा विघ्न-बाधाएँ पैदा कर सकते हैं और कलीसिया से उन्हें हटाया जा सकता है, वैसे ही बूढ़े लोग भी हटाए जा सकते हैं। इसलिए अपनी काबिलियत के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के अलावा बहुत-सी ऐसी चीजें हैं, जो वे कर सकते हैं। अगर तुम बेवकूफ और भुलक्कड़ नहीं हो, सत्य को नहीं समझ सकते, और जब तक खुद की देखभाल कर सकते हो, तो ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। युवाओं की ही तरह तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, सत्य को खोज सकते हो, और तुम्हें अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य-सिद्धांत खोजने चाहिए, और लोगों और चीजों को देखने-समझने और पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपना मानदंड बनाकर आचरण और कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। यही वह रास्ता है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और तुम्हारे बूढ़े होने, अनेक बीमारियाँ होने, या शरीर के बूढ़े होते जाने के कारण तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव नहीं करना चाहिए। संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करना सही नहीं है—ये तर्कहीन अभिव्यक्तियाँ हैं। बड़े-बूढ़ों को अपनी “बूढ़ा” वाली उपाधि त्याग देनी चाहिए, युवाओं के साथ जुड़ जाना चाहिए और उनके बराबर बैठना चाहिए। तुम्हें हमेशा यह सोचते हुए अपने बुढ़ापे का दिखावा नहीं करना चाहिए कि तुम आदर-योग्य हो, उच्च सदाचार और ऊँची योग्यता वाले हो, युवाओं का प्रबंधन कर सकते हो, युवाओं के लिए वरिष्ठ और बुजुर्ग हो, हमेशा युवाओं को नियंत्रित करने की महत्वाकाँक्षा रखते हो, हमेशा युवाओं का प्रबंधन करने की कामना करते हो—यह पूरी तरह से भ्रष्ट स्वभाव है। चूँकि बड़े-बूढ़ों के स्वभाव भी युवाओं की तरह ही भ्रष्ट होते हैं, और वे भी युवाओं की तरह ही अक्सर जीवन और अपने कर्तव्य-निर्वहन में भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, तो फिर बड़े-बूढ़े वे काम क्यों नहीं करते जो उचित हैं, और इसके बजाय हमेशा अपने बुढ़ापे और उनकी मृत्यु के बाद क्या होगा विषय को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित क्यों अनुभव करते हैं? वे युवाओं की तरह अपने कर्तव्य क्यों नहीं निभाते? वे युवाओं की तरह सत्य का अनुसरण क्यों नहीं करते? तुम्हें यह अवसर दिया गया है, तो अगर तुम इसे गँवा दो, और फिर तुम इतने बूढ़े हो जाओ कि न सुन सको न अपनी देखभाल कर सको, तब तुम पछताओगे, और तुम्हारा जीवन यूँ ही गुजर जाएगा। समझ रहे हो? (हाँ।)
क्या बड़े-बूढ़ों की नकारात्मक भावनाओं की समस्या अब दूर हो चुकी है? बूढ़े हो जाने पर क्या तुम लोग बुढ़ापे का दिखावा करोगे? क्या तुम चालाक बूढ़े दुष्ट और बूढ़े षड्यंत्रकारी बन जाओगे? किसी बड़े-बूढ़े को देखकर क्या तुम लोग उसे “बूढ़े भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर पुकारोगे? उनके अपने नाम हैं, मगर तुम उन्हें उनके नाम से नहीं पुकारते, इसके बजाय तुम “बूढ़ा” शब्द जोड़ देते हो। अगर तुम बड़े-बूढ़ों से बात करते वक्त हमेशा “बूढ़ा” शब्द जोड़ देते हो, तो क्या उन्हें हानि नहीं होगी? वे पहले से खुद को बूढ़ा समझते हैं, उनमें कुछ नकारात्मक भावनाएँ हैं, तो अगर तुम उन्हें “बूढ़ा” पुकारते हो, तो यह उनसे यह कहने जैसा है, “तुम बूढ़े हो, मुझसे ज्यादा बूढ़े, और अब तुम किसी काम के नहीं हो।” तुम्हारी यह बात सुनकर क्या उन्हें अच्छा लगेगा? वे यकीनन नाखुश होंगे। तुम उन्हें इस तरह संबोधित करोगे, तो क्या उनका दिल नहीं दुखेगा? कुछ बड़े-बूढ़ों को तुम्हारे इस संबोधन से आनंद मिलेगा, और वे सोचेंगे, “देखा, मैं आदर-योग्य, बढ़िया शोहरत वाला उच्च सदाचारी हूँ। मुझे देखने पर भाई-बहन मुझे मेरे नाम से नहीं पुकारते। परमेश्वर के घर में लोग बड़े-बूढ़ों को चाचा, दादा या दादी नहीं पुकारते। इसके बजाय जब भाई-बहन मुझे संबोधित करते हैं, तो वे ‘बूढ़ा’ शब्द जोड़ देते हैं और मुझे ‘बूढ़ा भाई’ (या ‘बूढ़ी बहन’) कहकर पुकारते हैं। देखो मैं दूसरों के सामने कितना प्रतिष्ठित, कितना सम्मानित हूँ। परमेश्वर का घर अच्छा है—लोग बड़े-बूढ़ों का आदर और युवाओं का खयाल रखते हैं!” क्या तुम आदर के योग्य हो? तुम अपने भाई-बहनों के लिए क्या शिक्षा लाए हो? उनके लिए क्या लाभ लाए हो? परमेश्वर के घर में तुम्हारा योगदान क्या है? तुम सत्य को कितना समझते हो? सत्य को कितना अभ्यास में लाते हो? तुम खुद को आदर-योग्य, उच्च सदाचारी मानते हो, फिर भी तुमने रत्ती भर भी योगदान नहीं किया है, तो क्या तुम इस योग्य हो कि भाई बहन तुम्हें “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर पुकारें? बिल्कुल नहीं! तुम अपने बुढ़ापे का दिखावा करते हो और हमेशा चाहते हो कि दूसरे लोग तुम्हारा आदर करें! क्या “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर संबोधित किया जाना अच्छी बात है? (नहीं।) नहीं, अच्छी बात नहीं है, मगर मैं अक्सर यह सुनता हूँ। यह बहुत बुरी बात है, फिर भी लोग बड़े-बूढ़ों को अक्सर इसी तरह संबोधित करते हैं। इससे किस प्रकार का माहौल बनता है? यह घिनौना लगता है, है न? किसी बड़े-बूढ़े को तुम जितना ज्यादा “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर संबोधित करते हो, वे खुद को उतना ही योग्य, और आदर-योग्य उच्च सदाचारी मानते हैं; तुम उन्हें जितना ज्यादा “बूढ़े अमुक-अमुक” नाम से संबोधित करते हो, उतना ही ज्यादा वे खुद को विशेष मानते हैं, दूसरे लोगों से ज्यादा महत्वपूर्ण और बेहतर मानते हैं, उनके दिलों में दूसरों की अगुआई करने का झुकाव पैदा हो जाता है, और सत्य का अनुसरण करने से वे उतना ही ज्यादा दूर भटक जाते हैं। वे हमेशा खुद को दूसरों से बेहतर और दूसरों को अप्रिय मानकर, हमेशा दूसरों में समस्याएँ और खुद में कोई समस्या न देखकर, वे हमेशा दूसरों की अगुआई और प्रबंधन करना चाहते हैं। बताओ भला, क्या ऐसा व्यक्ति अभी भी सत्य का अनुसरण कर सकता है? नहीं, वे नहीं कर सकते। इसलिए लोगों को “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर संबोधित करने से उन्हें कोई लाभ नहीं, और इससे बस इतना ही होगा कि उनका दिल दुखेगा और उन्हें नुकसान होगा। अगर तुम उन्हें बस उनके नाम से पुकारो और “बूढ़ा” पदनाम हटा दो, अगर तुम उन्हें सही ढंग से लो, उनके साथ बराबर होकर बैठो, तो उनकी दशा और उनकी मानसिकता सामान्य हो जाएगी, और वे फिर कभी अपने अनुभव के वर्षों पर गर्व नहीं करेंगे और दूसरों को नीची नजर से नहीं देखेंगे। इस प्रकार उनके लिए यह आसान हो जाएगा कि वे खुद को दूसरों के बराबर मानें, फिर वे खुद को और दूसरों को सही ढंग से देख सकेंगे, खुद को दूसरे लोगों से बेहतर नहीं बल्कि बिल्कुल दूसरे, साधारण लोगों के समान देख पाएँगे। इस तरह उनकी मुश्किलें कम हो जाएँगी, और वे अपनी बढ़ती हुई उम्र और सत्य हासिल न कर पाने के कारण पैदा हो सकने वाली नकारात्मक भावनाओं का अनुभव नहीं करेंगे, और फिर वे सत्य का अनुसरण करने की उम्मीद कर पाएँगे। जब ये नकारात्मक भावनाएँ पैदा नहीं होतीं, तो वे अपनी समस्याओं, खास तौर से अपने भ्रष्ट स्वभाव को सही मानसिकता के साथ देख पायेंगे। इसका सत्य के उनके अनुसरण, उनके आत्मज्ञान और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की उनकी क्षमता पर एक सकारात्मक और सहायक प्रभाव पड़ेगा। तब क्या बड़े-बूढ़ों के साथ होनेवाली नकारात्मक भावनाओं की समस्याएँ दूर नहीं हो जाएँगी? (जरूर हो जाएँगी।) वे दूर हो जाएँगी और फिर बिल्कुल कोई कठिनाई नहीं होगी। तो वह कौन-सी मानसिकता है जो बड़े-बूढ़ों को सबसे पहले अपनानी चाहिए? उन्हें सकारात्मक मानसिकता अपनानी चाहिए; उन्हें न सिर्फ विवेकपूर्ण होना चाहिए बल्कि उदार भी होना चाहिए। उन्हें युवाओं के साथ चीजों को लेकर हंगामा नहीं करना चाहिए, बल्कि एक उदाहरण बनकर युवाओं को रास्ता दिखाना चाहिए, उन पर आवेश नहीं दिखाना चाहिए। युवा जल्द भड़क जाते हैं, और बेसब्री से बात करते हैं, तो उनके साथ चीजों को लेकर हंगामा मत करो। वे युवा हैं, कच्चे हैं, उन्हें अनुभव नहीं है, कुछ साल तपकर वे सही हो जाएँगे। चीजों को ऐसा ही होना चाहिए, और बड़े-बूढ़ों को यह बात समझ लेनी चाहिए। तो बड़े-बूढ़ों को कौन-सी मानसिकता अपनानी चाहिए जो सत्य के अनुरूप हो। उन्हें युवाओं के साथ सही ढंग से पेश आना चाहिए, और साथ ही उन्हें खुद को बहुत अनुभवी और गहरी दृष्टि वाला मानकर घमंडी और दंभी नहीं होना चाहिए। उन्हें खुद को साधारण मानना चाहिए, बिल्कुल सब लोगों जैसा ही—यही करना सही है। बड़े-बूढ़ों को अपनी उम्र को रुकावट नहीं बनने देना चाहिए, न ही उन्हें एक युवा व्यक्ति की मानसिकता पाने के लिए बदल जाना चाहिए। एक युवा व्यक्ति वाली मानसिकता में बदल जाना भी सामान्य नहीं है, इसलिए अपनी उम्र के कारण रुको मत। हमेशा यह न सोचो, “अरे, मैं बहुत बूढ़ा हूँ, मैं यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता। बूढ़ा होने के कारण मुझे युवाओं को दिखाने के लिए यह करना चाहिए, वह करना चाहिए, मुझे एक खास अंदाज से बैठना और खड़ा होना चाहिए, मुझे एक खास अच्छे तरीके से खाना चाहिए, ताकि युवा बड़े-बूढ़ों को नीची नजर से न देखें।” यह मानसिकता गलत है, और यह सोचकर तुम एक किस्म की गलत सोच द्वारा नियंत्रित और प्रतिबंधित हो रहे हो, और तुम थोड़ा कृत्रिम, नकली और झूठे हो रहे हो। अपनी उम्र के कारण रुको मत, बाकी सबकी तरह रहो, जो कुछ कर सकते हो और जो तुम्हें करना चाहिए, वह करो—इस तरह तुम्हारी मानसिकता सामान्य हो जाएगी। समझ गए? (हाँ।) तो जब किसी बड़े-बूढ़े में सामान्य मानसिकता होती है, तो उनकी बढ़ती उम्र के कारण उनमें पैदा हो सकने वाली विविध नकारात्मक भावनाएँ उनके जाने बिना ही गायब हो जाती हैं; वे अब तुम्हें उलझा नहीं सकतीं, उनसे होने वाली हानि भी गायब हो जाती है; ये नकारात्मक भावनाएँ अब उन्हें उलझा नहीं पाती हैं, इन भावनाओं के कारण उनको होने वाले नुकसान गायब हो जाते हैं, और तब उनकी मानवता, उनका तर्क, उनका जमीर, सब अपेक्षाकृत सामान्य हो जाते हैं। सामान्य जमीर और तार्किकता होने के आधार पर लोगों का आरंभ बिंदु सत्य के अनुसरण, उनके कर्तव्य-निर्वहन, किसी भी गतिविधि और कार्य में लगने के लिए अपेक्षाकृत सही हो जाता है, और प्राप्त नतीजे भी अपेक्षाकृत सही होते हैं। अव्वल तो बड़े-बूढ़े अपनी उम्र के कारण रुकेंगे नहीं बल्कि वस्तुपरक और व्यावहारिक ढंग से अपना मूल्यांकन कर पाएँगे, जो कार्य उन्हें करने चाहिए वे कर पाएँगे, दूसरे लोगों जैसे ही होंगे, और जो कर्तव्य उन्हें निभाना चाहिए उसे अपनी पूरी काबिलियत से निभा पाएँगे। युवाओं को नहीं सोचना चाहिए, “तुम इतने बूढ़े हो, तुम मेरे लिए जगह नहीं बनाते, न मेरी देखभाल करते हो। तुम इतने बूढ़े हो, तुम्हें अनुभवी होना चाहिए, मगर तुम मुझे काम करने के नुस्खे नहीं देते, और तुम्हारे साथ रहने का कोई फायदा नहीं है। तुम बूढ़े हो, तो फिर कैसे नहीं जानते कि युवाओं के प्रति सहृदयता से कैसे रहें?” क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं।) बड़े-बूढ़ों से ऐसी माँगें करना अनुचित है। इसलिए सत्य के समक्ष सभी लोग बराबर हैं। अगर तुम्हारी पूरी सोच व्यावहारिक, वस्तुपरक, सही और तार्किक है, तो वह यकीनन सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप होगी। अगर तुम किसी वस्तुपरक शर्त, कारण, परिवेश या किसी भी कारक से अप्रभावित हो, अगर तुम बस वही करते हो जो लोगों को करना चाहिए, और वही करते हो जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है, तो तुम जो करोगे वह यकीनन उपयुक्त और उचित होगा, मूल रूप से सत्य के अनुरूप होगा। तुम अपनी बूढ़ी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में भी नहीं घिरोगे, और यह समस्या दूर हो जाएगी।
बहुत बढ़िया, मैं आज की संगति यहीं समाप्त करूँगा। फिर मिलेंगे!
22 अक्तूबर 2022
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