सत्य का अनुसरण कैसे करें (2) भाग तीन
हर किसी को जीवन में कई बाधाओं और नाकामयाबियों से गुजरना पड़ता है। भला ऐसा कौन होगा जिसके जीवन में संतोष के सिवाय और कुछ न हो? ऐसा कौन होगा जिसने कभी किसी नाकामयाबी या झटके का अनुभव न किया हो? कभी-कभार जब चीजें सही न हों, या तुम झटकों और नाकामयाबियों का सामना करो, तो यह दुर्भाग्य नहीं है, इसका अनुभव तो तुम्हें होना ही चाहिए। यह खाना खाने जैसा है—तुम्हें खट्टा, मीठा, कड़वा, मसालेदार सब एक-समान खाना चाहिए। लोग नमक के बिना नहीं रह सकते, उन्हें थोड़ा नमकीन तो खाना ही पड़ता है, लेकिन अगर तुम बहुत ज्यादा नमक खाओगे, तो इससे तुम्हारे गुर्दों को नुकसान होगा। कुछ ऋतुओं में तुम्हें खट्टी चीजें खानी चाहिए, लेकिन ज्यादा खाना ठीक नहीं, क्योंकि खट्टा तुम्हारे दाँतों और पेट के लिए अच्छा नहीं होता। हर चीज संयम और संतुलन से खानी चाहिए। खट्टी, नमकीन और मीठी चीजें खाओ, साथ ही तुम्हें थोड़ी कड़वी चीजें भी खानी चाहिए। कुछ अंदरूनी अंगों के लिए कड़वी चीजें अच्छी होती हैं, इसलिए ये चीजें भी थोड़ी खानी चाहिए। इंसान का जीवन भी ऐसा ही है। जीवन के हर चरण में ज्यादातर जिन लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम्हारा सामना होता है, वे तुम्हारी पसंद के नहीं होंगे। ऐसा क्यों है? इसलिए कि लोग अलग-अलग चीजों का अनुसरण करते हैं। अगर तुम शोहरत, धन-दौलत, हैसियत और पैसे के पीछे भागते हो, दूसरों से बेहतर होकर बड़ी कामयाबी हासिल करना चाहते हो, वगैरह-वगैरह, तो 99 प्रतिशत चीजें तुम्हारी पसंद की नहीं होंगी। ठीक वैसे ही जैसे कि लोग कहते हैं : ये सब दुर्भाग्य और बदकिस्मती है। लेकिन अगर तुम यह ख्याल छोड़ दो कि तुम कितने खुशकिस्मत या बदकिस्मत हो, और इन चीजों से शांत और सही तरीके से पेश आओ, तो तुम्हें पता चलेगा कि ज्यादातर चीजें उतनी प्रतिकूल नहीं हैं या उनसे निपटना उतना मुश्किल नहीं है। जब तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं को जाने देते हो, जो भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना तुम्हारे साथ हो, उसे ठुकराना या उससे बचना बंद कर देते हो, और इन चीजों को तुम इस तराजू पर तोलना छोड़ देते हो कि तुम कितने खुशनसीब या बदनसीब हो, तो वे ज्यादातर चीजें जिन्हें तुम दुर्भाग्यपूर्ण और बुरी माना करते थे, वे अब तुम्हें अच्छी लगने लगेंगी—बुरी चीजें अच्छी में तब्दील हो जाएँगी। तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी, चीजों को देखने का तुम्हारा तरीका बदल जाएगा, इससे तुम अपने जीवन अनुभवों के बारे में अलग महसूस कर पाओगे और साथ-साथ तुम्हें मिलने वाले लाभ भी अलग होंगे। यह एक असाधारण अनुभव है, जो तुम्हें ऐसे लाभ पहुँचाएगा जिनकी तुमने कल्पना भी नहीं की थी। यह अच्छी बात है, बुरी नहीं। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग हमेशा प्रशंसा पाते हैं, हमेशा तरक्की पाते हैं, हमेशा सराहना और बढ़ावा पाते हैं, उन्हें अक्सर भाई-बहनों की स्वीकृति मिलती है, और सारे लोग उन्हें ईर्ष्या से देखते हैं। क्या यह अच्छी बात है? ज्यादातर लोग सोचते हैं कि ये चीजें इसलिए होती हैं क्योंकि भाग्य इन लोगों के साथ है। वे कहते हैं : “देखो, उस शख्स में अच्छी काबिलियत है, वह सौभाग्यशाली पैदा हुआ था, उसने अपने जीवन में काफी कुछ किया है—उसे अच्छे मौके मिलते हैं, तरक्की मिलती है। वह सच में बहुत सौभाग्यशाली है!” वे उससे बहुत जलते हैं। फिर भी, अंत में, उस व्यक्ति को कुछ ही वर्षों के भीतर बर्खास्त कर दिया जाता है, वह एक साधारण विश्वासी बन जाता है। इसे लेकर वह रोता-बिलखता है, फाँसी लगा लेने की कोशिश करता है, और कुछ ही दिनों में निकाल दिया जाता है। क्या यह सौभाग्य है? अगर तुम इस पर उस तरह से गौर करो, तो वह बेहद बदकिस्मत है। लेकिन क्या यह वास्तव में बदकिस्मती का मामला है? (नहीं।) दरअसल, ऐसा नहीं है कि उसकी किस्मत खराब है, बात यह है कि उसने सही मार्ग का अनुसरण नहीं किया। सही मार्ग पर न चलने के कारण, लोगों द्वारा “खुशकिस्मत” मानी जाने वाली चीजें जब उसके साथ हुईं, तो ये उसके लिए प्रलोभन, फाँस और उत्प्रेरक बन गईं, जिनसे उसका विनाश तेज हो गया। क्या यह अच्छी बात है? उसे हमेशा से चाह थी कि वह तरक्की पाए, बाकी सबसे बेहतर बने, ध्यान का केंद्र बने, और हर चीज बढ़िया ढंग से और जैसे वह चाहे वैसे ही हो, लेकिन अंत में क्या हुआ? क्या उसे हटा नहीं दिया गया? जब लोग सही मार्ग पर नहीं चलते, तो यही नतीजा मिलता है। अच्छे भाग्य के पीछे भागना अपने-आप में सही मार्ग नहीं है। भाग्य के पीछे भागने वाले लोग यकीनन उन तमाम चीजों को ठुकराएँगे और उनसे बचेंगे, जो बुरी हैं, जिन्हें लोग अक्सर अवाँछित मानते हैं, और जो चीजें लोगों की मनःस्थितियों और दैहिक रुचियों से मेल नहीं खातीं। वे ऐसी चीजों के होने से डरते, बचते और ठुकराते हैं। जब ये चीजें होती हैं, तो वे उन्हें “दुर्भाग्यपूर्ण” बताते हैं। क्या वे खुद को बदकिस्मत मानते हुए सत्य खोज सकते हैं? (नहीं।) क्या तुम सोचते हो कि सत्य न खोज सकने वाले और खुद को हमेशा बदकिस्मत मानने वाले लोग सही मार्ग पर चल सकते हैं? (नहीं।) यकीनन नहीं। इसलिए, हमेशा भाग्य के पीछे भागने वाले लोग, जो हमेशा सिर्फ अपने भाग्य पर ध्यान केंद्रित कर उसी के बारे में सोचते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो सही मार्ग पर नहीं चलते। ऐसे लोग अपने उचित कर्तव्य नहीं निभाते, सही मार्ग पर नहीं चलते, इसलिए वे अवसाद में डूबते रहते हैं। यह उनकी अपनी गलती है और वे इसी योग्य हैं! यह इसलिए होता है कि वे गलत मार्ग पर चलते हैं! वे अवसाद में डूबने लायक ही हैं। क्या इस अवसाद से बाहर निकलना आसान है? दरअसल, यह आसान है। अपने गलत नजरियों को जाने दो, हर चीज के अच्छा होने, या ठीक तुम्हारे चाहे जैसा या आसान होने की उम्मीद मत करो। जो चीजें गलत होती हैं, उनसे डरो मत, उनका प्रतिरोध मत करो या उन्हें मत ठुकराओ। इसके बजाय, अपने प्रतिरोध को जाने दो, शांत हो जाओ, समर्पण के रवैये के साथ परमेश्वर के समक्ष आओ, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज को स्वीकार करो। तथाकथित “अच्छे भाग्य” के पीछे मत भागो, और तथाकथित “खराब भाग्य” को मत ठुकराओ। तन-मन से परमेश्वर को समर्पित हो जाओ, उसे कार्य और आयोजन करने दो, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दो। तुम्हें जब और जिस मात्रा में जो चाहिए वह परमेश्वर तुम्हें देगा। वह उस परिवेश, उन लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन तुम्हारी जरूरत और कमियों के अनुसार करेगा जिनकी तुम्हें आवश्यकता है, ताकि तुम जिन लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आओ, उनसे वे सबक सीख सको जो तुम्हें सीखने चाहिए। बेशक, इन सबके लिए शर्त यह है कि तुम्हारे पास परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण की मानसिकता हो। इसलिए, पूर्णता के पीछे मत भागो; अवाँछित, शर्मिंदा करने वाली या प्रतिकूल चीजों के होने को मत ठुकराओ या उनसे मत डरो; और बुरी चीजों के होने का अंदर से प्रतिरोध करने के लिए अपने अवसाद का प्रयोग मत करो। मिसाल के तौर पर, अगर किसी गायक का गला किसी दिन खराब हो, और वह अच्छा प्रदर्शन न कर पाए, तो वह सोचेगा, “मैं बेहद अभागा हूँ! परमेश्वर मेरी आवाज की देखभाल क्यों नहीं कर रहा है? अकेले होने पर मैं आम तौर पर कितना बढ़िया गाता हूँ, लेकिन आज सब लोगों के सामने गाते हुए मैंने खुद को शर्मिंदा कर लिया है। मेरे सुर ठीक नहीं लगे, मैं ताल पकड़ नहीं पाया। मैंने नादानी कर खुद को हँसी का पात्र बना लिया!” नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना अच्छी बात है। यह तुम्हें अपनी कमियाँ समझने, और अभिमान के प्रति अपना प्रेम देखने में तुम्हारी सहायता करता है। यह तुम्हें दिखाता है कि तुम्हारी समस्याएँ कहाँ हैं और स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता है कि तुम एक पूर्ण व्यक्ति नहीं हो। कोई भी पूर्ण व्यक्ति नहीं होता और नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बहुत सामान्य है। सभी लोगों के सामने ऐसा समय आता है, जब वे नादानी करके हँसी का पात्र बनते हैं या शर्मिंदा होते हैं। सभी लोग असफल होते हैं, विफलताएँ अनुभव करते हैं और सभी में कमजोरियाँ होती हैं। नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बुरा नहीं है। जब तुम ऐसा करते हो लेकिन शर्मिंदा या भीतर गहराई में अवसाद-ग्रस्त महसूस नहीं करते, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम चिकने घड़े हो; इसका मतलब यह है कि तुम इस बात की परवाह नहीं करते कि हँसी का पात्र बनने से तुम्हारी प्रतिष्ठा प्रभावित होगी या नहीं और इसका मतलब है कि तुम्हारा घमंड अब तुम्हारे विचारों पर हावी नहीं है। इसका मतलब है कि तुम अपनी मानवता में परिपक्व हो गए हो। यह अद्भुत है! क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह एक अच्छी बात है। यह न सोचो कि तुमने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है या तुम्हारा भाग्य खराब है, और इसके पीछे वस्तुगत कारणों की तलाश न करो। यह सामान्य है। तुम खुद को हँसी का पात्र बना सकते हो, दूसरे खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं, सभी लोग खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं—आखिरकार तुम्हें पता चलेगा कि सब लोग एक समान हैं, सभी साधारण हैं, सभी नश्वर हैं, कोई भी किसी और से बड़ा नहीं है, कोई भी किसी और से बेहतर नहीं है। सभी लोग कभी-कभार खुद को हँसी का पात्र बना लेते हैं, इसलिए किसी को भी किसी दूसरे का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। एक बार जब तुम अनगिनत नाकामयाबियों का अनुभव कर लेते हो, तो तुम अपनी मानवता में थोड़े सयाने हो जाते हो; तो जब भी इन चीजों से तुम्हारा दोबारा सामना होगा, तब तुम विवश नहीं होगे, और इनका तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा। तुम्हारी मानवता सामान्य होगी, और तुम्हारी मानवता सामान्य होने पर तुम्हारा विवेक भी सामान्य होगा।
भाग्य के पीछे भागना पसंद करने वाले लोग, इस जीवन में सौभाग्य के पीछे भागने वाले लोग होते हैं, जो चीजों को अति तक ले जाते हैं। ये जिसका अनुसरण करते हैं वह गलत है, और उन्हें इसे त्याग देना चाहिए। हमने अभी-अभी इन अवाँछित चीजों को सँभालने और उनके प्रति सही दृष्टिकोण रखने के तरीके पर संगति की—क्या तुम सब अब यह समझ गए हो? हमने इस पर किस तरह संगति की थी? (लोगों को परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पण करना चाहिए। उन्हें पूर्ण लोग बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न ही किसी भी चीज से शर्मिंदा होने या कुछ प्रतिकूल होने से डरना चाहिए, और इन चीजों के होने पर उनका प्रतिरोध करने के लिए अपनी अवसाद की भावना का प्रयोग नहीं करना चाहिए।) अपने मन को शांत रखो, सही मनःस्थिति के साथ हर चीज का सामना करो। जब तुम्हारे साथ बुरी चीजें हों, तो उन्हें देखने और सुलझाने के लिए तुम्हारे पास सही मार्ग होना चाहिए, और भले ही तुम उन्हें अच्छे ढंग से न संभालो, तुम्हें अवसाद में नहीं डूबना चाहिए। नाकामयाब होने पर तुम दोबारा कोशिश कर सकते हो; बुरी-से-बुरी अवस्था में भी नाकामयाबी एक सबक होती है, तुम नाकामयाब हो भी गए, तब भी यह अनिच्छुक, प्रतिरोधी, ठुकराने वाला, और दूर भागने वाला होने से तो बेहतर है। तो आगे चाहे जो हो, तुम्हें चाहे जिस भी चीज का सामना करना पड़े, तुम्हें कभी उसे ठुकराना नहीं चाहिए, या उससे बच निकलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और अपने भाग्य के अच्छे या खराब होने के नजरिये से मापना तो बिल्कुल नहीं चाहिए। चूँकि तुम दृढ़तापूर्वक कहते हो कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों आयोजित होता है, इसलिए तुम्हें अपने भाग्य के अच्छे या खराब होने के नजरिये और मनःस्थिति से इन चीजों को नहीं मापना चाहिए, जो बुरी चीजें होती हैं उन्हें ठुकराना तो बिल्कुल नहीं चाहिए। बेशक इन चीजों को तुम्हें अवसाद की भावना के नजरिये से भी नहीं देखना चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें इन चीजों का सामना करते और पेश आते समय, पहल करने वाला सक्रिय रवैया और सकारात्मक मनोदशा अपनानी चाहिए, देखना चाहिए कि कौन-से सबक सीखे जाने हैं, और इनसे तुम्हें क्या समझ लेनी है—यही है जो तुम्हें करना चाहिए। क्या तुम्हारे विचार और नजरिये तब सही नहीं होंगे? (जरूर होंगे।) और जब तुम फिर से किन्हीं बुरी या दुर्भाग्यपूर्ण चीजों का सामना करो, तो तुम उनसे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आ सकते हो, तुम्हारे पास सही विचार और नजरिये होंगे, और इस प्रकार तुम्हारी मानवता और विवेक सामान्य हो जाएँगे। अगर ऐसे देखा जाए, तो क्या दृष्टिकोण का सही होना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है? क्या यह अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है कि भाग्य के मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार स्पष्ट रूप से समझा जाए? (हाँ।) अब चूँकि भाग्य के अच्छे या खराब होने की इस कहावत के बारे में हमारी संगति लगभग पूरी हो चुकी है, क्या अब तुम समझ गए हो? (हाँ।) अगर इस प्रकार की समस्या के सार को तुम स्पष्ट रूप से समझ सको, तो भाग्य के मामले पर तुम्हारा दृष्टिकोण सही होगा।
लोगों के अवसाद में डूबने का एक और कारण यह भी है कि वयस्क होने या सयाने होने से पहले ही लोगों के साथ कुछ चीजें हो जाती हैं, यानी वे कोई अपराध करते हैं, या कुछ बेवकूफी-भरे, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण काम करते हैं। इन अपराधों, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण करतूतों के कारण वे अवसाद में डूब जाते हैं। इस प्रकार का अवसाद अपनी ही निंदा है, और यह एक तरह से इसका निर्धारण भी है कि वे किस किस्म के इंसान हैं। इस प्रकार का अपराध यकीनन महज किसी की कसम खाना या किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई करना या ऐसी ही कोई अन्य तुच्छ बात नहीं है, बल्कि यह ऐसी चीज है जो व्यक्ति की शर्मिंदगी, व्यक्तित्व, प्रतिष्ठा और यहाँ तक कि कानून से भी जुड़ी होती है। चूँकि वे इस घटना को निरंतर याद करते हैं, अवसाद की भावना थोड़ा-थोड़ा कर वर्तमान तक उनके दिल में गहरे पैठती जाती है। ये अपराध क्या हैं? जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा, ये अज्ञानतापूर्ण, उपहासपूर्ण, और बेवकूफी-भरी करतूतें होती हैं, जो लोगों ने बचपन में या वयस्क होने के बाद की थीं। क्या तुम जानते हो कि इन चीजों में क्या शामिल हैं? उपहासपूर्ण, बेवकूफी-भरी और अज्ञानतापूर्ण—इसमें वे चीजें शामिल होती हैं जो दूसरों को नुकसान पहुँचाती हैं, मगर उनसे तुम्हें फायदा होता है, जिनके बारे में बात करना मुश्किल है, और जिन्हें लेकर तुम शर्मिंदा महसूस करते हो। यह चीज कोई ऐसी गंदी, घिनौनी, अश्लील, या अभद्र चीज हो सकती है, जो तुम्हें अवसाद की इस भावना में डुबो दे। यह अवसाद सिर्फ खुद को फटकार लगाना नहीं है, बल्कि अपनी निंदा करना है। क्या तुम सोच सकते हो कि मैंने जिस दायरे की रूपरेखा दी है, उसमें क्या चीजें शामिल हो सकती हैं? उदाहरण दो। (स्वच्छंद यौन संबंध।) हाँ, एक है स्वच्छंद यौन संबंध। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने अपने पति या पत्नी के साथ अपनी सोच या करनी में विश्वासघात किया है; कुछ लोगों ने व्यभिचार किया है, स्वच्छंद यौन संबंध बनाए हैं, लेकिन अभी भी छोड़ते नहीं और हमेशा सोचते रहते हैं कि वे किसके साथ व्यभिचार करना चाहते हैं; कुछ लोगों ने दूसरों को धोखा देकर पैसे ऐंठे हैं, शायद बहुत बड़ी धनराशि ऐंठ ली हो; कुछ ने दूसरों की चीजें चुराई हैं; और कुछ लोगों ने दूसरों को फँसाया या उनसे बदला लिया है। इनमें से कुछ चीजें कानून तोड़ने की कगार पर होती हैं, जबकि कुछ ने सचमुच कानून तोड़ ही दिया होता है; हो सकता है कि कुछ नैतिक सीमाओं को लांघने की कगार पर हों, जबकि हो सकता है कुछ सचमुच सामान्य मानवता की नीतियों के विरुद्ध हों। ये चीजें लोगों के अंतरतम में गहरे पैठी होती हैं, और समय-समय पर ये उन्हें याद आ जाती हैं। जब तुम अकेले होते हो, आधी रात को सो नहीं पाते, तब तुम्हें इनकी याद आ ही जाती है। ये तुम्हारे मन में किसी फिल्म की तरह चलती हैं, एक के बाद एक दृश्य सामने आते जाते हैं और तुम इन्हें मिटाने या झटक देने में असमर्थ होते हो। जब-जब तुम इन चीजों के बारे में सोचते हो, तुम अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हो, तुम्हारा चेहरा तपने लगता है, दिल काँपने लगता है, तुम शर्मिंदा महसूस करते हो, और तुम्हारी रूह पूरी तरह बेचैन हो जाती है। हालाँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी तुम्हें लगता है मानो तुमने वे सारी चीजें कल ही की थीं। तुम उनसे भाग नहीं सकते, छुप नहीं सकते, और तुम्हें कोई अंदाजा नहीं कि इन्हें पीछे कैसे छोड़ें। हालाँकि सिर्फ थोड़े-से दूसरे लोग तुम्हारी करतूतें जानते हैं, या शायद कोई नहीं जानता, फिर भी तुम्हें अपने दिल में बेचैनी का हल्का-सा भान होता है। इस बेचैनी से अवसाद आता है, और परमेश्वर का अनुसरण और अपना कर्तव्य निभाते समय यह अवसाद तुम्हें दोषी महसूस करवाता है। तुम विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि दोषी होने की यह भावना तुम्हारे अपने जमीर से आती है, कानून से आती है या फिर तुम्हारी नैतिकता और नीति-विचारों के भान से आती है। बात चाहे जो हो, ऐसे काम करने वाले लोग कोई खास चीज होने पर, या कुछ निश्चित माहौल या संदर्भों में अक्सर अनजाने ही बेचैन महसूस करते हैं। बेचैनी की यह भावना अनजाने ही उन्हें गहन अवसाद में डुबो देती है, और वे अपने अवसाद से बंधकर प्रतिबंधित हो जाते हैं। जब भी वे सत्य पर कोई धर्मसंदेश या संगति सुनते हैं, यह अवसाद धीरे-धीरे उनके दिमाग, और उनके अंतरतम में पहुँच जाता है, और वे खुद से कई सवाल पूछते हैं, “क्या मैं यह कर सकता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हूँ? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर सकता हूँ? मैं किस किस्म का इंसान हूँ? मैंने पहले वह काम किया, मैं वैसा इंसान हुआ करता था। क्या मैं बचाए जाने से परे हूँ? क्या परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा?” कुछ लोग कभी-कभार अपनी अवसाद की भावना को जाने दे सकते हैं, उसे पीछे छोड़ सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाने, दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करने में वे भरसक अपनी पूरी ईमानदारी और शक्ति लगा सकते हैं, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में तन-मन लगा सकते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों में अपने पूरे प्रयास उंडेल देते हैं। लेकिन जैसे ही कोई विशेष स्थिति या परिस्थिति सामने आती है, अवसाद की भावना उन पर फिर एक बार हावी हो जाती है, और उन्हें दिल की गहराई से दोषी महसूस करवाती है। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “तुमने पहले वह करतूत की थी, तुम उस किस्म के इंसान थे। क्या तुम उद्धार पा सकते हो? सत्य पर अमल करने का क्या कोई तुक है? तुम्हारी करतूत के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी करतूत के लिए तुम्हें माफ कर देगा? क्या अब इस तरह कीमत चुकाने से उस अपराध की भरपाई हो सकेगी?” वे अक्सर खुद को फटकारते हैं, भीतर गहराई से दोषी महसूस करते हैं, और हमेशा शक्की बन कर खुद से कई सवाल पूछते हैं। अवसाद की इस भावना को वे कभी पीछे नहीं छोड़ पाते, त्याग नहीं पाते, और अपनी शर्मनाक करतूतों के लिए वे हमेशा बेचैनी महसूस करते रहते हैं। तो, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, ऐसा लगता है मानो उन्होंने कभी परमेश्वर के वचन सुने ही नहीं या उन्हें समझा ही नहीं। मानो वे नहीं जानते कि क्या उद्धार-प्राप्ति का उनके साथ कोई लेना-देना है, क्या उन्हें दोषमुक्त कर छुड़ाया जा सकता है, या क्या वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना और उसका उद्धार प्राप्त करने योग्य हैं। उन्हें इन सब चीजों का कोई अंदाजा नहीं है। कोई जवाब न मिलने और कोई सही फैसला न मिलने के कारण, वे निरंतर भीतर गहराई से अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं। अपने अंतरतम में वे बार-बार अपनी करतूतें याद करते रहते हैं, वे उसे अपने दिमाग में बार-बार चलाते रहते हैं, शुरुआत से अंत तक याद करते हैं कि यह सब कैसे शुरू हुआ और कैसे खत्म। वे इसे कैसे भी याद करते हों, हमेशा पापी महसूस करते हैं और इसलिए वर्षों तक इस मामले को लेकर निरंतर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय भी, किसी कार्य के प्रभारी होने पर भी, उन्हें लगता है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रही। इसलिए, वे कभी भी सत्य का अनुसरण करने के मामले का सीधे तौर पर सामना नहीं करते, और नहीं मानते कि यह सबसे सही और अहम चीज है। वे मानते हैं कि पहले जो गलती उन्होंने की या जो करतूतें उन्होंने कीं, उन्हें ज्यादातर लोग नीची नजर से देखते हैं, या शायद लोग उनकी निंदा कर उनसे घृणा करें, या परमेश्वर भी उनकी निंदा करे। परमेश्वर का कार्य जिस भी चरण में हो, या उसने जितने भी कथनों का उच्चारण किया हो, वे सत्य का अनुसरण करने के मामले का कभी भी सही ढंग से सामना नहीं करते। ऐसा क्यों है? उनमें अपने अवसाद को पीछे छोड़ने का हौसला नहीं होता। ऐसी चीज का अनुभव करके इस किस्म का इंसान यही अंतिम निष्कर्ष निकालता है, और चूँकि वह सही निष्कर्ष नहीं निकालता, इसलिए वह अपने अवसाद को पीछे छोड़ने में असमर्थ होता है।
ऐसे बहुत-से लोग जरूर होंगे जिन्होंने छोटा या बड़ा, कोई-न-कोई अपराध किया होगा, मगर बहुत संभव है कि नैतिकता के दायरे लांघने वाले गंभीर अपराध बहुत कम लोगों ने किए हों। हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे जिन्होंने तरह-तरह के दूसरे अपराध किए हैं, बल्कि हम सिर्फ इस बारे में बात करेंगे कि जिन लोगों ने गंभीर अपराध किए हैं और जिन्होंने नैतिक सीमाओं और नीतियों के पार के अपराध किए हैं, उन्हें क्या करना चाहिए। जहाँ तक गंभीर अपराध करने वालों की बात है—और यहाँ मैं उन अपराधों की बात कर रहा हूँ जो नैतिक सीमाओं से परे हैं—इसमें परमेश्वर के स्वभाव का अपमान और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन शामिल नहीं है। समझ गए? मैं उन अपराधों की बात नहीं कर रहा हूँ जो परमेश्वर, उसके सार या उसकी पहचान और हैसियत के अपमान से जुड़े हैं, मैं उन अपराधों की भी बात नहीं कर रहा हूँ, जो परमेश्वर की निंदा से जुड़े हैं। मैं ऐसे अपराधों की बात कर रहा हूँ जो नैतिक सीमाएँ पार कर जाते हैं। यह भी बताना है कि ऐसे अपराध करने वाले लोग अपनी अवसाद की भावना कैसे दूर कर सकते हैं। ऐसे लोग दो रास्ते पकड़ सकते हैं, और यह मुद्दा सरल है। पहले, अगर तुम्हें दिल से लगता है कि तुमने जो किया उसे जाने दे सकते हो या तुम्हारे पास दूसरे व्यक्ति से माफी माँगने और फिर से करीब आने का मौका है, तो तुम उनसे माफी माँग कर करीब आ सकते हो। इस तरह तुम्हारी आत्मा को शांति और आराम की भावनाएँ वापस मिल जाएँगी; अगर तुम्हारे पास ऐसा करने का मौका नहीं है, यह संभव नहीं है और अगर तुम अपने अंतरतम में अपनी समस्या को सचमुच जान गए हो, अगर तुम्हें एहसास है कि तुम्हारी करतूत कितनी गंभीर है और तुम्हें सचमुच पछतावा है, तो तुम्हें पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। जब भी तुम अपनी करतूत के बारे में सोचते हो और खुद को दोषी मानते हो, उसी समय तुम्हें पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, परमेश्वर से क्षमा और दोष-मुक्ति पाने के लिए तुममें पूरी ईमानदारी और सच्ची भावना होनी चाहिए। परमेश्वर तुम्हें किस तरह से क्षमादान देकर दोष-मुक्त कर सकता है? यह तुम्हारे दिल पर निर्भर करता है। अगर तुम सचमुच पाप-स्वीकार करते हो, सच में अपनी गलती और समस्या को पहचान लेते हो और तुमने अपराध किया हो या पाप, तुम सच्चे पाप-स्वीकार का रवैया अपना लेते हो, तुम अपनी करतूत के लिए सच्ची घृणा महसूस करते हो और सच में सुधर जाते हो, ताकि तुम वह गलत काम दोबारा न करो, तो फिर एक दिन तुम्हें परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति मिल जाएगी, यानी परमेश्वर तुम्हारी की हुई अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और गंदी करतूतों के आधार पर तुम्हारा परिणाम तय नहीं करेगा। जब तुम इस स्तर पर पहुँच जाओगे, तो परमेश्वर इस मामले को पूरी तरह भूल जाएगा; तुम भी दूसरे सामान्य लोगों जैसे ही होगे, जरा भी फर्क नहीं होगा। लेकिन यह इस बात पर निर्भर होगा कि तुम ईमानदार रहो और तुम्हारा रवैया दाऊद की तरह सच्चा हो। अपने अपराध के लिए दाऊद ने कितने आँसू बहाए थे? अनगिनत आँसू। वह कितनी बार रोया था? अनगिनत बार। उसके बहाए आँसुओं को इन शब्दों में बयान किया जा सकता है : “मैं हर रात अपने आँसुओं में तैरते बिस्तर पर सोता हूँ।” मुझे नहीं पता कि तुम्हारा अपराध कितना गंभीर है। अगर सचमुच गंभीर है, तो तुम्हें तब तक रोना पड़ सकता है जब तक कि तुम्हारा बिस्तर तुम्हारे आँसुओं पर तैरने न लगे—परमेश्वर से क्षमा पाने से पहले तुम्हें उस स्तर तक पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त करना पड़ सकता है। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो मुझे डर है कि तुम्हारा अपराध परमेश्वर की नजरों में पाप बन जाएगा और तुम्हें इससे छुटकारा नहीं मिलेगा। तब तुम मुसीबत में पड़ जाओगे और फिर इस बारे में कुछ भी और कहना बेतुका होगा। इसलिए परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति पाने का पहला कदम यह है कि तुम्हें ईमानदार बनना चाहिए और पाप-स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाने चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या मुझे सबको इस बारे में बताना चाहिए?” यह जरूरी नहीं है; बस खुद जाकर परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब कभी तुम बेचैन महसूस करो और खुद को दोषी मानो, तो तुम्हें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे माफी माँगनी चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर ने मुझे क्षमा कर दिया है, यह जानने के लिए मुझे कितनी प्रार्थना करनी चाहिए?” जब तुम इस मामले में खुद को दोषी न मानो, जब इस मामले की वजह से तुम अवसाद में न डूबो, तब जाकर तुम्हें परिणाम मिल जाएँगे और यह पता लग जाएगा कि परमेश्वर ने तुम्हें क्षमादान दे दिया है। जब कोई व्यक्ति, कोई ताकत, कोई बाहरी शक्ति तुम्हें विचलित न कर पाए, जब तुम किसी व्यक्ति, घटना या चीज से बाध्य न हो, उस समय तुम्हें परिणाम मिल चुके होंगे। यह पहला कदम है जो तुम्हें उठाना होगा। दूसरा कदम यह है कि क्षमादान के लिए परमेश्वर से निरंतर विनती करते हुए तुम्हें सक्रियता से उन सिद्धांतों को खोजना होगा जिनका तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अनुसरण करना चाहिए—ऐसा करके ही तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकोगे। बेशक, यह भी एक व्यावहारिक कार्य है, एक व्यावहारिक अभिव्यक्ति और रवैया है जो तुम्हारे अपराध की भरपाई करेगा और जो साबित करेगा कि तुम प्रायश्चित्त कर रहे हो और तुमने खुद को सुधार लिया है; यह तुम्हें जरूर करना होगा। तुम परमेश्वर की आज्ञा यानी अपना कर्तव्य कितने अच्छे ढंग से निभाते हो? क्या तुम इसे अवसाद-ग्रस्त होकर निभाते हो या उन सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए निभाते हो जिनकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है? क्या तुम निष्ठा दिखाते हो? परमेश्वर को किस आधार पर तुम्हें क्षमादान देना चाहिए? क्या तुमने प्रायश्चित्त किया है? तुम परमेश्वर को क्या दिखा रहे हो? अगर तुम परमेश्वर से क्षमादान पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले ईमानदार बनना पड़ेगा : एक ओर तो तुम्हें ईमानदारी से पाप-स्वीकार करना पड़ेगा और ईमानदारी से अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना होगा, वरना सब निरर्थक है। अगर तुम ये दो चीजें कर सको, अगर तुम ईमानदार और आस्थावान बनकर परमेश्वर का मन जीत सको और परमेश्वर के हाथों अपने पापों से मुक्ति पा सको, तो तुम ठीक दूसरे लोगों जैसे ही बन जाओगे। परमेश्वर तुम्हें भी उसी नजर से देखेगा जिससे वह दूसरों को देखता है, वह तुमसे भी वैसे ही पेश आएगा जैसे वह दूसरों से पेश आता है, और वह तुम्हें भी उसी तरह न्याय और ताड़ना देगा, परीक्षण करके तुम्हारा शोधन करेगा, जैसे वह दूसरे लोगों को करता है—तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं होगा। इस प्रकार तुममें न सिर्फ सत्य का अनुसरण करने का दृढ़-संकल्प और आकांक्षा होगी, बल्कि परमेश्वर सत्य के अनुसरण में तुम्हें भी उसी तरह प्रबुद्ध करेगा, मार्गदर्शन और पोषण देगा। बेशक, अब चूँकि तुममें ईमानदार और सच्ची आकांक्षा और एक ईमानदार रवैया है, इसलिए परमेश्वर तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं करेगा और ठीक दूसरे लोगों की ही तरह तुम्हें उद्धार का मौका मिलेगा। तुमने यह समझ लिया है, है न? (हाँ।) गंभीर अपराध करना एक विशेष मामला है। हम नहीं कह सकते कि यह डरावना नहीं है; यह बहुत गंभीर समस्या है। यह साधारण भ्रष्ट स्वभाव या कुछ गलत विचार या नजरियों के होने जैसा नहीं है। ऐसा सच हुआ है जो तथ्य बन चुका है और जिसके गंभीर परिणाम होते हैं। इसीलिए इससे एक विशेष तरीके से पेश आना चाहिए। इससे विशेष तरीके से पेश आया जाए या सामान्य तरीके से, लेकिन हमेशा आगे बढ़ने और इसे सुलझाने का रास्ता होता है, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम उन तरीकों और विधियों के अनुसार अभ्यास कर सकते हो जो मैं तुम्हें बताऊँगा और जिनका रास्ता दिखाऊँगा। अगर तुम सच में इस तरह अभ्यास करो, तो अंत में तुम्हें उद्धार प्राप्त करने की उतनी ही उम्मीद होगी जितनी दूसरों को होती है। बेशक, इन सबको सुलझाना सिर्फ इसलिए नहीं है कि लोग अवसाद की अपनी भावना को पीछे छोड़ सकें। अंतिम लक्ष्य यह है कि अवसाद की अपनी भावना को दूर कर वे लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय जमीर और विवेक के दायरे में इन सब चीजों के प्रति सही दृष्टिकोण अपना सकें। उन्हें अति नहीं करनी चाहिए और न ही जिद्दी होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के इरादों और सत्य खोजने में आगे बढ़ना चाहिए, सृजित प्राणी से अपेक्षित जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, जब तक अंत में वे पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को मानदंड बनाकर लोगों और चीजों को देख न सकें और आचरण और कार्य न कर सकें। एक बार इस वास्तविकता में प्रवेश कर लेने पर लोग धीरे-धीरे उद्धार के मार्ग की ओर जाने लगेंगे और इस तरह उन्हें उद्धार प्राप्त करने की आशा होगी। क्या गंभीर अपराधों से पैदा होने वाली अवसाद की भावना को दूर करने का रास्ता अब तुम्हारे मन में स्पष्ट हो गया है? (हाँ, बिल्कुल हो गया है।)
क्या अवसाद की भावना को दूर करना एक मुश्किल समस्या है? मेरे विचार से यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि यह जीवन के अहम मामलों से जुड़ी होती है, यह उस मार्ग से जुड़ी होती है, जिस पर लोग परमेश्वर में आस्था के दौरान चलते हैं, क्या वे आगे चलकर उद्धार प्राप्त कर सकेंगे या उनकी आस्था बेकार हो जाएगी—यह एक बहुत बड़ा मसला है। ऊपर से जो प्रकट है वह एक भावना है, जबकि इस भावना के पैदा होने के कई कारण हैं। आज मैंने इन कारणों के बारे में स्पष्ट संगति की है और इन कारणों की समस्या को दूर करने का रास्ता भी बताया है, तो क्या अवसाद की भावना अब फौरन दूर नहीं की जा सकती? (की जा सकती है।) सैद्धांतिक तौर पर यह दूर कर दी गयी है। धर्मसैद्धांतिक समझ पाकर और फिर इस धर्मसिद्धांत की अपने कृत्यों से तुलना कर, धीरे-धीरे जीवन की अपनी मुश्किलों, अपनी सोच की मुश्किलों को दूर करने के लिए इस धर्मसिद्धांत को आधार बनाकर उसका प्रयोग करके, और निरंतर इस मार्ग पर चलकर, तुम धीरे-धीरे सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकते हो। समस्या को सुलझाने के इस तरीके के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) लोगों को इसी तरह समस्या हल करनी चाहिए। अगर नहीं करते, तो उनके भीतर की जटिल समस्याएँ—उनकी सोच की, दिल में पैठी हुई समस्याएँ, उनके मानसिक मसले, उनके भ्रष्ट स्वभाव—ये चीजें उन्हें कसकर बाँध लेती हैं। इस तरह बंध कर वे फँस जाते हैं, कष्ट सहते हैं और हमेशा थका हुआ महसूस करते हैं, नहीं जानते कि हँसें या रोएँ, और उन्हें कभी बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल पाता। आज की संगति सुनकर, तुम इस पर सावधानी से चिंतन कर सकते हो और इसकी धर्म-सैद्धांतिक समझ हासिल कर सकते हो। फिर अपने दैनिक जीवन के व्यावहारिक अनुभवों और निजी अनुभवों के जरिये तुम धीरे-धीरे इन नकारात्मक भावनाओं और अपने भ्रष्ट स्वभाव की विविध दशाओं से बाहर निकल सकते हो। एक बार उन्हें पीछे छोड़ देने के बाद, तुम न सिर्फ सचमुच मुक्त और स्वतंत्र हो जाओगे, न सिर्फ सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे, बल्कि सबसे अहम, तुम सत्य को समझ चुके होगे, तुमने सत्य हासिल कर लिया होगा और तुम सत्य वास्तविकता को जी पा रहे होगे। तब तुम बड़े उपयोगी होगे, मूल्यों वाला जीवन जियोगे। क्या तुम लोग उस तरह जीना चाहते हो? (हाँ।) ज्यादातर लोग सत्य को समझकर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हैं और अपना जीवन नकारात्मक दैहिक भावनाओं, कामुक शारीरिक इच्छाओं, सांसारिक प्रवृत्तियों और भ्रष्ट स्वभावों में नहीं बिताना चाहते—उस तरह का जीवन बहुत मुश्किल और थकाऊ होता है। ऐसे भ्रष्ट स्वभावों और नकारात्मक भावनाओं में जीते रहने से क्या तुम्हारे जीवन का नतीजा अच्छा होगा? इन नकारात्मक भावनाओं में जीना शैतान की सत्ता में जीना है। यह चक्की के दो पाटों के बीच में जीने जैसा है—देर-सवेर तुम उसमें पिस जाओगे और बाहर निकलना मुश्किल होगा। लेकिन अगर तुम सत्य को स्वीकार कर सको, तो असमंजस और पीड़ा को पीछे छोड़ देने की उम्मीद रख सकते हो और तुम नकारात्मक भावनाओं की उलझन और असमंजस से पैदा होने वाली पीड़ा से बच कर बाहर निकल सकते हो।
आज मैंने पहले एक से अधिक विषयों पर संगति करने की योजना बनाई थी, मगर हुआ यह कि मैं काफी देर तक अवसाद पर ही संगति करता रहा। किसी भी मामले पर कहने को बहुत कुछ होता है; थोड़े-से शब्दों में कुछ भी स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता। मैं जिस बारे में भी बात करूँ, बस किसी मामले का धर्म-सिद्धांत समझा कर खत्म नहीं कर सकता। किसी भी मामले में सत्य और वास्तविकता के कई पहलू होते हैं; इससे जुड़ी होती है लोगों की सोच और दृष्टिकोण, उनके आचरण के तरीके और उपाय, वह मार्ग जिस पर वे चलते हैं और इन सबका संबंध तुम लोगों की उद्धार-प्राप्ति से होता है। किसी सत्य या किसी विषय पर संगति करते समय मैं लापरवाह नहीं हो सकता, इसलिए मैं हर संभव तरीके आजमाता हूँ, तुम लोगों को बार-बार बताने के लिए किच-किच करने वाली बूढ़ी दादी अम्मा की तरह। शिकायत मत करो कि इससे परेशानी होती है, यह लंबी-चौड़ी है। शायद इस विषय पर मैं बोल चुका हूँ, तो उस बारे में दोबारा बोलने की क्या जरूरत है? अगर मैं उस पर दोबारा बोलूँ, तो तुम दोबारा सुन लो और इसे एक पुनरावलोकन मान लो। यह ठीक है, है न? (हाँ।) संक्षेप में, सत्य से जुड़े मामलों और जिस मार्ग पर लोग चलते हैं, उनके प्रति निष्ठापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, तुम्हें लापरवाह नहीं होना चाहिए। मैं जितने विस्तार से बोलूँगा और जितनी विशिष्ट बातें बताऊँगा, इस बारे में तुम्हारी समझ उतनी ही विस्तृत और स्पष्ट होगी कि दूसरे पहलुओं के साथ-साथ, विविध सत्यों के बीच क्या संबंध है, साथ ही उनके विवरणों के बीच क्या फर्क और संबंध है। अगर मैं सामान्य ढंग से बात करता, और चीजों के बारे में मोटे तौर पर बताता, तो तुम्हें इसे समझने और आत्मसात करने में मुश्किल होती और अपने-आप इन चीजों पर विचार कर इन्हें समझने की कोशिश करना तुम लोगों के लिए थकाऊ होता, सही है न? (हाँ।) मिसाल के तौर पर, आज का हमारा विषय—नियति, भाग्य और लोगों द्वारा पहले किए गए खास अपराधों से पैदा होने वाली नकारात्मक भावनाएँ—इन चीजों के बारे में तुम लोग अपने-आप नहीं सोच सकते हो, और सोच भी लो, तो तुम इनसे बाहर निकलने का रास्ता नहीं जान पाओगे। चूँकि तुम इन चीजों के भीतर के सत्य को नहीं समझते, तुम पहले किए गए अपराध—विशेष के मामले का सही जवाब कभी नहीं ढूँढ़ पाओगे और यह तुम्हारे लिए हमेशा एक रहस्य बना रहेगा, हमेशा तुम्हें परेशान कर उलझन में डालता रहेगा, तुम्हारे अंतरतम की शांति, उल्लास, आजादी और मुक्ति छीनता रहेगा। या शायद चूँकि तुमने इस मामले को सही ढंग से नहीं सँभाला और तुम सही मार्ग पर नहीं चले, इसलिए तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति पर इसका असर पड़ा। अंत में कुछ लोग छोड़ दिए गए, हटा दिए गए। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि उन्होंने पहले कुछ ऐसे काम किये जिनके बारे में बताया नहीं जा सकता, उन्होंने उन्हें अच्छे ढंग से नहीं सँभाला और उनके लिए क्षमादान प्राप्त नहीं किया। उनका दिल इन चीजों में निरंतर उलझा रहा; सत्य का अनुसरण करने का उनका मन नहीं हुआ, उन्होंने अपना कर्तव्य फूहड़ ढंग से निभाया, उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया और उन्हें लगा मानो सत्य का अनुसरण करना उनके लिए बेकार है। वे बिल्कुल अंत तक इस नकारात्मक भावना को ढोते रहे, उन्होंने कभी भी अनुभवात्मक गवाही की बात नहीं की और सत्य हासिल नहीं किया। इसके बाद ही उन्हें खेद हुआ, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसलिए, क्या ये सभी मामले सत्य और उद्धार प्राप्त करने से जुड़े हुए हैं? (जरूर जुड़े हुए हैं।) यह मत सोचो कि चूँकि ये मामले तुम्हारे साथ नहीं हुए, किसी दूसरे के साथ नहीं हुए या तुम्हारे आसपास के लोगों के साथ नहीं हुए, इसलिए इनका अस्तित्व नहीं है। मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ, तुमने पहले शायद कुछ अशोभनीय काम किए हों, जिनके अब तक कोई भयानक नतीजे न निकले हों या तुम शायद पहले इस किस्म की नकारात्मक भावना में घिर चुके हो या अब उसमें घिरे हुए हो, बस इस ओर तुम्हारा ध्यान नहीं गया या तुम इससे अनजान रहे, और फिर एक दिन वास्तव में कुछ घट जाता है, यह भावना तुम पर गहरा असर डालती है और इसके गंभीर नतीजे निकलते हैं। जब तुम गहराई से अपनी जाँच करते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि तुम अनजाने ही अनेक वर्षों या और भी लंबे समय से इस नकारात्मक भावना में घिरे हुए थे। इसीलिए लोगों को इन चीजों के बारे में निरंतर सोच-विचार और चिंतन कर समझना, मूल्याँकन और अनुभव करना चाहिए ताकि उन्हें धीरे-धीरे इनका पता चल सके। बेशक, आखिरकार इन चीजों का पता कर लेना तुम्हारे लिए बहुत अच्छी खबर है और उद्धार प्राप्त करने का बढ़िया मौका है। जब तुम इनका पता कर लोगे, तभी तुम्हें इन्हें पीछे छोड़ने का मौका मिलेगा या तुम्हें उम्मीद होगी और आज मैंने जो कुछ बताया वह बेकार साबित नहीं होगा। कोई भी सत्य, कोई भी विषय और कोई भी बात एक या दो दिन में पूरी तरह से समझ या अनुभव नहीं की जा सकती। चूँकि इसका संबंध सत्य से है, इसलिए इससे जुड़ी हुई है मानवता, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, उनका मार्ग और लोगों की उद्धार-प्राप्ति। यही कारण है कि तुम किसी भी सत्य की अनदेखी नहीं कर सकते, बल्कि तुम्हें उन सबके प्रति एक ईमानदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। भले ही तुम अभी इन सत्यों को बहुत अच्छी तरह नहीं समझते और नहीं जानते कि यह समझने के लिए खुद को कैसे जाँचें कि इन सत्यों के अनुसार तुममें कौन-सी समस्याएँ हैं, तो शायद कुछ वर्षों तक अनुभव करने के बाद ये सत्य तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाध्यता से बचा सकेंगे और ये तुम्हें बचाने वाले अनमोल सत्य बन जाएँगे। ऐसा होने पर, ये सत्य तुम्हें जीवन में सही मार्ग दिखाएँगे और लगभग दस साल में, ये वचन और सत्य तुम्हारी सोच और नजरिये को पूरी तरह बदल चुके होंगे और तुम्हारे लक्ष्य और जीवन की दिशा पूरी तरह रूपांतरित हो चुकी होगी।
इसी के साथ मैं आज की संगति समाप्त करता हूँ। फिर मिलेंगे।
1 अक्तूबर 2022
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