सत्य का अनुसरण कैसे करें (13) भाग दो

पिछली बार हमने एक और विषय पर चर्चा की थी—परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्याग देना। किसी व्यक्ति के परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव उसके बचपन से ही शुरू हो जाते हैं। वयस्क होने पर वे धीरे-धीरे इन सिखाए गए विचारों और सोच को अपने जीवन में लागू करने लगते हैं। थोड़ा जीवन अनुभव प्राप्त होते-होते, वे अपने परिवार द्वारा सिखाए गए इन विचारों और सोच को और उन्मुक्त ढंग से अमल में लाने लगते हैं, और इस आधार पर वे और ज्यादा नफीस, विशिष्ट और अपने लिए ज्यादा हितकारी विविध सिद्धांत, तरीके और चीजों से निपटने के गुर जमा कर लेते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव किसी व्यक्ति के लिए समाज और अपने सामुदायिक समूहों में जाते समय प्रवेशिका की भूमिका निभाते हैं, जिससे दूसरों के साथ रहते हुए वे खुलकर विभिन्न तरीकों और गुरों का इस्तेमाल करते हैं। चूँकि परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव एक प्रवेशिका हैं, इसलिए वे प्रत्येक व्यक्ति के दिल में गहरे पैठे और जड़ें जमाए होते हैं। ये चीजें लोगों के जीवन, उनके आचरण और कार्य के तरीके, और जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को प्रभावित करती हैं। लेकिन चूँकि शिक्षा के ये प्रभाव सकारात्मक नहीं होते, इसलिए वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में जाने देना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसी शिक्षा द्वारा तुम्हारे भीतर पिरोये गए विचार और सोच तुम्हारे दिल की गहराई में आकार लेते हैं या नहीं, या वे भीतर गहरे तुम पर हावी होते हैं या नहीं—और निश्चित रूप से इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने अपने जीवन के दौरान ऐसे विचारों और सोच को सच के रूप में पुष्ट कर उन पर अमल किया है या नहीं—शिक्षा के ये प्रभाव अभी और भविष्य दोनों में, अलग-अलग सीमा तक तुम्हारे जीवन पर असर डालेंगे, तुम्हारे जीवन पथ के चयन को प्रभावित करेंगे, और उन रवैयों और सिद्धांतों को प्रभावित करेंगे जिनसे तुम चीजों से निपटते हो। कहा जा सकता है कि ज्यादातर परिवार लोगों को सांसारिक आचरण के सबसे मौलिक गुर और फलसफे मुहैया कराते हैं, ताकि वे समाज में जी सकें और जीवित रह सकें। मिसाल के तौर पर, पिछली बार हमने उन चीजों के बारे में संगति की थी जो माता-पिता हमेशा कहते हैं, जैसे कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” और साथ ही “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी” और “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” दूसरी कौन-सी कहावतें थीं? “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” और “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” इन विविध विचारों और सोच को, जिनकी शिक्षा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें दी है, तुम चाहे अपने जीवन में स्पष्ट रूप से लागू करो या नहीं, ये तुम्हारी प्रवेशिका हैं। “प्रवेशिका” से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य उस चीज से है जो सांसारिक आचरण की खातिर शैतान के फलसफों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती और उसकी ओर धकेलती है। तुम्हारे परिवार द्वारा बताई गई इन कहावतों ने तुममें दुनिया से निपटने और जीवित रहने का सबसे मौलिक तरीका पिरो दिया है, ताकि इस समाज में प्रवेश करने के बाद तुम शोहरत, लाभ, हैसियत के पीछे भागने के लिए कड़ी मेहनत करो, मुखौटा लगा कर खुद को बेहतर ढंग से पेश करने का प्रयास करो, और लोगों के बीच उत्तम बनने और शीर्ष पर पहुँचने और शीर्ष पर बने रहने के लिए मेहनत करो। तुम्हारे परिवार ने जिन चीजों की तुम्हें शिक्षा दी है, वे तुम्हारे लिए दुनिया से निपटने के नियम और गुर हैं, जो तुम्हें समाज में प्रवेश करने और बुरी प्रवृत्तियों को अपनाने की ओर धकेलती हैं।

पिछली बार हमने लोगों पर उनके परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों पर संगति की थी। इनके अलावा और भी शैक्षिक प्रभाव होते हैं, तो चलो उनके बारे में संगति जारी रखें। मिसाल के तौर पर, कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “साथ-साथ चल रहे किन्हीं भी तीन लोगों में कम-से-कम एक ऐसा होता है जो मेरा शिक्षक बन सकता है।” यह किसने कहा था? (कन्फ्यूशियस ने।) हाँ, यह कन्फ्यूशियस ने ही कहा था। कुछ माता-पिता बच्चों को बताते हैं : “जहाँ भी जाओ तुम्हें कौशल सीखने चाहिए। एक बार उन्हें सीख लोगे, तो तुम्हारे पास एक विशेष क्षेत्र का कौशल होगा, तुम्हें कभी बेरोजगारी की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी, और हर स्थिति में तुम वह अधिकारी बन जाओगे जिससे सब मदद माँगने आएँगे। एक पुराने ज्ञानी ने बहुत सही कहा था, ‘साथ-साथ चल रहे किन्हीं भी तीन लोगों में कम-से-कम एक ऐसा होता है जो मेरा शिक्षक बन सकता है।’ जब भी तुम दूसरों के आसपास रहो, तो गौर करो कि किसके पास किस क्षेत्र विशेष का कौशल है। उन्हें पता चले बगैर चोरी-छिपे वह कौशल सीख लो, फिर उसमें महारत हासिल कर लेने के बाद वह कौशल तुम्हारा बन जाएगा, और तुम अपने लिए पैसे कमा सकोगे, और तुम्हें जीवन की बुनियादी जरूरतों की कभी कोई कमी नहीं होगी।” दूसरों के बीच रहते हुए कौशल सीखने के लिए तुम्हें प्रेरित करने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का लक्ष्य क्या है? (दुनिया में आगे बढ़ाना।) कौशल सीखने का लक्ष्य तुम्हें खुद को सशक्त बनाना है, शीर्ष पर पहुँचना है, दूसरों से चोरी-छिपे कौशल सीख लेना है, और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ानी है। अगर लोगों के बीच तुम सशक्त हो, तो तुम्हारे पास आजीविका होगी, साथ ही शोहरत और धन-दौलत भी होगा। जब तुम्हारे पास शोहरत और धन-दौलत दोनों होंगे, तो लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखेंगे। अगर तुम्हारे पास असली कौशल नहीं होंगे, तो कोई भी तुम्हारे बारे में ऊँची राय नहीं रखेगा, इसलिए तुम्हें दूसरों से चोरी-छिपे कौशल सीखने होंगे, दूसरों की खूबियाँ और कौशल सीखने होंगे, धीरे-धीरे उनसे अधिक शक्तिशाली बनना होगा—तभी तुम शीर्ष पर पहुँच पाओगे। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” उसी लक्ष्य से कि उनके बच्चे दूसरों से सराहना और ऊँचा सम्मान पा सकें। अगर तुम लगन से कड़ी मेहनत करो, और दूसरे जब न देख रहे हों, तब कौशल सीखने के लिए बड़ी मुश्किलें सहो, तो उन्हें हासिल कर लेने के बाद तुम अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित कर सकोगे, और जब भी लोग तुम्हें नीची नजर से देखें या धमकाएँ, तो तुम अपनी प्रतिभा का दिखावा कर सकते हो, और फिर कोई भी तुम्हें धमकाने की हिम्मत नहीं करेगा। भले ही तुम साधारण और मामूली दिखाई दो, ज्यादा न बोलो, फिर भी तुम्हारे पास तकनीकी क्षमताओं के रूप में कुछ ऐसे कौशल होंगे जो साधारण लोगों की समझ से बाहर होंगे, इसलिए दूसरे तुम्हें सराहेंगे, तुम्हारे सामने छोटा महसूस करेंगे, और तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में देखेंगे जो उनकी मदद कर सकता है। इस तरह क्या लोगों के बीच तुम्हारा मूल्य बढ़ नहीं जाता? मूल्य बढ़ने से क्या तुम प्रतिष्ठित नहीं लगने लगते? अगर तुम दूसरों के बीच विशिष्ट हैसियत प्राप्त करने के लिए मेहनत करना चाहते हो, तो जब वे न देख रहे हों, तब तुम्हें मुश्किल और कष्ट झेलने पड़ेंगे। चाहे जितनी भी मुश्किलें सहनी पड़ें सह लो और लगे रहो, और जब लोग देखेंगे कि तुम कितने सक्षम हो तो यह सब इस योग्य साबित होगा। “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” यह कहावत तुम्हें बताने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का लक्ष्य क्या है? उनका लक्ष्य यह है कि तुम दूसरों के बीच विशिष्ट हैसियत हासिल करो, उनका सम्मान पाओ, बजाय इसके कि तुम्हारे साथ भेदभाव हो या तुम्हें धमकाया जाए, ताकि तुम न सिर्फ जीवन की बढ़िया चीजों के मजे ले पाओ, बल्कि दूसरों का आदर और समर्थन भी जीतो। ऐसी हैसियत वाले लोग समाज में धमकाए नहीं जाते, बल्कि वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ उनके लिए हर चीज आसान हो जाती है। जब भी लोग तुम्हें आता देखेंगे, वे कहेंगे, “ओह, आप हैं, आपके आने की यह खुशी भला हमें कैसे मिली? आपका दर्शन मिलना हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य है! क्या यहाँ आपको कोई काम है? मैं आपका काम कर दूँगा। अरे, आप टिकट खरीदने आए हैं? अच्छा-अच्छा, लाइन में लगने की जरूरत नहीं। मैं आपको सबसे बढ़िया सीट दिलवा दूँगा। आखिर हम मित्र जो हैं!” तुम इसे स्वीकार कर सोचते हो, “वाह, इस सेलेब्रिटी लेबल के सचमुच बड़े फायदे हैं। बड़े-बुजुर्ग सही कहते हैं, ‘लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो।’ समाज सचमुच ऐसा ही है, यह अत्यंत वास्तविकता-केंद्रित है! अगर मेरे पास यह शोहरत नहीं होती, तो भला कौन मुझ पर ध्यान देता? अगर तुम सामान्य व्यक्ति की तरह कतार में लगो, तो दूसरे शायद तुम्हें नीची नजर से देखें, तुम्हें जलील करें, और हो सकता है कतार में आगे पहुँच जाने पर भी तुम्हें टिकट न बेचें।” जब तुम अस्पताल में डॉक्टर से मिलने के लिए कतार में लगो, तो कोई हॉल में दूर से तुम्हें देख ले और कहे, “आप फलाँ-फलाँ हैं न? आप कतार में क्यों खड़े हैं? मैं आपके लिए स्पेशलिस्ट की अभी व्यवस्था कर देता हूँ, आपको कतार में लगने की जरूरत नहीं।” तुम जवाब देते हो : “मैंने अभी फीस नहीं दी है।” वह कहता है, “कोई जरूरत नहीं, फीस मैं दूँगा।” तुम इस पर विचार करते हो, सोचते हो, “सेलेब्रिटी होना अच्छी बात है। आखिर एकांत में वह तमाम कष्ट सहना बेकार नहीं गया। मैं समाज में आदर-सत्कार के मजे ले सकता हूँ। यह समाज बहुत वास्तविकता-केंद्रित है, अच्छी खातिरदारी के लिए तुम्हें सेलेब्रिटी होना चाहिए। क्या बात है!” तुम फिर एक बार खुश होते हो कि वे तमाम कष्ट बेकार नहीं गए, और जब दूसरे नहीं देख रहे थे, तब उन सब मुश्किलों और कष्टों से गुजरना इस लायक था! तुम निरंतर इससे अचंभित रहते और सोचते हो : “मुझे अस्पताल में किसी डॉक्टर से मिलने के लिए लाइन में लगने की जरूरत नहीं, जब भी मैं हवाई जहाज के टिकट खरीदूँ, मैं अच्छी सीटें पा सकता हूँ, और जहाँ भी जाऊँ मेरा आदर-सत्कार होगा। मेरा प्रभाव ऐसा है कि मैं पिछले दरवाजे से भी अंदर जा सकता हूँ। क्या बात है! समाज को ऐसा ही होना चाहिए, बराबरी की कोई जरूरत नहीं है। लोग जितना डालें उतना ही उन्हें वापस मिलना चाहिए। जब दूसरे न देख रहे हों, तब तुम कष्ट न सहो, तो क्या उनकी नजरों में प्रतिष्ठित बन सकोगे? मिसाल के तौर पर मुझे देखो। मैंने तब कष्ट सहे थे जब दूसरे मुझे नहीं देख रहे थे, ताकि जब वे देखें, तो मेरा सत्कार हो, क्योंकि मैं इस लायक हूँ।” बात ऐसी है, तो फिर लोग दूसरों से जुड़ना चाहें और समाज में कार्य करवाना चाहें तो किस पर निर्भर रहते हैं? वे काम करने की काबिलियत का साथ देने के लिए अपनी प्रतिभाओं, और कौशल के भरोसे रहते हैं। कोई अपने प्रयासों में सफल हो या न हो, या वह समाज में काम करवा लेने में कितना अच्छा है, यह उस व्यक्ति की प्रतिभाओं या मानवता पर आधारित नहीं होता, न ही इस बात पर कि उसके पास सत्य है या नहीं। समाज में कोई निष्पक्षता या बराबरी नहीं है। और अगर तुम बड़े मेहनती हो, दूसरों के न देखते वक्त कष्ट सह सकते हो, काफी अत्याचारी और खूंखार हो, तो दूसरों के बीच ऊँची हैसियत पा सकते हो। जैसे कि पहले लोग युद्ध कलाओं की दुनिया में महारत हासिल करने के लिए स्पर्धा करते थे, दिन-रात लगातार कष्ट सहते हुए अभ्यास करते थे, जब तक कि आखिर वे विभिन्न युद्ध कला शालाओं की तमाम शैलियों में महारत हासिल करके अपनी अनूठी शैली तैयार न कर लें, और उसका सिद्धि तक अभ्यास कर अभेद्य न बन जाएँ। फिर अंत में क्या होता था? युद्ध कला टूर्नामेंट में वे सभी बड़ी शालाओं के योद्धाओं को हरा कर युद्ध कला की दुनिया के बादशाह की हैसियत पा लेते थे। दूसरों के समक्ष प्रतिष्ठित दिखने के लिए वे किसी भी प्रकार का कष्ट सहने को तैयार रहते थे और बंद कमरों में कुछ काली कलाओं का भी अभ्यास करते थे। आठ-दस सालों के अभ्यास के बाद, वे इतनी महारत हासिल कर लेते थे कि युद्ध कला की दुनिया का कोई भी व्यक्ति उन्हें अखाड़े में हरा नहीं पाता था, या अखाड़े से बाहर मार नहीं पाता था, और वे जहर भी खा लें तो भी उसे अपने शरीर से निकाल फेंक सकते थे। इस तरह से वे युद्ध कलाओं का महारथी होने का अपना स्थान सुरक्षित कर लेते थे और कोई भी उनका यह स्थान डिगा नहीं सकता था—सबकी नजरों में प्रतिष्ठित बनने का अर्थ यही है। दूसरों के समक्ष प्रतिष्ठित दिखाई देने के लिए प्राचीन काल में लोग शाही परीक्षाएँ देते थे, और विद्वत्ता सम्मान प्राप्त करते थे। आजकल, लोग कॉलेज जाते हैं, स्नातकोत्तर प्रवेश परीक्षाएँ देते हैं, पीएच.डी के लिए पढ़ते हैं—वे भी मुश्किलों के बावजूद लगन से पढ़ाई करते हैं, और दिन-रात एक कर साल-दर-साल बेकार का ज्ञान सीखने की गुलामी करते हैं। कभी-कभी वे इतना थक जाते हैं कि आगे पढ़ना नहीं चाहते, ब्रेक लेने को तरसते हैं, मगर उनके माता-पिता यह कहकर डांटते-डपटते हैं, “तुम जरा-सी भी प्रतिबद्धता कब दिखाओगे? क्या तुम अब भी दूसरों के सामने प्रतिष्ठित दिखना चाहते हो? अगर ऐसी बात है तो उनकी नजरों से दूर कष्ट सहे बिना तुम कैसे कर पाओगे? ऐसा नहीं है कि एक छोटा-सा ब्रेक नहीं लोगे तो तुम्हारी जान चली जाएगी, ठीक है न? चलो पढ़ो! चलो, अपना होमवर्क करो!” वे कहते हैं, “मैंने अपना होमवर्क पूरा कर लिया है, आज के पाठ दोहरा लिए हैं। क्या आप मुझे थोड़ा आराम करने देंगे?” लेकिन उनके माता-पिता जवाब देते हैं : “बिल्कुल नहीं! लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो!” वे इस बारे में चिंतन करते हैं, सोचते हैं, “मेरे माता-पिता यह सब मेरी ही भलाई के लिए कर रहे हैं, तो फिर मैं इतना जिद्दी और मौज-मस्ती में तल्लीन क्यों हूँ? मुझे वह करना चाहिए जो मुझे कहा जाए। कहा जाता है कि अपने जोखिम पर ही बड़ों की अनदेखी करो, इसलिए मुझे अपने माता-पिता की बात माननी चाहिए। वे अपनी बाकी जिंदगी ऐसे ही रहेंगे। अगर मैंने उनकी उचित सराहना न की, तो वे निराश हो जाएँगे। इसके अलावा, मुझे जीवन में बहुत आगे जाना है, तो लंबी दौड़ में थोड़ा-सा कष्ट क्या मायने रखता है?” मन में यह विचार आते ही वे पढ़ाई में लगन से जुट जाते हैं, अपने पाठ दोहराते हैं और होमवर्क करते हैं। पढ़ते हुए वे देर रात तक जगे रहते हैं, कितनी भी थकान महसूस करें, उससे उबर जाते हैं। अपने जीवन पथ में, लोगों के मन में उनके परिवार की शिक्षा के प्रभाव निरंतर ऐसे विचारों और अभिव्यक्तियों के रूप में भरे जाते हैं जैसे कि “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” जो उन्हें प्रोत्साहित और अभिप्रेरित करते रहते हैं। अपने भविष्य और संभावनाओं की खातिर और दूसरों के बीच प्रतिष्ठित दिखाई देने के लिए, वे निरंतर एकांत में कौशल और ज्ञान सीखते हैं। वे सशक्त बनने के लिए ज्ञान और विविध कौशलों से खुद को लैस कर लेते हैं। वे विविध प्राचीन हस्तियों और कामयाब लोगों की उपलब्धियाँ भी देखते हैं ताकि खुद को बढ़ावा दे सकें और अपनी योद्धा भावना को जगा सकें। वे ये सब गरीबी, सामान्यता और दीनता को त्याग देने और अपने साथ भेदभाव होने की नियति को बदल देने के लक्ष्य से करते हैं, ताकि वे एक उच्च व्यक्ति बनें, कुलीन वर्ग के सदस्य बनें और ऐसे बनें कि लोग उन्हें आदर से देखें। परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के ये प्रभाव उनके दिमाग में लगातार दौड़ते रहते हैं जब तक कि आखिर धीरे-धीरे ये टिप्पणियाँ और कहावतें उनमें गहरे पैठे हुए विचार और सोच न बन जाएँ, दुनिया से निपटने के नियमित तरीके न बन जाएँ और अस्तित्व और उनके अनुसरण के लक्ष्य स्वाभाविक नजरिया न बन जाएँ।

कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “तुम्हें दूसरों से दोस्ती करना सीखना चाहिए। जैसे कि यह कहावत, ‘जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए।’ सोंग वंश के बदनाम राजनेता किन हुई[क] के भी तीन मित्र थे। तुम जहाँ भी जाओ दूसरों के साथ मिल-जुल कर रहना सीखो, अच्छे आपसी रिश्ते रखो। कम-से-कम तुम्हारे कुछ करीबी मित्र होने चाहिए। एक बार समाज में प्रवेश कर लेने के बाद तुम्हें जीवन, कार्य और अपने कारोबार में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर तुम्हारी मदद के लिए मित्र नहीं होंगे, तो तुम्हें तमाम मुश्किलों और अजीब स्थितियों का अकेले ही सामना करना पड़ेगा। अगर तुम कुछ करीबी मित्र बनाने के गुर जान लो, तो ऐसी अजीब स्थितियों और मुश्किलों का सामना होने पर वे मित्र आगे आकर तुम्हें मुश्किलों से बाहर निकालेंगे और तुम्हें अपने प्रयासों में सफल होने में मदद करेंगे। अगर तुम बड़ी चीजें हासिल करना चाहते हो, तो तुम्हें विनम्र होकर मित्र बनाने चाहिए। तुम्हें तमाम सामर्थ्यवान लोगों को अपने साथ रखने में समर्थ होना होगा ताकि वे तुम्हारे प्रयासों और भविष्य के तुम्हारे जीवन और अस्तित्व को सहारा दें। तुम्हें विविध लोगों का लाभ उठाकर उनसे काम और सेवा करवाने में मदद लेनी होगी।” माता-पिता आम तौर पर स्पष्ट रूप से ऐसे विचार या सोच नहीं बताएँगे, या अपने बच्चों से सीधे यह नहीं कहेंगे कि उन्हें मित्र बनाने, लोगों का लाभ उठाने या अपने प्रयासों में सफल होने में मदद करने के लिए दोस्त बनाने में समर्थ होना सीखना चाहिए। लेकिन, ऐसे माता-पिता भी हैं जिनकी समाज में हैसियत और जगह है, या जो खास तौर पर धूर्त और चालबाज हैं, और जो अपने बच्चों को अपनी बातों और आचरण दोनों से प्रभावित करते हैं। इसके अलावा, जब भी उनके बच्चे दैनिक जीवन में उनकी बातों या कृत्यों में उनके विचार, सोच और दुनिया से निपटने के तरीके देखते या सुनते हैं, तो बच्चे यह सब सीखते हैं जिसका उन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में जब तुम सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को सही ढंग से परख और पहचान नहीं पाते, तब तुम अनजाने ही अपने माता-पिता की बातों और कार्यों से प्रभावित होकर उनके विचारों और सोच को स्वीकार कर लेते हो, या ये विचार और सोच अनजाने ही तुम्हारे दिल की गहराई में पैठ कर, तुम्हारे कार्य करने के सबसे बुनियादी आधार और सिद्धांत बन जाते हैं। तुम्हारे माता-पिता शायद सीधे तुमसे न कहें कि “ज्यादा मित्र बनाओ, लोगों से अपने काम करवाना, और लोगों की खूबियों का लाभ उठाकर अपने आसपास के लोगों का फायदा उठाना सीखो।” फिर भी वे जिन विचारों और सोच का प्रचार करते हैं, अपने कर्मों में उन पर अमल करके वे तुम्हें इनसे संक्रमित और तुम्हें इसकी शिक्षा देते हैं। इस प्रकार तुम्हारे माता-पिता इस मामले में तुम्हारे प्रथम शिक्षक बन जाते हैं, वे तुम्हें इस बारे में दीक्षा देते हैं कि चीजों से कैसे निपटें, लोगों के साथ मिल-जुल कर कैसे रहें, समाज में मित्र कैसे बनाएँ, और तुम्हें इस बात की भी दीक्षा देते हैं कि मित्र बनाने के पीछे क्या प्रयोजन है, तुम्हें मित्र क्यों बनाने चाहिए, तुम्हें किस प्रकार के मित्र बनाने चाहिए, समाज में अपने पाँव कैसे जमाने चाहिए, वगैरह-वगैरह। इस तरह तुम्हारे माता-पिता अपने परामर्श पर अमल करके तुम्हें सिखा देते हैं। अनजाने ही जैसे-जैसे तुम बचपन से बड़े होते हो, वैसे-वैसे ये विचार और सोच धीरे-धीरे आकार लेते हैं, सरल चेतना से ठोस विचारों, सोच और कर्म में बदल जाते हैं, जिससे कि ये कदम-दर-कदम तुम्हारे दिल और आत्मा में गहरे पैठ जाते हैं और सांसारिक आचरण का तुम्हारा तरीका और फलसफा बन जाते हैं। दुनिया से निपटने के तरीके के रूप में, इस कहावत के बारे में तुम क्या सोचते हो, “जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए”? (यह बुरी है।) क्या इस दुनिया में सच्चा मित्र जैसा कुछ होता है? (नहीं।) तो फिर बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत क्यों है? तीन खूँटे लगाने का क्या तुक है? सिर्फ उसे ज्यादा स्थिर करने के लिए। यह दो खूँटों से स्थिर नहीं रहेगा, और एक खूँटा तो सँभाल ही नहीं पायेगा। तो यहाँ दुनिया से निपटने को लेकर कौन-सा सिद्धांत जुड़ा हुआ है? कोई योग्य मनुष्य भी, चाहे वह जितना भी सक्षम क्यों न हो, एक हाथ से ताली नहीं बजा सकता और आगे नहीं बढ़ सकता। अगर तुम्हें कुछ हासिल करना है, तो मदद के लिए तुम्हें लोगों की जरूरत होगी। और अगर तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी मदद करें, तो तुम्हें योग्य आचरण करना और दुनिया से निपटना सीखना होगा, तुम्हें काम करवाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में मित्र बनाने होंगे, ताकत जुटानी होगी। छोटा-बड़ा, कुछ भी हासिल करने के लिए, चाहे वह करियर बनाना हो या समाज में पाँव जमाना, या और भी बड़ा कुछ हासिल करना हो, तो तुम्हारे आसपास ऐसे लोगों का होना जरूरी है, जिन पर तुम भरोसा करो या जिनके बारे में तुम्हारी राय ऊँची हो, और अपने प्रयासों में सफल होने के लिए तुम जिनका इस्तेमाल कर सको, वरना यह एक हाथ से ताली बजाने जैसा होगा। बेशक दुनिया में कुछ भी करना हो, तो ये नियम लागू होंगे, क्योंकि समाज में जरा भी निष्पक्षता नहीं है, सिर्फ षड्यंत्र और संघर्ष है। अगर तुम सही पथ पर चलो और न्यायोचित कार्य हाथ में लो, तो कोई भी स्वीकृति नहीं देगा, इस समाज में यह नहीं चलेगा। तुम चाहे जो भी प्रयास करो, तुम्हारी मदद और समाज में ताकत जुटाने के लिए लोग होने चाहिए। जहाँ भी जाओ, अगर वहाँ तुम्हारी बात मानने वाले और तुमसे डरने वाले लोग हों, तो समाज में तुम्हारे पाँव मजबूती से जमे होंगे, तुम्हारे लिए अपने प्रयास करना ज्यादा आसान होगा, और ऐसे लोग होंगे जो तुम्हें हरी झंडी दिखाएँगे। यह दुनिया से निपटने का एक रवैया और एक तरीका है। तुम चाहे जो करना चाहो, तुम्हारे माता-पिता तुमसे हमेशा कहेंगे, “जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए।” तो दुनिया से निपटने का यह सिद्धांत सही है या गलत? (गलत।) इसमें गलत क्या है? (कोई व्यक्ति चीजें हासिल कर सकता है या नहीं, यह उसकी सामर्थ्य या प्रतिभा पर नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है।) यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है, यह एक पहलू है। इसके अलावा, समाज में दूसरों की मदद लेने के पीछे लोगों का लक्ष्य क्या है? (खुद को बाकी सबसे ऊपर उठने योग्य बनाना।) सही है। सहारा पाने के लिए ये तीन स्तंभ रखने के पीछे तुम्हारा लक्ष्य अपने लिए जगह बनाना और अपने पाँव जमाना है। उस तरह कोई भी तुम्हें नीचे नहीं गिरा पायेगा, और एक खूँटा हटा भी दिया जाए, तो बाकी दो तुम्हें सहारा देने के लिए लगे रहेंगे। जिन लोगों के पास थोड़ी सत्ता होती है, वे इस समाज में, कानून, लोगों की भावनाओं या लोकमत की चिंता किए बिना आसानी से चीजें कर सकते हैं। क्या लोगों का लक्ष्य यह नहीं है? (हाँ।) इस तरह तुम वैसे व्यक्ति बन सकते हो जो आदेश दे सकता है, समाज में जिसकी चलती है, और कानून और लोकमत जिसके पाँव नहीं डिगा सकते या जिसे अस्थिर नहीं कर सकते। इस समाज या किसी भी सामाजिक समूह की प्रवृत्तियों के बारे में तुम्हारी बात अंतिम होगी। तुम्हीं वह अधिकारी होगे जिसके पास सबको आना होगा। तो फिर क्या तुम अपनी मनमानी नहीं कर सकोगे? तुम कानून, लोगों की भावनाओं, लोकमत, नैतिकता और जमीर की निंदा की सोचे बिना इन सबसे ऊपर उठ सकते हो। क्या यही वह लक्ष्य है जो लोग हासिल करना चाहते हैं? (हाँ।) यही वह लक्ष्य है जो लोग हासिल करना चाहते हैं। लोगों के कर्म का यही बुनियादी आधार है जो उन्हें अपनी महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ हासिल करने योग्य बनाता है। तुम देख सकते हो, समाज में कुछ लोग मुँहबोले भाई बन जाते हैं। उनमें से बड़ा भाई किसी निगम का सीईओ होता है, छोटा भाई किसी कारोबारी समूह का अध्यक्ष होता है, और कुछ दूसरे राजनेता या अपराधी डॉन होते हैं। कुछ लोगों के मित्र अस्पताल निदेशक, मुख्य सर्जन या मुख्य नर्स हैं, और कुछ लोगों के अपने ही व्यवसाय क्षेत्र में अच्छे मित्र हैं। क्या लोग सचमुच ये मित्र इसलिए बनाते हैं कि उनकी सोच और रुचि एक-जैसी है? या इसलिए कि वे सच में साथ मिलकर न्यायसंगत कार्य करना चाहते हैं? (नहीं।) तो फिर वे ऐसा क्यों करते हैं? इसलिए कि वे एक किस्म की ताकत जुटाना चाहते हैं, इस ताकत को फैलाना और बढ़ाना चाहते हैं, और आखिरकार समाज में पाँव जमा कर जीवित रहने, झुंड में सबसे ऊपर रहने, और आलीशान भोग-विलास वाले जीवन के मजे लेने के लिए इसका सहारा लेना चाहते हैं; कोई भी उन्हें धमकाने की हिम्मत नहीं करेगा, और उन्होंने अपराध किए भी हों तो कानून उन्हें सजा देने की हिम्मत नहीं करेगा। अगर वे अपराध भी करें, तो उनके साथी आगे आकर उनकी मदद करेंगे। एक मित्र उनकी ओर से बोलेगा, दूसरा अदालत में उनका मामला रफा-दफा करेगा और वरिष्ठ राजनेताओं से क्षमा की गुहार लगाएगा, ताकि वे चौबीस घंटे के भीतर पुलिस थाने से बाहर आ जाएँ। उनका अपराध चाहे जितना भी गंभीर क्यों न हो, कोई नतीजा नहीं निकलेगा, उन्हें जुर्माना भी नहीं देना पड़ेगा। अंततः आम लोग कहेंगे : “बाप रे, वह आदमी तो बड़ा बाहुबली है। ऐसा गंभीर अपराध करने के बाद भी उसने खुद को इतनी जल्दी कैसे छुड़ा लिया? अगर हम उसकी जगह होते, तो खत्म हो गए होते, है न? हम जेल चले गए होते, सही है न? उसके मित्रों को देखो। हम उसके जैसे मित्र क्यों नहीं बना सकते? उस तरह के लोग हमारी पहुँच से दूर क्यों हैं?” लोग ईर्ष्यालु हो जाएँगे। ये सभी मामले सामाजिक अन्याय और समाज में निरंतर उभरने वाली बुरी प्रवृत्तियों के कारण होते हैं। इस समाज में लोग बिल्कुल सुरक्षित महसूस नहीं करते। वे हमेशा कुछ ताकतों के साथ अच्छे संबंध रखना चाहते हैं, और एक-दूसरे की ताकतों की तुलना करना चाहते हैं। खास तौर पर समाज के सबसे निचले वर्ग के लोग, जिनके पास भले ही आजीविका का कोई साधन हो, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम होता कि कब किसी खतरे या मुश्किल से सामना होगा, तो वे किसी अनदेखी विपदा या दुर्घटना, खास तौर से कानून से जुड़ी किसी बात में फँसने से अत्यंत भयभीत रहते हैं, इसलिए वे पुलिस या अदालतों से कभी कुछ लेना-देना न चाहते हुए जिंदगी गुजारते हैं। चूँकि इस समाज में लोगों के मन में सुरक्षा की भावना नहीं है, इसलिए उन्हें निरंतर मित्र बनाने होते हैं, सहारे के लिए शक्तिशाली साथी ढूँढ़ने पड़ते हैं। देखो, जब छोटे बच्चे स्कूल में होते हैं, तो उन्हें खेलने-कूदने के लिए दो-तीन मित्र बनाने पड़ते हैं। वरना, अकेले रहने पर दूसरे बच्चे उन्हें हमेशा डराते-धमकाते हैं। वे बच्चे धमकाए जाने के बारे में शिक्षक को बताने की हिम्मत नहीं कर पाते, क्योंकि अगर वे ऐसा करेंगे, तो स्कूल से घर लौटते समय यकीनन उनकी पिटाई हो जाएगी। भले ही शिक्षक तुम्हारे साथ अच्छे हों, तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई ठीक चल रही हो, फिर भी अगर तुम्हें मित्र बनाना या बदमाश बच्चों से हाथ मिलाना न आता हो, तो उनसे उल्टा रुख रखने पर मुसीबत में फँस जाओगे। और कभी-कभी उनसे उल्टा रुख न भी रखो, तो भी वे तुम्हें अच्छा पढ़ता देख भटकाने की कोशिश करेंगे, और अगर तुमने उनकी बात न मानी, तो तुम्हारी पिटाई हो जाएगी या तुम्हें धमका दिया जाएगा। अगर स्कूल का माहौल भी लोगों को असुरक्षित महसूस करवाता है, तो यह दुनिया सचमुच डरावनी है, तुम्हें नहीं लगता? इसलिए, इस संबंध में तुम पर तुम्हारे परिवार द्वारा दी गई शिक्षा का प्रभाव एक अर्थ में तुम्हारे माता-पिता द्वारा उदाहरण पेश करने से पैदा होता है और दूसरे अर्थ में, समाज को लेकर लोगों की असुरक्षाओं से। चूँकि इस समाज में कोई निष्पक्षता नहीं है, न ही कोई ताकत या लाभ है जो तुम्हारे मानव अधिकारों और हितों की रक्षा कर सके, इसलिए लोग अक्सर इस समाज के आतंक और भय से ग्रस्त रहते हैं। नतीजतन, वे इस विचार की सीख के प्रभावों को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं कि “जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए।” चूँकि लोग जिस वास्तविक माहौल में रहते हैं, वहाँ ऐसे विचार और सोच उनके जीवित रहने के लिए जरूरी हैं, जिससे वे जीवन में एकांत और अकेलापन छोड़कर भरोसे और सुरक्षा की भावना वाले जीवन को अपनाने योग्य बन सकें। इसलिए, लोग इस दुनिया में किसी ताकत और मित्रों के सहारे को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं।

अभी हमारे द्वारा जिक्र की गई इस कहावत “जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए” के अलावा लोगों के परिवार उन्हें जिन तरीकों से शिक्षित करते हैं, उनमें कुछ विशिष्ट तरीके हैं जिनसे लोगों के परिवार उन्हें सिखाते हैं। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अपनी बेटियों को ऐसी बातें सिखाते हैं : “‘महिला उन लोगों के लिए सजेगी-सँवरेगी जो उसकी तारीफ करते हैं, जबकि एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा।’ साथ ही, ‘दुनिया में बदसूरत महिलाएँ हैं ही नहीं, सिर्फ आलसी महिलाएँ हैं।’ महिलाओं को खुद से प्रेम करना, सजना-धजना और सुंदर बनना सीखना चाहिए। इस तरह, तुम जहाँ भी जाओगी, लोग तुम्हें पसंद करेंगे, ज्यादा लोग तुम्हारे लिए काम करेंगे और तुम्हें हरी झंडी दिखाएँगे। अगर लोग तुम्हें पसंद करेंगे, तो स्वाभाविक रूप से वे तुम्हें तकलीफ नहीं देंगे, या तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करेंगे।” कुछ माता-पिता अपनी बेटियों को बताते हैं : “लड़कियों को बढ़िया कपड़े पहनना, साज-सिंगार करना सीखना चाहिए, और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण, उन्हें सौम्य होना सीखना चाहिए।” वे असल में यह कह रहे हैं कि तुम्हें दिखावा करना सीखना चाहिए। वे ऐसी बातें भी कहते हैं : “सशक्त महिला मत बनो। किसी महिला के लिए बहुत सशक्त और स्वतंत्र होने का क्या फायदा? ऐसी महिलाएँ कभी बन-ठनकर तैयार नहीं होतीं, बस पुरुषों की तरह जीती हैं, सारा दिन तेजी में यहाँ-वहाँ भागती हैं, और वे सौम्य भी नहीं होतीं। महिलाओं का जन्म पुरुषों द्वारा प्यार किए जाने के लिए हुआ है। उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने या कोई कौशल सीखने की जरूरत नहीं। उन्हें बस सजना-सँवरना, पुरुषों को रिझाना और महिलाओं के काम अच्छे से करना सीखना चाहिए। जिस महिला को पुरुष पसंद करें और प्यार करें, वह सारी जिंदगी खुश रहेगी।” कुछ महिलाएँ इस बारे में अपने माता-पिता द्वारा शिक्षा पाती हैं। एक लिहाज से वे महिला के रूप में अपनी माँओं का व्यवहार देखती हैं। दूसरे लिहाज से, अपने माता-पिता से शिक्षा पाकर, वे ऐसी महिलाओं में तब्दील हो जाती हैं जो निरंतर सज-सँवर और साज-सिंगार कर देखने में सचमुच आकर्षक लगती हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) ऐसे पारिवारिक परिवेश में बड़ी होने वाली महिलाएँ अपने रूप-रंग, अपने वस्त्रों और अपनी स्त्रियोचित पहचान को बड़ी अहमियत देती हैं। वे कपड़े बदले बिना या साज-सिंगार किए बिना घर से बाहर नहीं निकलतीं। कुछ महिलाएँ, काम में जितनी भी व्यस्त क्यों न हों, घर से बाहर निकलने से पहले उनका बाल धोना, स्नान करना और सुगंधित द्रव्य छिड़कना बिल्कुल जरूरी है, वरना वे बाहर जाएँगी ही नहीं, और जब करने के लिए कुछ न हो, तो वे बस आईना देख-देख कर अपने बाल सँवारती रहती हैं। ये महिलाएँ हर दिन कितनी बार आईना देखती हैं, कौन जाने! ऐसे विचारों और सोच से उन्हें गहन शिक्षा दी जाती है, जैसे कि “महिला उन लोगों के लिए सजेगी-सँवरेगी जो उसकी तारीफ करते हैं, जबकि एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा,” इसलिए वे अपनी काया और अपने रंग-रूप पर बहुत ज्यादा ध्यान देती हैं। उनके रंग-रूप की रंगत जरा भी फीकी हो तो वे बाहर नहीं जातीं, चेहरे पर फुंसी भी हो तो वे लोगों को अपना चेहरा नहीं दिखातीं। अगर किसी दिन उनका साज-सिंगार करने का मन न हो, तो वे बाहर नहीं जातीं। या उन्होंने बाल कटवाए हों, मगर यह उतना बढ़िया न लग रहा हो, और वे देखने में आकर्षक न लग रही हों, तो वे काम पर नहीं जातीं, इस डर से कि कहीं लोग उनके बारे में बुरा न सोचें। ऐसी महिलाएँ सारा दिन इन्हीं चीजों की खातिर जीने में बिताती हैं। अगर उनके हाथ पर मच्छर काट ले, तो वे अपना हाथ छिपाकर रखती हैं, या पैर पर काटे, तो अपने पाँव ढँक कर रखती हैं क्योंकि वे स्कर्ट में सुंदर नहीं लगेंगी, और साथ ही वे बाहर भी नहीं जातीं, अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पातीं। हर छोटी चीज उन्हें परेशान कर उनका रास्ता रोक सकती है, जिससे जीवन उनके लिए बहुत कठिन और थकाऊ बन जाता है। स्त्रियोचित प्रतिष्ठा बनाए रखने और बदसूरत महिला बनने से बचने के लिए वे अपने रंग-रूप, काया और बालों की देखभाल पर बड़ी मेहनत और प्रयास करती हैं, अपनी पुरानी आदतें और आलस त्याग देती हैं। वे काम में चाहे जितनी व्यस्त क्यों न हों, उनके लिए बारीकी से और शानदार ढंग से सजना-सँवरना अनिवार्य होता है। अगर उनकी भौंहें सधी हुई न हों, तो वे दोबारा साधती हैं। अगर लाली समान रूप से न लगी हो, तो दोबारा लगाती हैं। जब तक वे एक-दो घंटे साज-सिंगार में नहीं लगातीं, घर के दरवाजे से बाहर नहीं जातीं। कुछ महिलाएँ सुबह उठते ही, स्नान करने, सजने-सँवरने और कपड़े बदलने का कार्यक्रम शुरू कर देती हैं। वे बार-बार सोचती और दिमाग लगाती हैं, अलग-अलग चीजें आजमाती हैं, इस तरह दोपहर हो जाती है लेकिन वे अब भी घर से बाहर नहीं निकल पातीं। इन निरर्थक चीजों में अपना सीमित समय और ऊर्जा लगा देना उनके लिए बहुत कठिन होता होगा। वे एक भी जरूरी काम कर ही नहीं पातीं, आँख खोलते ही वे बस सजने-सँवरने और खुद को सुंदर बनाने के बारे में सोचने लगती हैं। इनमें से कुछ महिलाएँ अपनी माँ के विचारों और सोच से प्रभावित होती हैं, जबकि दूसरी महिलाओं को उनकी माँ ने स्पष्ट रूप से बताया होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए, और कुछ महिलाएँ अपनी माँ को देखकर सीखती हैं। संक्षेप में, ये तमाम तरीके हैं जिनसे परिवार लोगों को शिक्षित करते हैं।

कुछ परिवार यह विचार रखते हैं कि “बेटियों को अमीर बच्चों की तरह पाल-पोसकर बड़ा करना चाहिए, और बेटों को गरीब बच्चों की तरह।” क्या तुमने यह कहावत सुनी है? (हाँ, मैंने सुनी है।) इस कहावत का क्या अर्थ है? ये सब बच्चे हैं, फिर लड़कियों को अमीर बच्चों की तरह और लड़कों को गरीब बच्चों की तरह क्यों पालना-पोसना चाहिए? पारंपरिक संस्कृति पुरुषों को ज्यादा और महिलाओं को कम महत्त्व देती है, तो फिर यह कहावत लड़कों से ज्यादा मूल्य लड़कियों को देती हुई क्यों लगती है? अगर बेटी को अमीर बच्ची की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया जाए, तो वह कैसी बेटी बनेगी? वह कैसी चीज बनेगी? (बिगड़ी हुई, दंभी और रोब झाड़ने वाली।) ऐसी जो जिद्दी, नाजुक और कोई भी तकलीफ सहने में असमर्थ हो, देखभाल करने में अक्षम हो, तर्कहीन हो, नासमझ हो, और अच्छे-बुरे के बीच फर्क न कर पाए—ऐसा व्यक्ति क्या कर सकता है? क्या किसी को शिक्षित करने का यह सही तरीका है? (नहीं।) इस तरह पाल-पोसकर बड़ा करने से वे तबाह हो जाएँगी। अगर तुम अपनी बेटी को अमीर बच्ची की तरह पालोगे, तो वह ऐसे पारिवारिक परिवेश में बड़ी होगी, जो उसकी हर बुनियादी जरूरत पूरी करेगा, वह थोड़ी परिष्कृत होगी, मगर क्या वह आचरण के असली सिद्धांत समझ पाएगी? अगर वह न समझे, तो परवरिश का ऐसा नजरिया उसकी रक्षा करने के बजाय उसे आहत करता है, नुकसान पहुँचाता है। इस सिद्धांत के आधार पर अपनी बेटियों को पाल-पोसकर बड़ा करने के पीछे माता-पिता की अभिप्रेरणा क्या होती है? इस तरह पाली-पोसी गई बेटी परिष्कृत होगी, उसके लिए बढ़िया पोशाकें खरीदने वाले, जेब खर्च या मामूली उपहार और फायदे के प्रलोभन देने वाले पुरुषों के प्रति आसानी से आकर्षित नहीं होगी। इसलिए औसत पुरुष उसे नहीं लुभा पाएगा। उसका दिल जीतने, उसे आकर्षित करने और शादी के लिए उसका हाथ पाने के लिए उसे बहुत अमीर, पूर्ण सज्जन, अत्यंत परिष्कृत, अत्यधिक षड्यंत्रकारी और जोड़ने-घटाने वाला और बहुत ज्यादा चालाक होना होगा। तुम्हें अपनी बेटी का ब्याह किसी ऐसे व्यक्ति के साथ करना ठीक लगता है या बुरा? यह बिल्कुल ठीक नहीं है, है न? इसके अलावा, अगर तुम अपनी बेटी को एक अमीर बच्ची की तरह पाल-पोस कर बड़ा करोगे, तो मजे लेने, सजने-सँवरने और उम्दा खाना खाने के तरीके जानने के सिवाय क्या वह लोगों को जान पाएगी कि वे वास्तव में क्या हैं? क्या उसके पास जीवित रहने के कौशल होंगे? क्या वह दूसरे लोगों के साथ लंबे समय तक जी पाएगी? जरूरी नहीं है। हो सकता है कि उसे अपना जीवन भी व्यवस्थित रखने में मुश्किल हो, फिर ऐसी स्थिति में ऐसी महिलाएँ बेकार होती हैं। वे बिगड़ी हुई, अशिष्ट, और दबंग होंगी, जिद्दी, मुँहजोर, असंयमित और ढीठ होंगी, समझौता न करने वाली और हठी होंगी, उन्हें सिर्फ खाना-पीना और मौज करना आता है। इन सबके अलावा, उसके पास जीवन में आगे बढ़ने के लिए जरूरी बुनियादी व्यावहारिक बुद्धि भी नहीं होगी, जो सूक्ष्म रूप से भविष्य में उसके जीवित रहने और पारिवारिक जीवन के लिए मुश्किल खड़ी करेगा। अपनी बेटी को इस प्रकार शिक्षित करना उसके माता-पिता के लिए अच्छी बात नहीं है। उन्होंने उसे आचरण के सिद्धांत नहीं सिखाए, बल्कि सिर्फ जिंदगी के मजे लेना सिखाया। फिर अगर वह भविष्य में पर्याप्त धन न कमा पाए, तो क्या उसे मुश्किलें नहीं झेलनी पड़ेंगी? फिर क्या उसे जीवन चलाने में मुश्किल नहीं होगी? क्या वह इन्हें सह पाएगी? भविष्य में जब भी मुश्किलों से उसका सामना होगा तो क्या वह टूटने की कगार पर नहीं होगी? क्या उसमें इन तमाम मुश्किलों का सामना करने के लिए जरूरी दृढ़ता और धैर्य होगा? इस पर दाँव मत लगाओ। जो लोग भौतिक जीवन के बड़े मजे लेते हैं, आराम और विलासिता के जीवन के ज्यादा आदी होते हैं, जिन्होंने कभी बिल्कुल कष्ट नहीं सहे, उनकी मानवता के साथ सबसे बड़ी समस्या क्या है? वह यह है कि वे नाजुक होते हैं, उनमें मुश्किलें सहने की इच्छा नहीं होती, और ऐसे लोग तबाह हो जाते हैं। इसलिए बच्चे अपने परिवार से जो शिक्षा प्राप्त करते हैं, चाहे वह उनके माता-पिता के जरिये हो या सामाजिक प्रवृत्तियों के जरिये, अनिवार्य रूप से मनुष्यों के बीच से ही आती है। ये कहावतें एक विचार या दृष्टिकोण का आकार लें या न लें, लोगों के लिए जीवन या जीवित रहने का तरीका बनें या न बनें, इनके कारण लोग इन मसलों को एक अतिवादी, पूर्वाग्रहयुक्त और विकृत परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। संक्षेप में, परिवार की ये कहावतें, कमोबेश लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के लोगों के तरीके को प्रभावित करती हैं। चूँकि ये चीजें तुम्हें प्रभावित करती हैं, इसलिए ये सत्य के तुम्हारे अनुसरण को भी प्रभावित करती हैं। इस वजह से, किसी के माता-पिता द्वारा बताई गई ये कहावतें, विचार और सोच, संभ्रांत और उत्कृष्ट हों, या काफी बुद्धिहीन और मूर्खतापूर्ण हों, सभी को उन्हें दोबारा जाँच लेना चाहिए, फिर से आकलन कर लेना चाहिए, और उनकी असलियत पहचानना सीखना चाहिए। अगर वे तुम पर कोई प्रभाव डालते हैं, तुम्हारे जीवन में और सत्य के तुम्हारे अनुसरण में कोई बाधा डालते हैं, तुम्हारे जीवन में गड़बड़ी कर देते हैं, या जब भी तुम लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हो, तब तुम्हें सत्य को खोजने और स्वीकार करने से रोकते हैं, तो तुम्हें उनको जाने देना चाहिए।

समाज में भावनात्मक बुद्धि या ईक्यू और बौद्धिक स्तर या आईक्यू की संकल्पनाओं के बारे में दावे किए जा रहे हैं। इन दावों के अनुसार लोगों में ऊँचा आईक्यू नहीं बल्कि सिर्फ ऊँचा ईक्यू होना चाहिए। आईक्यू का किसी व्यक्ति की योग्यता से ज्यादा लेना-देना होता है, जबकि ईक्यू का उन गुरों से संबंध होता है जिनसे कोई व्यक्ति दुनिया से निपटता है। इन दो शब्दों की मेरी यही बुनियादी समझ है। हो सकता है तुम्हारा बौद्धिक स्तर बहुत ऊँचा हो, तुम वाकई पढ़ाकू हो, सचमुच ज्ञानी और बढ़िया वक्ता हो, जीवित रहने की तुम्हारी क्षमता बहुत मजबूत हो, लेकिन तुम्हारी भावनात्मक बुद्धि ज्यादा नहीं है, तो तुम्हारे पास दुनिया से निपटने के लिए कोई गुर नहीं हैं, और तुम भले ही थोड़ा जोड़-तोड़ कर लेते हो, लेकिन तुम्हारे साधन बहुत ज्यादा परिष्कृत नहीं हैं। ऐसी स्थितियों में, तुम्हारा ज्ञान, कौशल और किसी विशेष क्षेत्र में तुम्हारी प्रवीणता, तुम्हें समाज में बस गुजारा करने और बुनियादी आजीविका कमाने योग्य बनाते हैं। ऊँची भावनात्मक बुद्धि वाले लोग खास तौर पर चालाकी करने में अच्छे होते हैं। वे सनसनी पैदा कर चीजों में हेर-फेर करने और मामूली चीज को समाज या किसी समुदाय के लिए प्रभावशील रूप में पेश करने की खातिर बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए समाज की विविध ताकतों, लाभकारी भौगोलिक परिवेशों या अनुकूल अवसरों का इस्तेमाल करते हैं, ताकि वे स्वयं मशहूर हो जाएँ, और आखिरकार भीड़ में अलग दिखते हुए शोहरत और हैसियत वाला व्यक्ति बन जाएँ। ऐसे व्यक्ति में ज्यादा भावनात्मक बुद्धि होती है और वे ज्यादा दाँव-पेंच जानते हैं। दाँव-पेंच जानने वाले लोग अनिवार्य रूप से धूर्त दानव राजा होते हैं। आजकल का समाज ऊँची भावनात्मक बुद्धि की वकालत करता है, और कुछ परिवार यह कह कर अपने बच्चों को अक्सर इस तरह शिक्षा देते हैं : “यह अच्छी बात है कि तुम्हारा आईक्यू ऊँचा है, मगर साथ ही तुम्हारी भावनात्मक बुद्धि भी ज्यादा होनी चाहिए। तुम्हें अपने सहपाठियों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों और मित्रों के साथ बातचीत करते समय इसकी जरूरत पड़ेगी। यह समाज सबसे ज्यादा तुम्हारी शक्ति की नहीं, बल्कि दाँव-पेंच वाला बनने, खुद को बढ़िया ढंग से पेश करने, अपना प्रचार करने और समाज की विविध ताकतों और लाभकारी स्थितियों का फायदा उठाकर उनसे अपने लाभ के लिए काम लेने और अपनी सेवा करवाने का तरीका जानने की पैरवी करता है—चाहे तुम यह धन-दौलत कमाने का मौका पाने के लिए करो, या प्रसिद्ध होने के लिए। ऐसे तमाम लोग ऊँची भावनात्मक बुद्धि वाले होते हैं।” कुछ खास परिवार या समाज में प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित माता-पिता अक्सर यह कहकर अपने बच्चों को शिक्षित करते हैं : “भावनात्मक बुद्धि वाले पुरुष को स्त्री-पुरुष दोनों पसंद करते हैं, जबकि भावनात्मक बुद्धि रहित पुरुष को सभी नापसंद करते हैं। भावनात्मक बुद्धि वाली महिला को ढेरों स्त्री-पुरुष पसंद करेंगे, और बहुत सारे पुरुष उसके पीछे भागेंगे। लेकिन अगर किसी महिला के पास जरा भी भावनात्मक बुद्धि न हो, तो वह चाहे जितनी सुंदर हो, ज्यादा लोग उसके पीछे नहीं भागेंगे।” आज के समय में जीते हुए, अगर लोग अपने परिवारों के इन दावों को नहीं परख पाते, तो वे अनजाने ही इन विचारों और नजरियों से प्रभावित हो जाएँगे और अक्सर अपने बौद्धिक स्तर को मापेंगे और विशेष रूप से अक्सर कुछ मानकों से अपनी तुलना कर यह जाँचेंगे कि उनमें भावनात्मक बुद्धि है या नहीं और उनके ईक्यू का स्तर वास्तव में कितना ऊँचा है। तुम्हें इन चीजों का पुख्ता या स्पष्ट ज्ञान हो न हो, यह कहना काफी है कि इस बारे में तुम्हारे परिवार द्वारा दी शिक्षा के प्रभाव पहले ही तुम्हें प्रभावित करने लगे होंगे। हो सकता है वे महसूस न किए जा सकें, तुम्हारे विचारों में उनका कोई प्रमुख स्थान भी न हो। लेकिन जब तुम ये बातें सुनते हो, और उन्हें नहीं पहचानते, तो पहले ही कुछ हद तक तुम इनसे सीखने लगे हो।

परिवार की शिक्षा के कुछ और भी प्रभाव हैं। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अपने बच्चों को अक्सर बताते हैं, “जब भी तुम लोगों के बीच होते हो, तो नहीं जानते कि दिमाग जगह पर कैसे रखें और तुम हमेशा बेवकूफ और बेखबर रहते हो। जैसी कि कहावत है, ‘किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो।’ तो जब भी लोग तुमसे बात कर रहे हों, तुम्हें उनकी बातों को सुनना सीखना चाहिए, वरना तुम धोखा खा जाओगे और लाभ की कीमत चुकाओगे!” क्या कुछ माता-पिता अक्सर ऐसा कहते हैं? वे दरअसल क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं? ईमानदार इंसान मत बनो, खुदगर्ज बनो। यानी दूसरा व्यक्ति जो कह रहा है उसके अंदर की बात समझो, उनकी बातों में छिपे हुए अर्थ को समझो, अंदाजा लगाने की कोशिश करो कि दूसरे की बात का असल में तात्पर्य क्या है, और फिर इस अनकहे अर्थ के आधार पर तदनुरूप कदम उठाओ या दाँव-पेंच लड़ाओ। निष्क्रिय मत रहो, वरना तुम धोखा खा जाओगे और लाभ की कीमत चुकाओगे। तुम्हारे माता-पिता के परिप्रेक्ष्य से, उनकी बातें नेकनीयत हैं, तुम्हें मूर्खतापूर्ण काम करने या इस दुष्ट समुदाय में दूसरों द्वारा विश्वासघात से बचाने के लिए हैं, तुम्हें धोखा खाने या कोई बेवकूफी करने से बचाने के लिए हैं। लेकिन क्या यह कहावत सत्य के अनुरूप है? (नहीं, यह नहीं है।) नहीं यह सत्य के अनुरूप नहीं है। कभी-कभी लोग दूसरों की बातों में छिपे हुए अर्थ को सुन पाते हैं। ध्यान न देने पर भी तुम छिपे हुए अर्थ सुन सकते हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें बताई गई इस कहावत के अनुसार—“किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो”—तुम्हें हमेशा दूसरों के प्रति सावधान और उनसे सतर्क रहना चाहिए, और उनके प्रति सावधानी बरतने के साथ-साथ वे तुम्हें हानि पहुँचाएँ या तुम्हें अपनी चाल में फँसाएँ, इससे पहले ही तुम्हें रक्षात्मक कदम उठा लेने चाहिए। और भी ज्यादा अहम यह है कि खुद को निष्क्रिय स्थिति में या दुविधा में न रखकर तुम्हें पहले हमला करना चाहिए। यह कहावत बता कर क्या तुम्हारे माता-पिता यही अंतिम लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं? (हाँ।) उनका लक्ष्य है कि जब भी तुम दूसरों से बातचीत करो, तो चाहे वे तुम्हें नुकसान पहुँचाएँ या नहीं, तुम्हें निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। तुम्हें खुद पहल कर छुरे का हत्था पकड़ लेना चाहिए, ताकि जब भी कोई तुम्हें हानि पहुँचाना चाहे, तो न सिर्फ तुम अपनी रक्षा कर सको, बल्कि तुम पहल करके उन पर हमला कर उन्हें नुकसान पहुँचा दो, उनसे ज्यादा दुर्जेय और निर्मम बन जाओ। तुम्हारे माता-पिता की बातों का दरअसल यही लक्ष्य और मूल अर्थ है। इस प्रकार विश्लेषण करने से यह स्पष्ट है कि यह कहावत सत्य के अनुरूप नहीं है, और पूरी तरह से परमेश्वर के उस वचन से असंगत है जो उसने लोगों को बताया था, “इसलिए तुम सब साँपों के समान बुद्धिमान और कबूतरों के समान भोले बनो।” परमेश्वर लोगों को जो सिद्धांत और बुद्धिमान तरीके बताता है वे दूसरों के कपटी षड्यंत्रों को पहचानने में उनकी मदद करने के लिए हैं, बुरे लोगों से जुड़ने और प्रलोभनों में फँसने से खुद को बचाने के लिए हैं, बुराई से निपटने के लिए बुरे साधनों का इस्तेमाल करने से बचने के लिए हैं, और इसके बजाय किसी भी बुरे कर्म और बुरे व्यक्ति से निपटने के लिए सत्य सिद्धांतों का प्रयोग करने के लिए हैं। जबकि माता-पिता अपने बच्चों को जो तरीका बताते हैं—“किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो”—वह है बुराई के बदले बुराई करना। तो अगर दूसरा व्यक्ति बुरा हो, तो तुम्हें उससे भी ज्यादा बुरा बन जाना चाहिए। अगर उनकी बातों में कोई अर्थ छिपा है, तो तुम उनसे बेहतर हो, उसे पहचान सकते हो, और साथ ही इस छिपे हुए अर्थ के आधार पर तुम उनसे निपटने के लिए कदम उठा सकते और दांव-पेंच लड़ाकर उन पर जवाबी हमला कर सकते हो, उन्हें हरा सकते हो, डरा सकते हो, अपने प्रति समर्पण करवा सकते हो, और उन्हें जानने दे सकते हो कि तुम्हें धमकाया या तुम्हारे साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है। बुराई का जवाब बुराई से देने का यही अर्थ है। जाहिर है कि तुम्हें बताया गया अभ्यास का रास्ता और मानदंड और इस कहावत से मिलने वाले नतीजे तुमसे बुराई करवाएँगे और तुम्हें सच्चे मार्ग से डिगाएँगे। जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें ऐसा बर्ताव करने को कहते हैं, तो वे तुम्हें सत्यवान या सत्य के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति बनने को नहीं कहते, न ही वे तुम्हें एक सच्चा सृजित प्राणी बनने को कहते हैं। वे तुम्हें सामने के बुरे व्यक्ति के तरीकों से भी ज्यादा बुरे तरीकों का इस्तेमाल कर जवाबी हमले से बुराई को जीतने को कहते हैं। तुम्हारे माता-पिता की बात का यही अर्थ है। क्या कोई माता-पिता ऐसे हैं, जो यह कहते हैं? “अगर कोई बुरा व्यक्ति तुम पर हमला करे, तो संयम रखो। तुम्हें उसकी अनदेखी करनी चाहिए, जानना चाहिए कि वह वास्तव में क्या है। पहले, उसके भीतर के बुरे व्यक्ति के सार को पहचानो, और उसकी असलियत जानो। दूसरे, खुद के अंदर के दुष्कर्मों और भ्रष्ट स्वभावों को पहचानो जो उस व्यक्ति जैसे या उसके समान हैं, और फिर उन्हें दूर करने के लिए सत्य खोजो।” क्या कोई माता-पिता अपने बच्चों को यह बताते हैं? (नहीं।) जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें बताएँ, “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो। तुम्हें सावधान रहना चाहिए, वरना दूसरों से धोखा खाओगे और लाभ की कीमत चुकाओगे, और तुम्हें पहले हमला करना सीखना चाहिए,” तो यह कहने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का मूल इरादा चाहे कुछ भी हो, या इससे जो भी अंतिम प्रभाव मिले, यह तुम्हें और ज्यादा भयानक, ज्यादा सामर्थ्यवान, ज्यादा अशिष्ट, ज्यादा दबंग और ज्यादा दुष्ट बना देता है, ताकि बुरे लोग तुमसे डरें और जब भी तुम्हें देखें तुमसे दूर रहें, और तुमसे उलझने की हिम्मत न करें। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।) तो क्या यह कहा जा सकता है कि तुम्हें यह कहावत बताने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का लक्ष्य तुम्हें न्याय की भावना वाला, सत्यवान, और एक बुद्धिमान व्यक्ति बनाना नहीं है जो “साँपों के समान बुद्धिमान और कबूतरों के समान भोला हो”? उनका लक्ष्य यह बताना है कि तुम्हें समाज में सामर्थ्यवान व्यक्ति बनना है, दूसरों से भी ज्यादा बुरा बनना है, और ऐसा व्यक्ति बनना है जो अपनी रक्षा के लिए बुराई का इस्तेमाल करता है, सही है न? (हाँ।) जब तुम्हारे माता-पिता यह बताते हैं, “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो,” तो चाहे यह उनका मूल इरादा हो, उससे मिलने वाला अंतिम नतीजा हो, चाहे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें ऐसे काम अमल में लाने के सिद्धांत और तरीके बताएँ, या इसके बजाय इन चीजों पर तुम्हें अपने विचार और नजरिये बताएँ, जाहिर है कि इनमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं है, और यह परमेश्वर के वचनों के विपरीत है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक बुरा व्यक्ति बनने देते हैं, एक सच्चा या बुद्धिमान इंसान नहीं, जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता है। जाहिर है, तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें दी गई सीख और शिक्षण सकारात्मक नहीं हैं, न ही वह सही रास्ता है। हालाँकि तुम्हारे माता-पिता का आशय तुम्हारी रक्षा करना था, और वे बहुत नेकनीयत थे, लेकिन जो प्रभाव उनसे हासिल हुए वे घातक हैं। न सिर्फ वे तुम्हारी रक्षा करने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने तुम्हें गलत रास्ता दिखाया, जिससे तुम बुरे काम करने वाले और एक बुरा व्यक्ति बन गए। वे न सिर्फ तुम्हारी रक्षा करने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने तुम्हें प्रलोभन और अधार्मिकता में गिराकर और परमेश्वर की देखभाल और रक्षा से भटकाकर वास्तव में हानि पहुँचाई। इस दृष्टिकोण से, यह अधिक संभव है कि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभाव तुम्हें स्वार्थी और पाखंडी बना दें, शोहरत, फायदे और सामाजिक हैसियत के लिए लालची बना दें और बुरी प्रवृत्तियों में और ज्यादा लिप्त कर दें, और तुम्हें दूसरों से बातचीत करने और दूसरों के बीच कपटी, दुष्ट, अभिमानी और दबंग बनाने के लिए और ज्यादा परिष्कृत छल-कपट के तरीके दे दें, ताकि कोई भी तुमसे गड़बड़ करने या तुम्हें छूने की हिम्मत भी न करे। तुम्हारे माता-पिता के नजरिये से उन्होंने तुम्हें शिक्षा देने के लिए ये तरीके इस्तेमाल किए हैं, ताकि तुम समाज में सुरक्षित रहो, या एक हद तक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बन जाओ। लेकिन सत्य के परिप्रेक्ष्य से वे तुम्हें एक सच्चा सृजित प्राणी नहीं बनने देते। वे तुम्हें परमेश्वर की शिक्षाओं और उन तरीकों से भटकाते हैं, जिनसे वह तुम्हें सही आचरण करने के लिए डाँटता है, और वे तुम्हें उस लक्ष्य से भी और बहुत दूर भटका देते हैं जिसका अनुसरण करने की बात परमेश्वर तुमसे कहता है। तुम्हें सिखाने और शिक्षित करने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का मूल इरादा चाहे जो हो, आखिरकार जो विचार उन्होंने तुम्हें सिखा दिए हैं, उनसे तुम्हें सिर्फ शोहरत, लाभ और खालीपन ही मिले हैं, और साथ ही वे तमाम दुष्कर्म मिले हैं जो तुमने जिये हैं और प्रदर्शित किए हैं, और उन्होंने तुम्हें समाज में अपनी शिक्षा के इन प्रभावों की व्यावहारिकता की भी और अधिक पुष्टि दी है, इसके अलावा कुछ नहीं।

अगर तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई इन कहावतों को देखें—जैसे कि “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो”—अगर सिर्फ इन कहावतों पर ही विचार किया जाए, तो ये तुम्हें कुछ खास नहीं लगेंगी। तुम्हें लगेगा कि ये कहावतें बहुत आम और प्रचलित हैं, और ऐसी कहावतों, विचारों और नजरियों के साथ कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम सत्य से उनकी तुलना करो, और उनका विस्तार से विश्लेषण करने के लिए सत्य का प्रयोग करो, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन कहावतों के साथ सचमुच बड़ी समस्याएँ हैं। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हें हमेशा बताएँ “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो,” और तुम कुशलता से जीने के इस तरीके को काम में लाओ, तो जब भी तुम लोगों से मिलोगे, निरंतर अवचेतन मन से अनजाने ही ऐसी चीजों के बारे में अटकलें लगाओगे जैसे “उसके कहने का क्या अर्थ है? उसने ऐसा क्यों कहा?” और तुम निरंतर दूसरों की बातें सुनोगे, और ऐसी आदतन सोच के साथ उनसे बातचीत कर उनके विचारों के बारे में स्वाभाविक रूप से अटकल लगाओगे, यानी तुम इस पर चिंतन नहीं करोगे कि सत्य क्या है, या दूसरों से मिल-जुलकर कैसे रहें, या दूसरों से मेलजोल के क्या सिद्धांत हैं, या दूसरों से बात करने के क्या सिद्धांत हैं, या तुमने लोगों की बातों के जो आशय समझे हैं, उससे कैसे पेश आएँ, या परमेश्वर द्वारा सिखाया हुआ मार्ग कौन-सा है, या ऐसे लोगों को कैसे पहचाना जाए, या उनसे कैसे निपटा जाए, या अमल के दूसरे ऐसे सिद्धांत कौन-से हैं जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें कभी नहीं बताए। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बताया कि दूसरों के विचारों का अनुमान कैसे लगाएँ, और तुमने इस पर बहुत अच्छी तरह अमल किया; तुम पहले ही ऐसे मुकाम पर पहुँच गए हो जहाँ तुमने इसमें कुशलता पा ली है, और अब तुम यह किए बिना नहीं रह सकते। इसलिए, इन मसलों के लिए जरूरी है कि लोग नियमित रूप से व्यवस्थित हों, सावधानी से सोचें और चीजों को समझने का प्रयास करें। एक अर्थ में, तुम्हें इन मसलों का विश्लेषण कर उन्हें स्पष्ट रूप से जानना चाहिए। एक अन्य अर्थ में, जब भी ये चीजें हों, तुम्हें अपना सोचने का तरीका और लोगों और चीजों को देखने का तरीका बदलने की कोशिश करनी चाहिए। यानी तुम्हें ऐसे मामलों से निपटने के बारे में अपने विचारों और नजरिये को बदलना चाहिए। अगली बार जब तुम किसी को बोलते हुए सुनो, और यह अटकल लगाने की कोशिश करो कि वे असल में क्या कहना चाहते हैं, तो ऐसी सोच और लोगों से निपटने के ऐसे तरीके को जाने दो, और गहराई से सोचो : “ऐसा कहने का उसका क्या अर्थ है? वह सीधी बात नहीं करता और हमेशा घुमा-फिरा कर बोलता है। यह व्यक्ति कपटी है। वह भला किस चीज के बारे में बोल रहा था? इस चीज का सार क्या है? क्या मैं इसे स्पष्ट समझ सकता हूँ? अगर मैं इसे स्पष्ट समझ सकूँ, तो मैं सत्य से सुसंगत दलीलों और नजरियों का इस्तेमाल कर उसके साथ संगति करूँगा, मामला स्पष्ट रूप से समझाऊँगा, और उसे इस पहलू का सत्य समझाऊंगा। मैं उसकी मदद कर उसके गलत विचारों और सोच को ठीक कर दूँगा। इसके अलावा, वह कपटपूर्ण ढंग से बोलता है। मुझे नहीं जानना कि उसकी बात का अर्थ क्या है, या वह यूँ घुमा-फिरा कर क्यों बोलता है। मैं अटकल लगाने की कोशिश में मेहनत और ऊर्जा नहीं खपाना चाहता कि वह दरअसल क्या कहना चाहता है। मैं वह कीमत नहीं चुकाना चाहता, और इस बारे में कुछ भी नहीं करना चाहता। मुझे बस यह पहचानने की जरूरत है कि वह कपटी है। हालाँकि वह कपटी है, मैं उसके साथ छल नहीं करूँगा। वह जितना भी घुमा-फिरा कर बोले, मैं उसके साथ सीधी तरह से पेश आऊँगा, जो कहना चाहिए वही कहूँगा, और जैसा है वैसा ही कहूँगा। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा था : ‘तुम्हारी बात “हाँ” की “हाँ,” या “नहीं” की “नहीं” हो’ (मत्ती 5:37)। कपट को ईमानदारी से संबोधित करना सत्य पर अमल का सबसे ऊँचा मानदंड है।” अगर तुम इस तरह अमल करोगे, तो तुम उन तरीकों को जाने दोगे जिनकी शिक्षा तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें दी है, और अमल करने के तुम्हारे सिद्धांत भी बदल जाएँगे। फिर तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो सत्य का अनुसरण करता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम अपने माता-पिता की शिक्षा के कौन-से पहलू को जाने देते हो, जब भी कुछ संबंधित चीजें दोबारा होंगी, तुम परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को मानदंड बनाकर उनके बारे में अपने गलत विचारों और सोच को बदल दोगे, और उन्हें उन विचारों और सोच में तब्दील कर दोगे जो पूरी तरह सही और सकारात्मक हैं। यानी अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को अभ्यास का आधार और मानदंड बनाकर इस मामले को परखते, देखते और संभालते हो, तो तुम सत्य पर अमल कर रहे हो। इसके विपरीत अगर तुम अब भी अपने माता-पिता के सिखाए तरीके को—या तुम्हारे भीतर पिरोये विचारों और सोच को—इस मामले को संभालने के मानदंड, आधार और अभ्यास सिद्धांतों के रूप में अपनाते हो, तो अमल का यह तरीका सत्य पर अमल करना नहीं है, न ही यह सत्य का अनुसरण करना है। अंत में, सत्य का अनुसरण करके लोग जो हासिल करते हैं वह सत्य की समझ और अनुभव है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम सत्य को न तो समझोगे, न ही इसका अनुभव हासिल करोगे। तुम जो हासिल करोगे वह तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें सिखाई गई इस कहावत को अमल में लाने की समझ और अनुभव होगा। इसलिए, जब दूसरे परमेश्वर के वचनों के उनके अनुभव और समझ पर बात करते हैं, तब तुम कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं रहते, क्योंकि तुम्हारे पास कहने को कुछ है ही नहीं। तुम्हारे पास बस तुम्हारे परिवार द्वारा सिखाए गए विचारों और सोच की व्यावहारिक समझ और अनुभव ही है। बात बस इतनी है कि तुम उनके बारे में कुछ कह ही नहीं पाते, और तुम्हारे पास उन्हें साझा करने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, तुम जिस भी चीज पर अमल करते हो, आखिरकार तुम उसे ही समझोगे। अगर तुम सत्य पर अमल करते हो, तो तुम जो हासिल करोगे वह परमेश्वर के वचनों और सत्य की समझ और अनुभव होगा। अगर तुम अपने माता-पिता द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा और निर्देशों पर अमल करते हो, तो तुम अपने परिवार की शिक्षा और पारंपरिक शिक्षा को ही समझोगे और इसी का अनुभव करोगे, और तुम जो हासिल करोगे वह सिर्फ शैतान द्वारा तुम्हारे मन में बैठाए गए विचार होंगे और शैतान द्वारा तुम्हें दी गई भ्रष्टता होगी। तुम जितनी गहराई से इन चीजों को समझोगे, जितना ज्यादा महसूस करोगे कि शैतान के भ्रष्ट विचार और सोच उपयोगी और व्यावहारिक हैं, उतनी ही गहराई से शैतान तुम्हें भ्रष्ट करेगा। अगर तुम सत्य पर अमल करोगे तो क्या होगा? तुम्हें सत्य और परमेश्वर द्वारा तुम्हें बताए गए वचनों और सिद्धांतों की और अधिक समझ और अनुभव प्राप्त होगा, और तुम्हें लगेगा कि सत्य सबसे अनमोल चीज है, और परमेश्वर ही मानव जीवन का स्रोत है, और परमेश्वर के वचन लोगों का जीवन हैं।

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “बदनाम सोंग वंश राजनेता” यह वाक्यांश नहीं है।

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