असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 61)
प्रत्येक व्यक्ति ने कम या ज्यादा, कुछ न कुछ अपराध तो किए हैं। अगर तुम नहीं जानते कि कोई चीज अपराध है या नहीं, तो तुम इस बारे में अस्पष्ट मनःस्थिति में रहोगे और शायद अपनी राय, अभ्यासों और चीजों को समझने के अपने तरीकों को छोड़ोगे नहीं। लेकिन, एक दिन, चाहे परमेश्वर के वचनों को पढ़कर या फिर अपने भाई-बहनों की संगति से, या परमेश्वर के खुलासों के माध्यम से, तुम जान जाओगे कि यह एक अपराध है और परमेश्वर का अपमान करने वाली बात है। तब तुम्हारा रवैया कैसा होगा? क्या तुम्हें वास्तव में आत्मग्लानि होगी, या तुम तर्क और बहस करते रहोगे और यह मानते हुए अपने ही विचारों को नहीं छोड़ोगे कि भले ही तुमने जो किया वह सत्य के अनुरूप नहीं है, परंतु यह बहुत बड़ी समस्या भी नहीं है? इस बात का संबंध परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये से है। अपने अपराध के प्रति दाऊद का क्या रवैया था? (आत्मग्लानि।) आत्मग्लानि—जिसका मतलब है कि वह दिल ही दिल में अपने आप से नफरत करता था और किसी भी हाल में उस अपराध को फिर कभी नहीं करेगा। तो, उसने क्या किया? वह परमेश्वर से खुद को दंड देने की प्रार्थना करने लगा और बोला : “यदि मैं दोबारा यह गलती करूं, तो परमेश्वर मुझे दंड दे और मेरी जान ले ले!” उसका संकल्प ऐसा था; सच्ची आत्मग्लानि। क्या साधारण लोग ऐसा कर सकते हैं? साधारण लोगों के लिए तो तर्क-वितर्क करने की कोशिश न करना या चुपचाप अपनी गलती स्वीकार लेना ही बहुत है। क्या सम्मान जाने के डर से किसी मुद्दे को दोबारा उठाने के लिए अनिच्छुक होना सच्ची आत्मग्लानि है? यह आत्मग्लानि नहीं, अपना सम्मान खोने के डर से व्यथित और परेशान होना है। सच्ची आत्मग्लानि का अर्थ है कोई गलत काम करने के लिए खुद से नफरत करना, बुरा काम करने लायक होने से कष्ट और असहजता महसूस करना, खुद को दोषी समझना और यहां तक कि खुद को कोसना। इसका मतलब है दोबारा ऐसा बुरा काम न करने की शपथ लेने में सक्षम होना और दोबारा कभी वह बुरा काम करने पर परमेश्वर की दी हुई सजा को स्वीकारने और दयनीय मौत मरने के लिए तैयार रहना। यह सच्ची आत्मग्लानि है। यदि कोई अपने मन में हमेशा महसूस करता है कि उसने कोई बुरा काम नहीं किया है और उसके काम केवल सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे या बुद्धिमानी की कमी के कारण हुए थे और उसका मानना है कि यदि वह गुप्त रूप से काम करेगा तो कुछ भी गलत नहीं होगा, तो क्या वह ऐसा सोचते हुए सच्ची आत्मग्लानि का अनुभव कर सकता है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि उसे अपने बुरे कर्म के सार का ही पता नहीं है। ऐसे लोग भले ही खुद से थोड़ी-बहुत नफरत भी करते हों, लेकिन वे केवल अपनी नासमझी और स्थितियों को अच्छी तरह से न संभालने के लिए खुद से नफरत करते हैं। वे वास्तव में इस बात का एहसास नहीं कर पाते कि बुरा काम करने में सक्षम होने का कारण उनके प्रकृति-सार में समस्या होना है, कि यह उनमें मानवता की कमी, उनके बुरे स्वभाव और अनैतिकता के कारण है। ऐसे लोगों को कभी सच्ची आत्मग्लानि नहीं होती। जब किसी ने कुछ गलत किया हो या अपराध किया हो तो उसे परमेश्वर के सामने आत्मचिंतन करने की जरूरत क्यों पड़ती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि खुद अपने प्रकृति-सार को जानना आसान नहीं है। किसी का यह स्वीकार करना कि उसने गलती की है और यह जानना कि गलती कहाँ हुई है, आसान है। परंतु, यह जानना आसान नहीं है कि अपनी गलतियों का स्रोत क्या है और वास्तव में इससे उसका किस प्रकार का स्वभाव सामने आया है। इसीलिए, कोई गलती करने पर अधिकांश लोग केवल यह स्वीकारते हैं कि वे गलत थे, लेकिन उनके मन में इसके लिए कोई आत्मग्लानि नहीं होती, न ही वे खुद से नफरत करते हैं। इस तरह, वे सच्चे पश्चात्ताप से वंचित रह जाते हैं। सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए, व्यक्ति को उस बुराई को त्यागना होगा जो उसने की है और उसे यह गारंटी देने में सक्षम होना चाहिए कि वह दोबारा कभी वैसा काम नहीं करेगा। तभी सच्चा पश्चात्ताप किया जा सकता है। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मामलों पर विचार करते हो, कभी आत्मचिंतन करने या खुद को जानने का प्रयास नहीं करते और सारे काम आधे-अधूरे ढंग से अनमने होकर करते हो तो तुमने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया है और तुम बिल्कुल भी नहीं बदले हो। यदि परमेश्वर तुम्हारा खुलासा करना चाहता है, तो तुम्हें इसे कैसे देखना चाहिए? तुम्हारा रवैया क्या होगा? (मैं परमेश्वर की दी हुई सजा को स्वीकार करूंगा।) परमेश्वर की दी हुई सजा को स्वीकारना ही तुम्हारा रवैया होना चाहिए। इसी के साथ, तुम्हें परमेश्वर की ओर से होने वाली जाँच-पड़ताल को स्वीकारना होगा। वास्तव में स्वयं को जान सकने और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए यही तरीका बेहतर है। यदि किसी व्यक्ति में सच्ची आत्मग्लानि नहीं है, तो उसके लिए बुरे कामों को बंद करना असंभव होगा। किसी भी वक्त और कहीं भी, वह अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीने के पुराने तौर-तरीकों पर लौटने और यहां तक कि बार-बार वही गलतियाँ करने में सक्षम होगा। इस प्रकार, वह ऐसा इंसान नहीं है जिसने वास्तव में पश्चात्ताप किया हो। इस तरीके से उसे पूरी तरह उजागर कर दिया जाता है। तो लोग खुद को अपराधों से पूरी तरह मुक्त करने के लिए क्या कर सकते हैं? समस्याएं हल करने के लिए उन्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए और उन्हें सत्य का अभ्यास करने में भी सक्षम होना चाहिए। सत्य के प्रति लोगों का यही सही रवैया होना चाहिए। तो फिर लोगों को सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए? चाहे कितने ही प्रलोभनों या परीक्षणों का सामना करना पड़े, तुम्हें वास्तव में अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। कुछ परीक्षण प्रलोभन के रूप में भी होते हैं—परमेश्वर तुम्हें ऐसी चीजों का सामना क्यों करने देता है? ऐसा न तो आकस्मिक रूप से होता है और न ही संयोगवश कि परमेश्वर तुम्हारे साथ ऐसी चीजें घटित होने दे। इस तरीके से परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है और जाँच करता है। यदि तुम इस जाँच को स्वीकार नहीं करते, यदि तुम इस मामले पर ध्यान नहीं देते तो क्या इससे परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया बेनकाब नहीं होता? परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है? यदि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जैसा परिवेश तैयार किया है और जिन परीक्षणों से गुजरना निर्धारित किया है उसके प्रति तुम्हारा रवैया उदासीन और तिरस्कारपूर्ण है और इससे गुजरते हुए तुम न तो प्रार्थना करते हो, न सत्य खोजते हो और न ही अभ्यास का कोई रास्ता ढूंढते हो, तो इससे पता चलता है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया विनम्र नहीं है। ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर कैसे बचा सकता है? क्या यह संभव है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को पूर्ण बनाए? कदापि नहीं। इसका कारण यह है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया विनम्र नहीं है और भले ही परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई परिवेश तैयार करे, तो भी तुम इसका अनुभव नहीं करोगे और इसके साथ सहयोग नहीं करोगे। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी अवमानना दिखाता है कि तुम परमेश्वर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते और तुम परमेश्वर के वचनों और सत्यों को भी दरकिनार करने में सक्षम हो, जिसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो। उस स्थिति में, तुम्हें उद्धार कैसे मिल सकता है? जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर सकते। परमेश्वर में इस तरह का विश्वास करते हुए उद्धार प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं है। इसका मतलब यह है कि परमेश्वर और सत्य के प्रति व्यक्ति का रवैया बहुत महत्वपूर्ण है और इसका सीधा संबंध इस बात से है कि क्या उसे बचाया जा सकता है। जो लोग इस पर ध्यान नहीं देते वे मूर्ख और अज्ञानी हैं।
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