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वचन, खंड 3 : अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन (पूरे अध्याय)
- सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग (भाग एक)
- सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग (भाग दो)
- एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास (भाग एक)
- एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास (भाग दो)
- एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास (भाग तीन)
- अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग (भाग एक)
- अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग (भाग दो)
- अपने गलत विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है (भाग एक)
- अपने गलत विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है (भाग दो)
- केवल सच्चे समर्पण के साथ ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है (भाग एक)
- केवल सच्चे समर्पण के साथ ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है (भाग दो)
- केवल सच्चे समर्पण के साथ ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है (भाग तीन)
- छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है (भाग एक)
- छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है (भाग दो)
- छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है (भाग तीन)
- सत्य वास्तविकता क्या है? (भाग एक)
- सत्य वास्तविकता क्या है? (भाग दो)
- सत्य वास्तविकता क्या है? (भाग तीन)
- वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं? (भाग एक)
- वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं? (भाग दो)
- वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं? (भाग तीन)
- केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है (भाग एक)
- केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है (भाग दो)
- केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है (भाग एक)
- केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है (भाग दो)
- पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें (भाग एक)
- पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें (भाग दो)
- अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1) भाग दो
- अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1) भाग तीन
- अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1) भाग चार
- अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (2) भाग दो
- अपने कर्तव्य का मानक स्तर का निर्वहन क्या है? (भाग एक)
- अपने कर्तव्य का मानक स्तर का निर्वहन क्या है? (भाग दो)
- अपने कर्तव्य का मानक स्तर का निर्वहन क्या है? (भाग तीन)
- मनुष्य और परमेश्वर के बीच संबंध सुधारना अत्यंत आवश्यक है (भाग एक)
- मनुष्य और परमेश्वर के बीच संबंध सुधारना अत्यंत आवश्यक है (भाग दो)
- अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है (भाग एक)
- अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है (भाग दो)
- अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है (भाग तीन)
- परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग एक)
- परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग दो)
- परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग तीन)
- परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग चार)
- मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है (भाग एक)
- मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है (भाग दो)
- राज्य के युग में परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के बारे में
- देहधारण के अर्थ का दूसरा पहलू
- परमेश्वर द्वारा जगत की पीड़ा का अनुभव करने का अर्थ
- परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है (भाग एक)
- परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है (भाग दो)
- परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी प्रकृति है (भाग एक)
- परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी प्रकृति है (भाग दो)
- प्रार्थना के मायने और उसका अभ्यास (भाग एक)
- प्रार्थना के मायने और उसका अभ्यास (भाग दो)
- पतरस के मार्ग पर कैसे चलें
- स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
- मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें (भाग एक)
- मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें (भाग दो)
- केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
- क्या तुम मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर का प्रेम जानते हो?
- लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं (भाग एक)
- लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं (भाग दो)
- मसीह का सार प्रेम है
- परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए (भाग एक)
- परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए (भाग दो)
- अपना हृदय परमेश्वर को देने में व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है (भाग एक)
- अपना हृदय परमेश्वर को देने में व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है (भाग दो)
- अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है
- सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए
- जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है (भाग एक)
- जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है (भाग दो)
- सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है (भाग एक)
- सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है (भाग दो)
- परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है (भाग एक)
- परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है (भाग एक)
- परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है (भाग दो)
- परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है (भाग तीन)
- भ्रष्ट स्वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है (भाग एक)
- भ्रष्ट स्वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है (भाग दो)
- परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है (भाग एक)
- परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है (भाग दो)
- केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है (भाग एक)
- केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है (भाग दो)
- रुतबे के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें (भाग एक)
- रुतबे के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें (भाग दो)
- सत्य प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है
- अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है (भाग एक)
- अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है (भाग दो)
- सत्य का अभ्यास करना क्या है? (भाग एक)
- सत्य का अभ्यास करना क्या है? (भाग दो)
- अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है (भाग एक)
- अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है (भाग दो)
- परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत (भाग एक)
- परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत (भाग दो)
- परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्य प्राप्त करने में बुनियादी सबक है (भाग तीन)
- परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे जानें (भाग दो)
- परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे जानें (भाग तीन)
- सृजित प्राणी का कर्तव्य उचित ढंग से निभाने में ही जीने का मूल्य है (भाग एक)
- सृजित प्राणी का कर्तव्य उचित ढंग से निभाने में ही जीने का मूल्य है (भाग दो)
- धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता (भाग दो)
- केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया जा सकता है (भाग एक)
- केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया जा सकता है (भाग दो)
- सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है (भाग एक)
- सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है (भाग दो)
- सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है (भाग तीन)
- अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए (भाग एक)
- अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए (भाग दो)
- अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए (भाग तीन)
- सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 2)
- सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 3)
- सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 5)
- सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 6)
- सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 7)
- सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 9)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 10)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 11)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 12)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 13)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 14)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 15)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 16)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 17)
- सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 18)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 19)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 20)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 21)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 22)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 23)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 24)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 25)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 26)
- परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 27)
- परमेश्वर के देहधारण को जानने के बारे में वचन (अंश 28)
- परमेश्वर के देहधारण को जानने के बारे में वचन (अंश 29)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 30)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 31)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 32)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 33)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 34)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 36)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 37)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 38)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 39)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 40)
- कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 41)
- स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 42)
- स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 44)
- स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 45)
- स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 46)
- स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 47)
- स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 48)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 49)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 50)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 51)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 52)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 54)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 55)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 56)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 57)
- भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 58)
- असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 59)
- असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 60)
- असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 61)
- असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 62)
- शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 64)
- शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 65)
- शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 66)
- शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 67)
- शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 68)
- शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 69)
- परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 70)
- परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 71)
- परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 72)
- परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 73)
- परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 75)
- परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 76)
- परमेश्वर लोगों का परिणाम कैसे तय करता है इसके बारे में वचन (अंश 77)
- परमेश्वर लोगों का परिणाम कैसे तय करता है इसके बारे में वचन (अंश 78)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 80)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 81)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 83)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 84)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 85)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 86)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 87)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 89)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 90)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 91)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 92)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 93)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 94)
- अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 95)
असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 59)
परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्था का लक्ष्य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्टदायक परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।