परमेश्वर लोगों का परिणाम कैसे तय करता है इसके बारे में वचन (अंश 78)

अंत के दिनों के अपने कार्य में परमेश्वर लोगों की अभिव्यक्तियों के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है। क्या तुम लोग जानते हो कि यहाँ “अभिव्यक्तियों” से क्या तात्पर्य है? तुम्हें लगता होगा कि अभिव्यक्तियाँ उन भ्रष्ट स्वभावों को कहते हैं जिन्हें लोग अपने क्रियाकलापों में प्रकट करते हैं, लेकिन वास्तव में इसका यह मतलब नहीं है। यहाँ अभिव्यक्तियों से यह तात्पर्य है कि तुम सत्य का अभ्यास कर पाते हो या नहीं; अपना कर्तव्य निभाते समय वफादार रह पाते हो या नहीं; परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा दृष्टिकोण, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया, कष्ट सहने का तुम्हारा संकल्प कैसा है; न्याय, ताड़ना और काट-छाँट स्वीकारने को लेकर तुम्हारा रवैया क्या है; तुम्हारे किए गंभीर अपराधों की संख्या क्या है; और तुम आखिर किस हद तक पश्चात्ताप कर पाते हो और खुद में बदलाव ला पाते हो। ये सभी मिलकर तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ बनते हैं। यहाँ अभिव्यक्ति से यह तात्पर्य नहीं है कि तुमने कितने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए या कितने बुरे काम किए, बल्कि इसका मतलब यह है कि तुम्हें कितने नतीजे मिल चुके हैं और परमेश्वर में विश्वास करते हुए तुम खुद में कितना वास्तविक बदलाव ला पाए हो। यदि लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित किए जाते कि उनकी प्रकृति ने कितनी ज्यादा भ्रष्टता प्रकट की है तो कोई भी उद्धार प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि सभी मनुष्य गहराई तक भ्रष्ट हैं, सबकी प्रकृति शैतानी है और वे सभी परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। परमेश्वर उन लोगों को बचाना चाहता है जो सत्य को स्वीकार कर उसके कार्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं। वे चाहे जितनी भ्रष्टता प्रकट करें, अगर वे अंततः सत्य को स्वीकार सकते हैं, सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हैं और खुद में सच्चा बदलाव ला सकते हैं तो वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है। कुछ लोग इसकी असलियत नहीं जान पाते और सोचते हैं कि जो कोई भी अगुआ के रूप में कार्य करेगा वह अपने भ्रष्ट स्वभाव और अधिक प्रकट करेगा, और जो कोई अधिक भ्रष्टता प्रकट करेगा उसे निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और वह बच नहीं पाएगा। क्या यह दृष्टिकोण सही है? भले ही अगुआ अधिक भ्रष्टता प्रकट करते हैं, यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं तो वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने योग्य हैं, वे बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल सकते हैं, और अंततः वे परमेश्वर की एक सुंदर गवाही देने में सक्षम होंगे। ये वे लोग हैं जो सचमुच बदल गए हैं। यदि लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित किए जाते कि उनके भ्रष्ट स्वभाव का कितना खुलासा हुआ है, तो जितना अधिक वे अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते, उतनी ही जल्दी उनका खुलासा हो जाता। अगर ऐसा मामला होता तो अगुआ या कार्यकर्ता बनने की हिम्मत कौन करता? कौन परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने और पूर्ण बनाए जाने के मुकाम तक पहुँच पाता? क्या यह दृष्टिकोण बहुत ही बेतुका नहीं है? परमेश्वर मुख्य रूप से यह देखता है कि क्या लोग सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं, क्या वे अपनी गवाही पर दृढ़ रह सकते हैं, और क्या वे वास्तव में बदल गए हैं। यदि लोगों के पास सच्ची गवाही है और उनमें सच्चा परिवर्तन आया है, तो वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है। कुछ लोग ऊपर से देखने में कोई भ्रष्टता प्रकट नहीं करते लेकिन उनके पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही नहीं होती, वे सचमुच नहीं बदले हैं और परमेश्वर उन्हें स्वीकृति नहीं देता।

परमेश्वर किसी व्यक्ति की अभिव्यक्तियों और सार के आधार पर उसका परिणाम निर्धारित करता है। यहाँ अभिव्यक्तियों से तात्पर्य यह है कि क्या कोई व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार है, क्या उसके मन में उसके प्रति प्रेम है, क्या वह सत्य का अभ्यास करता है, और उसका स्वभाव किस हद तक बदला है। इन अभिव्यक्तियों और उनके सार के आधार पर परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करता है, न कि इस आधार पर कि वह अपना भ्रष्ट स्वभाव कितना प्रकट करता है। अगर तुम्हें यह लगता है कि परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि उसने कितनी भ्रष्टता प्रकट की है, तो तुमने उसके इरादों की गलत व्याख्या की है। वास्तव में, लोगों में एक समान भ्रष्ट सार होता है, अंतर केवल यह होता है कि उनमें अच्छी या बुरी मानवता है या नहीं और वे सत्य को स्वीकार सकते हैं या नहीं। चाहे कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव को कितना भी प्रकट करे, परमेश्वर सबसे अच्छी तरह जानता है कि उसके दिल की गहराई में क्या है; तुम्हें इसे छिपाने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों को परखता है। भले ही कुछ ऐसा हो जिसे तुम दूसरों के सामने या पीठ पीछे करते हो, या तुम मन ही मन करना चाहते हो, परमेश्वर के सामने यह सब कुछ खुला होता है। लोग गुप्त रूप से क्या करते हैं, इसकी जानकारी परमेश्वर को भला कैसे नहीं होगी? क्या यह आत्म-भ्रम नहीं है? सच में तो किसी व्यक्ति की प्रकृति चाहे कितनी भी कपटपूर्ण हो, चाहे वह कितना भी झूठ बोले, चाहे वह छद्मवेश ओढ़ने और धोखा देने में कितना भी कुशल हो, परमेश्वर सब कुछ बखूबी जानता है। परमेश्वर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इतनी अच्छी तरह से जानता है, तो क्या वह अपने सामान्य अनुयायियों को भी इतनी ही अच्छी तरह नहीं जानेगा? कुछ लोग सोचते हैं, “जो भी अगुआई करता है वह मूर्ख और अज्ञानी है और खुद अपने आप को बर्बाद कर रहा है, क्योंकि एक अगुआ के रूप में कार्य करने से लोग अनिवार्य रूप से परमेश्वर के सामने भ्रष्टता प्रकट करने को मजबूर हो जाते हैं। अगर वे यह काम नहीं करते तो क्या इतनी बड़ी भ्रष्टता सामने आती?” कितना बेतुका विचार है! यदि तुम एक अगुआ के रूप में कार्य नहीं करते, तो क्या तुम भ्रष्टता का खुलासा नहीं करोगे? क्या अगुआ न होने का मतलब यह है कि भले ही तुम कम भ्रष्टता दिखाओ, तुम्हें उद्धार प्राप्त हो गया है? इस तर्क के अनुसार तो क्या वे सभी जो अगुआओं के रूप में सेवा नहीं करते, जीवित रह सकते हैं और बचाए जा सकते हैं? क्या यह कथन बहुत हास्यास्पद नहीं लगता? जो लोग अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्गदर्शन देते हैं। यह अपेक्षा और मानक उच्च है, इसलिए यह अपरिहार्य है कि जब अगुआ पहली बार प्रशिक्षण शुरू करेंगे तो कुछ भ्रष्ट दशाएँ प्रकट करेंगे। यह सामान्य है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। इसकी निंदा करना तो दूर रहा, परमेश्वर इन लोगों को प्रबुद्ध और रोशन कर उनका मार्गदर्शन भी करता है, और उन पर अतिरिक्त बोझ डालता है। अगर वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं तो वे सामान्य लोगों की तुलना में जीवन में तेजी से प्रगति करेंगे। यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं तो वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल सकते हैं। यही वह चीज है जिस पर परमेश्वर का सबसे अधिक आशीष होता है। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते और तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं। मानवीय समझ के अनुसार चाहे कोई अगुआ कितना भी बदल जाए, परमेश्वर परवाह नहीं करेगा; वह केवल यह देखेगा कि अगुआ और कार्यकर्ता कितनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं और इसके आधार पर ही उनकी निंदा करेगा। और जो लोग अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं वे चूँकि भ्रष्टता प्रकट नहीं करते, इसलिए चाहे वे खुद को न भी बदलें तो भी परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करेगा। क्या यह बेतुकी बात नहीं है? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? यदि तुम अपने हृदय में इतनी गहराई से परमेश्वर का विरोध करते हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तुम्हें नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों के परिणाम मुख्य रूप से इस आधार पर निर्धारित करता है कि उनके पास सत्य और सच्ची गवाही है या नहीं, और यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं या नहीं हैं। यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने अपराध के लिए न्याय और ताड़ना दिए जाने के बाद वे सच में पश्चात्ताप कर पाते हैं, तो जब तक वे ऐसे शब्द नहीं कहते या ऐसी चीजें नहीं करते हैं जिनसे परमेश्वर की ईशनिंदा हो, वे निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होंगे। तुम लोगों की कल्पनाओं के अनुसार सभी सामान्य विश्वासी जो अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, और जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, उन सभी को हटा दिया जाना चाहिए। यदि तुम लोगों से अगुआ बनने के लिए कहा जाए, तो तुम सोचोगे कि ऐसा न करना ठीक नहीं रहेगा, लेकिन अगुआ के रूप में काम करना पड़ा तो अनजाने में ही भ्रष्टता प्रकट होगी और यह बिल्कुल अपनी गर्दन कटाने जैसी बात है। क्या यह सब सोचने का कारण परमेश्वर के बारे में तुम लोगों की गलतफहमियाँ नहीं है? यदि लोगों के परिणाम उनके द्वारा प्रकट भ्रष्टता के आधार पर निर्धारित किए जाते, तो किसी को भी नहीं बचाया जा सकता। उस स्थिति में परमेश्वर द्वारा उद्धार का कार्य करने का क्या मतलब होगा? यदि सचमुच ऐसा ही हो तो परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ दिखेगी? मानवजाति परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने में असमर्थ रहेगी। इसलिए तुम सब लोगों ने परमेश्वर के इरादों को गलत समझा है, जो दर्शाता है कि तुम लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है।

परमेश्वर लोगों के परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर निर्धारित करता है, और यहाँ अभिव्यक्तियों का तात्पर्य उन पर परमेश्वर के कार्य के नतीजों से हैं। मैं तुमको एक उपमा दूँगा : एक बगीचे में मालिक अपने पेड़ों को खाद-पानी देता है, फिर उनसे फल पाने का इंतजार करता है। फलदार पेड़ अच्छे होते हैं और उनका रखरखाव किया जाता है; फल न देने वाले पेड़ बेशक अच्छे नहीं होते और उनका रखरखाव भी नहीं किया जाता। इस स्थिति पर विचार करें : एक पेड़ फल देता है पर उसमें बीमारी भी लग जाती है और उसकी कुछ बेकार शाखाओं को काटने की आवश्यकता होती है। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे पेड़ का रखरखाव किया जाना चाहिए? इसका रखरखाव किया जाना चाहिए और काट-छाँट और उपचार के बाद यह स्वस्थ हो जाएगा। एक और स्थिति पर विचार करें : एक पेड़ में कोई बीमारी नहीं है, परंतु वह फल नहीं देता—इस प्रकार के पेड़ को नहीं रखना चाहिए। यहाँ पर “फल देने” से क्या तात्पर्य है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर का कार्य नतीजे प्राप्त कर रहा है। चूँकि लोगों को शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, वे अनिवार्य रूप से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के दौरान अपनी भ्रष्टता प्रकट करेंगे, और वे अनिवार्य रूप से कुछ अपराध भी करेंगे। लेकिन साथ ही परमेश्वर का कार्य उनमें कुछ नतीजे हासिल करेगा। यदि परमेश्वर इन नतीजों की परवाह न करता, और केवल मनुष्य द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों को देखता, तो लोगों को बचाने का सवाल ही नहीं उठता। उद्धार के नतीजे मुख्य रूप से लोगों के अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में प्रकट होते हैं। परमेश्वर उन नतीजों को देखता है जो लोगों ने इन क्षेत्रों में हासिल किए हैं, और फिर वह उनके अपराधों की गंभीरता को देखता है। फिर वह इन कारकों के जोड़ के आधार पर उनके परिणामों का निर्णय करता है और यह तय करता है कि वे रहेंगे या नहीं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने अतीत में बड़े पैमाने पर भ्रष्टता दिखाई थी; और देह-सुख को बहुत अधिक महत्व दिया था; वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने को तैयार नहीं थे, न ही उन्होंने कलीसिया के हितों को कायम रखा। हालाँकि कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद उनमें वास्तविक परिवर्तन आया है। वे अब अपने कर्तव्य निभाने में सत्य सिद्धांतों के लिए प्रयास करना जानते हैं, और वे अपने कर्तव्यों में अधिकाधिक नतीजे प्राप्त करते हैं। वे सभी बातों में परमेश्वर के पक्ष में खड़े होने में भी सक्षम हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखने के लिए अपना भरसक प्रयास करते हैं। किसी के जीवन स्वभाव को बदलने का अर्थ यही है, और यही वह परिवर्तन है, जिसे परमेश्वर चाहता है। इसके अलावा कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके मन में अतीत में जब भी धारणाएँ आती थीं, तो वे उन्हें चारों ओर फैला देते थे, और उनके हृदय केवल तभी संतुष्ट होते थे जब ये धारणाएँ अन्य लोगों में बन जाती थीं, लेकिन अब जब उनमें कुछ धारणाएँ होती हैं, तो वे धारणाएँ फैलाए बिना या परमेश्वर के विरोध में कुछ किए बिना परमेश्वर से प्रार्थना करने, सत्य को खोजने और विनम्र होने में सक्षम होते हैं। क्या उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया है? कुछ लोग अतीत में अपनी काट-छाँट होते ही इसका प्रतिरोध करने लगते थे; लेकिन अब जब उनके साथ ऐसा होता है, तो वे इसे स्वीकारने और स्वयं को जानने में सक्षम होते हैं। उसके बाद उनमें कुछ वास्तविक परिवर्तन होते हैं। क्या यह एक नतीजा नहीं है? लेकिन तुम चाहे जितना भी बदल जाओ, अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो पाना असंभव है और तुम्हारी प्रकृति एक झटके में पूरी तरह नहीं बदली जा सकती। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर चल पड़ता है और सभी चीजों में सत्य खोजना जानता है, तो भले ही वह थोड़ा विद्रोह दिखाए, उसे समय पर इसका एहसास हो जाएगा। यह एहसास होने के बाद ऐसे लोग परमेश्वर के सामने कबूल कर पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने को तत्पर होंगे और उनकी दशा बेहतर होती जाएगी। वे वही अपराध एक-दो बार फिर कर सकते हैं, लेकिन तीसरी-चौथी बार नहीं करेंगे। यही परिवर्तन कहलाता है। ऐसा नहीं है कि यह व्यक्ति किसी मामले में बदल गया है, इसलिए वह अब भ्रष्टता प्रकट नहीं करता और अपराध नहीं करता। ऐसा नहीं है। इस प्रकार के बदलाव का अर्थ है कि व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद सत्य का अधिक अभ्यास करने में सक्षम है, और परमेश्वर जो अपेक्षा करता है उसमें से कुछ को अभ्यास में लाता है। ऐसा व्यक्ति कम से कम अपराध करेगा, वह कम से कम भ्रष्टता प्रकट करेगा, और उनके विद्रोह के प्रकरण कम से कम गंभीर होते जाएँगे। इससे यह स्पष्ट है कि परमेश्वर के कार्य ने नतीजे प्राप्त कर लिए हैं; वह चाहता है कि लोगों में इसी प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हों, जो दर्शाती हैं कि उनमें नतीजे प्राप्त किए जा चुके हैं। इसलिए परमेश्वर जिस तरह लोगों के परिणाम तय करता है या हर व्यक्ति के साथ जैसा व्यवहार करता है वह पूरी तरह से धार्मिक, उचित और निष्पक्ष होता है। तुम्हें केवल अपना सारा प्रयास परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में लगाना है, और जिन सत्यों का तुम्हें अभ्यास करना चाहिए उनका अभ्यास बेफिक्र होकर पूरी दिलेरी और भरोसे से करने की जरूरत है, फिर परमेश्वर तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार नहीं करेगा। जरा सोचो : जो सत्य से प्रेम और इसका अभ्यास करते हैं, क्या उन्हें परमेश्वर दंडित करेगा? कई लोग हमेशा परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में शंकालु बने रहते हैं, और भयभीत रहते हैं कि सत्य को अभ्यास में लाने के बाद भी उन्हें दंडित किया जाएगा; वे हमेशा भयभीत रहते हैं कि अगर वे परमेश्वर के प्रति वफादारी दिखाएँ भी, तो वह उसे नहीं देखेगा। ऐसे लोगों को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है।

कुछ लोग अपनी काट-छाँट होने के बाद निराश हो जाते हैं; वे अपना कर्तव्य निभाने की सारी ऊर्जा गँवा देते हैं, और उनकी वफ़ादारी भी गायब हो जाती है। ऐसा क्यों होता है? यह समस्या बहुत गंभीर है; यह सत्य को स्वीकार करने में अक्षम होना है। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, कुछ तो अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान न होने के कारण होता है, जिसके कारण वे अपनी काट-छाँट स्वीकार करने में सक्षम नहीं होते। यह उनकी प्रकृति से तय होता है जो अहंकारी और दंभी होती है और जिसमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता। यह आंशिक तौर पर इसलिए भी होता है कि लोग काट-छाँट किए जाने का महत्व नहीं समझते। वे मानते हैं कि काट-छाँट किए जाने का अर्थ है कि उनका परिणाम निर्धारित कर दिया गया है। परिणामस्वरूप, वे गलत ढंग से विश्वास करते हैं कि यदि वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों को त्याग देते हैं, और उनके पास परमेश्वर के लिए कुछ वफादारी है, तो उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए; और यदि उनकी काट-छाँट की जाती है तो यह परमेश्वर का प्रेम और उसकी धार्मिकता नहीं है। इस प्रकार की गलतफहमी के कारण कई लोग परमेश्वर से वफादारी का साहस नहीं कर पाते। वास्तव में सारे सोच-विचार के बाद इसका कारण यह है कि वे बहुत अधिक कपटी हैं और कष्ट नहीं सहना चाहते। वे तो बस आसान तरीके से आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को बिल्कुल भी नहीं समझते। उन्हें कभी यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक होते हैं, या कि हरेक के प्रति उसका व्यवहार धार्मिक होता है। वे इस मामले में कभी सत्य नहीं खोजते, बल्कि हमेशा अपने तर्क गढ़ते रहते हैं। किसी व्यक्ति ने चाहे कितने भी बुरे काम किए हों, कितने ही बड़े पाप किए हों या कितनी भी बुराई की हो, जब तक परमेश्वर का न्याय और दंड उस पर पड़ता रहता है, वह सोचेगा कि स्वर्ग अनुचित है और परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यदि परमेश्वर के कार्य मनुष्य की इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं या उसके कार्य मनुष्य की भावनाओं से मेल नहीं खाते तो मनुष्य की नजर में वह धार्मिक नहीं होगा। लेकिन लोग कभी नहीं जानते कि उनके कार्य सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, न ही उन्हें कभी एहसास होता है कि वे अपने हर कार्य में परमेश्वर से विद्रोह कर उसका विरोध करते हैं। लोगों ने चाहे जैसा भी अपराध किया हो, अगर परमेश्वर कभी भी उनकी काट-छाँट न करे या उनके विद्रोह के लिए उन्हें न फटकारे, बल्कि उनके साथ शांत और सौम्य रहे, उनके साथ केवल प्रेम और धैर्य से पेश आए और उन्हें हमेशा अपने साथ भोजन करने दे और चीजों का आनंद लेने दे, तो लोग कभी भी परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करेंगे या उसे अधार्मिक नहीं मानेंगे; बल्कि वे बेमन से कहेंगे कि वह बहुत धार्मिक है। क्या ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ एकमन हो सकते हैं? उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि जब परमेश्वर मनुष्यों का न्याय और उनकी काट-छाँट करता है तो वह उनके जीवन स्वभावों को शुद्ध कर बदलना चाहता है ताकि वे उसके प्रति समर्पण करने और उससे प्रेम करने में सफल हो सकें। ऐसे लोग यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है। अगर परमेश्वर लोगों को डाँटता है, उजागर करता है और उनकी काट-छाँट करता है तो वे नकारात्मक और कमजोर पड़ जाते हैं और हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर स्नेही नहीं है, हमेशा कुड़कुड़ाते रहते हैं कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर का न्याय और ताड़ना गलत है, वे यह नहीं देख पाते कि परमेश्वर इस तरह शुद्ध कर मनुष्य को बचाता है और वे यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर लोगों के पश्चात्ताप के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है। वे सदैव परमेश्वर पर संदेह कर उससे सावधान रहते हैं, और इसका नतीजा क्या निकलेगा? क्या वे परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण कर पाएँगे? क्या वे सच्चा परिवर्तन हासिल कर पाएँगे? यह असंभव है। यदि उनकी यही दशा कायम रही तो यह बहुत खतरनाक बात होगी और परमेश्वर द्वारा उन्हें शुद्ध कर पूर्ण बनाया जाना असंभव होगा।

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