परमेश्वर लोगों का परिणाम कैसे तय करता है इसके बारे में वचन (अंश 77)
कुछ लोगों में बहुत कम काबिलियत होती है और वे सत्य से प्रेम नहीं करते। सत्य के बारे में चाहे कैसे भी संगति की जाए वे उसके अनुरूप नहीं बन पाते। वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन अब भी किसी वास्तविक अनुभव या समझ के बारे में बात नहीं कर सकते। इसलिए वे तय कर लेते हैं कि वे परमेश्वर के पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हैं और वे परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जा सकते चाहे वे कितने भी वर्षों तक उसमें विश्वास करते रहें। वे अपने दिल में यह मानते हैं कि “सिर्फ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्दिष्ट और चुने हुए लोग ही बचाए जा सकते हैं, और जिनकी काबिलियत बहुत कम है और जो सत्य समझने में असमर्थ हैं वे परमेश्वर के पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हैं; अगर वे विश्वास करते भी हैं तो भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता।” उन्हें लगता है कि परमेश्वर लोगों का परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित नहीं करता। अगर तुम्हारी यही सोच है तो तुम परमेश्वर को बहुत गलत समझते हो। अगर परमेश्वर सचमुच ऐसा करता तो क्या वह निष्पक्ष होगा? परमेश्वर लोगों का परिणाम एक ही सिद्धांत के आधार पर निर्धारित करता है : अंत में लोगों का परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित किया जाएगा। अगर तुम परमेश्वर का न्याय परायण स्वभाव नहीं देख सकते और हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो और उसकी इच्छाओं को इतना विकृत कर देते हो कि हमेशा निराश और हताश रहते हो तो क्या यह सजा तुमने खुद ही अपने आप को नहीं दी? अगर तुम यह नहीं समझते कि परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण कैसे काम करता है तो तुम्हें परमेश्वर से उसके वचनों में सत्य माँगना चाहिए और आँख मूँदकर यह तय नहीं कर लेना चाहिए कि तुम उसके पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हो। यह परमेश्वर के बारे में एक गंभीर गलतफहमी है! तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में बिल्कुल नहीं जानते और उसके इरादे नहीं समझते, परमेश्वर के छह हजार वर्षों के प्रबंधन-कार्य के पीछे के कष्टसाध्य प्रयास को तो बिल्कुल भी नहीं समझते। तुम खुद से निराश हो जाते हो, परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाते हो और उस पर संदेह करते हो, डरते हो कि तुम एक सेवाकर्ता हो जिसे उसकी सेवा समाप्त होने के बाद हटा दिया जाएगा और हमेशा सोचते रहते हो कि “मुझे अपना कर्तव्य क्यों निभाना चाहिए? क्या मैं अपना कर्तव्य निभाकर सेवा प्रदान कर रहा हूँ? अगर मेरी सेवा समाप्त होने के बाद मुझे हटा दिया गया तो मैं किसी चाल में तो नहीं फँस जाऊँगा?” तुम इस सोच से क्या समझते हो? क्या तुम इसे पहचान सकते हो? तुम हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो, उसे दुनिया में शासन करने वाले शैतान राजाओं की श्रेणी में रखते हो, उससे अपना हृदय बचा कर रखते हो और हमेशा सोचते हो कि वह भी मनुष्यों की तरह ही स्वार्थी और घृणित है। तुम कभी विश्वास नहीं करते कि वह मानवजाति से प्रेम करता है और तुम मानवजाति को बचाने में निहित उसकी ईमानदारी में कभी विश्वास नहीं करते। अगर तुम हमेशा खुद को एक सेवाकर्ता के रूप में चित्रित करते हो और अपनी सेवा प्रदान करने के बाद हटाए जाने से डरते हो तो तुम्हारी मानसिकता छद्म-विश्वासियों वाली कपटी मानसिकता है। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं करते क्योंकि वे नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर है, न ही वे यह स्वीकारते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है। यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो फिर तुम्हारी उस में आस्था क्यों नहीं है? तुम यह क्यों नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर का वचन सत्य है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो, सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और नतीजतन, परमेश्वर में कई वर्षों से आस्था होने के बावजूद तुमने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है; और इन सबके बावजूद तुम अंत में यह कहते हुए परमेश्वर पर दोष मढ़ देते हो कि उसने तुम्हें पूर्वनिर्दिष्ट नहीं किया है, कि वह तुम्हारे प्रति ईमानदार नहीं रहा है। यह कौन-सी समस्या है? तुम परमेश्वर की इच्छाओं को गलत समझते हो, उसके वचनों पर विश्वास नहीं करते और न तो सत्य को अभ्यास में लाते हो और न ही अपना कर्तव्य निभाते समय वफादारी दिखाते हो। तुम परमेश्वर के इरादे कैसे पूरे कर सकते हो? तुम पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकते हो और सत्य कैसे समझ सकते हो? ऐसे लोग सेवाकर्ता बनने के योग्य भी नहीं होते तो वे परमेश्वर के साथ बातचीत करने के योग्य कैसे हो सकते हैं? अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है तो तुम उस में विश्वास क्यों करते हो? तुम हमेशा यह चाहते हो कि इससे पहले कि तुम परमेश्वर के घर के लिए परिश्रम करो, परमेश्वर तुमसे व्यक्तिगत रूप से कहे कि “तुम राज्य के लोगों में से हो; यह स्थिति कभी नहीं बदलेगी,” और अगर वह नहीं कहता तो तुम कभी उसे अपना दिल नहीं दोगे। ऐसे लोग कितने विद्रोही और अड़ियल होते हैं! मैं देखता हूँ कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जो कभी अपने स्वभाव बदलने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, सत्य का अभ्यास करने पर तो बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते। उनका ध्यान हमेशा यह पूछने पर ही रहता है कि क्या उन्हें एक अच्छी मंजिल मिल पाएगी, परमेश्वर उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा, क्या उसने उन्हें अपने लोगों के रूप में पूर्वनिर्दिष्ट किया है और ऐसी ही अन्य सुनी-सुनाई बातें। ऐसे लोग जो अपना उचित कार्य नहीं करते, सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वे परमेश्वर के घर में कैसे रह सकते हैं? अब, मैं तुम लोगों को गंभीरतापूर्वक बताता हूँ : हालाँकि कोई व्यक्ति पूर्वनिर्दिष्ट हो सकता है, लेकिन अगर वह सत्य नहीं स्वीकार सकता और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए उसे अभ्यास में नहीं ला सकता तो हटाया जाना ही उसका अंतिम परिणाम होगा। सिर्फ वे ही लोग जो ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खपते हैं और अपनी पूरी शक्ति से सत्य को अभ्यास में लाते हैं, जीवित रहने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। हालाँकि दूसरे लोग उन्हें ऐसे व्यक्ति समझ सकते हैं जिनका बने रहना पूर्वनिर्दिष्ट नहीं है, फिर भी परमेश्वर के न्याय परायण स्वभाव के कारण उनके पास उन कथित पूर्वनिर्दिष्ट लोगों से बेहतर मंजिल होगी जो कभी परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रहे। क्या तुम इन वचनों पर विश्वास करते हो? अगर तुम इन वचनों पर विश्वास नहीं कर सकते और अपना हठपूर्वक भटकना जारी रखते हो तो, मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम निश्चित रूप से जीवित नहीं रह पाओगे क्योंकि तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले या सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चूँकि ऐसा है इसलिए परमेश्वर की पूर्वनियति महत्वपूर्ण नहीं है। मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि अंत में परमेश्वर लोगों के परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित करेगा, जबकि परमेश्वर की पूर्वनियति एक छोटी-सी भूमिका निष्पक्ष रूप से निभाती है, प्रमुख भूमिका नहीं। क्या तुम इसे समझते हो?
कुछ लोग कहते हैं : “मेरा स्वभाव खराब है और मैं इसे बदल नहीं सकता, चाहे मैं इसका कितना भी प्रयास करूँ। इसलिए मैं प्रकृति को अपना काम करने दूँगा। अगर मैं अपने अनुसरण में सफल नहीं हो पाता, तो इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता।” ऐसे लोग बेहद नकारात्मक होते हैं, यहाँ तक कि उन्होंने खुद से उम्मीद ही छोड़ दी है। इन लोगों को छुटकारा नहीं दिलाया जा सकता। क्या तुमने प्रयास किया है? अगर सच में तुमने प्रयास किया है, और तुम कष्ट सहने को तैयार हो, तो फिर तुम दैहिक सुख के प्रति विद्रोह क्यों नहीं कर सकते? क्या तुम दिल और दिमाग वाले व्यक्ति नहीं हो? तुम प्रतिदिन कैसे प्रार्थना करते हो? क्या तुम सत्य नहीं खोजोगे और परमेश्वर पर भरोसा नहीं करोगे? तुम्हारे लिए प्रकृति को अपना काम करने देने का अर्थ है निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करना, न कि सक्रिय रूप से सहयोग करना। इस रूप में प्रकृति को अपना काम करने देना यह कहने के समान है, “मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है; कुछ भी हो, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है।” क्या सचमुच यही परमेश्वर का इरादा है? अगर नहीं, तो अक्सर नकारात्मक और अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ होने के बजाय तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित क्यों नहीं होते? थोड़ा-सा अपराध कर देने पर कुछ लोग अंदाजा लगाते हैं : “क्या परमेश्वर ने मुझे प्रकट कर हटा दिया है? क्या वह मुझे मार डालेगा?” इस बार परमेश्वर लोगों को मारने के लिए नहीं, बल्कि यथासम्भव अधिकतम सीमा तक उन्हें बचाने के लिए कार्य करने आया है। कोई भी त्रुटिहीन नहीं है—अगर सभी को मार दिया जाए, तो क्या यह “उद्धार” होगा? कुछ अपराध जान-बूझकर किए जाते हैं, जबकि अन्य अपराध अनिच्छा से होते हैं। जो चीजें तुम अनिच्छा से करते हो, उन्हें पहचानने के बाद अगर तुम बदल सकते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हारे ऐसा करने से पहले ही तुम्हें मार देगा? क्या परमेश्वर इस तरह से लोगों को बचाएगा? वह इस तरह काम नहीं करता! चाहे तुम्हारा विद्रोही स्वभाव हो या तुमने अनिच्छा से कार्य किया हो, यह याद रखो : तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। तुरंत खुद को बदलो और अपनी पूरी ताकत से सत्य के लिए प्रयास करो—और, चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न आएँ, खुद को निराशा में न पड़ने दो। परमेश्वर मनुष्य के उद्धार का कार्य कर रहा है और वह जिन्हें बचाना चाहता है, उन्हें यूँ ही नहीं मार देगा। यह निश्चित है। भले ही वास्तव में परमेश्वर का ऐसा कोई विश्वासी हो जिसे उसने अंत में मार गिराया हो, फिर भी जो कुछ परमेश्वर करता है, उसके धार्मिक होने की गारंटी होगी। समय आने पर वह तुम्हें बताएगा कि उसने उस व्यक्ति को क्यों मारा, जिससे तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाओगे। अभी बस सत्य के लिए प्रयास करो, जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करो और अपने कर्तव्य के अच्छे प्रदर्शन का अनुसरण करो। इसमें कोई गलती नहीं है! चाहे परमेश्वर अंत में तुम्हें कैसे भी सँभाले, उसके धार्मिक होने की गारंटी है; तुम्हें इस पर संदेह नहीं करना चाहिए, और तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। भले ही इस समय तुम परमेश्वर की धार्मिकता न समझ पाओ, लेकिन एक दिन आएगा जब तुम आश्वस्त हो जाओगे। परमेश्वर न्यायपूर्वक और सम्मानपूर्वक कार्य करता है; वह खुलकर हर चीज प्रकट करता है। अगर तुम लोग इस पर ध्यान से विचार करो, तो तुम इस हृदयस्पर्शी निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाना और उनके भ्रष्ट स्वभाव बदलना है। यह देखते हुए कि परमेश्वर का कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने का कार्य है, यह असंभव है कि लोगों में भ्रष्टता के प्रकाशन न हों। भ्रष्ट स्वभाव के इन प्रकाशनों में ही लोग स्वयं को जान सकते हैं, और यह स्वीकार सकते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए तैयार हो सकते हैं। भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बाद अगर लोग सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना जारी रखते हैं, तो वे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के लिए उत्तरदायी होंगे। परमेश्वर उनसे विविध मात्राओं में प्रतिशोध लेगा, और वे अपने अपराधों की कीमत चुकाएँगे। अगर तुम कभी-कभी अनजाने ही स्वच्छंद हो जाते हो, और परमेश्वर तुम्हें इसका संकेत देता है और तुम्हारी काट-छाँट करता है और तुम बदलकर बेहतर हो जाते हो, तो परमेश्वर इसकी वजह से तुम्हारे प्रति द्वेष नहीं रखेगा। यह स्वभाव-परिवर्तन की सामान्य प्रक्रिया है, और उद्धार के कार्य का वास्तविक महत्व इस प्रक्रिया में प्रकट होता है। यह कुंजी है। उदाहरण के तौर पर, महिलाओं और पुरुषों के बीच सीमाएँ रखने के मुद्दे पर बात करते हैं, मान लो तुम किसी के प्रति आकर्षित हो, हमेशा उसके साथ बातचीत करना चाहते हो, उससे विमोहक शब्द कहते हो। बाद में तुम विचार करते हो, “क्या यह घटिया व्यवहार नहीं है? क्या यह पाप नहीं है? क्या महिलाओं और पुरुषों के बीच सीमा स्पष्ट न रखना परमेश्वर का अपमान नहीं है? मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?” यह एहसास होने के बाद तुम जल्दी से परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर! मैंने फिर से पाप किया है। यह घिनौना और वास्तव में शर्मनाक है। मुझे भ्रष्ट देह से नफरत है। तुम मुझे अनुशासित करो और दंड दो।” तुम भविष्य में ऐसी चीजों से दूर रहने और विपरीत लिंग से अकेले संपर्क न करने का मन बना लेते हो। क्या यह बदलाव नहीं होगा? और इस तरह से बदलने के बाद तुम्हारे पिछले अवगुणों की अब निंदा नहीं की जाएगी। अगर तुम किसी के साथ बातचीत करते हो और उसे फुसलाते हो, और तुम्हें नहीं लगता कि यह शर्मनाक चीज है, खुद से नफरत करना, खुद को सावधान करना, देह के विरुद्ध विद्रोह करने का मन बनाना या परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप करना तो दूर की बात है, तो तुम और अधिक दुष्कर्म कर सकते हो और चीजें बद से बदतर होती जाएँगी जिससे तुम पाप की ओर अग्रसर हो जाओगे। अगर तुम ऐसा करते हो तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम बार-बार पाप करते हो तो यह जानबूझकर किया गया पाप है। परमेश्वर जानबूझकर किए गए पाप की निंदा करता है और जानबूझकर किया गया पाप सुधारा नहीं जा सकता। अगर तुम अनजाने में कुछ भ्रष्ट स्वभाव वास्तव में प्रकट करते हो, और तुम वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हो, देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और सत्य का अभ्यास कर सकते हो तो परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं करेगा और तुम अब भी बचाए जा सकते हो। परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने के लिए है और जो कोई अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है उसे काट-छाँट, न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए। अगर वह सत्य स्वीकार सकता है, पश्चात्ताप कर सकता है और बदल सकता है तो क्या इससे परमेश्वर के इरादे पूरे नहीं हो जाएँगे? कुछ लोग सत्य नहीं स्वीकारते और परमेश्वर के प्रति हमेशा एहतियाती रवैया अपनाते हैं। ऐसे लोगों के पास जीवन प्रवेश नहीं होता और अंत में उन सभी को नुकसान उठाने पड़ेंगे।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अतीत की घटनाएँ एक झटके में साफ की जा सकती हैं; अतीत के स्थान पर भविष्य को लाया जा सकता है; परमेश्वर की सहनशीलता समुद्र के समान असीम है। लेकिन इन वचनों में सिद्धांत भी निहित हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे द्वारा किए गए किसी भी पाप को मिटा देगा, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो। परमेश्वर अपना सारा कार्य सिद्धांतों के साथ करता है। इस मुद्दे को हल करने के लिए अतीत में एक प्रशासनिक आदेश दिया गया था : परमेश्वर व्यक्ति के अपना नाम स्वीकारने से पहले किए गए सारे पाप माफ और क्षमा कर देता है। लेकिन जो लोग उसमें विश्वास करने के बाद भी पाप करते रहते हैं, उनके लिए यह एक अलग कहानी होती है : जो एक बार पाप दोहराता है उसे पश्चात्ताप करने का मौका दिया जाता है, जबकि इसे दो बार दोहराने वालों या बार-बार की फटकारों के बावजूद बदलने से इनकार करने वालों को पश्चात्ताप करने का कोई और मौका दिए बिना निष्कासित कर दिया जाता है। परमेश्वर हमेशा अपने कार्य में लोगों के साथ यथासंभव अधिकतम सीमा तक सहनशील रहता है। इसमें यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य वास्तव में लोगों को बचाने का कार्य है। लेकिन अगर कार्य के इस अंतिम चरण में तुम अभी भी अक्षम्य पाप करते हो, तो तुम वास्तव में सुधर नहीं सकते, और तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध करने और बदलने के लिए परमेश्वर के पास एक प्रक्रिया है : मनुष्य द्वारा अपनी भ्रष्ट प्रकृति के सतत प्रकाशन की प्रक्रिया में ही परमेश्वर मनुष्य को शुद्ध कर बचाने का अपना लक्ष्य प्राप्त करता है। कुछ लोग सोचते हैं : “चूँकि यह मेरी प्रकृति है, इसलिए इसे पूरा उजागर होने दो। एक बार इसके उजागर हो जाने पर मैं इसे जानूँगा और सत्य को अभ्यास में लाऊँगा।” क्या यह प्रक्रिया आवश्यक है? अगर तुम वाकई सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो और जब तुम देखते हो कि दूसरों में कौन-सी भ्रष्टताएँ प्रकट होती हैं और उन्होंने कौन-सी गलत चीजें की हैं तो तुम आत्म-चिंतन करते हो और जब वही समस्याएँ खुद में देखते हो तो उन्हें तुरंत ठीक कर लेते हो और भविष्य में वे चीजें कभी नहीं करते तो क्या यह अप्रत्यक्ष परिवर्तन नहीं है? या अगर तुम कभी-कभी कुछ करना चाहते हो लेकिन पहले ही महसूस कर लेते हो कि यह गलत है और तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो तो क्या इससे भी शुद्धिकरण जैसा ही प्रभाव नहीं होता है? किसी भी पहलू में सत्य का अभ्यास करने के लिए बार-बार होने वाली प्रक्रियाओं से गुजरने की जरूरत होती है। ऐसा नहीं है कि एक बार सत्य का अभ्यास करने के बाद भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से गायब हो जाएगा। भ्रष्ट स्वभाव का पूरी तरह से समाधान होने से पहले व्यक्ति को बार-बार सत्य खोजना चाहिए, काट-छाँट, दंड और अनुशासन से बार-बार गुजरना चाहिए, साथ ही न्याय और ताड़ना से भी बार-बार गुजरना चाहिए ताकि उसे फिर से सत्य का अभ्यास करने में कोई कठिनाई न हो। अगर व्यक्ति काट-छाँट, न्याय और ताड़ना किए जाने के बाद पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुसार सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाता है और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण रखता है तो यह उसके स्वभाव में बदलाव है।
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