केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है (भाग दो)
वर्तमान में, क्या ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो इस समाज में रहने वालों को लुभा सकती हैं? प्रलोभन तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं—तमाम तरह की बुरी प्रवृत्तियाँ, तमाम तरह के प्रवचन, तमाम तरह के विचार और दृष्टिकोण, तमाम तरह के लोगों की तमाम तरह की गुमराह करने वाली चीजें और प्रलोभन, तमाम तरह के लोगों के तमाम शैतानी चेहरे। ये सभी ऐसे प्रलोभन हैं जिनका तुम सामना करते हो। उदाहरण के लिए, लोग तुम पर एहसान कर सकते हैं, तुम्हें अमीर बना सकते हैं, तुम्हारे दोस्त बन सकते हैं, तुम्हारे साथ प्रेम-मिलाप के लिए जा सकते हैं, तुम्हें पैसे दे सकते हैं, कोई नौकरी दे सकते हैं, डांस करने के लिए बुला सकते हैं, तुम्हारी खुशामद कर सकते हैं या तुम्हें तोहफे दे सकते हैं। ये सभी चीजें संभावित रूप से प्रलोभन हैं। अगर सब कुछ ठीक न रहा तो तुम जाल में फंस जाओगे। यदि तुम्हें कुछ सत्यों का ज्ञान नहीं है और तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है, तो तुम इन चीजों की असलियत को नहीं समझ पाओगे और ये सभी तुम्हें फंसाने के लिए जाल और प्रलोभन साबित होंगी। एक लिहाज से देखें तो अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो तुम शैतान की चालें नहीं समझ पाओगे और विभिन्न प्रकार के लोगों के शैतानी चेहरों को नहीं भाँप पाओगे। तुम शैतान पर विजय पाने, दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम नहीं होगे। दूसरे लिहाज से, सत्य वास्तविकता के बिना तुम सभी विभिन्न प्रकार की बुरी प्रवृत्तियों, बुरे दृष्टिकोणों और बेतुके विचारों और कथनों का प्रतिरोध नहीं कर पाओगे। जब इन चीजों से तुम्हारा सामना होगा, तो यह शीत लहर की मार पड़ने जैसा होगा। हो सकता है कि तुम्हें केवल हल्का जुकाम हो जाए, या शायद कुछ और गंभीर समस्या हो—तुम्हें जानलेवा सर्दी का दौरा भी पड़ सकता है।[क] हो सकता है कि तुम अपनी आस्था पूरी तरह खो दो। यदि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो शैतानों और अविश्वासियों की दुनिया के राक्षसों के कुछ शब्द ही तुम्हें बेचैन और भ्रमित कर देंगे। तुम सवाल करोगे कि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए या नहीं और ऐसी आस्था रखना सही है या नहीं। हो सकता है कि आज की सभा में तुम अच्छी स्थिति में हो, लेकिन फिर कल तुम घर जाकर किसी टेलीविजन शो के दो एपिसोड देख लोगे। अब तुम बहकावे में आ चुके हो। रात में, तुम सोने से पहले प्रार्थना करना भूल जाते हो, और तुम्हारा मन पूरी तरह से उस टेलीविजन शो की कहानी में लगा है। यदि तुम दो दिन तक टेलीविजन देखते रहते हो, तो तुम्हारा दिल पहले से ही परमेश्वर से दूर हो गया है। अब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ना या सत्य के बारे में संगति करना नहीं चाहते हो। तुम परमेश्वर से प्रार्थना भी नहीं करना चाहते हो। अपने दिल में, तुम हमेशा यही कहते हो, “मैं कब कुछ कर पाऊँगा? मैं कोई महत्वपूर्ण काम कब शुरू करूँगा? मेरा जीवन व्यर्थ नहीं होना चाहिए!” क्या यह हृदय परिवर्तन है? मूल रूप से, तुम सत्य के बारे में और अधिक समझना चाहते थे, ताकि सुसमाचार फैला सको और परमेश्वर की गवाही दे सको। अब तुम क्यों बदल गए हो? केवल फिल्में और टेलीविजन कार्यक्रम देखकर तुमने शैतान को अपने दिल पर कब्जा करने दिया है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद वाकई छोटा है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास इन बुरी प्रवृत्तियों का विरोध करने लायक आध्यात्मिक कद है? अब परमेश्वर तुम पर अनुग्रह करता है और कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें अपने घर में लेकर जाता है। तुम अपना आध्यात्मिक कद मत भूलो। अभी, तुम ग्रीनहाउस में एक फूल जैसे हो, जो बाहर की हवा और बारिश का सामना नहीं कर सकता। यदि लोग इन प्रलोभनों को पहचान नहीं सकते और इनका सामना नहीं कर सकते, तो शैतान किसी भी समय, किसी भी स्थान पर उन्हें बंदी बना सकता है। ऐसा है मनुष्य का छोटा आध्यात्मिक कद और दयनीय अवस्था। क्योंकि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता और सत्य की समझ नहीं है, इसलिए शैतान के सभी शब्द तुम्हारे लिए जहर के समान हैं। यदि तुम उन्हें सुनोगे, तो वे तुम्हारे दिल में अमिट छाप छोड़ जाएंगे। अपने दिल में तुम कहते हो, “मैं अपने कान और अपनी आँखें बंद कर लूँगा,” लेकिन तुम शैतान के प्रलोभन से बच नहीं सकते। तुम शून्य में नहीं रहते हो। यदि तुम शैतान के शब्दों को सुनते हो, तो उनका प्रतिरोध नहीं कर पाओगे। तुम जाल में फंस जाओगे। तुम्हारी प्रार्थनाओं और अपने आपको धिक्कारने का कोई फायदा नहीं होगा। तुम प्रतिरोध नहीं कर सकते। ऐसी चीजें तुम्हारे विचारों और कार्यों को प्रभावित कर सकती हैं। वे तुम्हारे सत्य के अनुसरण के मार्ग को बाधित कर सकती हैं। वे तुम्हें काबू में भी कर सकती हैं, तुम्हें परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से रोक सकती हैं, तुम्हें नकारात्मक और कमजोर बना सकती हैं, और तुम्हें परमेश्वर से दूर रख सकती हैं। अंत में, तुम्हारा कोई मोल नहीं होगा और तुम्हारे लिए सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी होंगी।
अभी तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के प्रति वफादार हो। तुममें महत्वाकांक्षा, दृढ़ संकल्प और परमेश्वर को संतुष्ट करने का आदर्श है। लेकिन जब परमेश्वर के परीक्षणों से तुम्हारा सामना होगा तब तुम क्या करोगे? तुम कहते हो कि तुम समर्पण करोगे लेकिन जब परमेश्वर तुम्हारे सामने ऐसी कठिनाई रखेगा जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होगी, और तुम उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे तो तब क्या करोगे? जब परमेश्वर लोगों को इनाम देता है, तो यह उनकी मनोवैज्ञानिक जरूरतों और उनकी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होता है, इसलिए लोग उसके प्रति समर्पण कर लेते हैं। लेकिन जब परमेश्वर तुमसे चीजें वापस ले लेगा, तो तुम क्या करोगे? क्या तुम परमेश्वर के परीक्षणों के बीच और उस माहौल में जो उसने तुम्हारे लिए बनाया है, अपनी गवाही में अडिग खड़े रह सकोगे? क्या यह एक समस्या होगी? जब तुम कहते हो, “मैं निश्चित रूप से अपनी गवाही में अडिग रहूँगा,” तो तुम्हारे शब्द आडंबर, मूर्खता, अज्ञानता और बेवकूफी से भरे होते हैं। क्या तुम जानते हो परमेश्वर तुम्हारे साथ क्या करना चाहता है? क्या तुम जानते हो परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा क्यों लेना चाहता है? वह तुममें क्या प्रकट करना चाहता है? तुम कहते हो, “मुझे कष्ट सहने की इच्छा है, मैं तैयार हूँ, मुझे परमेश्वर के किसी भी परीक्षण का डर नहीं है,” लेकिन फिर अचानक कुछ ऐसा होता है जिसकी तुमने कभी उम्मीद नहीं की थी, कुछ ऐसा जिसके लिए तुम तैयार नहीं थे। फिर तुम्हारी तैयारी का क्या फायदा? कुछ भी नहीं। मान लो कि तुम्हारा स्वास्थ्य हमेशा अच्छा रहा है। तुमने कई बरसों तक अपना कर्तव्य निभाया है और परमेश्वर ने तुम्हें सभी बीमारियों से बचाया है। तुम्हारा मार्ग सरल रहा है। अचानक, एक दिन तुम चेक-अप के लिए जाते हो और डॉक्टरों को कुछ अजीब बीमारी का पता चलता है, जो बाद में एक लाइलाज बीमारी बन सकती है। तुम्हारे दिल में, ऐसा लगता है जैसे किसी शक्ति ने शक्तिशाली धाराओं की दिशा बदल दी है और विशाल महासागर को उलट दिया है। तुम कहते हो, “कलीसिया में किसी भी भाई-बहन को यह बीमारी नहीं है।” “मैंने सबसे लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास किया है, अपना कर्तव्य निभाने में सबसे अधिक सक्रिय रहा हूँ, और मैंने सबसे अधिक कष्ट सहे हैं। तो फिर यह बीमारी मुझे कैसे हो सकती है?” इस मामले पर चिंतन-मनन करने के बाद तुम्हें एहसास होता है कि परमेश्वर जरूर तुम्हारी परीक्षा ले रहा है और तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तुममें अभी भी परमेश्वर से प्रार्थना करने की आस्था बची है। लेकिन कुछ समय तक प्रार्थना करने के बाद भी जब तुम ठीक नहीं होते, तो निश्चय करते हो, “परमेश्वर मुझे मरने दे रहा है। परमेश्वर मेरी जान लेना चाहता है!” क्या तुम अब भी परमेश्वर के प्रति समर्पण करोगे? (शायद नहीं।) तुम रोते हुए कहोगे, “हे परमेश्वर! मैं मरना नहीं चाहता। मैंने पर्याप्त जीवन नहीं जिया है। मैं अब भी जवान हूँ। मैंने अपने आधे जीवन का ही अनुभव लिया है। मुझे कुछ और साल दो। मैं अभी भी बहुत कुछ कर सकता हूँ!” यह प्रार्थना करना व्यर्थ है कि परमेश्वर तुम्हें ठीक करेगा। चाहे तुम कितनी भी जाँच करा लो, हर बार तुम्हारी बीमारी लाइलाज ही दिखेगी। इलाज करने पर भी तुम मरोगे। इलाज के बिना भी तुम मरोगे। तब तुम क्या करोगे? कई बार, जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वे पहले तो यही सोचते हैं कि परमेश्वर के कार्य सही और अच्छे हैं, लेकिन जब निष्कर्ष स्पष्ट हो जाता है, तो वे सोचते हैं, “शायद यह सचमुच परमेश्वर की इच्छा है कि मैं मर जाऊँ। अगर परमेश्वर चाहता है कि मैं मर जाऊँ, तो मुझे मर जाने दो!” इसलिए, वे बस निष्क्रिय और असहाय होकर मरने की प्रतीक्षा करते हैं। इस तरह अपनी मौत की प्रतीक्षा करना कैसा रवैया है? क्या इसमें समर्पण का कोई तत्व है? (नहीं, यह केवल अपनी किस्मत को स्वीकार लेना है।) क्या ऐसे लोग वास्तव में मरने को तैयार हैं? (वे नहीं हैं।) तो वे मृत्यु की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हैं? जब मौत आती है, तो उनके पास मरने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यदि उनके पास कोई विकल्प नहीं है, तो वे बस इसे स्वीकार ही सकते हैं। यह “स्वीकृति” निष्क्रिय विरोध का एक रवैया है, गवाही देने का कार्य नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने मुझे मरने दिया है, तो मेरे पास गवाही देने के लिए क्या बचा है?” भले ही परमेश्वर तुम्हें मरने दे रहा है, क्या तुम परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं हो? क्या तुम अपना कर्तव्य छोड़ दोगे? क्या तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है? क्या तुमने अपना कर्तव्य ठीक से निभाया है? सृजित प्राणी होने के नाते गवाही में दृढ़ रहने के लिए तुम्हारे पास किस प्रकार का हृदय होना चाहिए? (मैं अपना अनुभव बताती हूँ। कुछ दिन पहले मेरे दाँत में इतना तेज दर्द हुआ कि मैं तीन दिन तक सो नहीं सकी। फिर भी मुझे हर दिन अपना कर्तव्य निभाना पड़ता था। मेरे सिर का तेज दर्द लगभग मेरी सहनशक्ति से बाहर था। मैंने अपने दिल में थोड़ी शिकायत की। मुझे लगा कि मैंने अपना कर्तव्य बहुत अच्छी तरह से निभाया है, तो मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा था? उस समय मुझे लगा कि मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाई। कुछ भाई-बहनों ने मुझसे आत्म-चिंतन कर खुद को जानने को कहा, इसलिए मैं प्रार्थना करती रही और परमेश्वर को खोजती रही। मुझे नहीं लगा कि मैंने किसी भी चीज में परमेश्वर से विद्रोह किया है। बाद में, मैंने अय्यूब के उन शब्दों के बारे में सोचा जो उसने अपने परीक्षणों के दौरान अपनी पत्नी से कहे थे, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब अपनी परीक्षाओं के दौरान परमेश्वर की गवाही दे सका। मैंने आत्म-चिंतन किया और देखा कि जब सब अच्छा होता रहा तो मैं परमेश्वर की प्रशंसा करती रही, लेकिन प्रतिकूल हालात में नकारात्मक हो गई और मैंने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किया। मुझे एहसास हुआ कि यह एक योग्य सृजित प्राणी का मार्ग नहीं है और आखिरकार मेरी अंतरात्मा जाग गई। मुझमें दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा जाग गई। मैंने सोचा, भले ही मैं बीमार हूँ, फिर भी मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। कष्ट चाहे जितना भी हो, मुझे अपनी इच्छा से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहना चाहिए। यह मेरा अपना अनुभव था।) चाहे तुम किसी भी परीक्षण का सामना क्यों न करो, तुम्हें परमेश्वर के सम्मुख अवश्य आना चाहिए—यही सही है। अपने कर्तव्य के निर्वाह में कोई विलंब किए बिना तुम्हें अपने बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए। मगर इतना चिंतन-मनन भी न करते रहो कि अपना कर्तव्य ही न निभा पाओ, महत्वहीन चीजों पर ध्यान देकर महत्वपूर्ण चीजों को अनदेखा मत करो—वह मूर्खतापूर्ण होगा। चाहे तुम्हारे सामने कोई भी परीक्षण क्यों न हो, तुम्हें इसे परमेश्वर द्वारा दिए गए एक बोझ के रूप में देखना चाहिए। कुछ लोगों को कोई बड़ी बीमारी और असहनीय कष्ट झेलने पड़ते हैं, और कुछ मृत्यु का भी सामना करते हैं। उन्हें इस तरह की स्थिति को कैसे देखना चाहिए? कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर के इरादों को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और वफादारी से उस पर डटे रहते हो, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। यह देखकर कि वे किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं और मरने वाले हैं, कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “मैंने मौत से बचने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था—लेकिन ऐसा लगता है कि इतने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद भी वह मुझे मरने देगा। मुझे अपने काम से मतलब रखना चाहिए, वही चीजें करनी चाहिए जो मैं हमेशा से करना चाहता था, और इस जीवन में उन चीजों का आनंद लेना चाहिए जिनका मैंने आनंद नहीं लिया है। मैं अपना कर्तव्य निभाना छोड़ सकता हूँ।” यह क्या रवैया है? तुम इतने वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुमने ये तमाम उपदेश सुने हैं, और फिर भी तुमने सत्य को नहीं समझा। एक परीक्षण तुम्हें डगमगा देता है, तुम्हें घुटनों पर ले आता है, और तुम्हें बेनकाब कर देता है। क्या इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर द्वारा देखभाल किए जाने के योग्य है? (वे योग्य नहीं हैं।) उनमें जरा-सी भी निष्ठा नहीं है। तो इतने वर्षों तक उन्होंने अपना जो कर्तव्य निभाया है, उसे क्या कहते हैं? इसे “मजदूरी करना” कहते हैं, और वे सिर्फ मेहनत करते रहे हैं। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो कि “परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे समर्पण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—समर्पण—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अंतिम साँस लेते हुए भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए,” तो क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, “परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।” इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि “यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और वफादार रहूँगा। मैं बीमार होते हुए वफादार कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारी सोच स्पष्ट है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी “हाँ” कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। इसीलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अक्सर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए और यह सोचने में ज्यादा समय लगाना चाहिए कि “मैं परमेश्वर के इरादे कैसे पूरे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” सृजित प्राणी क्या होता है? क्या सृजित प्राणी का कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को सुनना भर है? नहीं—उसका कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को जीना है। परमेश्वर ने तुम्हें इतना सारा सत्य दिया है, इतना सारा मार्ग और इतना सारा जीवन दिया है, ताकि तुम इन चीजों को जी सको और उसकी गवाही दे सको। यही है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। तुम्हें इन चीजों के बारे में अक्सर सोच-विचार करते रहना चाहिए; अगर तुम इनके बारे में हमेशा चिंतन-मनन करते रहोगे, तो तुम सत्य के सभी पहलुओं की गहराई में पहुँच जाओगे।
यदि लोग सत्य का अनुसरण करने का मार्ग नहीं अपनाते हैं और सत्य प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करते हैं, तो देर-सबेर वे ठोकर खाकर गिर पड़ेंगे। सीधे खड़ा होना कठिन होगा क्योंकि जिन समस्याओं का वे सामना करते हैं उन्हें थोड़े से ज्ञान और धर्म-सिद्धांतों पर भरोसा करके हल नहीं किया जा सकता है। तुम धर्म-सिद्धांतों के बारे में चाहे कितनी भी अच्छी तरह बोल लो, तुम वास्तविक कठिनाइयों को हल नहीं कर पाओगे। पूरी स्पष्टता प्राप्त करने के लिए तुम्हें विभिन्न सत्यों पर लगातार चिंतन-मनन करना होगा। केवल तभी तुम किसी भी समस्या का समाधान करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकोगे। जो लोग सचमुच सत्य को समझते हैं वे शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात नहीं करते। वे सभी चीजों को पहचान सकते हैं और उन्हें स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, और वे जो भी करते हैं विश्वास के साथ करते हैं। यदि तुम यह नहीं जानते कि अपने सामने आने वाली परिस्थितियों में सत्य कैसे खोजना है और हमेशा अपनी मनमर्जी के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम सत्य को कभी नहीं समझ पाओगे। सत्य को समझने के लिए तुम्हें निरंतर विचार करना होगा कि अपने कर्तव्य निभाने में आने वाली समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग कैसे किया जाए। यदि तुम इस तरह से चिंतन-मनन नहीं करते, तो क्या तुम इन सत्यों को प्राप्त कर सकोगे? यदि तुम परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन नहीं करते हो, तो चाहे कितने ही उपदेश सुन लो, चाहे कितने भी धर्म-सिद्धांतों को समझ लो, तुम हमेशा शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के स्तर पर ही अटके रह जाओगे। यदि तुम इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हो, तो यह अक्सर तुम्हें यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास का फल मिल चुका है और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ऊँचा है, क्योंकि अब तुम बहुत जुनूनी और ऊर्जावान हो। लेकिन जब हकीकत से पाला पड़ता है, यानी परीक्षणों और क्लेशों का सामना होता है, तब तुम देखोगे कि इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से कितनी कम सुरक्षा मिलती है। वे तुम्हें एक भी परीक्षण से नहीं बचा सकते, यह पक्का करना तो दूर की बात है कि इनसे तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली प्रत्येक परीक्षा को सरलता से पास कर लोगे। बल्कि, तुम यह महसूस करोगे कि ये शब्द और धर्म-सिद्धांत तुम्हें बर्बादी की राह पर ले आए हैं। ऐसे समय में, तुम्हें एहसास होगा कि तुम सत्य को कितना कम समझते हो और तुमने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। अक्सर, जब लोग परीक्षणों का सामना करते हैं और आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं देख पाते, तो आखिरकार उन्हें महसूस होता है कि सत्य के बिना वे कितने लाचार हैं और धर्म-सिद्धांतों के बारे में कही गई उनकी सारी बातें कितनी बेकार थीं। तभी वे देख पाते हैं कि उनमें कितनी कमी है और वे कितनी दयनीय स्थिति में हैं। जब सब कुछ सुरक्षित और निर्बाध होता है, तो तुम्हें हमेशा लगता है कि तुम सब कुछ समझते हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारी आस्था व्यर्थ नहीं है और तुमने इससे बहुत कुछ प्राप्त किया है। तुम्हें लगता है कि चाहे जो भी हो जाए, तुम्हें किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। वास्तव में, तुम बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हो, जिनका कोई उपयोग नहीं है। आपदा और विपत्ति के सामने, तुम हैरान-परेशान होगे, हालात का सामना करना नहीं जानते होगे। परमेश्वर से प्रार्थना करते समय, तुम्हें पता नहीं होगा कि क्या कहना या क्या माँगना है। तुम मार्ग नहीं खोज पाओगे। इससे पता चलता है कि मनुष्य कितना दयनीय है। तुम्हारे दिल में परमेश्वर के वचन नहीं हैं और तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है। पहले से ही तुम अंधेरे में हो। परमेश्वर में आस्था रखकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है, और अब तुम एक भिखारी के समान दरिद्र हो। तब जाकर तुम्हें महसूस होता है कि इतने बरसों से परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी। अब तुम्हारा पूरी तरह खुलासा हो चुका है। यदि परमेश्वर में कई वर्षों का विश्वास तुम्हें ऐसी स्थिति में छोड़ देता है, तो तुम्हारा निकाला जाना तय है।
12 फ़रवरी 2017
फुटनोट :
क. परंपरागत चीनी चिकित्सा पद्धति में “सर्दी का दौरा” शब्द भीषण और जानलेवा अंदरूनी सर्दी के लिए प्रयोग किया जाता है, जो किन्हीं बाहरी तत्वों से पैदा होती है।
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