केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है (भाग एक)
यदि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले सत्य को समझना चाहिए। तुम्हें दिल लगाकर सत्य खोजना चाहिए। सत्य खोजते हुए परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करना सीखना सबसे अहम है। परमेश्वर के वचनों पर इस तरह चिंतन करने का उद्देश्य उनके सही अर्थ को समझना है। खोज करके ही तुम परमेश्वर के वचनों के अर्थ, लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के इरादों को समझोगे जो उसके वचनों में पाए जा सकते हैं। जब तुम यह समझ हासिल कर लोगे, तब तुम सत्य को समझ जाओगे। जब तुम सत्य समझ जाओगे, तो उन सिद्धांतों को समझना आसान होगा जो तुम्हारे अभ्यास का मार्गदर्शन करते हैं, और फिर तुम सत्य का अभ्यास कर सकोगे। सत्य का अभ्यास सीख जाने के बाद तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने लगोगे। ऐसे समय में तुम उन चीजों को समझ लोगे जिन्हें तुम पहले नहीं समझ पाए थे, तुम उन चीजों का अर्थ जान लोगे जिन्हें तुम पहले स्पष्ट रूप से नहीं देख पाए थे और उन समस्याओं को हल कर लोगे जो पहले तुम्हारे लिए असंभव थीं। कई चीजों में तुम्हें प्रेरणा और नई अंतर्दृष्टि प्राप्त होने लगेगी, कार्यान्वयन के रास्ते तुम्हारे लिए खुल जाएँगे और तुम लगातार सत्य का अभ्यास कर पाओगे। इसी तरह तुम पूर्णतः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। हालाँकि, यदि तुम अपने कर्तव्य में अपना दिल नहीं लगाते हो, न ही सत्य सिद्धांतों की खोज करते हो, यदि तुम भ्रमित या उलझन में रहते हो, चीजों को हरसंभव सबसे आसान तरीके से करते हो, तो यह किस प्रकार की मानसिकता है? यह काम को अनमने तरीके से करना है। यदि तुम अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो, यदि तुममें इसके प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं है या लक्ष्य की कोई समझ नहीं है, तो क्या तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे? क्या तुम स्वीकार्य मानक पर अपना कर्तव्य निभा पाओगे? और यदि तुम स्वीकार्य मानक पर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते तो क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? बिल्कुल नहीं। यदि हर बार अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम परिश्रम नहीं करते हो, कोई प्रयास नहीं करना चाहते और जैसे-तैसे काम करते हो, मानो यह कोई खेल हो, तो क्या यह समस्या नहीं है? इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर तुम क्या प्राप्त कर लोगे? अंततः लोगों को पता चल जाएगा कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुममें कोई जिम्मेदारी का बोध नहीं होता, तुम अनमने रहते हो और आधे-अधूरे मन से काम करते हो—तो इस स्थिति में तुम पर निकाले जाने का खतरा मँडरा रहा होगा। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो परमेश्वर पूरी प्रक्रिया के दौरान तुम्हारी पड़ताल करता है, तो फिर परमेश्वर क्या कहेगा? (यह व्यक्ति उसके आदेश या उसके भरोसे के लायक नहीं है।) परमेश्वर कहेगा कि तुम भरोसेमंद नहीं हो और तुम्हें निकाल दिया जाना चाहिए। इसलिए तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाते हो, चाहे वह महत्वपूर्ण कर्तव्य हो या सामान्य, यदि तुम खुद को मिले कर्तव्य में दिल लगाकर काम नहीं करते या अपनी जिम्मेदारी नहीं उठाते, और यदि तुम इसे परमेश्वर के आदेश के रूप में नहीं देखते या इसे अपने कर्तव्य और दायित्व के रूप में नहीं लेते हो, हमेशा चीजों को अनमने ढंग से करते हो, तो यह एक समस्या होने वाली है। “भरोसेमंद नहीं”—ये दो शब्द परिभाषित करेंगे कि तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो। इनका यह अर्थ है कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है, और तुम्हें निकाल दिया गया है, और परमेश्वर कहता है कि तुम्हारा चरित्र मानक के अनुरूप नहीं है। अगर तुम्हें कोई काम सौंपा गया है, फिर भी तुम उसके प्रति यही रवैया अपनाते हो और तुम इसे इसी तरह से संभालते हो, तो क्या तुम्हें भविष्य में कोई और कर्तव्य सौंपा जाएगा? क्या तुम्हें कोई महत्वपूर्ण काम सौंपा जा सकता है? तब तक तो बिल्कुल नहीं, जब तक तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं कर लेते। हालाँकि, अंदर-ही-अंदर परमेश्वर के मन में तुम्हारे प्रति थोड़ा अविश्वास और असंतोष बना रहेगा। यह एक समस्या होगी, है न? तुम अपना कर्तव्य निभाने का कोई भी अवसर खो सकते हो, और शायद तुम्हें बचाया न जाए।
जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें “दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना” को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो और बिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें विचार करना चाहिए : “इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं गैर-भरोसेमंद बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं परमेश्वर के सौंपे आदेश पर खरा उतरने में विफल हो रहा हूँ?” तुम्हें इसी तरह आत्म-चिंतन करना चाहिए। अगर तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा अनमने रहते हो, कि तुम विश्वासघाती हो और यह भी कि तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “जिस क्षण मुझे लगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में अनमना रहता था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा था। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!” तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह अनमने रहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने और ताड़ना देने देना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारी ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी तुम सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हो। जब तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया बदल गया होगा, तभी तुम खुद को बदल पाओगे। और पश्चात्ताप करते हुए, तुम्हें अक्सर इस बात पर भी चिंतन करना चाहिए कि क्या तुमने वास्तव में अपना पूरा दिल, पूरा दिमाग और पूरी ताकत अपना कर्तव्य निभाने में लगाई है या नहीं; फिर, परमेश्वर के वचनों का पैमाने के रूप में उपयोग करते हुए उन्हें खुद पर लागू करने से तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे कर्तव्य के प्रदर्शन में अभी भी क्या समस्याएँ मौजूद हैं। इस तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार लगातार समस्याएँ हल करके क्या तुम अपने कर्तव्य निर्वहन को अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से साकार नहीं कर रहे हो? अपना कर्तव्य इस तरह निभाने के लिए : क्या तुमने पहले ही अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से ऐसा नहीं किया है? यदि अब तुम्हारी अंतरात्मा पर कोई दोषारोपण नहीं है, यदि तुम योग्यताओं को पूरा करने में सक्षम हो और अपना कर्तव्य निभाने में ईमानदारी दिखाते हो, तभी तुम्हारे दिल में सच्ची शांति और खुशी होगी। अपना कर्तव्य निभाना तुम्हें एक अतिरिक्त बोझ नहीं लगेगा, बल्कि पूरी तरह स्वाभाविक और उचित जिम्मेदारी की तरह महसूस होगा, और यह किसी और के लिए किया गया काम तो बिल्कुल भी नहीं लगेगा। इस तरह से कर्तव्य निभाकर तुम संतुष्ट महसूस करोगे और तुम्हें लगेगा कि तुम परमेश्वर की उपस्थिति में जी रहे हो। इस तरह व्यवहार करने से मन को शांति मिलती है। क्या यह तुम्हें जिंदा लाश जैसा कम और थोड़ा ज्यादा मनुष्य नहीं बना देगा? क्या इस तरह से व्यवहार करना आसान है? दरअसल, यह आसान है, मगर उन लोगों के लिए नहीं जो सत्य को नहीं स्वीकारते।
वास्तव में, कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य स्वीकार्य मानक के अनुसार निभा सकता है या नहीं, दोनों ही स्थितियों में उसके दिल पर एक भार होता है। यदि वे लगातार धर्मोपदेश सुनते हैं, लगातार परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और लगातार दूसरों से संगति करते हैं तो भले ही उनके पास सत्य की उथली समझ हो, वे कम-से-कम कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझने में सक्षम होंगे। इन धर्म-सिद्धांतों को अपना मानक मानकर वे यह भी आँक सकते हैं कि वे अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह से निभा रहे हैं और सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं या नहीं। यह स्पष्टता उन सभी की पकड़ में होती है जिनके पास अंतरात्मा और विवेक है। कई बार लोग अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं। वे अपनी पूरी ताकत नहीं लगाते, सत्य खोजना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। उनके कर्तव्य चाहे जो भी हों, वे आंखें मूंद लेते हैं। उन्हें कोई समस्या दिखती भी है, तो वे उसका हल नहीं खोजते, बल्कि ऐसा व्यवहार करते हैं मानो यह उनकी परेशानी नहीं है और इसे हल करने के लिए कुछ अनमने प्रयास करते हैं। अपने दिलों में, वे अपने लिए चीजों को कठिन बनाने और इस मामले में गंभीर होने की कोई आवश्यकता नहीं देखते हैं। लेकिन खुद को इस तरह से ढालने के कारण उनकी आंतरिक स्थिति बदतर हो जाती है और इसका पता भी नहीं चलता। यदि तुम जिम्मेदारी की भावना के बिना अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हारा दिल निश्चित ही अनमना रहेगा। वह जिम्मेदारियाँ नहीं उठा पाएगा, वफादार होना तो दूर की बात है। नतीजतन, उसे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त नहीं होगा। तुम बिना किसी नई रोशनी या अंतर्दृष्टि के हमेशा स्थापित नियमों और विनियमों का पालन करते हो, बस आधे-अधूरे मन से अपना कर्तव्य निभाने से ज्यादा कुछ नहीं करते हो। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना व्यर्थ है, तुम मजदूरी भी करते हो तो वह पर्याप्त नहीं है। यदि तुम्हारा मजदूरी करना भी पर्याप्त नहीं है, तो क्या तुम एक वफादार मजदूर हो सकते हो? बिल्कुल नहीं। जो लोग पर्याप्त मजदूरी भी नहीं करते उन्हें निकाला ही जाएगा। कुछ भ्रमित लोगों को सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। वे अपना कर्तव्य निभाने को ही सत्य का अभ्यास करना मानते हैं। वे सोचते हैं कि केवल अपना कर्तव्य निभाकर वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। यदि तुम ऐसे व्यक्ति से पूछो, “क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो?” तो वह जवाब देगा, “क्या मैं अपना कर्तव्य निभाकर सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा हूँ?” क्या वे सही हैं? ये एक भ्रमित व्यक्ति के शब्द हैं। अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें इसमें कम-से-कम अपना पूरा दिल, दिमाग और ताकत लगा देनी चाहिए ताकि तुम सत्य का प्रभावी ढंग से अभ्यास कर सको। सत्य का प्रभावी ढंग से अभ्यास करने के लिए तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाते हो तो इसका कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं कह सकते, यह मजदूरी करने के अलावा और कुछ नहीं है। तुम साफ तौर पर केवल मजदूरी कर रहे हो, यह सत्य का अभ्यास करने से अलग है। मजदूरी करना अपनी इच्छा के अनुसार केवल वे कार्य करना है जो तुम्हें खुश करते हैं, जबकि उन सभी कार्यों की अवहेलना है जिन्हें करना तुम्हें पसंद नहीं है। तुम चाहे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करो, तुम कभी सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते। बाहर से ऐसा लग सकता है कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, पर यह सब सिर्फ मजदूरी करना है। जो कोई भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके अपना कर्तव्य नहीं निभाता, वह मजदूरी करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। परमेश्वर के परिवार में बहुत से लोग मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करते हैं। वे बिना किसी नतीजे के वर्षों तक कड़ी मेहनत करते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने में सत्य का अभ्यास या सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए लोग अगर अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और अपनी मर्जी के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो भले ही वे बुराई न कर रहे हों, फिर भी इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं माना जाता है। अंत में, इतने सालों के कार्य के बाद भी उन्हें सत्य की कोई समझ प्राप्त नहीं होती है, और उनके पास साझा करने के लिए कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं होती। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि अपना कर्तव्य निभाने के पीछे के इनके इरादे सही नहीं हैं। वे अपना कर्तव्य सिर्फ आशीष पाने के लिए निभाते हैं, वे परमेश्वर के साथ लेनदेन करना चाहते हैं। वे अपना कर्तव्य केवल सत्य प्राप्त करने की खातिर नहीं निभाते। वे अपना कर्तव्य इसलिए निभाते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता। इसी कारण, वे हमेशा भ्रमित रहते हैं और अनमने ढंग से आधे-अधूरे काम करते हैं। वे सत्य की खोज नहीं करते और इसलिए यह सब केवल मजदूरी करना है। चाहे वे कितने भी कर्तव्य निभा लें, उनके कार्यों का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता है। इसके उलट उन लोगों की बात अलग है जो अपने दिल में परमेश्वर का भय मानते हैं। वे लगातार विचार करते रहते हैं कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य कैसे करें और परमेश्वर के परिवार और उसके चुने हुए लोगों के लाभ के लिए कार्य कैसे करें। वे हमेशा सिद्धांतों और नतीजों के बारे में गहराई से सोचते रहते हैं। वे हमेशा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण दिखाने का प्रयास करते हैं। यह हृदय का सही रवैया है। यही वे लोग हैं जो सत्य खोजते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। इस तरह का व्यक्ति अपने कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है और उसका अनुमोदन प्राप्त करता है। हालाँकि, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं वे बाहरी तौर पर अपना कर्तव्य निभाते प्रतीत हो सकते हैं, पर वे जरा भी सत्य नहीं खोजते हैं। वे अपनी मनमर्जी के अनुसार कार्य करते हैं और केवल वही चीजें करते हैं जिनमें नुकसान की संभावना नहीं होती और जो उनके लिए फायदेमंद होते हैं। वे कम-से-कम प्रयास करते हैं और किसी भी कठिनाई से दूर रहते हैं, फिर भी वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों का अनुमोदन और अच्छी प्रतिष्ठा चाहते हैं। यदि उनका दिल इन चीजों पर लगा है, तो क्या वे स्वीकार्य मानक पर अपने कर्तव्यों का पालन कर पाएंगे? हरगिज नहीं। भले ही बाहर से तुम अपना कर्तव्य निभाते दिखाई देते हो, पर वास्तव में तुम लोगों का दिल परमेश्वर के सामने नहीं होता है। तुम्हारा सारा ध्यान स्वार्थी योजनाएँ बनाने और जोड़-तोड़ करने में लगे होने के कारण, कई बरसों तक आस्था रखने के बावजूद तुम बिल्कुल भी प्रगति नहीं करोगे। भले ही तुम लोग अक्सर एक साथ सभा करते हो, एक साथ मिलकर परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, उपदेश और संगति सुनते हो, मगर जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों की किताब बंद करके सभा स्थल से निकलते हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारे दिल में नहीं रहता। परमेश्वर का एक भी वचन, सत्य का एक भी वचन तुम्हारे दिल में नहीं रहता। कभी-कभी तुम उसके वचनों को नोटबुक में लिख लेते हो, पर उन्हें अपने दिल में नहीं रखते और पलक झपकते ही सब कुछ भूल जाते हो। इसके अलावा, तुम लोग अपने दैनिक जीवन में कभी भी परमेश्वर के वचनों के सत्य पर विचार नहीं करते। अपना कर्तव्य निभाने में तुम कभी सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते। तुम्हारा सामना चाहे कैसी भी कठिनाइयों से हो, तुम अनमना रवैया अपनाते हो। काट-छाँट के बीच भी तुम कभी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते। इस मामले में तुम लोग अविश्वासियों से बिल्कुल भी अलग नहीं हो। तुम लोग वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो लेकिन तुम्हारे पास न तो जीवन प्रवेश है, न ही सत्य वास्तविकता है। तुम लोगों का कर्तव्य पालन साफ तौर पर मजदूरी करना है, और तुम लोगों का इरादा ऐसी मजदूरी के बदले में स्वर्ग के राज्य की आशीष पाना है। इसमें कोई शक नहीं है। इस ढंग से परमेश्वर में विश्वास कर तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, जीवन और सत्य प्राप्त करना मुश्किल है। तुम लोगों के बीच ऐसे लोग भी हैं जिनके पास अच्छी काबिलियत है, मगर एक दशक से भी ज्यादा समय से आस्था रखने के बावजूद वे कुछ ही शब्द और धर्म-सिद्धांत सुना पाते हैं, और सतही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों तक ही सीमित रहते हैं। वे थोड़ा-सा धर्म-सिद्धांत समझकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि केवल विनियमों का पालन करना ही काफी है। उनके लिए अधिक गहराई में जाना कठिन होता है। ऐसे लोगों के दिलों ने सत्य समझने की कोशिश नहीं की, इसलिए वे जिस सीमा तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं वह बहुत सीमित है। वे केवल कुछ विनियमों का पालन कर सकते हैं। यदि तुम लोगों से पूछा जाए कि तुम्हें अपने कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, तो शायद तुम कहोगे, “अधिक प्रार्थना करो, अपनी इच्छा से कष्ट सहो, अपना कर्तव्य निभाते समय आलसी या अनमने मत बनो, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करो और परमेश्वर के परिवार की हर जरूरत के प्रति समर्पण करो।” तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के बाहरी, धर्म-सैद्धांतिक पहलुओं पर चर्चा करने में सक्षम हो, लेकिन सत्य सिद्धांतों से जुड़े विशिष्ट मुद्दों पर तुम लोगों की समझ कम है। इससे पता चलता है कि ज्यादातर लोग सत्य का केवल शाब्दिक अर्थ समझते हैं, पर सत्य की वास्तविकता को नहीं समझते। इस प्रकार वे वास्तव में सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे सत्य के बारे में कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर ही बात कर सकते हैं, लेकिन क्या हमें यह मानना चाहिए कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है? (बेशक नहीं।) तो, तुम लोगों को भविष्य में किस बात पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करते हुए, सभा करते हुए, परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हुए, उपदेशों को सुनते हुए और परमेश्वर की स्तुति के भजन गाते हुए एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीना चाहिए। इन अभ्यासों का बाहरी तौर पर पालन करने के अलावा, तुम्हें अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए, बल्कि इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए। तुम लोगों को एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी समझनी चाहिए : यदि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, यदि तुम सत्य को समझना और प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें यह भी सीखना होगा कि परमेश्वर के सामने कैसे शांत रहें, सत्य पर कैसे विचार करें और परमेश्वर के वचनों पर कैसे मनन करें। क्या सत्य पर विचार करते समय किसी तरह की औपचारिकताएँ होती हैं? क्या कोई विनियम हैं? क्या कोई समय सीमाएँ हैं? क्या तुम्हें यह किसी निश्चित स्थान पर करना चाहिए? नहीं—तुम किसी भी समय या किसी भी स्थान पर परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन कर सकते हो। जो समय तुम आम तौर पर आराम करने या दिन में सपने देखने पर खर्च करते हो, उसे परमेश्वर के वचनों और सत्य पर विचार करने में लगाओ, ताकि दिन बर्बाद न हो। लोग समय कैसे बर्बाद करते हैं? वे अपना दिन फालतू की गपशप में बिताते हैं, ऐसे काम करते हैं जिनमें उनकी रुचि होती है, या फिजूल की चीजों में उलझे रहते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, और जब उनके पास करने के लिए कुछ और नहीं होता, तो वे व्यर्थ की चीजों और उन चीजों के बारे में सोचते हैं जो पहले ही घटित हो चुकी हैं। वे कल्पना करते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है, भविष्य का राज्य कहाँ होगा और नरक कहाँ है, वगैरह। क्या ये फिजूल की बातें नहीं हैं? यदि तुम इस समय को सकारात्मक चीजों पर लगाते हो—यदि तुम परमेश्वर के सामने शांत रहते हो, परमेश्वर के वचनों पर विचार करने और सत्य पर संगति करने में ज्यादा समय बिताते हो, अपने प्रत्येक कार्य की जाँच करते हो, और उसे परमेश्वर के सामने उसकी जांच-पड़ताल के लिए रखते हो; फिर यदि तुम इस बात पर विचार करते हो कि तुम्हारे भीतर कौन-सी समस्याएँ अभी हल होने से रह गई हैं और अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें किन कठिनाइयों का सामना करना बाकी है, और तुम्हारे अक्सर प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभाव—विशेष रूप से वे जो परमेश्वर के प्रति सबसे अधिक विद्रोही और सबसे घातक हैं—वे परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने से हल हुए हैं या नहीं; यदि इन सभी मसलों को एक निश्चित अवधि के भीतर हल किया जा सकता है, तो तुम धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे होगे।
परमेश्वर के वचनों पर चिंतन का अभ्यास कैसे किया जाए? सबसे पहले उन आध्यात्मिक शब्दों और अभिव्यक्तियों के बारे में बार-बार सोचो और संगति करो जिनका तुम आम तौर पर उपयोग करते हो। खुद से पूछो : “मैं इन चीजों का शाब्दिक और सैद्धांतिक अर्थ जान सकता हूँ, लेकिन इन चीजों की वास्तविकताएँ क्या हैं? इन वास्तविकताओं में क्या शामिल है? मैं उन आध्यात्मिक अभिव्यक्तियों द्वारा शामिल की गई वास्तविकताओं को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मुझे उनका अभ्यास कहाँ से शुरू करना चाहिए और उनमें कहाँ से प्रवेश करना चाहिए?” तुम्हें इसी प्रकार चिंतन करना चाहिए। यहीं से परमेश्वर के वचन का चिंतन शुरू होता है। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन उसने परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करना नहीं सीखा है, तो सत्य को समझना और उसे अमल में लाना कठिन है। यदि कोई सत्य को समझने में असमर्थ है, तो क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) सत्य वास्तविकता में प्रवेश किए बिना क्या कोई सत्य प्राप्त कर सकता है? (नहीं।) सत्य प्राप्त किए बिना क्या कोई परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकता है? (नहीं।) नहीं कर सकता—यह निश्चित है। चूँकि लोग सत्य को नहीं समझते, इसलिए वे केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को कभी कैसे पूरा कर सकेंगे? यह बिल्कुल नहीं हो सकता। तो फिर व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों पर कैसे विचार करना चाहिए? उदाहरण के लिए, जब तुम बार-बार दोहराए जाने वाले वाक्यांश “परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना” पर विचार करते हो, तो तुम्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए : परमेश्वर का भय मानना क्या है? क्या कुछ गलत कहना परमेश्वर का भय न मानने के बराबर है? क्या इस तरह से बोलना बुराई है? क्या परमेश्वर इसे पाप मानता है? कौन से कार्यकलाप बुरे हैं? मेरे विचार, इरादे, सुझाव और राय, मेरे कथनी-करनियों के उद्देश्य और स्रोत, और मुझमें प्रकट होने वाले विभिन्न स्वभाव—क्या ये सब सत्य के अनुरूप हैं? परमेश्वर इनमें से किन चीजों का अनुमोदन नहीं करता और किन चीजों से घृणा करता है? वह किन चीजों की निंदा करता है? किन मामलों में लोगों के बड़ी गलतियाँ करने की आशंका होती हैं? इन सब पर विचार करना चाहिए। क्या सत्य पर विचार करना तुम लोगों के लिए सामान्य बात है? (हम सत्य पर विचार करने में ज्यादा समय नहीं लगाते; ज्यादातर समय, हमारा दिमाग अपने-आप काम करता है।) जरा सोचो, तुमने इतने सालों में कितना समय बर्बाद किया है! तुम लोगों ने कितनी बार सत्य से संबंधित मामलों, परमेश्वर में विश्वास करने, जीवन प्रवेश करने और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के बारे में सोचा है? क्या तुम लोगों ने इन मामलों पर गंभीरता से विचार किया है? जब तुम लोग सत्य को समझने और सिद्धांतों के अनुसार इसका अभ्यास करने की हद तक परमेश्वर के वचनों पर विचार कर लोगे, तभी तुम्हें फल दिखने शुरू होंगे और तभी तुम जीवन प्रवेश करोगे। तुम लोग अभी तक नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों पर कैसे विचार किया जाए, और न ही तुम सत्य की समझ तक पहुँच पाए हो। तुमने अब तक जीवन में प्रवेश नहीं किया है। तुम्हें इसके पीछे लगे रहना चाहिए और अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे कोई व्यक्ति चाहे उसकी उम्र कितनी भी हो, जब यह सोचना शुरू कर देता है कि व्यापार करना कैसे सीखा जाए, आजीविका कमाकर अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे किया जाए, कैसे एक अच्छा जीवन जिया जाए, दूसरों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, उनका भविष्य कैसा होगा, वगैरह, तो इसका मतलब है कि इस व्यक्ति का दिमाग परिपक्व हो गया है और वह एक स्वतंत्र जीवन जीने लगा है। जो लोग ऐसी चीजों के बारे में नहीं सोचते और जिन्होंने ऐसी चीजों के बारे में कभी नहीं सोचा है, उनके पास कोई विचार या स्वतंत्र राय नहीं है। वे जीवन के बारे में इन चीजों को नहीं समझ सकते, इसलिए उन्हें हर बात के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर रहना पड़ता है। वे खर्च करने के पैसे, खाने के लिए भोजन और पहनने के कपड़ों के लिए उन पर निर्भर रहते हैं। यदि उनके माता-पिता ने उनकी देखभाल नहीं की, तो वे निराश्रित, भूखे और निष्क्रिय रह जाएँगे। क्या ऐसा व्यक्ति स्वतंत्र रूप से जी सकता है? क्या यह एक परिपक्व व्यक्ति है? (बेशक नहीं।) अभी तुम लोग किस अवस्था में हो? क्या तुम अपनी आस्था की वयस्क अवस्था में पहुँच गए हो? अभी, अगर कोई तुम लोगों का सिंचन न करे, अगर ऊपरवाला तुम लोगों को उपदेश न दे, अगर कोई तुम लोगों की अगुआई न करे बल्कि तुम्हें अपने आप ही परमेश्वर के वचन खाने-पीने दे और भजन सुनने दे तो क्या तुम लोग जीवन प्रवेश कर पाओगे? क्या तुम लोग सत्य का अभ्यास कर पाओगे, अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे? (नहीं।) समस्या यहीं है। इसका मतलब है कि तुम लोगों का अध्यात्मिक कद अभी भी बहुत छोटा है। तुम अपना कर्तव्य भी अच्छी तरह से नहीं निभा सकते और अभी वयस्क अवस्था तक नहीं पहुँचे हो। वर्तमान परिस्थितियों में यदि कोई तुम लोगों का नेतृत्व और चरवाही करता है, तो तुम परमेश्वर में विश्वास कर सकते हो और अपना कर्तव्य निभा सकते हो। तुम एक विश्वासी के समान हो। लेकिन अगर भविष्य में तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए कोई न हो, तो क्या यह खुलासा नहीं हो जाएगा कि तुम दृढ़ता से खड़े रह सकते हो या नहीं और अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हो या नहीं, और तुम कितनी सत्य वास्तविकता प्राप्त कर चुके हो? यदि तुम्हें यह एहसास नहीं है कि वह समय आने तक तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं होगी, तो क्या यह चिंताजनक बात नहीं है? यह बहुत खतरनाक बात है! जब तुम परीक्षणों का सामना करोगे, तो तुम यह नहीं जान पाओगे कि अपनी गवाही में कैसे अडिग रहना है और परमेश्वर के इरादों को कैसे पूरा करना है। तुम्हारे दिल में कोई रास्ता नहीं होगा, कोई दिशा नहीं होगी और कोई भी सत्य तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें नहीं जमा पाएगा। तो फिर तुम कैसे दृढ़ता से खड़े रह पाओगे? यदि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं होगी तो प्रलोभनों का सामना होने पर तुम्हारे ठोकर खाने की संभावना होगी। जब बुरे कर्म करने वाले और कलीसिया के कार्य को विफल करने की कोशिश करने वाले अगुआओं या मसीह-विरोधियों से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम उनकी असलियत नहीं पहचान पाओगे और उनके चंगुल से बाहर नहीं निकल पाओगे। अगर तुम अभी भी ऐसे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों का अनुसरण करोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। ये दो सवाल तुम्हारा खुलासा कर देंगे और तुम पर निकाल दिए जाने का खतरा होगा। इसलिए परमेश्वर में विश्वास करने के लिए यह आवश्यक है कि तुम निरंतर परमेश्वर के वचनों पर विचार करो और सत्य पर चिंतन-मनन करो। इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो और सत्य प्राप्त कर सकते हो।
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