शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 65)

कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के भीतर की व्यावहारिक समस्याओं को नहीं देख पाते। किसी सभा में होने पर, उन्हें लगता है कि उनके पास कहने के लिए कुछ भी सार्थक नहीं है, इसलिए वे बस कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत देने के लिए खुद पर जोर डालते हैं। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि वे जो बोल रहे हैं वे महज धर्म-सिद्धांत हैं, फिर भी वे उन्हें बोलते हैं। अंत में, यहाँ तक कि उन्हें भी लगता है कि उनकी बातें नीरस थीं, और उनके भाइयों और बहनों को भी वह शिक्षाप्रद नहीं लगा। यदि तुम इस समस्या से अनजान हो, लेकिन अड़ियल होकर ऐसी बातें कहते रहते हो, तो पवित्र आत्मा काम नहीं कर रहा है, और लोगों को कोई लाभ नहीं होता। यदि तुमने सत्य का अनुभव नहीं किया है, फिर भी इसके बारे में बोलना चाहते हो, तो तुम जो चाहे कहो, तुम सत्य को नहीं वेध सकोगे; इसके आगे तुम जो कुछ भी कहोगे वह सब केवल वचन और धर्म-सिद्धांत होंगे। तुम सोच सकते हो कि वे कुछ प्रबुद्ध हुए हैं, लेकिन वे सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं, वे सत्य वास्तविकता नहीं हैं। वे कितनी भी कोशिश कर लें, उन्हें सुनने वाला कोई भी उनसे कुछ भी वास्तविक ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो सकेगा। सुनने के दौरान, उन्हें लग सकता है कि तुम जो कह रहे हो वह बिल्कुल सही है, लेकिन बाद में, वे उसे पूरी तरह से भूल जाएंगे। यदि तुम अपनी वास्तविक दशाओं के बारे में बात नहीं करते, तो तुम लोगों के हृदयों को छूने में सक्षम नहीं हो सकोगे, और लोग तुम्हारी बात सुनने के बाद उसे याद नहीं रखेंगे। उसमें देने के लिए कुछ भी रचनात्मक नहीं है। जब तुम ऐसी स्थिति का सामना करो, तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम जो कह रहे हो वह व्यावहारिक नहीं है; यदि तुम इसी तरह से बोलते रहे तो यह किसी के लिए अच्छा नहीं होगा, और तब तो और भी अजीब स्थिति होगी जब कोई ऐसा प्रश्न उठा दे जिसका उत्तर तुम न दे सको। तुम्हें तुरंत रुक जाना चाहिए और अन्य लोगों को संगति करने देना चाहिए—यही बुद्धिमानी भरा विकल्प होगा। जब तुम किसी सभा में हो और किसी विशेष मुद्दे के बारे में कुछ जानते हो, तो उसके बारे में कुछ व्यावहारिक चीजें रख सकते हो। वह बात थोड़ा सतही हो सकती है, लेकिन हर कोई उसे समझ जाएगा। यदि तुम हमेशा लोगों को प्रभावित करने के लिए गहराई से बोलना चाहते हो और तुमसे ऐसा न हो पा रहा हो, तो तुम्हें वह छोड़ देना चाहिए। क्योंकि वहाँ से आगे तुम जो कुछ भी कहोगे वह खोखला धर्म-सिद्धांत होगा; तुम्हें चाहिए कि अपनी संगति जारी रखने से पहले किसी और को यह करने दो। यदि तुम्हें लगता है कि तुम जो समझते हो वह धर्म-सिद्धांत है और उसे बोलना रचनात्मक नहीं होगा और ऐसी स्थिति में भी तुम बोलोगे तो पवित्र आत्मा काम नहीं करेगा। यदि तुम खुद पर बोलने का दबाव डालोगे, तो तुम्हारी बातों में बेतुकापन और विचलन पैदा हो सकता है, और तुम लोगों को भटका सकते हो। अधिकांश लोगों की इतनी खराब बुनियाद और बुरी क्षमता होती है कि वे कम समय में गहरी बातों को ग्रहण नहीं कर पाते या उन्हें आसानी से याद नहीं रख पाते। दूसरी ओर, जो चीजें विकृत, नियामक और धर्म-सैद्धांतिक होती हैं, उन्हें वे बहुत तेजी से ग्रहण कर लेते हैं। यह उनकी दुष्टता है, है ना? इसलिए, जब तुम सत्य पर संगति करते हो तो तुम्हें सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए और जो कुछ भी तुम समझते हो उसी पर बोलना चाहिए। लोगों के हृदयों में दिखावा होता है, और कभी-कभी, जब उनका नकलीपन हावी हो जाता है, तो वे यह जानते हुए भी बोलने पर ज़ोर देते हैं कि वे जो कह रहे हैं वह धर्म-सिद्धांत है। वे सोचते हैं, “मेरे भाई और बहनें शायद बताने में सक्षम नहीं होंगे। अपनी प्रतिष्ठा के लिए मैं इन सभी बातों को नजरअंदाज कर दूँगा। अभी दिखावे को बरकरार रखना ही महत्वपूर्ण है।” क्या यह लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास नहीं है? यह परमेश्वर के प्रति बेवफाई है! यदि कोई जरा सा भी समझदार होगा, तो उसे पछतावा होगा और वह बोलना बंद कर देगा। उसे लगेगा कि उसे विषय बदल देना चाहिए और उस चीज़ पर संगति करनी चाहिए जिसका उसे अनुभव है, या शायद सत्य की समझ और ज्ञान है। किसी को भी उतना ही बोलना चाहिए, जितना वह समझे। कोई कितनी ही बातें क्यों न करता हो, व्यावहारिक बातें करने की एक सीमा होती है। अनुभव के बिना तुम्हारी कल्पनाएँ और तुम्हारी सोच महज़ धर्म-सिद्धांत, या मानवीय धारणाओं की बातें भर होती हैं। जो वचन सत्य हैं उन्हें समझने के लिए वास्तविक अनुभव की आवश्यकता होती है, और कोई भी अनुभव किए बिना सत्य के सार को पूरी तरह से नहीं समझ सकता, सत्य के अनुभव की अवस्था की पूरी तरह से व्याख्या करने की तो बात ही दूर है। कुछ भी व्यावहारिक कहने के लिए तुम्हारे पास सत्य का कुछ अनुभव होना ही चाहिए। यह बिना अनुभव के नहीं होता। और भले तुम्हारे पास अनुभव हो, फिर भी, वह तुम्हारे पास सीमित ही होता है। कुछ निश्चित और सीमित स्थितियां हैं जिन पर तुम बोल सकते हो, लेकिन उनसे आगे तुम्हारे पास बताने के लिए कुछ भी नहीं है। किसी सभा में संगति हमेशा एक या दो विषयों के इर्द-गिर्द रहनी चाहिए। यदि तुम संगति में उन्हें ज्यादा स्पष्ट करने में सफल हो जाते हो तो उससे तुम्हें काफी कुछ हासिल होगा। अधिक बातें या बड़ी बातें कहने की कोशिश में न फंसो—इस तरीके से किसी को कुछ नहीं मिल सकता, और इससे किसी को कोई फायदा नहीं होता। सभाओं में बारी-बारी से बोलना होता है, और जब तक बताई जा रही बात व्यावहारिक होगी, लोग उसका लाभ ले सकेंगे। ऐसा सोचना बंद करो कि एक व्यक्ति अपने दम पर सभी सत्यों के बारे में स्पष्ट रूप से संगति कर सकता है; यह असंभव है। कभी-कभी तुम सोच सकते हो कि तुम बहुत व्यावहारिक तरीके से संवाद कर रहे हो, लेकिन तुम्हारे भाई और बहनें अभी भी वास्तव में नहीं समझ रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी स्थिति तुम्हारी है, और तुम्हारे भाइयों और बहनों की स्थिति आवश्यक रूप से एकदम तुम्हारे जैसी नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें उस विषय के बारे में कुछ अनुभव हो सकता है, लेकिन तुम्हारे भाइयों और बहनों को नहीं, इसलिए उन्हें लग सकता है कि तुम जो बात कर रहे हो वह उन पर लागू नहीं होती। इस प्रकार की स्थिति का सामना करने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुमको उनकी स्थितियों के बारे में जानने के लिए उनसे कुछ प्रश्न पूछने चाहिए। उनसे पूछो कि वह विषय सामने आने पर वे क्या करेंगे, और उन्हें सत्य के अनुरूप कैसे अभ्यास करना चाहिए। कुछ देर तक इस तरह से संगति करने से आगे का रास्ता खुल जाएगा। इस तरह तुम लोगों को अपने विषय पर ले जा सकते हो, और यदि तुम संगति करते रहोगे, तो तुम्हें परिणाम प्राप्त होंगे।

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