शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 64)
अधिकांश लोग कुछ वर्षों तक आस्थावान रहने के बाद कुछ धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हैं, जैसे “हमें अपनी आस्था में सही इरादे रखने चाहिए,” “हमें परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण करना सीखना चाहिए,” “हमें अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए; हम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकते,” या “हमें खुद को जानना चाहिए।” ये सभी धर्म-सिद्धांत सही हैं, लेकिन तुम वचनों का सही अर्थ नहीं समझते। तुम उन्हें केवल सतही तौर पर समझते हो; तुम उनका आध्यात्मिक अर्थ या परमेश्वर के वचनों के गहरे महत्व को नहीं समझते, इसलिए तुम लोगों के हृदयों में कोई सत्य नहीं है। तुम्हारा जो भी अनुभव है या तुम्हारी जो समझ है, वह बहुत सतही है। कुछ सिद्धांतों को बोलने और कुछ आसान चीज़ों को साफ-साफ देखने में तुम्हारा सक्षम होना संभव है, लेकिन तुम सत्य सिद्धांतों पर कार्य नहीं करते तो तुम सत्य के करीब भी नहीं पहुँचते। तुम लोगों के पास थोड़ा ज्ञान और शिक्षा हो सकती है, लेकिन तुम सत्य को नहीं समझते। धर्म-सिद्धांतों या वचनों की समझ को सत्य की समझ मत मानो। लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करने वालों में से कुछ लोग अच्छी काबिलियत वाले और अपेक्षाकृत अच्छी आध्यात्मिक समझ वाले हैं जिनके पास सत्य का थोड़ा अनुभव हो सकता है—फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वे इसे समझते हैं। तुम जो ज्ञान दे रहे हो, उसके दस वाक्यों में से शायद दो में सच्चा ज्ञान हो। बाकी सब धर्म-सिद्धांत हैं। तुम्हें, हालांकि, लगता है कि तुमने सत्य को समझ लिया है। तुम चाहे जहाँ जाओ वहाँ लगातार कई दिनों तक उपदेश देते रह सकते हो, क्योंकि तुम्हारे पास कहने के लिए हमेशा कुछ न कुछ रहता है। जब तुम अपनी बात कह लेते हो, तो तुम उन्हें एक किताब के रूप में संकलित करना चाहते हो, एक “सेलिब्रिटी आत्मकथा” के रूप में, जिसे हर किसी को भेजा जा सके, ताकि वे सामान्य भलाई के लिए इसका उपयोग कर सकें। यह अविश्वसनीय रूप से अहंकारी और विवेकहीन बात है, है न? लोग सत्य की बातों के बाहरी घेरे को भी नहीं छू सकते; अधिक से अधिक, वे कुछ शब्दों को उसी रूप में समझ सकते हैं जैसे वे लिखे गए हों। क्योंकि वे चतुर हैं और उनकी स्मरणशक्ति अच्छी है, क्योंकि वे अक्सर इन पहलुओं के सत्य के बारे में बोलते हैं जैसे परमेश्वर का कार्य, देहधारण के महत्व और रहस्य, तथा परमेश्वर के कार्य के तरीके और चरण, तब जब उन्होंने खुद को एक निश्चित सीमा तक तैयार कर लिया होता है, तो उन्हें लगता है कि वे स्वयं सत्य को प्राप्त कर चुके हैं, कि उनके पास यह काफी मात्रा में है। यह उनकी कितनी विवेकहीन बात है; इससे साबित होता है कि वे सत्य को नहीं समझते। आजकल लोग धर्म-सिद्धांतों को थोड़ा-बहुत ही समझते हैं। वे खुद को नहीं जानते और उनमें विवेक तो बहुत कम है। जब वे कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझ लेते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके पास सत्य है, और वे अब सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। उन्हें लगता है कि वे महान बन गए हैं और सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर के वचनों को कई बार पढ़ा है। मैंने उनमें से कुछ को याद भी कर लिया है, और उन्होंने मेरे हृदय में जड़ें जमा ली हैं। मैं कहीं भी जाकर लगातार कई सभाओं में उपदेश दे सकता हूँ, और मैं परमेश्वर के वचनों के किसी भी अध्याय का मूल बता सकता हूँ।” तथ्य यह है कि सत्य को कोई नहीं समझता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? ऐसा इसलिए कि तुम लोग समस्याओं को हल नहीं कर सकते या उनके मूल कारण नहीं तलाश सकते, और तुम उनके सार के आर-पार नहीं देख सकते। दूसरे, तुम लोग किसी भी समस्या या मुद्दे का केवल एक अंश ही समझ सकते हो, तुम्हारी समझ अस्पष्ट है; तुम उसे सत्य से नहीं जोड़ सकते। यहाँ तक कि, तुम लोग अभी भी स्वयं के बारे में अच्छा महसूस करते हो, और तुम अहंकारी हो और आत्मतुष्ट हो। तुम कितने मूर्ख और अज्ञानी हो।
तुम लोग “परमेश्वर में विश्वास” की व्याख्या कैसे करते हो? तुम लोग सत्य के इस पक्ष को कैसे समझते हो? परमेश्वर में अपने विश्वास के बारे में लोगों का सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? वे कौन से गलत दृष्टिकोण हैं जो अभी भी हर तरफ मौजूद हैं? लोगों को वास्तव में परमेश्वर में कैसे विश्वास करना चाहिए? क्या तुम लोगों ने इन प्रश्नों पर विचार किया है? तुम सभी सत्य के “दिग्गज” लगते हो, जैसे इसे पूरी तरह समझते हो, इसलिए मैं तुम लोगों से सबसे सरल प्रश्न पूछूंगा : परमेश्वर में विश्वास क्या है? क्या तुम लोगों ने उस पर विचार किया है? परमेश्वर में विश्वास वास्तव में क्या संदर्भित करता है? वास्तव में, वह क्या है, जो तुम उस पर विश्वास करने से पाना चाहते हो, और तुम किन समस्याओं का समाधान करना चाहते हो? तुम्हें इन चीज़ों के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है। तुम्हें इस बारे में भी स्पष्ट होना चाहिए : परमेश्वर पर विश्वास करने के संदर्भ में किसी व्यक्ति में क्या अभिव्यक्तियाँ मौजूद होनी चाहिए कि वह परमेश्वर में निष्ठापूर्वक विश्वास रखता है? यानी, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था की गंभीरता के लिए तुम्हें अपना कर्तव्य किस तरह निभाना होगा? परमेश्वर अपने पर विश्वास करने वाले लोगों से किन तत्वों की अपेक्षा करता है ताकि यह साबित हो सके कि वे ऐसे लोग हैं जिनकी आस्था ईमानदार है? क्या तुम लोगों का हृदय इन प्रश्नों के बारे में स्पष्ट है? वास्तव में, तुम सभी लोग अपने दैनिक जीवन में छद्म-विश्वासियों वाले कुछ व्यवहार दिखाते हो। क्या तुम लोग स्पष्ट रूप से वे चीजें बता सकते हो जो तुम लोगों ने की हैं पर जिनका परमेश्वर या सत्य में तुम्हारे विश्वास से कोई संबंध नहीं है? क्या तुम वास्तव में समझते हो कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? वह व्यक्ति कैसा होता है, जो निष्कपट आस्था रखता है और परमेश्वर पर सच्चा विश्वास करता है? क्या तुम समझते हो कि किसी सृजित प्राणी के लिए परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है? यह परमेश्वर में आस्था के बारे में व्यक्ति के विचारों से जुड़ा है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब है सही मार्ग पर चलना और भलाई करना; यह जीवन में बहुत बड़ी बात है। परमेश्वर के लिए कुछ कर्तव्यों का निर्वहन करने से ही उसमें विश्वास व्यावहारिक रूप से अभिव्यक्त होता है।” ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करने का संबंध बचाए जाने से है; इसका संबंध उसके इरादे पूरे करने से है।” तुम लोग ये सारी चीजें बोल सकते हो, लेकिन क्या तुम लोग वास्तव में इन्हें समझते हो? तथ्य यह है कि तुम लोग नहीं समझते। परमेश्वर में सच्चा विश्वास केवल बचाए जाने के लिए उस पर विश्वास करने का मामला नहीं है, यह अच्छा इंसान बनने के लिए उस पर विश्वास करने का मामला भी नहीं है। यह केवल मानव छवि पाने के लिए उस पर विश्वास करने का मामला भी नहीं है। तथ्य यह है कि परमेश्वर में लोगों के विश्वास को केवल ऐसे विश्वास के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि एक परमेश्वर है, और वही सत्य, मार्ग, जीवन है और वही इसका अंत है। यह केवल परमेश्वर को स्वीकार करने, या, यह विश्वास करने से संबंधित नहीं है कि वह सभी चीजों का संप्रभु है, कि वह सर्वशक्तिमान है, कि उसने दुनिया और इसकी सभी चीजों को बनाया है, कि वह अद्वितीय है, और वह सर्वोच्च है। यह तुम्हारे इस तथ्य पर विश्वास करने भर से समाप्त नहीं होता। परमेश्वर का इरादा यह है कि तुम्हारा पूरा अस्तित्व और हृदय उसे सौंपा गया हो और उसके प्रति समर्पित हो। यानी तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए, उसे अपना उपयोग करने देना चाहिए, और उसकी सेवकाई करने में भी खुश रहना चाहिए—तुम उसके लिए जो कुछ भी करते हो वह वही है जो किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि केवल परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए लोगों को ही उस पर विश्वास करना चाहिए। तथ्य तो यह है कि समस्त मानवजाति को परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, उस पर ध्यान देना, और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए, क्योंकि मानवजाति को परमेश्वर ने ही बनाया है। यदि तुम जानते हो कि परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य उद्धार और शाश्वत जीवन प्राप्त करना है, लेकिन तुम सत्य को ज़रा भी स्वीकार नहीं करते और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चलते हो, तो तुम स्वयं को मूर्ख बना रहे हो। क्या ऐसा नहीं है? यदि तुम केवल धर्म-सिद्धांत को समझते हो लेकिन सत्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो, तो क्या तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो? परमेश्वर में विश्वास का सबसे बड़ा हिस्सा सत्य का अनुसरण करना है। प्रत्येक सत्य के साथ, लोगों को खोजना चाहिए, विचार करना चाहिए और जाँच करनी चाहिए कि इसका आंतरिक अर्थ क्या है, साथ ही यह भी कि सत्य के उस पहलू का अभ्यास और उसमें प्रवेश कैसे करें। विश्वासियों को इन चीज़ों को समझना चाहिए और उनमें यह सब होनी चाहिए। जब सत्य के उन विभिन्न पहलुओं की बात आती है जो परमेश्वर पर विश्वास करने में किसी में होने चाहिए तो तुम लोग केवल वचनों, धर्म-सिद्धांतों, और बाहरी अभ्यासों को समझते हो; तुम सत्य का सार नहीं समझते, क्योंकि तुम लोगों ने इसका अनुभव नहीं किया है। उदाहरण के लिए : किसी के कर्तव्य को निभाने के क्षेत्र में और परमेश्वर से प्रेम करने के क्षेत्र में बहुत सत्य है, और यदि लोग स्वयं को जानना चाहते हैं, तो उन्हें बहुत सारा सत्य भी समझना होगा। देहधारण के महत्व और रहस्य में भी, बहुत सा सत्य है जिसे समझने की आवश्यकता है। लोगों को अपना आचरण कैसा रखना चाहिए; उन्हें परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए; उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना चाहिए; परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए; उन्हें परमेश्वर की सेवा कैसे करनी चाहिए—ऐसे सभी विवरणों में बहुत सारे सत्य हैं। विभिन्न क्षेत्रों के इन सभी सत्यों के संबंध में, तुम लोग उनसे कैसे व्यवहार करते हो और उनका अनुभव कैसे करते हो? सत्य के किस पहलू से सबसे पहले गुजरना सबसे महत्वपूर्ण है? ऐसे बहुत से सत्य हैं जिन्हें सच्चे मार्ग पर आधार बना लेने के बाद लोगों को समझने और उनमें प्रवेश करने की आवश्यकता होती है। एक सत्य ईमानदार व्यक्ति होने का सत्य है, और विशेष रूप से, ऐसे सत्य हैं जिनका संबंध कर्तव्य पालन से है। लोगों से इन सबका अनुभव और अभ्यास करना अपेक्षित है। इस पर ध्यान दिए बिना कि सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास और अनुभव कैसे करना है, अगर तुम हर समय उन वचनों और धर्म-सिद्धांतों को बोल रहे हो, तो तुम हमेशा उन वचनों में जीते रहोगे, और तुममें कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं आएगा।
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