स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI

परमेश्वर की पवित्रता (III) भाग तीन के क्रम में

इस वक्त शैतान की बुराई के बारे में बात करने से हर एक को ऐसा महसूस हुआ है मानो लोग कितनी अप्रसन्नता में जीवन जीते हैं और यह कि मनुष्य का जीवन दुर्भाग्य से घिरा हुआ होता है। परन्तु अब तुम लोग कैसा महसूस करते हो जबकि मैंने परमेश्वर की पवित्रता और उस कार्य के बारे में बातचीत की है जिसे वह मनुष्य पर करता है? (अत्यधिक प्रसन्नता।) हम अब देख सकते हैं कि जो कुछ भी परमेश्वर करता है, वह सब बेदाग है जिसे वह अत्यंत परिश्रम से मनुष्य के लिए व्यवस्थित करता है। हर एक कार्य जिसे परमेश्वर करता है वह बिना किसी गलती के होता है, यानी कि यह त्रुटिहीन होता है, सुधारने, सलाह देने या कोई बदलाव करने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं होती है। परमेश्वर प्रत्येक प्राणी के लिए जो कुछ करता है, वह सन्देह से परे होता है; वह अपने हाथ से हर किसी की अगुवाई करता है, हर क्षण तुम्हारी देखरेख करता है और तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ता है। चूंकि लोग इस प्रकार के वातावरण में पलते हैं और इस प्रकार की पृष्ठभूमि में पलते हैं, क्या हम कह सकते हैं कि लोग वास्तव में परमेश्वर की हथेली में पलते हैं? (हाँ।) अतः क्या अब भी तुम लोगों को नुकसान का एहसास होता है? (नहीं।) क्या कोई अभी भी हतोत्साहित महसूस करता है? (नहीं।) अतः क्या कोई ऐसा महसूस करता है कि परमेश्वर ने मानवजाति को छोड़ दिया है? (नहीं।) तो आखिर परमेश्वर ने किया क्या है? (वह मानवजाति को सुरक्षित रखता है।) जो कुछ परमेश्वर करता है उसके पीछे के महान विचार एवं देखभाल सवालों से परे है। और क्या कहें, परमेश्वर जब इस कार्य को क्रियान्वित करता है, तो उसने कभी भी किसी के सामने कोई शर्त नहीं रखी है या कोई अपेक्षा नहीं की है कि तुम उस कीमत को जानो जो उसने तुम्हारे लिए चुकाई है, ताकि तुम उसके प्रति अत्यंत आभारी महसूस करो। क्या परमेश्वर ने पहले कभी ऐसा कुछ किया है? (नहीं।) अपने लम्बे जीवन में, मूलत: प्रत्येक व्यक्ति ने अनेक खतरनाक परिस्थितियों का सामना किया है और वह अनेक प्रलोभनों से होकर गुज़र चुका है। यह इसलिए है क्योंकि शैतान बिलकुल तुम्हारे बगल में है, उसकी आंखें निरन्तर तुम्हारे ऊपर जमी होती हैं। वह इसे पसन्द करता है जब तुम पर आपदा आती है, विपदाएँ हैं, जब तुम्हारे लिए कुछ भी सही नहीं होता है तो उसे अच्छा लगता है, और जब तुम शैतान के जाल में फँस जाते तो तो उसे अच्छा लगता है। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह निरन्तर तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है, एक के बाद एक दुर्भाग्य से और एक के बाद एक आपदा से तुम्हें बचा रहा है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जो कुछ शान्ति एवं आनन्द, आशीषें एवं व्यक्तिगत सुरक्षा—मनुष्य के पास है, वह सब-कुछ वास्तव में परमेश्वर के अधीन है, और वह प्रत्येक प्राणी के जीवन एवं उसकी नियति का मार्गदर्शन एवं निर्धारण करता है। परन्तु क्या परमेश्वर के अंदर अपनी पदस्थिति को लेकर किसी तरह का कोई अहंकार का भाव है, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं? तुम्हें ऐसा कहना कि "मैं सबसे महान हूँ, वह मैं हूँ जो तुम लोगों की ज़िम्मेदारी लेता है, तुम लोगों को मुझ से अवश्य दया की भीख माँगनी चाहिए और आज्ञा उल्लंघन करने वालों को मृत्युदंड दिया जाएगा।" क्या परमेश्वर ने कभी मानवजाति को इस प्रकार से धमकी दी है? (नहीं।) क्या उसने कभी कहा है "मानवजाति भ्रष्ट है अतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं उनसे कैसा व्यवहार करता हूँ, मैं कैसा भी मनमाना व्यवहार कर सकता हूँ; मुझे उनके लिए चीज़ों को बहुत अच्छे ढंग से व्यवस्थित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" क्या परमेश्वर इस तरह से सोचता है? (नहीं।) अतः क्या परमेश्वर ने इस रीति से कार्य किया है? (नहीं।) इसके विपरीत, प्रत्येक व्यक्ति से परमेश्वर का बर्ताव सच्चा एवं ज़िम्मेदारीपूर्ण है, यहाँ तक कि जितना तुम स्वयं के प्रति ज़िम्मेदार हो उससे भी कहीं अधिक। क्या ऐसा ही नहीं है? परमेश्वर व्यर्थ में बात नहीं करता है, न ही वह ऊँचाई पर खड़ा होकर हवा में बात करता है और न ही वह मनुष्य को मूर्ख बनाकर काम चलता है। बल्कि वह ईमानदारी एवं खामोशी से उन कार्यों को करता है जिन्हें उसे स्वयं करने की आवश्यकता है। ये चीज़ें मनुष्य के लिए आशीषें, शान्ति एवं आनन्द लाती हैं, वे मनुष्य को शांति एवं प्रसन्नता से परमेश्वर की दृष्टि के सामने और उसके परिवार में लाती हैं और वे मनुष्य के लिए सही वजह, सही सोच, सही न्याय, एवं सही मनःस्थिति लाती हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता है ताकि परमेश्वर के सामने आएँ और परमेश्वर के उद्धार को प्राप्त करें। अतः क्या परमेश्वर अपने कार्य में मनुष्य के साथ कभी धोखेबाज़ रहा है? (नहीं।) क्या उसने कभी उदारता का झूठा प्रदर्शन किया है, कुछ हँसी-मजाक के साथ मनुष्य को मनाया है, फिर मनुष्य से मुँह फेर लिया हो? (नहीं।) क्या परमेश्वर ने कभी कोई बात कही हो और फिर दूसरा कार्य किया हो? (नहीं।) क्या परमेश्वर ने यह कहते हुए कभी खोखले वादे किए हैं और घमण्ड किया है कि वह तुम्हारे लिए यह कर सकता है या वह करने के लिए तुम्हारी सहायता कर सकता है, और फिर गायब हो गया हो? (नहीं।) परमेश्वर में कोई छल नहीं है, और कोई झूठ नहीं है। परमेश्वर विश्वासयोग्य है और जो कुछ वह करता है वह सही एवं वास्तविक है। वह ही ऐसा एकमात्र शख्स है जिस पर लोग भरोसा कर सकते हैं परमेश्वर ही एकमात्र ऐसा है जिसे लोग अपना जीवन एवं अपना सब कुछ सौंप सकते हैं। चूँकि परमेश्वर में कोई छल नहीं है, तो क्या हम ऐसा कह सकते हैं कि वह सबसे अधिक ईमानदार है? (हाँ।) निश्चित रूप से हम कह सकते हैं, ठीक है न? हालाँकि, इस शब्द के विषय में अभी बात करना, जब इसे परमेश्वर पर लागू करते हैं तो यह अत्यंत दुर्बल लगता है, बहुत मानवीय, लेकिन कुछ नहीं कर सकते चूँकि मानवीय भाषा की अपनी सीमाएँ हैं। यहाँ पर परमेश्वर को ईमानदार कहना थोड़ा सा अनुचित लगता है, परन्तु हम कुछ समय के लिए इसी शब्द का उपयोग करेंगे। परमेश्वर विश्वासयोग्य एवं ईमानदार है, है कि नहीं? (हाँ।) अतः इन पहलुओं के बारे में बात करने का हमारा क्या अभिप्राय है? क्या हमारा अभिप्राय परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच और परमेश्वर एवं शैतान के बीच भिन्नताओं से है? हम ऐसा कह सकते हैं क्योंकि मनुष्य परमेश्वर में शैतान के भ्रष्ट स्वभाव का कोई नामों निशान नहीं देखता है। ऐसा कहने में क्या मैं सही हूँ? क्या मैं इसके लिए आमीन सुन सकता हूँ? (आमीन!) हम शैतान की किसी भी बुराई को परमेश्वर में प्रगट होते हुए नहीं देखते हैं। वह सब जिसे परमेश्वर अंजाम देता है और प्रगट करता है वह पूरी तरह से मनुष्य के लिए लाभप्रद एवं सहायक है, वह पूरी तरह से मनुष्य को प्रदान करने के लिए है, वह जीवन से भरपूर है और मनुष्य को अनुसरण करने के लिए एक मार्ग और चलने के लिए एक दिशा देता है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर भ्रष्ट नहीं है और इस वक्त हर एक चीज़ जिसे परमेश्वर करता है उसे देखने पर, क्या हम कह सकते हैं कि परमेश्वर पवित्र है? (हाँ।) चूँकि परमेश्वर के पास मानवजाति की कोई भ्रष्टता नहीं है और यहाँ तक कि दूर-दूर तक उसके पास मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव या शैतान का सार के समान ऐसा कुछ भी नहीं है, तो इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि परमेश्वर पवित्र है। परमेश्वर कोई भ्रष्टता प्रगट नहीं करता है, और उसके कार्य में उसके स्वयं के सार का प्रकाशन ही हमारे लिये आवश्यक इस बात की पूरी पुष्टि है कि स्वयं परमेश्वर पवित्र है। क्या अब तुम लोग देख रहे हो? कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर के पवित्र सार को जानने के लिए, कुछ समय के लिए आइए हम इन दो पहलुओं पर नज़र डालें: 1) परमेश्वर में कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; 2) मनुष्य पर किए गए परमेश्वर के कार्य का सार मनुष्य को परमेश्वर के स्वयं के सार को देखने की अनुमति देता है और यह सार पूरी तरह से सकारात्मक एवं वास्तविक है। क्योंकि ऐसी कौन सी चीज़ें हैं जिन्हें परमेश्वर के कार्य का हर तरीका मनुष्य के लिए लेकर आता है? वे सभी सकारात्मक चीज़ें हैं, वे सब प्रेम हैं, सारी सच्चाई एवं सारी वास्तविकता है। सबसे पहले, परमेश्वर अपेक्षा करता है कि मनुष्य ईमानदार हो—क्या यह सकारात्मक नहीं है? परमेश्वर मनुष्य को बुद्धि देता है—क्या यह सकारात्मक नहीं है? परमेश्वर मनुष्य को भले एवं बुरे के बीच परख करने के लिए सक्षम बनाता है—क्या यह सकारात्मक नहीं है? वह मनुष्य को मानवीय जीवन के अर्थ एवं मूल्य समझने की अनुमति देता है—क्या यह सकारात्मक नहीं है? वह मनुष्य को सत्य की अनुरूपता में लोगों, घटनाओं, एवं चीज़ों के सार के भीतर देखने की अनुमति देता है—क्या यह सकारात्मक नहीं है? (है।) और इन सब का परिणाम यह है कि मनुष्य अब शैतान के द्वारा धोखा नहीं खाता है, अब शैतान के द्वारा उसे लगातार नुकसान नहीं पहुँचाया जाता है या उसके द्वारा नियन्त्रित नहीं किया जाता है। दूसरे शब्दों में, वे लोगों को अनुमति देते हैं कि शैतान की भ्रष्टता से अपने आप को पूरी तरह से स्वतन्त्र करा लें, और इसलिए वे धीरे-धीरे परमेश्वर का भय मानने एवं बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलते हैं। अब तक तुम लोग इस पथ पर कितनी दूर तक चल चुके हो? यह कहना कठिन है, नहीं क्या? परन्तु कम से कम अब क्या तुम लोगों के पास इस बात की प्रारम्भिक समझ है कि शैतान किस प्रकार मनुष्य को भ्रष्ट करता है, और कौन-सी चीज़ें बुरी हैं एवं कौन-सी नकारात्मक हैं? (हाँ।) इस प्रारम्भिक समझ के साथ, तुम लोग कम से कम अब सही पथ पर चल रहे हो, सत्य को जानने लगे हो, जीवन की रोशनी को देखने लगे हो, और इस प्रकार परमेश्वर में तुम लोगों का विश्वास ज़्यादा बढ़ा है।

अब हम परमेश्वर की पवित्रता के बारे में बात करना समाप्त करेंगे, अतः तुम लोगों के बीच में ऐसा कौन है जो, वह सब जिसे तुम लोगों ने सुना और प्राप्त किया है उससे, यह कह सकता है कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है? परमेश्वर की पवित्रता किसकी ओर संकेत करती है जिसके विषय में मैं ने बता की है? एक पल के लिए इसके विषय में सोचिए। परमेश्वर की पवित्रता क्या है? क्या परमेश्वर की सत्यता ही उसकी पवित्रता है? (हाँ।) क्या परमेश्वर की विश्वासयोग्यता ही उसकी पवित्रता है? (हाँ।) क्या परमेश्वर की निःस्वार्थता ही उसकी पवित्रता है? (हाँ।) क्या परमेश्वर की विनम्रता ही उसकी पवित्रता है? (हाँ।) क्या मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम ही उसकी पवित्रता है? (हाँ।) परमेश्वर मनुष्य को मुफ्त में सत्य एवं जीवन प्रदान करता है—क्या यह ही उसकी पवित्रता है? (हाँ।) यह सब जिसे परमेश्वर प्रगट करता है वह अद्वितीय है; यह भ्रष्ट मानवता के भीतर मौजूद नहीं है, न ही इसे वहाँ देखा जा सकता है। मनुष्य के विषय में शैतान की भ्रष्टता की प्रक्रिया के दौरान, इसका थोड़ा सा भी नामों निशान नहीं देखा जा सकता है, न तो शैतान के भ्रष्ट स्वभाव में और न ही शैतान के सार या स्वभाव में। अतः जो कुछ परमेश्वर के पास है और जो वह है वह अद्वितीय है और केवल स्वयं परमेश्वर के पास ही इस प्रकार का सार है, केवल स्वयं परमेश्वर ही इस प्रकार के सार को धारण करता है। अब तक इस पर चर्चा करने के बाद, क्या तुम लोगों में से किसी ने मानवजाति में इस प्रकार के पवित्र जन को देखा है? (नहीं।) अतः प्रसिद्ध लोगों, महान लोगों और उन आदर्शों के मध्य क्या कोई इतना पवित्र है जिनकी तुम लोग मानवजाति के बीच आराधना करते हो? (नहीं।) अब हम केवल यह कह सकते हैं कि केवल परमेश्वर ही सचमुच में पवित्र है, यह कि परमेश्वर की पवित्रता अद्वितीय है और केवल वह ही इस नाम में और साथ ही साथ सत्य में इसे मूर्त रूप दे सकता है। इसके अतिरिक्त, इसका व्यावहारिक पक्ष भी है। क्या इस पवित्रता जिसके विषय में मैं अब बात करता हूँ और उस पवित्रता के बीच में कोई भिन्नता है जिसके विषय में तुम लोगों ने पहले सोचा था एवं कल्पना की थी? (हाँ।) तो यह अन्तर कितना बड़ा है? (बहुत ही बड़ा!) तुम लोगों के अपने ही वचनों का उपयोग करते हुए, लोगों का अभिप्राय प्रायः क्या होता है जब वे पवित्रता के बारे में बात करते हैं? (कुछ बाहरी व्यवहार।) व्यवहार या कुछ वर्णन करते समय, वे कहते हैं कि यह पवित्र है। अतः क्या "पवित्रता" का यह वर्णन एक सिद्धान्त है? यह बस कुछ ऐसा है जो साफ एवं सुन्दर दिखाई देता है, कुछ ऐसा है जो लोगों को अच्छा दिखाई एवं सुनाई तो देता है, किन्तु पवित्रता का कोई सच्चा सार नहीं होता है। जो कुछ लोग कल्पना करते हैं कि पवित्रता ऐसी होनी चाहिए इसके विषय में कुछ भी वास्तविक नहीं है। इसके अलावा, वह "पवित्रता" जिसके विषय में लोग सोचते हैं वह वास्तव में किसकी ओर संकेत करता है? क्या यह वही है जिसकी वे कल्पना या आँकलन करते है कि यह ऐसा है? उदाहरण के लिए, अभ्यास करते समय कुछ बौद्ध लोग मर जाते हैं, जब वे आसन लगाकर सो जाते हैं तब गुज़र जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे पवित्र हो गए हैं और स्वर्ग की ओर उड़ गए हैं। यह भी एक प्रकार की कल्पना है। फिर कुछ ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि एक परी जो स्वर्ग से नीचे उतरती है वह पवित्र है। साथ ही कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सोचते हैं कि कभी शादी न करना, दरिद्रता से भोजन करना एवं कपडे पहनना और अपने जीवन भर दुख सहना पवित्रता है। वास्तव में, "पवित्रता" के शब्द के बारे में लोगों की धारणा हमेशा से ही सिर्फ एक प्रकार की खोखली कल्पना एवं सिद्धान्त रहा है जिसमें मूलरूप कोई सच्चा सार नहीं है, और इसके अतिरिक्त इसका पवित्रता के सार के साथ कोई लेना देना नहीं है। पवित्रता का सार सच्चा प्रेम है, परन्तु इससे भी अधिक यह सत्य, धार्मिकता एवं ज्योति का सार है। "पवित्र" शब्द केवल तभी उपयुक्त होता है जब इसे परमेश्वर के लिए लागू किया जाता है; सृष्टि में ऐसा कोई नहीं है जो पवित्र कहलाने के योग्य हो। मनुष्य को इसे समझना होगा। सच्ची पवित्रता क्या है उसे न जानना परमेश्वर को नहीं जानना है। केवल परमेश्वर ही पवित्र है, और यह एक निर्विवादित सत्य है।

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