परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I

भाग एक

आज हम एक महत्वपूर्ण विषय पर बातचीत कर रहे हैं। यह ऐसा विषय है जिस पर परमेश्वर के कार्य की शुरुआत से लेकर अब तक चर्चा की गई है, और यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्याधिक महत्व रखता है। दूसरे शब्दों में, यह ऐसा विषय है, जिसके सम्पर्क में प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर में अपने विश्वास की प्रक्रिया के दौरान आएगा और ऐसा विषय है जिसे स्पर्श किया जाना चाहिए। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण, एवं अनिवार्य विषय है जिसे मानवजाति खुद से अलग नहीं कर सकती है। इसके महत्व के बारे में कहें, तो परमेश्वर में प्रत्येक विश्वासी के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात क्या है? कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर की इच्छा को समझना अति महत्वपूर्ण बात है; कुछ लोग विश्वास करते हैं कि यह अति महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर के और अधिक वचनों को खाया एवं पीया जाए; कुछ महसूस करते हैं कि अति महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं को जाना जाए; अन्य लोग ऐसी राय के हैं कि अति महत्वपूर्ण बात यह जानना है कि किस प्रकार परमेश्वर के माध्यम से उद्धार की खोज की जाए, कि किस प्रकार परमेश्वर का अनुसरण किया जाए, और किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा को पूरा किया जाए। हम आज के लिए इन सभी विषयों को एक तरफ रखेंगे। तो हम क्या बातचीत कर रहे हैं? हम परमेश्वर के बारे में एक विषय पर बातचीत कर रहे हैं। क्या यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषय है? परमेश्वर के बारे में किसी विषय की विषयवस्तु क्या है? हाँ वास्तव में, इस विषय को परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के सार एवं परमेश्वर के कार्य से अलग नहीं किया जा सकता है। अतः आज, आइए हम "परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर" के बारे में चर्चा करें।

उस समय से जब मनुष्य ने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, वे ऐसे विषयों के सम्पर्क में रहे हैं जैसे परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर। जब परमेश्वर के कार्य की बात आती है, तो कुछ लोग कहेंगे: "परमेश्वर का कार्य हम पर किया जाता है; हम इसे हर दिन अनुभव करते हैं, अतः हम इससे अनजान नहीं हैं।" परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कहें तो, कुछ लोग कहेंगे: "परमेश्वर का स्वभाव ऐसा विषय है जिसे हम अध्ययन करते हैं, खोजते हैं और जिस पर हम पूरे जीवन भर ध्यान केन्द्रित करते हैं, अतः हमें इससे सुपरिचित होना चाहिए।" जहाँ तक स्वयं परमेश्वर की बात है, कुछ लोग कहेंगे: "स्वयं परमेश्वर वह है जिसका हम अनुसरण करते हैं, जिसमें हमारा विश्वास है, और वह है जिसकी हम निरन्तर खोज करते हैं, अतः हम उसके बारे में अज्ञात भी नहीं हैं।" परमेश्वर ने सृष्टि के समय से अपने कार्य को कभी नहीं रोका है, जिसके दौरान उसने निरन्तर अपने स्वभाव को अभिव्यक्त किया है और अपने वचन को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया है। और उसके साथ ही, उसने अपने आपको एवं अपने सार को मानवजाति पर अभिव्यक्त करने से, और मनुष्य पर अपनी इच्छा को और जो कुछ वह मनुष्य से अपेक्षा करता है उसको अभिव्यक्त करने से नहीं रुका है। अतः एक शाब्दिक दृष्टिकोण से, ये विषय किसी के लिए भी अनजाने नहीं होने चाहिए। फिर भी उन लोगों के लिए जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर वे सभी वास्तव में उनके लिए बिलकुल अनजान है। स्थिति ऐसी क्यों है? जैसे-जैसे मनुष्य परमेश्वर के कार्य का अनुभव करता है, वे परमेश्वर के साथ सम्पर्क में भी आ रहे हैं, जो उनको महसूस कराते हैं मानो वे परमेश्वर के स्वभाव को समझते हैं या यह कैसा है इसके बारे में थोड़ा कुछ जानते हैं। तदनुसार, मनुष्य नहीं सोचता है कि वह परमेश्वर के कार्य या परमेश्वर के स्वभाव के प्रति एक अजनबी है। इसके बजाय, मनुष्य सोचता है कि वह परमेश्वर के साथ बहुत सुपरिचित है और परमेश्वर के बारे में काफी कुछ समझता है। लेकिन वर्तमान परिस्थिति के आधार पर, परमेश्वर के बारे में बहुत से लोगों की समझ उनके द्वारा पुस्तकों में पढ़ी गई बातों तक, उनके व्यक्तिगत अनुभवों के दायरे तक सीमित होता है, उनकी कल्पनाओं के द्वारा नियंत्रित होता है, और सबसे ऊपर, उन तथ्यों तक सीमित होता है जिन्हें वे अपनी आँखों से देख सकते हैं। यह सब कुछ स्वयं सच्चे परमेश्वर से बहुत दूर है। तो यह "दूर" कितना दूर है? कदाचित् मनुष्य खुद निश्चित नहीं है, या कदाचित् मनुष्य को थोड़ा सा एहसास है, हल्का सा आभास है—लेकिन जब स्वयं परमेश्वर की बात आती है, तो उसके बारे में मनुष्य की समझ स्वयं सच्चे परमेश्वर के सार से बहुत परे है। इसी लिए हमें इस जानकारी का क्रमानुसार एवं विशेष रूप से संवाद करने के लिए "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर" जैसे विषय का आवश्यक रूप से उपयोग करना पड़ता है।

वास्तव में, परमेश्वर का स्वभाव सब के लिए खुला हुआ है और यह छिपा हुआ नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने जान-बूझकर कभी भी किसी व्यक्ति को दूर नहीं किया है और उसने कभी भी जान-बूझकर स्वयं को छिपाने का प्रयास नहीं किया है जिससे लोग उसे जानने या समझने के योग्य नहीं हो पाएँगे। परमेश्वर का स्वभाव हमेशा से ही खुला हुआ है और हमेशा से ही खुले तौर पर प्रत्येक व्यक्ति का सामना करता आया है। परमेश्वर के प्रबंधन के दौरान, परमेश्वर अपना कार्य करता है, प्रत्येक का सामना करता है; और उसका कार्य हर एक व्यक्ति पर किया जाता है। जब वह यह कार्य करता है, तो वह लगातार अपने स्वभाव को प्रकट करता है, और वह हर एक व्यक्ति की अगुवाई एवं आपूर्ति करने के लिए लगातार अपने सार का और जो स्वरूप का उपयोग करता है। हर युग में और हर चरण पर, इसके बावजूद कि परिस्थितियाँ अच्छी हैं या बुरी, परमेश्वर का स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति के लिए हमेशा खुला होता है, और उसका स्वरूप एवं अस्तित्व प्रत्येक व्यक्ति के लिए हमेशा खुले होते हैं, उसी रीति से उसका जीवन लगातार एवं बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्ति कर रहा है और मानवजाति को सहारा दे रहा है। इस सब के बावजूद, परमेश्वर का स्वभाव कुछ लोगों के लिए छुपा रहता है। यह ऐसा क्यों हैं? यह इसलिए है क्योंकि भले ही ये लोग परमेश्वर के कार्य के अंतर्गत रहते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, फिर भी उन्होंने कभी भी परमेश्वर को समझने का प्रयास या परमेश्वर को जानने की इच्छा नहीं की है, परमेश्वर के निकट आने की तो बात ही छोड़ दीजिए। इन लोगों के लिए, परमेश्वर के स्वभाव को समझने का अर्थ है कि उनका अंत आ रहा है; इसका अर्थ है कि परमेश्वर के स्वभाव के द्वारा उनका न्याय किया जाने वाला है और उन्हें दोषी ठहराया जानेवाला है। इसलिए, इन लोगों ने कभी भी परमेश्वर या उसके स्वभाव को समझने की इच्छा नहीं की है, और उन्होंने परमेश्वर की इच्छा की गहरी समझ या ज्ञान की लालसा नहीं की है। वे सचेत सहयोग के माध्यम से परमेश्वर की इच्छा को समझने का इरादा नहीं करते हैं—वे तो बस सदा मौज-मस्ती करते हैं और उन कार्यों को करते हुए कभी नहीं थकते हैं जिन्हें वे करना चाहते हैं; वे ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं जिसमें वे विश्वास करना चाहते हैं; वे ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं जो केवल उनकी कल्पनाओं में ही मौजूद है, ऐसा परमेश्वर जो केवल उनकी अवधारणाओं में ही मौजूद है; और ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं जिसे उनके दैनिक जीवन में उनसे अलग नहीं किया जा सकता है। जब स्वयं सच्चे परमेश्वर की बात आती है, तो वे पूर्णतः उपेक्षापूर्ण हो जाते हैं, उसे समझने के लिए, एवं उस पर ध्यान देने के लिए उनमें कोई इच्छा नहीं होती है, और उनके पास उसके करीब आने का इरादा तो बिलकुल भी नहीं होता है। वे स्वयं की अनदेखी करने के लिए, एवं स्वयं को विशेष रीति से प्रस्तुत करने के लिए उन वचनों का उपयोग कर रहे हैं जिन्हें परमेश्वर अभिव्यक्त करता है। उनके लिए, यह उनको पहले से ही सफल विश्वासी एवं ऐसे लोग बना देता है जिनके हृदय के भीतर परमेश्वर के प्रति विश्वास है। उनके हृदय में, उनकी कल्पनाओं, उनकी अवधारणाओं, और यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में उनकी व्यक्तिगत परिभाषाओं के द्वारा उन्हें मार्गदर्शन दिया जाता है। दूसरी ओर, स्वयं सच्चे परमेश्वर का उनके साथ कोई वास्ता नहीं है। क्योंकि जब वे एक बार स्वयं सच्चे परमेश्वर को समझ जाते हैं, परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को समझ जाते हैं, और जो वह है उसे समझ जाते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनके कार्य, उनके विश्वास, और उनके अनुसरण को दोषी ठहराया जाएगा। इसी लिए वे परमेश्वर के सार को समझने के लिए तैयार नहीं हैं, और इसी लिए वे परमेश्वर को अच्छे से समझने, परमेश्वर की इच्छा को अच्छे से जानने, और परमेश्वर के स्वभाव को अच्छे से समझने के लिए सक्रिय रूप से खोजने या प्रार्थना करने की इच्छा नहीं रखते और उसके खिलाफ हैं। इसके बजाय वे चाहेंगे कि परमेश्वर कुछ ऐसा हो जिसे बनाया गया हो, जो खोखला एवं छली हो। इसके बजाय वे चाहेंगे कि परमेश्वर कोई ऐसा हो जो बिलकुल वैसा हो जैसी उन्होंने कल्पना की है, कोई ऐसा जो उनके आदेश को मानने के लिए हमेशा तैयार रहे, आपूर्ति करने में सदा भरपूर और हमेशा उपलब्ध रहे। जब वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेना चाहते हैं, तो वे परमेश्वर से माँगते हैं कि वह अनुग्रह बन जाए। जब उन्हें परमेश्वर की आशीष की आवश्यकता होती है, तो वे परमेश्वर से माँगते हैं कि वह आशीष बन जाए। जब वे कठिनाई का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से माँगते हैं कि वह उन्हें मजबूत बनाए, और उनका सुरक्षा-जाल बन जाए। परमेश्वर के विषय में इन लोगों का ज्ञान अनुग्रह एवं आशीष की परिधि के भीतर ही अटका रहता है। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव, और परमेश्वर के विषय में उनकी समझ भी उनकी कल्पनाओं और मात्र पत्रों एवं सिद्धान्तों तक ही सीमित होती है। लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के स्वभाव को समझने के लिए उत्सुक हैं, जो असल में परमेश्वर को देखना चाहते हैं, और सचमुच में परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप को समझना चाहते हैं। ये लोग सच्चाई की वास्तविकता एवं परमेश्वर के उद्धार की निरन्तर खोज में रहते हैं, और परमेश्वर के विजय, उद्धार एवं सिद्धता को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ये लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हैं, प्रत्येक परिस्थिति एवं प्रत्येक व्यक्ति, घटना या ऐसी चीज़ की तारीफ करने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हैं, जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने उनके लिए की है। और प्रार्थना करते हैं और ईमानदारी से तलाश करते हैं। जिसे वे सब से अधिक चाहते हैं वह यह है कि वे परमेश्वर की इच्छा को जानें और परमेश्वर के सच्चे स्वभाव एवं सार को समझें। यह इसलिए है ताकि वे आगे से परमेश्वर को ठेस नहीं पहुँचाएँगे, और अपने अनुभवों के माध्यम से, वे परमेश्वर की सुंदरता और उसके सच्चे पहलु को देखने के योग्य होंगे। यह इसलिए भी है जिससे असलियत में एक सच्चा परमेश्वर उनके हृदय के भीतर बसेगा, और जिससे उनके हृदय में परमेश्वर के लिए एक स्थान होगा, कुछ इस तरह कि वे आगे से कल्पनाओं, अवधारणाओं या छलावे के मध्य जीवन नहीं बिता रहे होंगे। इन लोगों के लिए, उनके पास परमेश्वर के स्वभाव एवं उसके सार को समझने के लिए एक प्रबल इच्छा का कारण यह है क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव एवं सार ऐसी चीज़ें हैं जिनकी आवश्यकता मानवजाति को उनके अनुभवों में किसी भी क्षण पड़ सकती है, ऐसी चीज़ें जो उनके जीवनकाल के दौरान जीवन की आपूर्ति करती हैं। जब एक बार वे परमेश्वर के स्वभाव को समझ जाते हैं, तो वे और भी अच्छे से परमेश्वर का आदर करने, परमेश्वर के कार्य के साथ और भी अच्छे से सहयोग करने, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति और अधिक विचारशील बनने और अपनी बेहतरीन योग्यता के साथ अपने कर्तव्य को निभाने में सक्षम होंगे। जब परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनकी मनोवृत्ति की बात आती है तो ये दो प्रकार के लोग हैं। प्रथम प्रकार के लोग परमेश्वर के स्वभाव को समझना नहीं चाहते हैं। यद्यपि वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के स्वभाव को समझना चाहते हैं, स्वयं परमेश्वर को जानना चाहते हैं, और जो वह है उसे देखना चाहते हैं, और परमेश्वर की इच्छा का सचमुच सम्मान करना चाहते हैं, फिर भी अपने हृदय की गहराई में वे चाहते हैं कि परमेश्वर अस्तित्व में न रहे। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस प्रकार के लोग निरन्तर परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन और उसका विरोध करते हैं; वे अपने स्वयं के हृदयों में पद के लिए परमेश्वर से लड़ते हैं और परमेश्वर के अस्तित्व पर अकसर सन्देह और यहाँ तक कि इंकार भी करते हैं। वे परमेश्वर के स्वभाव को, या स्वयं वास्तविक परमेश्वर को अपने हृदयों पर काबिज़ होने नहीं देना चाहते हैं। वे सिर्फ अपनी इच्छाओं, कल्पनाओं एवं महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करना चाहते हैं। अतः, हो सकता है ये लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और उसके लिए अपने परिवारों एवं नौकरियों को भी त्याग सकते हैं, लेकिन वे अपने बुरे मार्गों का अंत नहीं करते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग भेंटों की भी चोरी करते हैं या उसे उड़ा देते हैं, या एकांत में परमेश्वर को कोसते हैं, जबकि अन्य लोग बार बार स्वयं के विषय में गवाही देने, स्वयं की ख्याति को बढ़ाने, और लोगों एवं हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए अपने पदों का उपयोग कर सकते हैं। वे लोगों से अपनी आराधना करवाने के लिए विभिन्न तरीकों एवं मापदंडों का उपयोग करते हैं, और लोगों को जीतने एवं उनको नियन्त्रित करने की लगातार कोशिश करते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग जानबूझकर लोगों को यह सोचने के लिए गुमराह करते हैं कि वे परमेश्वर हैं और इस प्रकार उनके साथ परमेश्वर के जैसा व्यवहार किया जा सकता है। वे लोगों को कभी नहीं बताएँगे कि उन्हें भ्रष्ट कर दिया गया है, यह कि वे भी भ्रष्ट एवं अहंकारी हैं, और उनकी आराधना नहीं करना है, और यह कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितना अच्छा करते हैं, यह सब परमेश्वर को ऊंचा उठाने के कारण है और वह है जो उन्हें वैसे भी करना ही चाहिए। वे ऐसी बातों को क्यों नहीं कहते हैं? क्योंकि वे लोगों के हृदयों में अपने स्थान खोने के विषय में बहुत अधिक डरे हुए हैं। इसी लिए ऐसे लोग परमेश्वर को कभी ऊँचा नहीं उठाते हैं और परमेश्वर के लिए कभी गवाही नहीं देते हैं, चूँकि उन्होंने परमेश्वर को समझने की कभी कोशिश नहीं की है। क्या वे परमेश्वर को समझे बिना ही उसे जान सकते हैं? असंभव! इस प्रकार, जबकि "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर" के विषय में वचन साधारण हो सकते हैं, प्रत्येक के लिए उनका अर्थ अलग होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए जो अकसर परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करता है, परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, और परमेश्वर के प्रति अत्यंत उग्र है, इसका अर्थ दंडाज्ञा है; जबकि ऐसे व्यक्ति के लिए जो सत्य की वास्तविकता को खोजता है और जो अकसर परमेश्वर की इच्छा को खोजने के लिए परमेश्वर के सम्मुख आता है, तो वह निःसन्देह मछली के लिए जल के समान है। अतः तुम लोगों के बीच में, जब कोई परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के कार्य के विषय में की गई बातचीत को सुनता है, तो उन्हें सिरदर्द होने लगता है, उनके हृदय प्रतिरोध से भर जाते हैं, और वे अत्यधिक बेचैन हो जाते हैं। लेकिन तुम लोगों में से कुछ ऐसे भी होंगे जो सोचते हैं: यह विषय बिलकुल वैसा है जैसी मुझे आवश्यकता है, क्योंकि यह विषय मेरे लिए बहुत लाभदायक है। यह एक ऐसा हिस्सा है जो मेरे जीवन के अनुभव से गुम नहीं हो सकता है; यह मूल बिंदु का मूल बिंदु है, परमेश्वर में विश्वास का आधार है, और यह कुछ ऐसा है जिसे त्यागना मानवजाति सहन नहीं कर सकती है। तुम लोगों के लिए, हो सकता है कि यह विषय निकट एवं दूर दोनों, एवं अनजान फिर भी सुपरिचित लगे। किन्तु चाहे जो भी हो, यह एक ऐसा विषय है जिसे यहाँ पर बैठे हुए हर एक को ध्यान से सुनना होगा, जानना होगा, और समझना होगा। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि तुम इसके साथ कैसा व्यवहार करते हो, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि तुम इसे कैसे देखते हो या तुम इसे कैसे ग्रहण करते हो, क्योंकि इस विषय के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

मानवजाति की सृष्टि करने के समय से ही परमेश्वर अपना कार्य करता रहा है। शुरूआत में, कार्य बहुत साधारण था, लेकिन फिर भी, इसमें अभी भी परमेश्वर के सार एवं स्वभाव की अभिव्यक्ति शामिल है। अब जबकि परमेश्वर के कार्य को, उसके प्रत्येक व्यक्ति जो उसका अनुसरण करते हैं उनके भीतर बड़ी मात्रा में ठोस कार्य करने के द्वारा ऊँचा किया गया है, और जो आदि से लेकर अब तक उचित मात्रा में अपने वचनों को अभिव्यक्त कर रहा है, फिर भी परमेश्वर के स्वरूप को मानवजाति से छिपाया गया है। हालाँकि वह दो बार देहधारण कर चुका है, फिर भी बाइबल के लेखों के समय से लेकर हाल के दिनों तक, किसने कभी परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को देखा है? तुम लोगों की समझ के आधार पर, क्या कभी किसी ने परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को देखा है? नहीं। किसी ने भी परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को नहीं देखा है, अर्थात् किसी ने भी परमेश्वर के असल रूप को कभी नहीं देखा है। यह कुछ ऐसा है जिसके साथ हर कोई सहमत है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व, या परमेश्वर का आत्मा सारी मानवता से छिपा हुआ है, जिसमें आदम और हव्वा शामिल हैं, जिन्हें उसने बनाया था, और जिसमें धर्मी अय्यूब शामिल है, जिसे उसने स्वीकार किया था। यहाँ तक कि उन्होंने भी परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व (स्वरूप) को नहीं देखा था। लेकिन क्यों परमेश्वर जान-बूझकर अपने वास्तविक व्यक्तित्व को ढंकता है? कुछ लोग कहते हैं: "परमेश्वर लोगों को भयभीत करने से डरता है।" दूसरे कहते हैं: "परमेश्वर अपने वास्तविक व्यक्तित्व को छुपाता है क्योंकि मनुष्य बहुत छोटा है और परमेश्वर बहुत बड़ा है; मनुष्यों को उसे देखने की अनुमति नहीं दी गई है, अन्यथा वे मर जाएँगे।" कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं: "परमेश्वर हर दिन अपने कार्य का प्रबंधन करने में व्यस्त रहता है, शायद उसके पास प्रकट होने के लिए समय नहीं है कि लोगों को उसे देखने की अनुमति मिले।" इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि तुम लोग क्या विश्वास करते हो, यहाँ मेरे पास एक निष्कर्ष है। वह निष्कर्ष क्या है? यह ऐसा है कि परमेश्वर भी नहीं चाहता है कि लोग उसके वास्तविक व्यक्तित्व को देखें। मानवता से छिपा रहना कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर जान-बूझकर करता है। दूसरे शब्दों में, लोगों के लिए परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि वे उसके वास्तविक व्यक्तित्व को न देखें। अब तक यह सब को स्पष्ट हो जाना चाहिए। यदि परमेश्वर ने अपने व्यक्तित्व को कभी किसी को नहीं दिखाया है, तो क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर का व्यक्तित्व अस्तित्व में है? (वह अस्तित्व में है।) हाँ वास्तव में वह अस्तित्व में है। परमेश्वर के व्यक्तित्व का अस्तित्व निर्विवादित है। किन्तु जहाँ तक यह बात है कि परमेश्वर का व्यक्तित्व कितना बड़ा है या वह कैसा दिखता है, क्या ये वे प्रश्न हैं जिनकी मानवजाति को छानबीन करनी चाहिए? नहीं। उत्तर नकारात्मक है। यदि परमेश्वर का स्वरूप ऐसा विषय नहीं है जिसकी छानबीन की जाना चाहिए, तो फिर वह कौन सा प्रश्न है जिस पर हमें विचार करना चाहिए? (परमेश्वर का स्वभाव।) (परमेश्वर का कार्य।) इससे पहले कि हम आधिकारिक विषय पर बातचीत करना शुरू करें, फिर भी, आइए हम उसी विषय पर वापस लौटें जिस पर हम उस समय चर्चा कर रहे थे: क्यों परमेश्वर ने मानवजाति को कभी अपना व्यक्तित्व नहीं दिखाया है? परमेश्वर क्यों जान-बूझकर अपने व्यक्तित्व को मानवजाति से छिपाता है? सिर्फ एक ही कारण है, और वह है: यद्यपि सृजा गया मनुष्य परमेश्वर के कार्य के हज़ारों वर्षों के दौरान रहा है, फिर भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के सार को जानता है। परमेश्वर की नज़रों में ऐसे लोग उसके विरुद्ध हैं, और परमेश्वर अपने आप को ऐसे लोगों को नहीं दिखाएगा जो उसके प्रति अत्यंत उग्र हैं। यही वह एकमात्र कारण है कि परमेश्वर ने अपने व्यक्तित्व को कभी मानवजाति को नहीं दिखाया है और क्यों वह जान-बूझकर अपने व्यक्तित्व को उनसे बचा कर रखता है। क्या अब तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव को जानने के महत्व के बारे में स्पष्ट हो?

परमेश्वर के प्रबंधन के अस्तित्व के समय से ही, वह अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमेशा ही पूरी तरह से समर्पित रहा है। उनसे अपने व्यक्तित्व को पर्दे में छिपाने के बावजूद, वह हमेशा मनुष्य के अगल बगल ही रहा है, उन पर कार्य करता रहा है, अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है, अपने सार से समूची मानवजाति की अगुवाई करता रहा है, और अपनी सामर्थ, अपनी बुद्धि, और अपने अधिकार के माध्यम से हर एक व्यक्ति पर अपना कार्य करता रहा है, इस प्रकार वह व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग, और अब राज्य के युग को अस्तित्व में लाता है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य से अपने व्यक्तित्व को छुपाता है, फिर भी उसके स्वभाव, उसके अस्तित्व, और मानवजाति के प्रति उसकी इच्छा को सादगी से मनुष्य पर देखने एवं अनुभव करने के लिए प्रकट किया गया है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि मानव परमेश्वर को देख या स्पर्श नहीं कर सकता है, फिर भी परमेश्वर का स्वभाव एवं परमेश्वर का सार जिसके सम्पर्क में मानवता रही है वे पूरी तरह से स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह सत्य नहीं है? इसके बावजूद कि परमेश्वर किस तरीके से एवं किस कोण से अपना कार्य करता है, वह हमेशा लोगों से अपनी सच्ची पहचान के अनुसार बर्ताव करता है, ऐसा कार्य करता है जिसे करने की उससे अपेक्षा की जाती है और वैसी बातें कहता है जिसे कहने की उससे अपेक्षा की जाती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर किस स्थान से बोलता है—वह तीसरे आसमान में खड़ा हो सकता है, या देह में खड़ा हो सकता है, या यहाँ तक कि एक साधारण व्यक्ति के रूप में भी—वह बिना किसी छल या छिपाव के हमेशा अपने सारे हृदय और अपने सारे मन के साथ मनुष्य से बोलता है। जब वह अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, परमेश्वर अपने वचन एवं अपने स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और बिना किसी प्रकार के सन्देह के जो वह है उसे प्रकट करता है। वह अपने जीवन और अपने अस्तित्व के साथ मानवजाति की अगुवाई करता है। इसी तरह से मनुष्य ने व्यवस्था के युग—मानवता का पालन युग—के दौरान अदृश्य एवं अनछुए परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन जीवन बिताया था।

व्यवस्था के युग के बाद पहली बार परमेश्वर ने देह धारण किया था, ऐसा देह धारण जो साढ़े तैंतीस वर्षों तक बना रहा। एक मनुष्य के लिए, क्या साढ़े तैंतीस साल का समय एक लम्बा समय है? (इतना लम्बा नहीं है।) जबकि किसी मानव प्राणी की जीवन अवधि सामान्यत: तीस या ऐसे कुछ सालों से कहीं ज़्यादा लम्बी होती है, यह मनुष्य के लिए एक बहुत ही लम्बा समय नहीं है। किन्तु देहधारी परमेश्वर के लिए, ये साढ़े तैंतीस साल बहुत ही लम्बा है। वह एक व्यक्ति बन गया—एक साधारण व्यक्ति जिसने परमेश्वर के कार्य और आदेश को अपने ऊपर उठाया था। इसका अर्थ था कि उसे ऐसा कार्य करना था जिसे एक सामान्य व्यक्ति संभाल नहीं सकता है, जबकि उसने पीड़ा को भी सहन किया जिसका सामना सामान्य लोग नहीं कर सकते हैं। अनुग्रह के युग के दौरान प्रभु यीशु के द्वारा सहन की गई पीड़ा की मात्रा, उसके कार्य की शुरूआत से लेकर उस समय तक जब उसे क्रूस पर कीलों से जड़ दिया गया था, शायद यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे आज के लोग किसी व्यक्ति में देख सकते थे, किन्तु क्या तुम लोग कम से कम बाइबल की कहानियों के जरिए इसकी थोड़ी सराहना कर सकते हो? इसकी परवाह किए बगैर कि इन लिखित तथ्यों में कितने विवरण हैं, कुल मिलाकर, इस समयावधि के दौरान परमेश्वर का कार्य कष्ट एवं पीड़ा से भरा हुआ था। एक भ्रष्ट मनुष्य के लिए, साढ़े तैंतीस साल का समय एक लम्बा समय नहीं है; थोड़ी सी पीड़ा कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन पवित्र, निष्कलंक परमेश्वर के लिए, जिसे सारी मानवजाति के पापों को सहना है, और जिसे पापियों के साथ खाना, सोना और रहना है, यह पीड़ा बहुत ही बड़ी है। वह सृष्टिकर्ता, सभी चीज़ों का स्वामी और सब कुछ का शासक है, फिर भी जब वह संसार में आया तो उसे भ्रष्ट मनुष्यों के अत्याचार एवं क्रूरता को सहना पड़ा था। अपने कार्य को पूर्ण करने और मानवता को दुर्गति से छुड़ाने के लिए, उसे मनुष्य के द्वारा दोषी ठहराया जाना था, और उसे सारी मानवजाति के पापों को उठाना था। पीड़ा की मात्रा जिससे होकर वह गुज़रा था उसकी गहराई को संभवतः साधारण लोगों के द्वारा नापा एवं सराहा नहीं जा सकता है। यह पीड़ा क्या दर्शाती है? यह मनुष्य जाति के लिए परमेश्वर के अत्यधिक प्रेम को दर्शाती है। यह उस अपमान के लिए है जिसे उसने सहा था और उस कीमत के लिए है जिसे उसने मनुष्य के उद्धार के लिए, उनके पापों से उन्हें छुड़ाने के लिए, और अपने कार्य के इस चरण को पूर्ण करने के लिए चुकाया था। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य परमेश्वर के द्वारा क्रूस से छुड़ाया जाएगा। यह एक ऐसी कीमत है जिसे लहू से, एवं जीवन से चुकाया गया है, यह एक ऐसी कीमत है जिसे सृजे गए प्राणी नहीं दे सकते हैं। यह इसलिए है क्योंकि उसके पास परमेश्वर का सार है और वह परमेश्वर के स्वरूप से सुसज्जित है जिससे वह इस प्रकार की पीड़ा और इस प्रकार के कार्य को सहन कर सकता है। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई भी सृजा गया प्राणी उसके स्थान पर नहीं कर सकता है। अनुग्रह के युग के दौरान यह परमेश्वर का कार्य है और उसके स्वभाव का एक प्रकाशन है। क्या यह जो परमेश्वर है उसके विषय में कोई चीज़ प्रकट करता है? क्या यह इस योग्य है कि मानवजाति इसे जाने?

उस युग में, यद्यपि मनुष्य ने परमेश्वर के व्यक्तित्व को नहीं देखा था, फिर भी उन्होंने परमेश्वर के पाप के बलिदान को प्राप्त किया था और उन्हें परमेश्वर के द्वारा क्रूस से छुड़ाया गया था। हो सकता है कि मानवजाति उस कार्य से अपरिचित नहीं थी जिसे अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर ने किया था, लेकिन क्या कोई उस स्वभाव एवं इच्छा से परिचित था जिसे परमेश्वर के द्वारा इस समयावधि के दौरान अभिव्यक्त किया गया था? विभिन्न युगों के दौरान विभिन्न माध्यमों के जरिए मनुष्य महज परमेश्वर के कार्य की विषय-वस्तु को ही जानता है, या परमेश्वर से सम्बन्धित उन कहानियों को जानता है जो उसी समय घटित हुई थीं जब परमेश्वर अपने कार्य को क्रियान्वित कर रहा था। ये विवरण एवं कहानियाँ ज़्यादा से ज़्यादा परमेश्वर के विषय में कुछ सूचना या प्राचीन कथाएँ हैं, और इनका परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के साथ कोई वास्ता नहीं है। अतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोग परमेश्वर के बारे में कितनी कहानियाँ जानते हैं, इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास परमेश्वर के स्वभाव या उसके सार की एक गहरी समझ एवं ज्ञान है। जैसा यह व्यवस्था के युग में था, यद्यपि ऐसे लोग जो अनुग्रह के युग से थे उन्होंने देहधारी परमेश्वर के साथ बहुत ही करीबी एवं घनिष्ठ सम्पर्क का अनुभव किया था, फिर भी परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के सार के विषय में उनका ज्ञान वस्तुतः अस्तित्वहीन था।

राज्य के युग में, परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया, उसी प्रकार से जैसा उसने पहली बार किया था। कार्य की इस समयावधि के दौरान, परमेश्वर अब भी अपने कार्य को सादगी से अभिव्यक्त करता है, उस कार्य को करता है जिसे उसे करना चाहिए, जो वह है उसे प्रकट करता है। ठीक उसी समय, वह मनुष्य की अनाज्ञाकारिता एवं अज्ञानता को निरन्तर सहता एवं बर्दाश्त करता है। क्या इस समयावधि के दौरान भी परमेश्वर ने निरन्तर अपने स्वभाव को प्रकट नहीं किया है और अपनी इच्छा को अभिव्यक्त नहीं किया है? इसलिए, मनुष्य की सृष्टि से लेकर अब तक, परमेश्वर का स्वभाव, उसका अस्तित्व, और उसकी इच्छा, वे हमेशा से ही प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुले हुए हैं। परमेश्वर ने कभी भी जानबूझकर अपने सार, अपने स्वभाव, या अपनी इच्छा को नहीं छुपाया है। यह सिर्फ ऐसा है कि मानवजाति इसकी परवाह नहीं करती कि परमेश्वर क्या कर रहा है, उसकी इच्छा क्या है—इसी लिए परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ इतनी दयनीय है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर अपने व्यक्तित्व (स्वरूप) को छिपाता है, तो वह हर एक क्षण मानवजाति के साथ खड़ा भी हो रहा है, और सभी समयों पर खुले तौर पर अपनी इच्छा, स्वभाव एवं सार को पेश भी कर रहा है। एक अर्थ में, परमेश्वर का व्यक्तित्व (स्वरूप) भी सभी लोगों के लिए खुला हुआ है, लेकिन मनुष्य के अंधेपन एवं अनाज्ञाकारिता के कारण, वे हमेशा परमेश्वर के रूप को देखने में असमर्थ होते हैं। अतः यदि स्थिति ऐसी है, तो क्या प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर को समझना आसान नहीं होना चाहिए? उत्तर देने के लिए यह एक बहुत ही कठिन प्रश्न है, सही है? तुम लोग कह सकते हो कि यह आसान है, लेकिन जबकि कुछ लोग परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं, वे वास्तव में उसे नहीं जान सकते हैं या उसके विषय में एक स्पष्ट समझ प्राप्त नहीं कर सकते हैं—यह हमेशा से ही धुंधला एवं अस्पष्ट होता है। किन्तु यदि तुम लोग कहो कि यह आसान नहीं है, तो वह भी सही नहीं है। इतने लम्बे समय तक परमेश्वर के कार्य का विषय होने के बाद, प्रत्येक के पास अपने अनुभवों के माध्यम से परमेश्वर के साथ वास्तविक व्यवहार होना चाहिए। उन्हें कम से कम अपने हृदयों में कुछ हद तक परमेश्वर का एहसास करना चाहिए था या उन्हें पहले आत्मिक स्तर पर परमेश्वर के साथ टकराना चाहिए था, और इस प्रकार उनके पास कम से कम परमेश्वर के स्वभाव के विषय में थोड़ी बहुत भावनात्मक जागरूकता होनी चाहिए थी या उन्हें उसकी कुछ समझ प्राप्त करनी चाहिए थी। जब मनुष्य ने परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू किया था उस समय से लेकर अब तक, मानवजाति ने बहुत कुछ प्राप्त किया है, लेकिन सभी प्रकार के कारणों की वजह से—मानवजाति की कम क्षमता, अज्ञानता, विद्रोहीपन एवं विभिन्न इरादे—मानवजाति ने इसमें से बहुत कुछ को खो भी दिया है। क्या परमेश्वर ने मानवजाति को पहले से ही काफी कुछ नहीं दिया है? यद्यपि परमेश्वर अपने व्यक्तित्व (स्वरूप) को मनुष्यों से छुपाता है, फिर भी अपने स्वरूप से, और यहाँ तक कि अपने जीवन से भी उनकी आपूर्ति करता है; परमेश्वर के विषय में मानवता का ज्ञान केवल उतना ही नहीं होना चाहिए जितना अब है। इसीलिए मैं सोचता हूँ कि परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव, एवं स्वयं परमेश्वर के विषय में तुम लोगों के साथ आगे संगति करना आवश्यक है। इसका उद्देश्य यह है ताकि हज़ारों सालों की देखभाल एवं विचार वह व्यर्थ में ही समाप्त न हो जाए, और ताकि मानवजाति उनके प्रति परमेश्वर की इच्छा को सचमुच में समझ सके और उसकी सराहना कर सके। यह इसलिए है ताकि लोग परमेश्वर के विषय में अपने ज्ञान में एक नए कदम की ओर आगे बढ़ सकें। साथ ही यह परमेश्वर को लोगों के हृदयों में अपने असली स्थान पर वापस लौटाएगा, अर्थात्, उसके साथ इंसाफ करने के लिए।

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