परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

भाग तीन

परमेश्वर मनुष्य के परिणाम और परिणाम-निर्धारण के मानकों को कैसे तय करता है

इससे पहले कि तुम्हारा अपना कोई दृष्टिकोण या निष्कर्ष हो, तुम्हें सबसे पहले अपने प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति को और वह क्या सोच रहा है, इसे समझना चाहिए, और तब तुम्हें निर्णय लेना चाहिए कि तुम्हारी सोच सही है या नहीं। परमेश्वर ने मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए कभी भी समय का माप की इकाई के रूप में उपयोग नहीं किया है, और न ही कभी उसने परिणाम निर्धारित करने के लिए किसी व्यक्ति द्वारा सहे गए कष्ट की मात्रा का उपयोग किया है। तब परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए मानक के रूप में किसका उपयोग करता है? समय के आधार पर परिणाम-निर्धारण लोगों की धारणाओं के सर्वाधिक अनुरूप होता है। इसके अलावा, ऐसे लोग अक्सर नज़र आ जाएँगे, जिन्होंने किसी समय बहुत कुछ समर्पित किया था, खुद को बहुत खपाया था, बड़ी कीमत चुकायी थी, और बहुत कष्ट सहा था। ये वे लोग हैं जिन्हें, तुम लोगों की दृष्टि में, परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है। जो कुछ ये लोग दिखाते हैं और जीते हैं, वह मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने के लिए परमेश्वर द्वारा तय मानकों के बारे में लोगों की धारणाओं के अनुरूप है। तुम लोग चाहे जो मानो, मैं एक-एक करके इन उदाहरणों को सूचीबद्ध नहीं करूँगा। संक्षेप में, अगर कोई चीज़ परमेश्वर की सोच के अनुसार मानक नहीं है, तो वह मनुष्य की कल्पना की उपज है और ऐसी सारी चीज़ें उसकी धारणाएँ हैं। अगर तुम आँख बंद करके अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर ही ज़ोर देते रहो, तो क्या परिणाम होगा? स्पष्ट रूप से, इसका परिणाम केवल परमेश्वर के द्वारा तुम्हें ठुकराना हो सकता है। क्योंकि तुम हमेशा परमेश्वर के सामने अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हो, परमेश्वर से स्पर्धा करते हो, और उससे बहस करते हो, तुम लोग परमेश्वर की सोच को समझने का प्रयास नहीं करते, न ही तुम मानवजाति के प्रति परमेश्वर की इच्छा और प्रवृत्ति को समझने की कोशिश करते हो। इस तरह तुम सबसे अधिक अपना सम्मान बढ़ाते हो, परमेश्वर का नहीं। तुम स्वयं में विश्वास करते हो, परमेश्वर में नहीं। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं चाहता, न ही वह उनका उद्धार करेगा। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण त्याग सको, और अतीत के अपने उन गलत दृष्टिकोणों को सुधार लो, यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आगे बढ़ सको, अगर तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अभ्यास कर सको, अगर तुम सभी चीज़ों में परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करो, खुद को और परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए अपनी निजी कल्पनाओं, दृष्टिकोणों या आस्था का सहारा न लो, बल्कि सभी मायनों में परमेश्वर के इरादों की खोज करो, मानवता के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति का एहसास करो और समझो, परमेश्वर के मानकों पर खरा उतरकर परमेश्वर को संतुष्ट करो, तो यह शानदार बात होगी! इसका अर्थ यह होगा कि तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर कदम रखने वाले हो।

अगर परमेश्वर लोगों के सोचने के ढंग, उनके विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए एक मानक के रूप में नहीं करता, तो वह किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है? वह मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परीक्षणों का उपयोग करता है। मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने हेतु परमेश्वर के परीक्षणों का उपयोग करने के दो मानक हैं : पहला तो परीक्षणों की संख्या है जिनसे होकर लोग गुज़रते हैं, और दूसरा मानक इन परीक्षणों का लोगों पर परिणाम है। ये दो सूचक हैं जो मनुष्य का परिणाम निर्धारित करते हैं। आओ, अब हम इन दो मानकों पर विस्तार से बात करें।

सबसे पहले, जब परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण करता है (नोट: यह संभव है कि तुम्हारी नज़र में यह परीक्षण छोटा-सा हो और उल्लेख करने लायक भी न हो), तो परमेश्वर तुम्हें स्पष्ट रूप से अवगत कराएगा कि तुम्हारे ऊपर परमेश्वर का हाथ है, और उसी ने तुम्हारे लिए इस परिस्थिति की व्यवस्था की है। तुम्हारे आध्यात्मिक कद की अपरिपक्वता की स्थिति में ही, परमेश्वर तुम्हारी जाँच करने के लिए परीक्षणों की व्यवस्था करेगा। ये परीक्षण तुम्हारे आध्यात्मिक कद, और तुम जो कुछ समझने और सहन करने योग्य हो, उसके अनुरूप होते हैं। तुम्हारे कौन-से हिस्से की जाँच की जाएगी? परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति की जाँच की जाएगी। क्या यह प्रवृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है? निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण है! इसका विशेष महत्व है! मनुष्य की यह प्रवृत्ति ही वो परिणाम है जो परमेश्वर चाहता है, इसलिए जहाँ तक परमेश्वर की बात है, यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। वरना परमेश्वर इस तरह के कार्य में लगकर लोगों पर अपने प्रयास व्यर्थ नहीं करता। इन परीक्षणों के माध्यम से परमेश्वर अपने प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति देखना चाहता है; वह देखना चाहता है कि तुम सही पथ पर हो या नहीं। वह यह भी देखना चाहता है कि तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह रहे हो या नहीं। इसलिए, समय-विशेष पर चाहे तुम बहुत-सा सत्य समझो या थोड़ा-सा, तुम्हें परमेश्वर के परीक्षण का सामना तो करना ही होगा, और जैसे-जैसे तुम अधिक सत्य समझने लगोगे, परमेश्वर उसी के अनुरूप तुम्हारे लिए परीक्षणों की व्यवस्था करता रहेगा। और जब फिर से तुम्हारा सामना किसी परीक्षण से होगा, तो परमेश्वर देखना चाहेगा कि इस बीच तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारे विचार, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति में कोई विकास हुआ है या नहीं। कुछ लोग सोचते हैं, "परमेश्वर हमेशा लोगों की प्रवृत्ति क्यों देखना चाहता है? क्या उसने देखा नहीं कि लोग किस प्रकार सत्य को अभ्यास में लाते हैं? वह अभी भी लोगों की प्रवृत्ति क्यों देखना चाहता है?" यह निरर्थक बात है! चूँकि परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है, तो ज़रूर उसमें परमेश्वर की इच्छा निहित होगी। परमेश्वर हमेशा किनारे रहकर लोगों को देखता है, उनके हर शब्द और कर्म को देखता है, उनके हर कर्म और कृत्य पर नज़र रखता है; उनकी हर सोच और हर विचार का भी अवलोकन करता है। वो लोगों के साथ होने वाली हर घटना को ध्यान में रखता है—उनके नेक कर्मों को, उनके दोषों को, उनके अपराधों को, यहाँ तक कि उनके विद्रोह और विश्वासघात को भी—परमेश्वर उनके परिणाम को निर्धारित करने के लिए इन्हें सबूत के रूप में अपने पास रखता है। जैसे-जैसे परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ेगा, तुम ज़्यादा से ज़्यादा सत्य सुनकर ज़्यादा से ज़्यादा सकारात्मक बातों और जानकारी को स्वीकार करोगे, और तुम अधिक से अधिक सत्य की वास्तविकता प्राप्त करोगे। इस प्रक्रिया के दौरान, तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ भी बढ़ेंगी। उसके साथ-साथ, परमेश्वर तुम्हारे लिए और भी कठिन परीक्षणों की व्यवस्था करेगा। उसका लक्ष्य यह जाँच करना है कि इस बीच परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति में कोई विकास हुआ है या नहीं। निश्चित रूप से, इस दौरान, परमेश्वर तुमसे जिस दृष्टिकोण की अपेक्षा करता है, वह सत्य-वास्तविकता की तुम्हारी समझ के अनुरूप होगा।

जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, वैसे-वैसे वह मानक भी बढ़ता जाएगा जिसकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। जब तक तुम अपरिपक्व हो, तब तक परमेश्वर तुम्हें एक बहुत ही निम्न मानक देगा; जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद थोड़ा बड़ा होगा, तो परमेश्वर तुम्हें थोड़ा ऊँचा मानक देगा। परन्तु जब तुम सारे सत्य समझ जाओगे तब परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर तुमसे और भी अधिक बड़े परीक्षणों का सामना करवाएगा। इन परीक्षणों के बीच, परमेश्वर जो कुछ तुमसे पाना चाहता है, जो कुछ तुमसे देखना चाहता है, वो है परमेश्वर के बारे में तुम्हारा गहन ज्ञान और उसके प्रति तुम्हारी सच्ची श्रद्धा। इस समय, तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पहले की तुलना में, जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद अपरिपक्व था, और ऊँची और "अधिक कठोर" होंगी (नोट : लोग शायद इसे कठोर मानें, परन्तु परमेश्वर इसे तर्कसंगत मानता है।) जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो परमेश्वर किस प्रकार की वास्तविकता की रचना करना चाहता है? परमेश्वर लगातार चाहता है कि लोग उसे अपना हृदय दें। कुछ लोग कहेंगे : "मैं अपना हृदय कैसे दे सकता हूँ? मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, अपना घर-बार, रोज़ी-रोटी त्याग दी, खुद को खपा दिया! क्या ये सब परमेश्वर को अपना हृदय देने के उदाहरण नहीं हैं? मैं और कैसे परमेश्वर को अपना हृदय दूँ? क्या ऐसा हो सकता है कि वास्तव में ये तरीके परमेश्वर को अपना हृदय देने के नहीं थे? परमेश्वर की विशिष्ट अपेक्षा क्या है?" अपेक्षा बहुत साधारण है। वास्तव में, कुछ लोग परीक्षणों के अलग-अलग चरणों में विभिन्न स्तर पर अपना हृदय पहले ही परमेश्वर को दे चुके होते हैं, परन्तु ज़्यादातर लोग अपना हृदय परमेश्वर को कभी नहीं देते। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब वह देखता है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के साथ है, शरीर के साथ है, या शैतान के साथ है। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब परमेश्वर देखता है कि तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो या तुम ऐसी स्थिति में खड़े हो जो परमेश्वर के अनुरूप है, और वह यह देखता है कि तुम्हारा हृदय उसकी तरफ है या नहीं। जब तुम अपरिपक्व होते हो और परीक्षणों का सामना कर रहे होते हो, तब तुम्हारा आत्मविश्वास बहुत ही कम होता है, और तुम्हें ठीक से पता नहीं होता कि वह क्या है जिससे तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें सत्य की एक सीमित समझ है। लेकिन अगर तुम ईमानदारी और सच्चाई से परमेश्वर से प्रार्थना करो, परमेश्वर को अपना हृदय देने के लिए तैयार हो जाओ, परमेश्वर को अपना अधिपति बना सको, और वे चीज़ें अर्पित करने के लिए तैयार हो जाओ जिन्हें तुम अत्यंत बहुमूल्य मानते हो, तो तुम पहले ही उसे अपना दिल दे चुके हो। जब तुम अधिक धर्मोपदेश सुनोगे, और अधिक सत्य समझोगे, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद भी धीरे-धीरे परिपक्व होता जाएगा। इस समय तुमसे परमेश्वर की वे अपेक्षाएँ नहीं होंगी जो तब थीं जब तुम अपरिपक्व थे; उसे तुमसे अधिक ऊँचे स्तर की अपेक्षा होगी। जैसे-जैसे लोग परमेश्वर को अपना हृदय देते हैं, वह परमेश्वर के निकटतर आते हैं; जब लोग सचमुच परमेश्वर के निकट आ जाते हैं, तो उनका हृदय परमेश्वर के प्रति और भी अधिक श्रद्धा रखने लगता है। परमेश्वर को ऐसा ही हृदय चाहिए।

जब परमेश्वर किसी का हृदय पाना चाहता है, तो वह उसकी अनगिनत परीक्षाएँ लेता है। इन परीक्षणों के दौरान, यदि परमेश्वर उस व्यक्ति के हृदय को नहीं पाता है, या वह उस व्यक्ति में किसी तरह की प्रवृति नहीं देखता—यानी वह उस व्यक्ति को उस तरह से अभ्यास या व्यवहार करते नहीं देखता जिससे परमेश्वर के प्रति उसकी श्रद्धा नज़र आए, और अगर उसे उस व्यक्ति में बुराई से दूर रहने की प्रवृत्ति तथा दृढ़ता नज़र न आए—तो अनगिनत परीक्षणों के बाद, ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का धैर्य टूट जाएगा, और वह उसे बर्दाश्त नहीं करेगा, उसका परीक्षण नहीं लेगा और उस पर कार्य नहीं करेगा। तो उस व्यक्ति के परिणाम के लिए इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उसका कोई परिणाम नहीं होगा। संभव है ऐसे व्यक्ति ने कुछ बुरा न किया हो; संभव है उसने कोई रुकावट या परेशानी पैदा करने के लिए कुछ न किया हो। शायद उसने खुलकर परमेश्वर का प्रतिरोध न किया हो। लेकिन ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर से छिपा रहता है; परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति और दृष्टिकोण कभी स्पष्ट नहीं रहा है, परमेश्वर स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता कि उसका हृदय परमेश्वर को दिया गया है या नहीं या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने का प्रयास कर रहा है या नहीं? ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का धैर्य जवाब देने लगता है, और अब वह उनके लिए कोई कीमत नहीं चुकायेगा, वह उन पर दया नहीं करेगा, या उन पर कार्य नहीं करेगा। ऐसे व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास का जीवन पहले ही समाप्त हो चुका होता है। क्योंकि उन सभी परीक्षणों में जो परमेश्वर ने इस व्यक्ति को दिए हैं, परमेश्वर ने वह परिणाम प्राप्त नहीं किया जो वह चाहता है। इस प्रकार, ऐसे बहुत से लोग हैं जिनमें मैंने कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी नहीं देखी। इसे देखना कैसे संभव है? शायद इस प्रकार के व्यक्तियों ने बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, और सतही तौर पर वे बहुत सक्रिय रहे हों, उनका व्यवहार काफी जोशीला रहा हो; उन्होंने बहुत-सी पुस्तकें पढ़ी हों, बहुत से मामलों को सँभाला हो, दर्जनों नोटबुक भर दी हों, और बहुत से वचनों और सिद्धान्तों पर महारत हासिल कर ली हो। लेकिन, उनमें कभी कोई स्पष्ट प्रगति नहीं हुई, परमेश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण अदृश्य रहता है, और उनकी प्रवृत्ति अभी भी अस्पष्ट है। यानी ऐसे व्यक्तियों के हृदय को नहीं देखा जा सकता; वे हमेशा ढके हुए और सीलबंद लिफाफे की तरह रहते हैं—वे परमेश्वर के प्रति सीलबंद रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि परमेश्वर ने उनके सच्चे हदय को कभी देखा ही नहीं होता, उसने अपने प्रति ऐसे व्यक्ति में सच्ची श्रद्धा कभी देखी ही नहीं, और तो और उसने कभी नहीं देखा कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के मार्ग पर कैसे चलता है। यदि अब तक भी परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति को प्राप्त नहीं किया है, तो क्या वह उन्हें भविष्य में प्राप्त कर सकता है? नहीं! क्या परमेश्वर उन चीज़ों के लिए प्रयास करता रहेगा जिन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता? नहीं! तब ऐसे लोगों के प्रति आज परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? (वह उन्हें ठुकरा देता है, उन पर ध्यान नहीं देता।) वह उन्हें अनदेखा कर देता है! परमेश्वर ऐसे लोगों पर ध्यान नहीं देता; वह उन्हें ठुकरा देता है। तुम लोगों ने इन बातों को बहुत शीघ्रता से, बहुत सटीकता से याद कर लिया है। ऐसा लगता है कि जो कुछ तुम लोगों ने सुना है वह सब तुम्हारी समझ में आ गया!

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो परमेश्वर के अनुसरण के आरंभ में, अपरिपक्व और अज्ञानी होते हैं; वे परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते; न ही वे यह समझते हैं कि उसमें विश्वास करने का क्या अर्थ है। वे परमेश्वर में विश्वास करने, उसका अनुसरण करने के मानव-निर्मित और गलत मार्ग को अपना लेते हैं। जब इस प्रकार के व्यक्ति का सामना किसी परीक्षण से होता है, तो उन्हें इसका पता ही नहीं होता; वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता के प्रति सुन्न होते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर को अपना हृदय देना क्या होता है, या किसी परीक्षण के दौरान दृढ़ता से खड़ा रहना क्या होता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को सीमित समय देगा, और इस दौरान, वह उन्हें समझने देगा कि उसके परीक्षण और इरादे क्या हैं। बाद में, इन लोगों को अपना दृष्टिकोण प्रदर्शित करना होता है। जो लोग इस चरण में हैं, उनकी परमेश्वर अभी भी प्रतीक्षा कर रहा है। जहाँ तक उनकी बात है जिनके कुछ दृष्टिकोण तो हैं फिर भी डगमगाते रहते हैं, जो अपना हृदय परमेश्वर को देना तो चाहते हैं किन्तु ऐसा करने के लिए सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाए हैं, जो कुछ मूल सत्यों को अभ्यास में लाने के बावजूद, किसी बड़े परीक्षण से सामना होने पर, छुपना और हार मान लेना चाहते हैं—उन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों से थोड़ी-बहुत अपेक्षा रखता है। परिणाम उनके दृष्टिकोण एवं प्रदर्शन पर निर्भर करता है। यदि लोग प्रगति करने के लिए सक्रिय नहीं होते तो परमेश्वर क्या करता है? वह उनसे आशा रखना छोड़ देता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के तुमसे आशा छोड़ने से पहले ही तुमने स्वयं से आशा छोड़ दी है। इस प्रकार, ऐसा करने के लिए तुम परमेश्वर को दोष नहीं दे सकते, है न? क्या यह उचित है? (हाँ, उचित है।)

व्यावहारिक प्रश्न लोगों में तरह-तरह की उलझनें पैदा करता है

एक अन्य प्रकार का व्यक्ति होता है जिसका परिणाम सबसे अधिक दुःखद होता है; यह ऐसा व्यक्ति होता है जिसकी चर्चा मैं कम से कम करना चाहता हूँ। दुःखद होने का कारण यह नहीं है कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से दण्ड प्राप्त करता है या उससे परमेश्वर की अपेक्षाएँ कठोर होती हैं इसलिए उसका परिणाम दुःखद होता है; बल्कि, दुःखद होने कारण यह है कि वह खुद ही अपने लिए ऐसा करता है। जैसी कि आम कहावत है, ऐसे लोग अपनी कब्र खुद खोदते हैं। ये किस प्रकार के व्यक्ति होते हैं? ऐसे लोग सही पथ पर नहीं चलते, और उनका परिणाम पहले से ही उजागर कर दिया जाता है। परमेश्वर की नज़र में ऐसे लोग बेहद घृणा के पात्र होते हैं। इंसानी नज़रिये से ऐसे लोग बहुत ही दयनीय होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति जब परमेश्वर का अनुसरण करने लगते हैं तो वे बेहद उत्साहित रहते हैं; वे बहुत कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर के कार्य की संभावनाओं पर उनकी राय काफी अच्छी होती है; और जब बात उनके भविष्य की हो, तो वे भरपूर कल्पनाएँ करते हैं। उनमें परमेश्वर को लेकर बहुत आत्मविश्वास होता है, उन्हें यह विश्वास होता है कि परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करके एक गौरवमय मंज़िल प्रदान कर सकता है। फिर भी कारण कोई भी हो, ऐसे व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के दौरान पलायन कर जाते हैं। यहाँ "पलायन कर जाते हैं" से क्या अभिप्राय है? इसका अर्थ है कि वे बिना अलविदा कहे, बिना आवाज़ किए गायब हो जाते हैं; वे बिना कुछ कहे चले जाते हैं। यद्यपि इस प्रकार के व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करने का दावा करते हैं, फिर भी वे परमेश्वर पर विश्वास करने के पथ पर दृढ़ नहीं होते। इस प्रकार, चाहे उन्होंने कितने ही समय तक विश्वास किया हो, वे कभी भी परमेश्वर से दूर जा सकते हैं। कुछ लोग कारोबार की खातिर चले जाते हैं, कुछ अपने ढंग से जीवन जीने के लिए छोड़कर चले जाते हैं, कुछ लोग धनवान बनने के लिए छोड़कर चले जाते हैं, कुछ लोग विवाह करके संतान प्राप्ति के लिए चले जाते हैं...। जो लोग चले जाते हैं उनमें से, कुछ ऐसे होते हैं जिनका विवेक बाद में उन्हें कचोटता है और वे वापस आना चाहते हैं, और कुछ ऐसे होते हैं जो मुश्किल हालात में जीवन गुज़ारते हैं, और साल दर साल भटकते रहते हैं। ये भटकने वाले लोग बहुत से कष्ट उठाते हैं, उन्हें लगता है कि संसार में रहना बहुत कष्टदायी है, और वे परमेश्वर से अलग नहीं रह सकते। वे लोग आराम, शांति एवं आनंद पाने के लिए परमेश्वर के घर में लौटना चाहते हैं, आपदाओं से बचने, या उद्धार और एक खूबसूरत मंज़िल पाने के लिए परमेश्वर में लगातार विश्वास बनाए रखना चाहते हैं। क्योंकि ये लोग मानते हैं कि परमेश्वर का प्रेम असीम है, उसका अनुग्रह अक्षय है। उन्हें लगता है कि किसी व्यक्ति ने कुछ भी क्यों न किया हो, परमेश्वर को उन्हें क्षमा कर देना चाहिए और उनके अतीत के बारे में सहनशील होना चाहिए। ये लोग बारंबार यही कहते हैं कि वे वापस आकर काम करना चाहते हैं। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो अपनी संपत्ति का कुछ भाग कलीसिया को दे देते हैं, और आशा करते हैं कि इससे परमेश्वर के घर उनकी वापसी आसान हो जाएगी। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है? परमेश्वर को उनका परिणाम कैसे निर्धारित करना चाहिए? खुलकर बोलो। (मुझे लगता था कि परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को स्वीकार करेगा, पर अब सुनकर लगता है कि वह उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।) और तुम्हारा तर्क क्या है? (ऐसे लोग परमेश्वर के समक्ष इसलिए आते हैं ताकि उनका परिणाम मृत्यु न हो। वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखने नहीं आते; वे इसलिए आते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि परमेश्वर का कार्य शीघ्र पूरा हो जाएगा, तो वे इस भ्रम में रहते हैं कि वे आकर आशीष पा सकते हैं।) तुम कह रहे हो कि ऐसे व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, अतः परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं कर सकता, है न? (हाँ।) (मेरी समझ से इस प्रकार के व्यक्ति अवसरवादी होते हैं, और वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते।) वे परमेश्वर में विश्वास करने नहीं आए हैं; वे अवसरवादी हैं। सही कहा! ऐसे अवसरवादी लोगों से हर कोई नफ़रत करता है। जिस दिशा में हवा बहती है वे उसी दिशा में बह जाते हैं, और तब तक किसी कार्य को करने की परवाह नहीं करते जब तक कि उन्हें उससे कुछ प्राप्त नहीं होता। निश्चित रूप से वे घृणित हैं! किसी और भाई-बहन की कोई और राय है? (परमेश्वर उन्हें अब और स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने को है और इस समय लोगों के परिणाम तय किए जा रहे हैं। ऐसे समय में ये लोग वापस आना चाहते हैं—इसलिए नहीं कि वे वास्तव में सत्य की खोज करना चाहते हैं, बल्कि वे इसलिए वापस आना चाहते हैं क्योंकि वे आपदाएँ आते हुए देखते हैं, या वे बाहरी चीज़ों से प्रभावित हो रहे हैं। यदि उनमें वास्तव में ऐसा हृदय होता जिसमें सत्य खोजने की इच्छा होती, तो वे परमेश्वर के कार्य को बीच में ही छोड़कर न भागे होते।) क्या कोई अन्य राय है? (उन्हें स्वीकार नहीं किया जाएगा। दरअसल परमेश्वर ने उन्हें पहले ही अवसर दिया था लेकिन उन्होंने परमेश्वर के प्रति लापरवाही का रवैया बनाए रखा। ऐसे व्यक्तियों के इरादे चाहे कुछ भी न हों, भले ही वे पश्चाताप कर लें, परमेश्वर उन्हें तब भी स्वीकार नहीं करेगा। क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें बहुत सारे अवसर दिए थे, लेकिन उन्होंने अपनी प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर दिया है : वे परमेश्वर को छोड़ देना चाहते थे। इसलिए, अब अगर वापस आएँगे, तो परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।) (मैं भी यह स्वीकार करती हूँ कि परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि यदि किसी व्यक्ति ने सच्चे मार्ग को देख लिया है, इतनी लम्बी समयावधि तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लिया है, और तब भी संसार में वापस लौट जाता है, और शैतान को अंगीकार कर लेता है, तो यह परमेश्वर के साथ एक बड़ा विश्वासघात है। इस तथ्य के बावजूद कि परमेश्वर का सार करुणा है, प्रेम है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस सार का लक्ष्य कैसा व्यक्ति है। यदि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के समक्ष आराम की खोज में या किसी ऐसी चीज़ की खोज में आता है जिससे वो उम्मीद लगा सके, तो परमेश्वर में ऐसे व्यक्ति का विश्वास सच्चा नहीं है, और उस पर परमेश्वर की दया वहीं तक सीमित रहती है।) अगर परमेश्वर का सार करुणा है, तो वह ऐसे व्यक्ति को थोड़ी और करुणा क्यों नहीं दे देता? थोड़ी और करुणा से, क्या उसे एक अवसर नहीं मिल जाएगा? पहले, प्रायः ऐसा कहा जाता था कि परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले। यदि सौ में से एक भेड़ खो जाए, तो परमेश्वर निन्यानवे भेड़ों को छोड़ देगा और उस खोई हुई एक को खोजेगा। अब, जहाँ तक ऐसे व्यक्ति का सवाल है, यदि उसका विश्वास सच्चा है, तो क्या परमेश्वर को उसे स्वीकार करना और एक और अवसर देना चाहिए? यह कोई कठिन प्रश्न नहीं है; यह बिलकुल सरल है! यदि तुम लोग सच में परमेश्वर को समझते हो और तुम्हें परमेश्वर की वास्तविक समझ है, तो अधिक व्याख्या की आवश्यकता नहीं है; और अधिक अनुमान लगाने की भी आवश्यकता नहीं है, ठीक है न? तुम लोगों के उत्तर सही दिशा में हैं, लेकिन वे अभी भी परमेश्वर की प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं हैं।

अभी तुममें से कुछ लोगों ने कहा कि परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं कर सकता। अन्य लोग अधिक स्पष्ट नहीं हैं, उन्हें लगता है कि हो सकता है परमेश्वर उन्हें स्वीकार कर ले, और यह भी हो सकता है कि उन्हें स्वीकार न करे—यह थोड़ा बीच का रवैया है। तुममें से कुछ लोग आशा करते हैं कि परमेश्वर इस प्रकार के लोगों को स्वीकार कर ले—यह और भी ज़्यादा अस्पष्ट प्रवृत्ति है। निश्चित सोच वाले लोग विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने इतने समय तक कार्य किया है और उसका कार्य पूरा हो चुका है, अतः परमेश्वर को इन लोगों के प्रति सहिष्णु होने की आवश्यकता नहीं है; इसलिए तुम्हें लगता है कि वह उन्हें दोबारा स्वीकार नहीं करेगा। जो लोग बीच की सोच रखते हैं, मानते हैं कि इन मामलों को उनकी व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुसार सँभाला जाना चाहिए; यदि ऐसे लोगों के हदय परमेश्वर से अविभाज्य हैं, और वे अभी भी ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में सचमुच विश्वास करते हैं, और सत्य की खोज करते हैं, तो परमेश्वर को उनकी पिछली दुर्बलताओं और दोषों को याद नहीं रखना चाहिए; उसे उन्हें क्षमा करके एक और अवसर देना चाहिए, परमेश्वर के घर में वापस आने देना चाहिए, और परमेश्वर से उद्धार ग्रहण करने देना चाहिए। लेकिन अगर ऐसा व्यक्ति फिर से भाग जाता है, तब परमेश्वर को उसकी आवश्यकता नहीं होगी और इसे उसके प्रति अन्याय करना नहीं माना जा सकता। एक और समूह है जो उम्मीद करता है कि परमेश्वर ऐसे व्यक्तियों को स्वीकार कर सके। यह समूह स्पष्ट रूप से नहीं जानता कि परमेश्वर उन्हें स्वीकार करेगा या नहीं। यदि उन्हें लगता है कि परमेश्वर को उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए, किन्तु परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि वे परमेश्वर के दृष्टिकोण की अनुरूपता से थोड़ा अलग हैं। यदि उन्हें लगता है कि परमेश्वर को उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए, और परमेश्वर कहता है कि मनुष्य के प्रति उसका प्रेम असीम है और वह ऐसे व्यक्ति को एक और अवसर देने का इच्छुक है, तो क्या यह मानवीय अज्ञानता को उजागर करने का उदाहरण नहीं है? खैर, तुम लोगों का अपना दृष्टिकोण है। तुम्हारी इस तरह की राय से तुम्हारी सोच में जिस तरह का ज्ञान है, उसका पता चलता है; साथ ही वे तुम लोगों की सत्य और परमेश्वर की इच्छा की समझ की गहराई का भी प्रतिबिम्ब है। सही कहा न? अच्छा है कि इस मसले पर तुम लोगों की कोई राय है! परन्तु तुम लोगों की राय सही है या नहीं, यह प्रश्न अभी भी बना हुआ है। तुम सब लोग थोड़ा चिंतित हो न? "तो सही क्या है? मैं स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा और सच में नहीं जानता कि परमेश्वर क्या सोच रहा है? परमेश्वर ने मुझे कुछ नहीं बताया है। मैं कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर क्या सोच रहा है? मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति प्रेम है। अतीत में परमेश्वर की प्रवृत्ति के अनुसार, उसे इस व्यक्ति को स्वीकार करना चाहिए। किन्तु मैं परमेश्वर की वर्तमान प्रवृत्ति को लेकर अधिक स्पष्ट नहीं हूँ; मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि हो सकता है कि वह ऐसे व्यक्ति को स्वीकार कर ले, और यह भी हो सकता है कि न करे।" यह हास्यास्पद है, है ना? इस सवाल ने तुम लोगों को वास्तव में उलझा दिया है। यदि इस मसले पर तुम लोगों के पास एक उचित नज़रिया नहीं है, तब तुम लोग क्या करोगे जब सचमुच कलीसिया का सामना किसी ऐसे व्यक्ति से होगा? यदि तुम इसे सही ढंग से संभाल नहीं पाए, तो हो सकता है कि तुम लोग परमेश्वर का अपमान कर बैठो। क्या यह एक ख़तरनाक मामला नहीं है?

मैंने अभी जिस मामले पर चर्चा की है, मैं उस पर तुम लोगों का दृष्टिकोण क्यों जानना चाहता था? मैं तुम्हारी राय जाँचना चाहता था, जाँचना चाहता था कि तुम लोगों को परमेश्वर का कितना ज्ञान है, परमेश्वर के इरादों और प्रवृत्ति का कितना ज्ञान है। उत्तर क्या है? उत्तर खुद तुम्हारी राय में निहित है। तुममें से कुछ बहुत रूढ़िवादी हैं, और कुछ लोग अन्दाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे हैं। "अन्दाज़ा लगाना" क्या है? इसका मतलब है तुम्हें पता नहीं कि परमेश्वर कैसे सोचता है, अतः तुम लोग निराधार विचार रख रहे हो कि परमेश्वर को इस तरह सोचना चाहिए; दरअसल तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारा अनुमान सही है या गलत, अतः तुम अस्पष्ट दृष्टिकोण व्यक्त करते हो। इस तथ्य से सामना होने पर तुमने क्या देखा? परमेश्वर का अनुसरण करते समय, लोग परमेश्वर की इच्छा, विचारों और मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति पर कभी-कभार ही ध्यान देते हैं। लोग परमेश्वर के विचारों को नहीं समझते, अतः जब परमेश्वर के इरादों और स्वभाव पर प्रश्न पूछे जाते हैं, तो तुम लोग हड़बड़ा जाते हो; फिर गहरी अनिश्चितता की स्थिति में पड़ जाते हो और फिर या तो अनुमान लगाते हो या दाँव खेलते हो। यह किस तरह की मानसिकता है? इससे एक तथ्य तो साबित होता है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोग उसे हवाबाज़ी समझते हैं और ऐसी चीज़ समझते हैं जिसका एक पल अस्तित्व है और अगले ही पल नहीं है। मैंने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि जब भी तुम लोगों के सामने समस्या आती है, तो तुम लोग परमेश्वर की इच्छा को नहीं जानते। क्यों नहीं जानते? बस अभी नहीं, बल्कि तुम तो आरंभ से लेकर अंत तक नहीं जानते कि इस समस्या को लेकर परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है। तुम नहीं जान सकते, तुम नहीं जानते कि परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है, लेकिन क्या तुमने उस पर विचार किया है? क्या तुमने जानने की कोशिश की है? क्या तुमने उस पर संगति की है? नहीं! इससे एक तथ्य की पुष्टि होती है : तुम्हारे विश्वास के परमेश्वर का वास्तविकता के परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में, तुम केवल अपने और अपने अगुआओं के इरादों पर विचार करते हो; और परमेश्वर के वचन के केवल शाब्दिक एवं सैद्धांतिक अर्थ पर विचार करते हो, मगर सच में परमेश्वर की इच्छा को जानने और खोजने की कोशिश नहीं करते। क्या ऐसा ही नहीं होता है? इस मामले का सार बहुत डरावना है! मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को देखा है। उनके विश्वास ने परमेश्वर को उनके मन में क्या आकार दिया है? कुछ लोग तो परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं मानो वह मात्र हवाबाज़ी हो। इन लोगों के पास परमेश्वर के अस्तित्व के प्रश्नों के बारे में कोई उत्तर नहीं होता क्योंकि वे परमेश्वर की उपस्थिति या अनुपस्थिति को महसूस नहीं कर पाते, न ही उसका बोध कर पाते हैं, इसे साफ-साफ देखने या समझने की तो बात ही छोड़ दो। अवचेतन रूप से, ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। कुछ लोग परमेश्वर को मनुष्य समझते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन सभी कार्यों को करने में असमर्थ है जिन्हें करने में वे भी असमर्थ हैं, और परमेश्वर को वैसा ही सोचना चाहिए जैसा वे सोचते हैं। उनकी परमेश्वर की परिभाषा एक "अदृश्य और अस्पर्शनीय व्यक्ति" की है। कुछ लोग परमेश्वर को कठपुतली समझते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर के अंदर कोई भावनाएँ नहीं होतीं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर मिट्टी की एक मूर्ति है, और जब कोई समस्या आती है, तो परमेश्वर के पास कोई प्रवृत्ति, कोई दृष्टिकोण, कोई विचार नहीं होता; वे मानते हैं कि वह मानवजाति की दया पर है। जो दिल चाहे लोग उस पर विश्वास कर लेते हैं। यदि वे उसे महान बनाते हैं, तो वह महान हो जाता है; वे उसे छोटा बनाते हैं, तो वह छोटा हो जाता है। जब लोग पाप करते हैं और उन्हें परमेश्वर की दया, सहिष्णुता और प्रेम की आवश्यकता होती है, वे मानते हैं कि परमेश्वर को अपनी दया प्रदान करनी चहिए। ये लोग अपने मन में एक "परमेश्वर" को गढ़ लेते हैं, और फिर उस "परमेश्वर" से अपनी माँगें पूरी करवाते हैं और अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करवाते हैं। ऐसे लोग कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करें, वे परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में, और परमेश्वर में अपने विश्वास में इसी कल्पना का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी होते हैं, जो परमेश्वर के स्वभाव को भड़काकर भी सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें बचा सकता है, क्योंकि वे मानते हैं कि परमेश्वर का प्रेम असीम है, उसका स्वभाव धार्मिक है, चाहे कोई परमेश्वर का कितना भी अपमान करे, परमेश्वर कुछ याद नहीं रखेगा। उन्हें लगता है चूँकि मनुष्य के दोष, अपराध, और उसकी अवज्ञा इंसान के स्वभाव की क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, इसलिए परमेश्वर लोगों को अवसर देगा, और उनके साथ सहिष्णु एवं धैर्यवान रहेगा; परमेश्वर तब भी उनसे पहले की तरह प्रेम करेगा। अतः वे अपने उद्धार की आशा बनाए रखते हैं। वास्तव में, चाहे कोई व्यक्ति परमेश्वर पर कैसे भी विश्वास करे, अगर वह सत्य की खोज नहीं करता, तो परमेश्वर उसके प्रति नकारात्मक प्रवृत्ति रखेगा। क्योंकि जब तुम परमेश्वर पर विश्वास कर रहे होते हो उस समय, भले ही तुम परमेश्वर के वचन की पुस्तक को संजोकर रखते हो, तुम प्रतिदिन उसका अध्ययन करते हो, उसे पढ़ते हो, फिर भी तुम वास्तविक परमेश्वर को दरकिनार कर देते हो। तुम उसे निरर्थक मानते हो, या मात्र एक व्यक्ति मानते हो, और तुममें से कुछ तो उसे केवल एक कठपुतली ही समझते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जिस प्रकार से मैं इसे देखता हूँ, उसमें चाहे तुम लोगों का सामना किसी मसले से हो या किसी परिस्थिति से, वे बातें जो तुम्हारे अवचेतन मन में मौजूद होती हैं, जिन बातों को तुम भीतर ही भीतर विकसित करते हो, उनमें से किसी का भी संबंध परमेश्वर के वचन से या सत्य की खोज करने से नहीं होता। तुम केवल वही जानते हो जो तुम स्वयं सोच रहे होते हो, जो तुम्हारा अपना दृष्टिकोण होता है, और फिर तुम अपने विचारों, और दृष्टिकोण को ज़बरदस्ती परमेश्वर पर थोप देते हो। तुम्हारे मन में वह परमेश्वर का दृष्टिकोण बन जाता है, और तुम इस दृष्टिकोण को मानक बना लेते हो जिसे तुम दृढ़ता से कायम रखते हो। समय के साथ, इस प्रकार का चिंतन तुम्हें परमेश्वर से निरंतर दूर करता चला जाता है।

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