भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है (भाग दो)

मनुष्य को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, मनुष्य ही परमेश्वर के जीवधारियों में श्रेष्ठतम है, इसलिए मनुष्य को परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है। परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य मनुष्य है, शैतान नहीं, और जिसे बचाया जाएगा वह मनुष्य की देह और आत्मा है, शैतान नहीं। शैतान परमेश्वर के विनाश का लक्ष्य है और मनुष्य परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य है। मनुष्य के देह को शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है, इसलिए सबसे पहले मनुष्य की देह को ही बचाया जाएगा। मनुष्य की देह को इतना ज़्यादा भ्रष्ट किया जा चुका है कि वह परमेश्वर का इस हद तक विरोध करती है कि वह खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध कर बैठती है और उसके अस्तित्व को ही नकारती है। यह भ्रष्ट देह बेहद अड़ियल है, देह के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने और उसे परिवर्तित करने से ज़्यादा कठिन और कुछ भी नहीं। शैतान परेशानियाँ खड़ी करने के लिए मनुष्य की देह में आता है, और परमेश्वर के कार्य में व्यवधान उत्पन्न करने और उसकी योजना को बाधित करने के लिए मनुष्य की देह का उपयोग करता है। इस प्रकार इंसान शैतान बनकर परमेश्वर का शत्रु हो गया है। मनुष्य को बचाने के लिए, पहले उस पर विजय पानी होगी। इसी चुनौती से निपटने के लिए परमेश्वर जो कार्य करने का इरादा रखता है, उसकी खातिर देह में आता है और शैतान के साथ युद्ध करता है। उसका उद्देश्य भ्रष्ट मनुष्य का उद्धार, शैतान की पराजय और उसका विनाश है, जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करता है। परमेश्वर मनुष्य पर विजय पाने के अपने कार्य के माध्यम से शैतान को पराजित करता है, और साथ ही भ्रष्ट मनुष्यजाति को भी बचाता है। इस प्रकार, यह एक ऐसा कार्य है जो एक ही समय में दो लक्ष्यों को प्राप्त करता है। इंसान के साथ बेहतर ढंग से जुड़ने और उस पर विजय पाने के लिए वह देह में रहकर कार्य करता है, देह में रहकर बात करता है और देह में रहकर समस्त कार्यों की शुरुआत करता है। अंतिम बार जब परमेश्वर देहधारण करेगा, तो अंत के दिनों के उसके कार्य को देह में पूरा किया जाएगा। वह सभी मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत करेगा, अपने सम्पूर्ण प्रबंधन को समाप्त करेगा, और साथ ही देह में अपने समस्त कार्यों को भी पूरा करेगा। पृथ्वी पर उसके सभी कार्यों के समाप्त हो जाने के बाद, वह पूरी तरह से विजयी हो जाएगा। देह में कार्य करते हुए, परमेश्वर मनुष्यजाति को पूरी तरह से जीत लेगा और उसे प्राप्त कर लेगा। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका समस्त प्रबंधन समाप्त हो चुका होगा? शैतान को पूरी तरह से हराने और विजयी होने के बाद, जब परमेश्वर देह में अपने कार्य का समापन करेगा, तो शैतान के पास मनुष्य को भ्रष्ट करने का फिर और कोई अवसर नहीं होगा। परमेश्वर के प्रथम देहधारण का कार्य छुटकारा और मनुष्य के पापों को क्षमा करना था। अब यह मनुष्यजाति को जीतने और पूरी तरह से प्राप्त करने का कार्य है, ताकि शैतान के पास अपना कार्य करने का कोई मार्ग न बचेगा, और वह पूरी तरह से हार चुका होगा, और परमेश्वर पूरी तरह से विजयी हो चुका होगा। यह देह का कार्य है, और स्वयं परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के शुरुआती कार्य को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के द्वारा किया गया था, देह के द्वारा नहीं। लेकिन, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अंतिम कार्य देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाता है, पवित्रात्मा द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया जाता। मध्यवर्ती चरण का छुटकारे का कार्य भी देह में परमेश्वर के द्वारा किया गया था। समस्त प्रबंधन कार्य के दौरान, सबसे महत्वपूर्ण कार्य शैतान के प्रभाव से मनुष्य को बचाना है। मुख्य कार्य भ्रष्ट मनुष्य पर सम्पूर्ण विजय है, इस प्रकार जीते गए मनुष्य के हृदय में परमेश्वर के प्रति मूल श्रद्धा बहाल करना, और उसे एक सामान्य जीवन, यानी परमेश्वर के एक प्राणी का सामान्य जीवन प्राप्त करने देना है। यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, और प्रबंधन कार्य का मूल है। उद्धार के कार्य के तीन चरणों में, व्यवस्था के युग का प्रथम चरण प्रबंधन कार्य के मूल से काफी दूर था; इसमें उद्धार के कार्य का केवल हल्का-सा आभास था, यह शैतान के अधिकार क्षेत्र से मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य का आरम्भ नहीं था। कार्य का पहला चरण सीधे तौर पर पवित्रात्मा के द्वारा किया गया था क्योंकि, व्यवस्था के अन्तर्गत, मनुष्य केवल व्यवस्था का पालन करना जानता था, उसके अंदर अधिक सत्य नहीं था, और चूँकि व्यवस्था के युग के कार्य में मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन करना शामिल नहीं था, वह मनुष्य को शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बचाने के कार्य से तो और भी संबंधित नहीं था। इस प्रकार परमेश्वर के आत्मा ने कार्य के इस अत्यंत सरल चरण को पूरा किया था जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित नहीं था। प्रबंधन के मूल से इस चरण के कार्य का कोई संबंध नहीं था, इसका मनुष्य के उद्धार के आधिकारिक कार्य से कोई बड़ा संबंध नहीं था, और इसलिए निजी तौर पर इस कार्य को करने के लिए परमेश्वर को देहधारण करने की आवश्यकता नहीं थी। पवित्रात्मा द्वारा किया गया कार्य अप्रत्यक्ष और अथाह है, यह मनुष्य के लिए भयावह और अगम्य है; पवित्रात्मा उद्धार के कार्य को करने और मनुष्य को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने के लिए उपयुक्त नहीं है। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है पवित्रात्मा के कार्य को ऐसे उपमार्ग में रूपान्तरित करना जो मनुष्य के करीब हो, यानी जो मनुष्य के लिए अत्यंत उपयुक्त है वह यह है कि परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए एक साधारण, सामान्य व्यक्ति बन जाए। इसके लिए आवश्यक है कि पवित्रात्मा के कार्य का स्थान लेने के लिए परमेश्वर देहधारण करे, और मनुष्य के लिए, कार्य करने हेतु परमेश्वर के पास इससे अधिक उपयुक्त मार्ग नहीं है। कार्य के इन तीन चरणों में से, दो चरणों को देह के द्वारा सम्पन्न किया जाता है, और ये दो चरण प्रबंधन कार्य की मुख्य अवस्थाएँ हैं। दो देहधारण परस्पर पूरक हैं और एक दूसरे की बढ़िया ढंग से अनुपूर्ति भी करते हैं। परमेश्वर के देहधारण के प्रथम चरण ने द्वितीय चरण की नींव डाली, ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के दोनों देहधारण एक पूर्ण इकाई बनाते हैं, और एक-दूसरे से असंगत नहीं हैं। परमेश्वर के कार्य के इन दो चरणों को परमेश्वर द्वारा अपनी देहधारी पहचान में कार्यान्वित किया जाता है क्योंकि वे समस्त प्रबंधन के कार्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लगभग ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के दो देहधारणों के कार्य के बिना, समस्त प्रबंधन कार्य थम गया होता, और मनुष्यजाति को बचाने का कार्य खोखली बातों के सिवाय और कुछ न होता। यह कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं, यह मनुष्यजाति की आवश्यकताओं, उसकी कलुषता की वास्तविकता, शैतान की अवज्ञा की गंभीरता और कार्य में उसके व्यवधान पर आधारित है। कार्य करने में सक्षम सही व्यक्ति को कार्यकर्ता द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति, और कार्य के महत्व पर निर्दिष्ट किया जाता है। जब इस कार्य के महत्व की बात आती है कि इस सम्बन्ध में कार्य के कौन से तरीके को अपनाया जाए—परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया गया कार्य, या देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य, या मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य—तो सबसे पहले इंसान के माध्यम से किए गए कार्य को हटाया जाता है, और फिर कार्य की प्रकृति, पवित्रात्मा के कार्य की प्रकृति बनाम देह के कार्य की प्रकृति के आधार पर, अंततः यह निर्णय लिया जाता है कि पवित्रात्मा द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य की अपेक्षा देह के द्वारा किया गया कार्य मनुष्य के लिए अधिक लाभदायक है और अधिक लाभ प्रदान करता है। जब परमेश्वर ने यह निर्णय लिया कि कार्य पवित्रात्मा के द्वारा किया जाएगा या देह के द्वारा तो उस समय परमेश्वर के मन में यह विचार आया था। कार्य के प्रत्येक चरण का एक अर्थ और एक आधार होता है। वे आधारहीन कल्पनाएँ नहीं होतीं, न ही उन्हें मनमाने ढंग से कार्यान्वित किया जाता है; उनमें एक विशेष बुद्धि होती है। परमेश्वर के समस्त कार्य के पीछे की यह सच्चाई है। विशेष रूप से, ऐसे बड़े कार्य में परमेश्वर की और भी बड़ी योजना होती है क्योंकि देहधारी परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से लोगों के बीच में कार्य कर रहा है। इसलिए, प्रत्येक क्रिया, विचार और मत में परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वरूप की समग्रता प्रतिबिम्बित होती है; यह परमेश्वर का बेहद मूर्त और सुव्यवस्थित स्वरूप है। इंसान के लिए इन गूढ़ विचारों और मतों की कल्पना करना और उन पर विश्वास करना बेहद कठिन है और इन्हें जानना तो और भी कठिन है। इंसान जो काम करता है, वह सामान्य सिद्धान्त के अनुसार किया जाता है, जो उसके लिए अत्यंत संतोषजनक होता है। लेकिन परमेश्वर के कार्य की तुलना में, इसमें बहुत बड़ी असमानता दिखाई देती है; हालाँकि परमेश्वर के कर्म महान होते हैं और उसके कार्य भव्य पैमाने पर होते हैं, फिर भी उनके पीछे अनेक सूक्ष्म और सटीक योजनाएँ और व्यवस्थाएँ होती हैं जो मनुष्य के लिए अकल्पनीय हैं। उसके कार्य का प्रत्येक चरण न केवल सिद्धान्त के अनुसार किया जाता है, बल्कि प्रत्येक चरण में अनेक ऐसी चीज़ें होती हैं जिन्हें मानवीय भाषा में स्पष्टता से व्यक्त नहीं किया जा सकता, और ये चीज़ें इंसान के लिए अदृश्य होती हैं। यह कार्य चाहे पवित्रात्मा का हो या देहधारी परमेश्वर का, प्रत्येक में उसके कार्य की योजनाएँ निहित हैं, वह बिना किसी आधार के कार्य नहीं करता, और निरर्थक कार्य नहीं करता। जब पवित्रात्मा सीधे तौर पर कार्य करता है तो वह उसके लक्ष्यों के अनुसार होता है, और जब वह कार्य करने के लिए मनुष्य बनता है (यानी जब वह अपने बाहरी आवरण को रूपान्तरित करता है), तो उसमें उसका उद्देश्य और भी ज़्यादा निहित होता है। अन्यथा वह इतनी तत्परता से अपनी पहचान क्यों बदलेगा? वह इतनी तत्परता से ऐसा व्यक्ति क्यों बनेगा जिसे निकृष्ट माना जाता है और जिसे यातना दी जाती है?

देह में उसका कार्य बहुत सार्थक है, यह कार्य के सम्बन्ध में कहा जाता है, और अंततः देहधारी परमेश्वर ही कार्य का समापन करता है, पवित्रात्मा नहीं। कुछ लोग मानते हैं कि परमेश्वर किसी अनजान समय पृथ्वी पर आकर लोगों को दिखाई दे सकता है, जिसके बाद वह व्यक्तिगत रूप से संपूर्ण मनुष्यजाति का न्याय करेगा, एक-एक करके सबकी परीक्षा लेगा, कोई भी नहीं छूटेगा। जो लोग इस ढंग से सोचते हैं, वे देहधारण के इस चरण के कार्य को नहीं जानते। परमेश्वर एक-एक करके मनुष्य का न्याय नहीं करता, एक-एक करके उनकी परीक्षा नहीं लेता; ऐसा करना न्याय का कार्य नहीं होगा। क्या समस्त मनुष्यजाति की भ्रष्टता एक समान नहीं है? क्या पूरी मनुष्यजाति का सार समान नहीं है? न्याय किया जाता है इंसान के भ्रष्ट सार का, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए इंसानी सार का, और इंसान के सारे पापों का। परमेश्वर मनुष्य के छोटे-मोटे और मामूली दोषों का न्याय नहीं करता। न्याय का कार्य निरूपक है, और किसी व्यक्ति-विशेष के लिए कार्यान्वित नहीं किया जाता। बल्कि यह ऐसा कार्य है जिसमें समस्त मनुष्यजाति के न्याय का प्रतिनिधित्व करने के लिए लोगों के एक समूह का न्याय किया जाता है। देहधारी परमेश्वर लोगों के एक समूह पर व्यक्तिगत रूप से अपने कार्य को कार्यान्वित करके, इस कार्य का उपयोग संपूर्ण मनुष्यजाति के कार्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए करता है, जिसके बाद यह धीरे-धीरे फैलता जाता है। न्याय का कार्य ऐसा ही है। परमेश्वर किसी व्यक्ति-विशेष या लोगों के किसी समूह-विशेष का न्याय नहीं करता, बल्कि संपूर्ण मनुष्यजाति की अधार्मिकता का न्याय करता है—उदाहरण के लिए, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का विरोध, या उसके प्रति मनुष्य का अनादर, या परमेश्वर के कार्य में व्यवधान इत्यादि। जिसका न्याय किया जाता है वो है इंसान का परमेश्वर-विरोधी सार, और यह कार्य अंत के दिनों का विजय-कार्य है। देहधारी परमेश्वर का कार्य और वचन जिनकी गवाही इंसान देता है, वे अंत के दिनों के दौरान बड़े श्वेत सिंहासन के सामने न्याय के कार्य हैं, जिसकी कल्पना इंसान के द्वारा अतीत में की गई थी। देहधारी परमेश्वर द्वारा वर्तमान में किया जा रहा कार्य वास्तव में बड़े श्वेत सिंहासन के सामने न्याय है। आज का देहधारी परमेश्वर वह परमेश्वर है जो अंत के दिनों के दौरान संपूर्ण मनुष्यजाति का न्याय करता है। यह देह और उसका कार्य, उसका वचन और उसका समस्त स्वभाव उसकी समग्रता हैं। यद्यपि उसके कार्य का दायरा सीमित है, और उसमें सीधे तौर पर संपूर्ण विश्व शामिल नहीं है, फिर भी न्याय के कार्य का सार संपूर्ण मनुष्यजाति का प्रत्यक्ष न्याय है—यह कार्य केवल चीन के चुने हुए लोगों के लिए नहीं, न ही यह थोड़े-से लोगों के लिए है। देह में परमेश्वर के कार्य के दौरान, यद्यपि इस कार्य के दायरे में संपूर्ण ब्रह्माण्ड नहीं है, फिर भी यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है, जब वह अपनी देह के कार्य के दायरे में उस कार्य को समाप्त कर लेगा तो उसके बाद, वह तुरन्त ही इस कार्य को संपूर्ण ब्रह्माण्ड में उसी तरह से फैला देगा जैसे यीशु के पुनरूत्थान और आरोहण के बाद उसका सुसमाचार सारी दुनिया में फैल गया था। चाहे यह पवित्रात्मा का कार्य हो या देह का कार्य, यह ऐसा कार्य है जिसे एक सीमित दायरे में किया जाता है, परन्तु जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। अन्त के दिनों में, परमेश्वर देहधारी रूप में प्रकट होकर अपना कार्य करता है, और देहधारी परमेश्वर ही वह परमेश्वर है जो बड़े श्वेत सिंहासन के सामने मनुष्य का न्याय करता है। चाहे वह आत्मा हो या देह, जो न्याय का कार्य करता है वही ऐसा परमेश्वर है जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्य का न्याय करता है। इसे उसके कार्य के आधार पर परिभाषित किया जाता है, न कि उसके बाहरी रंग-रूप या दूसरी बातों के आधार पर। यद्यपि इन वचनों के बारे में मनुष्य की धारणाएँ हैं, लेकिन कोई भी देहधारी परमेश्वर के न्याय और संपूर्ण मनुष्यजाति पर विजय के तथ्य को नकार नहीं सकता। इंसान चाहे कुछ भी सोचे, मगर तथ्य आखिरकार तथ्य ही हैं। कोई यह नहीं कह सकता है कि "कार्य परमेश्वर द्वारा किया जाता है, परन्तु देह परमेश्वर नहीं है।" यह बकवास है, क्योंकि इस कार्य को देहधारी परमेश्वर के सिवाय और कोई नहीं कर सकता। चूँकि इस कार्य को पहले ही पूरा किया जा चुका है, इसलिए इस कार्य के बाद मनुष्य के लिए परमेश्वर के न्याय का कार्य दूसरी बार प्रकट नहीं होगा; अपने दूसरे देहधारण में परमेश्वर ने पहले ही संपूर्ण प्रबंधन के समस्त कार्य का समापन कर लिया है, इसलिए परमेश्वर के कार्य का चौथा चरण नहीं होगा। क्योंकि जिसका न्याय किया जाता है वह मनुष्य है, मनुष्य जो कि हाड़-माँस का है और भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान की आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, इसलिए न्याय का कार्य आध्यात्मिक संसार में कार्यान्वित नहीं किया जाता, बल्कि मनुष्यों के बीच किया जाता है। मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रकट परमेश्वर से अधिक उपयुक्त और कोई योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाए, तो यह सर्वव्यापी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन होता है, क्योंकि पवित्रात्मा मनुष्य के रूबरू आने में असमर्थ है, और इस वजह से, प्रभाव तत्काल नहीं होते, और मनुष्य परमेश्वर के अपमान न किए जाने योग्य स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिलकुल भी सक्षम नहीं होता। यदि देह में प्रकट परमेश्वर मनुष्यजाति की भ्रष्टता का न्याय करे तभी शैतान को पूरी तरह से हराया जा सकता है। मनुष्य के समान सामान्य मानवता धारण करने वाला बन कर ही, देह में प्रकट परमेश्वर सीधे तौर पर मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय कर सकता है; यही उसकी जन्मजात पवित्रता, और उसकी असाधारणता का चिन्ह है। केवल परमेश्वर ही मनुष्य का न्याय करने के योग्य है, और उसका न्याय करने की स्थिति में है, क्योंकि वह सत्य और धार्मिकता को धारण किए हुए है, और इस प्रकार वह मनुष्य का न्याय करने में समर्थ है। जो सत्य और धार्मिकता से रहित हैं वे दूसरों का न्याय करने लायक नहीं हैं। यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा द्वारा किया जाता, तो इसका अर्थ शैतान पर विजय नहीं होता। पवित्रात्मा अंतर्निहित रूप से ही नश्वर प्राणियों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है, और परमेश्वर का आत्मा अंतर्निहित रूप से पवित्र है, और देह पर विजय प्राप्त किए हुए है। यदि पवित्रात्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य की समस्त अवज्ञा का न्याय नहीं कर पाता, और उसकी सारी अधार्मिकता को प्रकट नहीं कर पाता। क्योंकि न्याय के कार्य को परमेश्वर के बारे में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से भी कार्यान्वित किया जाता है, और मनुष्य के अंदर कभी भी पवित्रात्मा के बारे में कोई धारणाएँ नहीं रही हैं, इसलिए पवित्रात्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रकट करने में असमर्थ है, वह ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते। अपने प्रति मनुष्य की धारणाओं और विरोध का न्याय करके, वह मनुष्यजाति की सारी अवज्ञा का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक स्पष्ट होते हैं। इसलिए, संपूर्ण मनुष्यजाति के न्याय को पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देहधारी परमेश्वर को मनुष्य देख और छू सकता है, और देहधारी परमेश्वर मनुष्य पर पूरी तरह से विजय पा सकता है। देहधारी परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में, मनुष्य विरोध से आज्ञाकारिता की ओर, उत्पीड़न से स्वीकृति की ओर, धारणा से ज्ञान की ओर, और तिरस्कार से प्रेम की ओर प्रगति करता है—ये हैं देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव। मनुष्य को परमेश्वर के न्याय की स्वीकृति से ही बचाया जाता है, वह परमेश्वर के बोले गए वचनों से ही धीरे-धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर विजय पायी जाती है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकृति के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, यह पवित्रात्मा के रूप में परमेश्वर के कार्य नहीं हैं। देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य महानतम और बेहद गंभीर कार्य है, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अति महत्वपूर्ण भाग देहधारण के कार्य के दो चरण हैं। इंसान की भयंकर भ्रष्टता देहधारी परमेश्वर के कार्य में एक बड़ी बाधा है। विशेष रूप से, अंत के दिनों के लोगों पर किया गया कार्य बहुत ही कठिन है, परिवेश शत्रुतापूर्ण है, और हर प्रकार के लोगों की क्षमता बहुत ही कमज़ोर है। फिर भी इस कार्य के अंत में, यह बिना किसी त्रुटि के उचित प्रभाव ही प्राप्त करेगा; यह देह के कार्य का प्रभाव है, और यह प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक प्रेरक है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का समापन देह में किया जाएगा, और इसे देहधारी परमेश्वर द्वारा ही पूरा किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण और सबसे निर्णायक कार्य देह में किया जाता है, और मनुष्य का उद्धार व्यक्तिगत रूप से देहधारी परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए। हर इंसान को यही लगता है कि देहधारी परमेश्वर इंसान से संबंधित नहीं है, जबकि सच्चाई यह है कि देह पूरी मनुष्यजाति की नियति और अस्तित्व से सम्बन्धित है।

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