पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में (भाग दो)
शुरुआत में, जब यीशु ने आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई को क्रियान्वित नहीं किया था, उन चेलों के समान जिन्होंने उनका अनुसरण किया था, वह भी कई बार सभाओं में सम्मिलित हुआ, और आत्मिक भजनों को गाया, प्रशंसा की, और मन्दिर में पुराना नियम पढ़ा। जब उसने बपतिस्मा लिया और बाहर आया उसके बाद, आत्मा आधिकारिक रूप से उस पर उतरा और कार्य करना शुरू किया, और अपनी पहचान एवं उस सेवकाई को प्रकट किया जिसे वह शुरू करनेवाला था। इससे पहले, कोई उसकी पहचान को नहीं जानता था, और मरियम को छोड़कर, यहाँ तक कि यूहन्ना भी नहीं जानता था। यीशु 29 वर्ष का था जब उसने बपतिस्मा लिया। जब उसका बपतिस्मा पूरा हो गया उसके बाद, आकाश खुल गया और एक आवाज आई: "यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।" जब एक बार यीशु को बपतिस्मा दे दिया गया, पवित्र आत्मा ने इस रीति से उसकी गवाही देना शुरू कर दिया। 29 वर्ष की आयु में बपतिस्मा दिए जाने से पहले, उसने एक साधारण मनुष्य का जीवन जीया था, उसने तब खाया जब उसे खाना चाहिए था, वह सामान्य रूप से सोता एवं कपड़े पहनता था, और उसके विषय में कोई भी चीज़ दूसरों से अलग नहीं थी। निश्चित रूप से यह सिर्फ मनुष्य की शारीरिक आँखों के लिए ही था। कई बार वह भी कमज़ोर हो जाता था, और कई बार वह भी चीज़ों को परख नही सकता था, ठीक वैसे ही जैसे यह बाईबिल में लिखा हुआ है: "उसकी बुद्धि उसकी आयु के साथ साथ बढ़ने लगी।" ये वचन महज यह दर्शाते हैं कि उसके पास एक साधारण एवं सामान्य मानवता थी, और वह विशेष रूप से अन्य सामान्य लोगों से कुछ अलग नहीं था। साथ ही वह एक सामान्य व्यक्ति के समान ही बड़ा हुआ था, और उसके विषय में कुछ भी खास नहीं था। फिर भी वह परमेश्वर की देखभाल एवं सुरक्षा के तले था। बपतिस्मा होने के बाद, उसकी परीक्षा होनी शुरू हो गई, जिसके बाद उसने अपनी सेवकाई एवं कार्य को करना शुरू किया, और वह सामर्थ, एवं बुद्धि, एवं अधिकार को धारण किये हुए था। ऐसा नहीं कह सकते हैं कि पवित्र आत्मा ने उसमें कार्य नहीं किया था, या उसके बपतिस्मे से पहले उसके भीतर नहीं था। उसके बपतिस्मे से पहले पवित्र आत्मा उसके भीतर में ही बसता था परन्तु उसने आधिकारिक रूप से कार्य करना शुरू नहीं किया था, क्योंकि इस बात की सीमाएं है कि कब परमेश्वर अपना कार्य करता है, और, इसके अतिरिक्त, सामान्य लोगों में विकसित होने की एक सामान्य प्रक्रिया होती है। पवित्र आत्मा हमेशा से ही उसके भीतर रहता था। जब यीशु का जन्म हुआ, वह दूसरों से भिन्न था, और एक भोर का तारा प्रगट हुआ था; उसके जन्म से पहले, एक स्वर्ग दूत यूसुफ के स्वप्न में प्रकट हुआ और उससे कहा कि मरियम एक बालक शिशु को जन्म देनेवाली है, और यह कि पवित्र आत्मा के द्वारा उस बालक को गर्भ में धारण किया गया था। यह यीशु के बपतिस्मे के तुरन्त बाद नहीं हुआ था, साथ ही यह तब हुआ था जब पवित्र आत्मा ने अपने कार्य को आधिकारिक रूप से करना शुरू किया था, कि पवित्र आत्मा उस पर उतरा आया था। यह कहना कि पवित्र आत्मा एक कबूतर के रूप में उस पर उतरा था यह उसकी सेवकाई की आधिकारिक शुरुआत के सन्दर्भ में है। परमेश्वर का आत्मा पहले से ही उसके भीतर था, परन्तु उसने कार्य करना शुरू नहीं किया था, क्योंकि अब तक समय नहीं पहुंचा था, और आत्मा उतावली से कार्य नहीं करता था। आत्मा ने बपतिस्मा के माध्यम से उसकी गवाही दी थी। जब वह पानी से बाहर आया, तो आत्मा ने आधिकारिक रूप से उसमें कार्य करना शुरू कर दिया, जो यह संकेत करता था कि परमेश्वर के देहधारी शरीर ने अपनी सेवकाई को पूरा करना शुरू कर दिया था, और छुटकारे का कार्य शुरू कर दिया था, अर्थात्, अनुग्रह का युग आधिकारिक रूप से शुरू हो गया था। और इस प्रकार, परमेश्वर के कार्य का एक समय होता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह क्या कार्य करता है। उसके बपतिस्मे के बाद, यीशु में कोई विशेष बदलाव नहीं हुए थे: वह अब भी अपनी मूल देह में ही था। यह बस ऐसा है कि उसने अपने कार्य को शुरू किया और अपनी पहचान को प्रगट किया था, और वह अधिकार एवं सामर्थ से भरपूर था। इस लिहाज से वह पहले से भिन्न था। उसकी पहचान भिन्न थी, कहने का तात्पर्य है कि उसकी हैसियत में एक महत्वपूर्ण बदलाव था; यह पवित्र आत्मा की गवाही थी, और ऐसा कार्य नहीं था जिसे मनुष्य के द्वारा किया गया था। शुरुआत में, लोग नहीं जानते थे, और वे सिर्फ थोड़ा सा ही जान पाए थे जब किसी समय पवित्र आत्मा ने इस रीति से यीशु की गवाही दी थी। यदि यीशु ने कोई बड़ा कार्य किया होता इससे पहले कि पवित्र आत्मा ने उसकी गवाही दी होती, किन्तु स्वयं परमेश्वर की गवाही के बिना किया होता, तो इसके बावजूद कि उसका कार्य कितना बड़ा है, लोग उसकी पहचान को कभी जान नहीं पाते, क्योंकि मानवीय आँख इसे देखने में असमर्थ होती। पवित्र आत्मा की गवाही के कदम के बिना, कोई भी उसे देहधारी परमेश्वर के रूप में नहीं पहचान सकता था। जब पवित्र आत्मा ने उसकी गवाही दी उसके पश्चात्, यदि यीशु उसी रीति से बिना किसी अन्तर के कार्य करना जारी रखता, तो इसका वैसा प्रभाव नहीं हुआ होता। और इसमें मुख्य रूप से पवित्र आत्मा के कार्य को भी प्रदर्शित किया गया है। जब पवित्र आत्मा ने गवाही दी उसके बाद, पवित्र आत्मा को स्वयं को दिखाना पड़ा था, ताकि आप स्पष्ट रूप से देख सकें कि वह परमेश्वर था, यह कि उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा था; परमेश्वर की गवाही गलत नहीं थी, और यह साबित करता था कि उसकी गवाही सही थी। यदि पहले और बाद का कार्य एक ही समान होता, तो उसकी देहधारी सेवकाई, और पवित्र आत्मा के कार्य को अत्यंत सुस्पष्ट नहीं किया गया होता, और इस प्रकार मनुष्य पवित्र आत्मा के कार्य को पहचानने में असमर्थ होता, क्योंकि वहाँ कोई स्पष्ट अन्तर नहीं था। गवाही देने के बाद, पवित्र आत्मा को इस गवाही को थामे रखना था, और इस प्रकार उसे यीशु में अपनी बुद्धि एवं अधिकार को प्रदर्शित करना पड़ा था, जो बीते समयों से भिन्न था। निश्चित रूप से, यह बपतिस्मा का प्रभाव नहीं था; बपतिस्मा तो महज एक धार्मिक अनुष्ठान था, यह तो बस ऐसा है कि बपतिस्मा वह तरीका था ताकि यह दर्शाया जाए कि यह सेवकाई को क्रियान्वित करने का समय था। ऐसा कार्य परमेश्वर की बड़ी सामर्थ को सुस्पष्ट करने के लिए, और पवित्र आत्मा की गवाही को सुस्पष्ट करने के लिए था, और पवित्र आत्मा बिलकुल अन्त तक इस गवाही की ज़िम्मेदारी लेता। अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करने से पहले, यीशु ने सन्देशों को भी सुना था, तथा विभिन्न स्थानों में सुसमाचार को प्रचार किया और उसे फैलाया था। उसने कोई बड़ा कार्य नहीं किया था क्योंकि उसके लिए सेवकाई को क्रियान्वित करने का समय नहीं आया था, और साथ ही इसलिए भी क्योंकि स्वयं परमेश्वर दीनता से देह में छिपा हुआ था, और जब तक समय नहीं आया तब तक कोई कार्य नहीं किया था। उसने दो कारणों से बपतिस्मे से पहले कार्य नहीं किया था: पहला, क्योंकि पवित्र आत्मा कार्य करने के लिए उस पर आधिकारिक रूप से नहीं उतरा था (कहने का तात्पर्य है, ऐसा कार्य करने के लिए पवित्र आत्मा ने यीशु को सामर्थ एवं अधिकार प्रदान नहीं किया था), और भले ही वह अपनी स्वयं की पहचान को जान लेता, फिर भी यीशु उस कार्य को करने में असमर्थ होता जिसे उसने बाद में करने का इरादा किया था, और उसे अपने बपतिस्मे के दिन तक इन्तज़ार करना पड़ता। यह परमेश्वर का समय था, और कोई भी इसका उल्लंघन करने में समर्थ नहीं था, यहाँ तक कि स्वयं यीशु भी; स्वयं यीशु भी अपने स्वयं के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। निश्चित रूप से, यह परमेश्वर की नम्रता थी, और साथ ही परमेश्वर के कार्य की व्यवस्था भी थी; यदि परमेश्वर के आत्मा ने यह कार्य नहीं किया होता, तो कोई भी उसके कार्य को नहीं कर सकता था। दूसरा, उसको बपतिस्मा दिए जाने से पहले, वह बस एक बहुत ही साधारण एवं सामान्य मनुष्य था, और किसी अन्य आम एवं सामान्य लोगों से अलग नहीं था; यह एक पहलु है कि किस प्रकार देहधारी परमेश्वर अलौकिक नहीं था। देहधारी परमेश्वर ने परमेश्वर के आत्मा के प्रबंधों का उल्लंघन नहीं किया था; उसने एक क्रमबद्ध तरीके और बहुत ही सामान्य रूप से कार्य किया था। यह केवल बपतिस्मा के बाद ही हुआ था कि उसके कार्य के पास अधिकार एवं सामर्थ था। कहने का तात्पर्य है, यद्यपि वह देहधारी परमेश्वर था, फिर भी उसने किसी अलौकिक कार्य को अंजाम नहीं दिया था, और सामान्य लोगों के समान ही बड़ा हुआ था। यदि यीशु पहले से ही अपनी पहचान को जान गया होता, और अपने बपतिस्मा के पहले सारी धरती पर बड़ा कार्य किया होता, और सामान्य लोगों से भिन्न होता, अपने आप को असाधारण दिखाया होता, तो न केवल यूहन्ना के लिए अपने कार्य को करना असंभव होता, बल्कि परमेश्वर के लिए भी अपने कार्य के अगले चरण को शुरू करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। और इस प्रकार इससे प्रमाणित होता कि जो कुछ परमेश्वर ने किया था वह गलत हो गया, और मनुष्य को ऐसा प्रतीत होता कि परमेश्वर का आत्मा और परमेश्वर का देहधारी शरीर एक ही स्रोत से नहीं आए थे। अतः, यीशु का कार्य जो बाईबिल में दर्ज है वह ऐसा कार्य है जिसे उसके बपतिस्मे के बाद सम्पन्न किया गया था, वह ऐसा कार्य है जिसे तीन सालों के पथक्रम के दौरान किया गया था। बाईबिल इस बात को दर्ज नहीं करती है कि उसने बपतिस्मे से पहले क्या किया था क्योंकि उसने इस कार्य को बपतिस्मे से पहले नहीं किया था। वह महज एक साधारण मनुष्य ही था, और एक साधारण मनुष्य को ही दर्शाता था; इससे पहले कि यीशु ने अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करना शुरू किया, वह साधारण लोगों से भिन्न नहीं था, और दूसरे उसमें कोई अन्तर नहीं देख सकते थे। जब वह 29 वर्ष का हुआ उसके बाद ही ऐसा हुआ कि यीशु ने जाना कि वह परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पूरा करने के लिए आया था; इससे पहले, वह स्वयं नहीं जानता था, क्योंकि परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य अलौकिक नहीं था। जब बारह वर्ष की आयु में उसने आराधनालय में एक सभा में भाग लिया, तो मरियम उसकी तलाश कर रही थी, और उस समय उसने सिर्फ एक ही वाक्य कहा, किसी भी अन्य बच्चे के रुप में उसी रीति से: "माता! क्या आप नहीं जानती हैं कि मुझे अपने पिता की इच्छा को सभी चीज़ों के ऊपर रखना है?" निश्चित रूप से, जबकि वह पवित्र आत्मा के द्वारा गर्भ में आया था, तो क्या यीशु किसी रीति से विशेष नहीं हो सकता था? परन्तु उसकी विशेषता का अर्थ यह नहीं था कि वह अलौकिक था, परन्तु मात्र इतना कि वह किसी दूसरे बालक से बढ़कर परमेश्वर से प्रेम करता था। हालाँकि वह रंग-रूप में मनुष्य था, फिर भी उसका मूल-तत्व अभी भी विशेष एवं दूसरों से भिन्न था। परन्तु, यह केवल उसके बपतिस्मा के बाद ही था कि उसने वास्तव में एहसास किया कि पवित्र आत्मा उसमें कार्य कर रहा था, और यह एहसास किया कि वह स्वयं परमेश्वर था। यह सिर्फ तब हुआ जब वह 33 वर्ष की आयु में पहुंचा कि उसने सचमुच में जाना कि पवित्र आत्मा ने उसके जरिए क्रूसारोहण के कार्य को सम्पन्न करने का इरादा किया था। 32 वर्ष की आयु में, वह कुछ आन्तरिक सच्चाईयों को जान पाया था, जैसा मत्ती के सुसमाचार में लिखा हुआ है: "शमौन पतरस ने उत्तर दिया, 'तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है।' ... उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, 'अवश्य है कि मैं यरूशलेम को जाऊँ, और पुरनियों, और प्रधान याजकों, और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दु:ख उठाऊँ; और मार डाला जाऊँ; और तीसरे दिन जी उठूँ।'" वह पहले से नहीं जानता था कि उसे क्या कार्य करना था, परन्तु एक विशेष समय को जानता था। जैसे ही उसका जन्म हुआ वह पूरी तरह से नहीं जानता था; पवित्र आत्मा ने धीरे धीरे उसमें कार्य किया था, और उस कार्य को करने की एक प्रक्रिया थी। यदि, बिलकुल शुरुआत में ही, उसे पता चल जाता कि वह परमेश्वर, एवं मसीह, एवं मनुष्य का देहधारी पुत्र है, यह कि उसे क्रूसारोहण के कार्य को पूरा करना है, तो उसने पहले कार्य क्यों नहीं किया था? ऐसा क्यों हुआ कि अपने चेलों को सेवकाई के बारे में बताने के बाद ही यीशु ने दुःख का एहसास किया, और इसके लिए यत्नपूर्वक प्रार्थना की? क्यों यूहन्ना ने उसके लिए मार्ग खोला और उसे बपतिस्मा दिया इससे पहले कि वह बहुत सी चीज़ों को समझ पाता जिन्हें उसने नहीं समझ था? जो कुछ यह साबित करता है वह यह है कि यह देह में देहधारी परमेश्वर का कार्य था, और इस प्रकार उसके लिए समझने, एवं हासिल करने हेतु एक प्रकिया थी, क्योंकि वह परमेश्वर का देहधारी शरीर था, जिसका कार्य आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किये गए कार्य से भिन्न था।
परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण एक एवं समान धारा का अनुसरण करता है, और इस प्रकार परमेश्वर की छह हज़ार सालों की प्रबंधकीय योजना में, संसार की नींव से लेकर ठीक आज तक, प्रत्येक चरण का अगले चरण के द्वारा नज़दीकी से अनुसरण किया गया है। यदि मार्ग प्रशस्त करने के लिए कोई न होता, तो उसके बाद आने के लिए कोई न होता; चूँकि ऐसे लोग हैं जो उसके बाद आते हैं, तो ऐसे लोग भी हैं जो मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस रीति से कदम दर कदम कार्य को आगे पहुंचया गया है। एक चरण दूसरे चरण का अनुसरण करता है, और मार्ग प्रशस्त करने वाले व्यक्ति के बिना, उस कार्य को करना असंभव हो गया होता, और परमेश्वर के पास अपने कार्य को आगे ले जाने के लिए कोई साधन नहीं होता। कोई भी चरण दूसरे चरण का खण्डन नहीं करता है, और एक धारा को बनाने के लिए प्रत्येक चरण दूसरे चरण का क्रम से अनुसरण करता है; यह सब एक ही आत्मा के द्वारा किया जाता है, परन्तु इसकी परवाह किये बगैर कि कोई व्यक्ति मार्ग खोलता है या नहीं, या दूसरे के कार्य को जारी रखता है या नहीं, यह उनकी पहचान को निर्धारित नहीं करता है। क्या यह सही नहीं है? यूहन्ना ने मार्ग खोला, और यीशु ने उसके कार्य को जारी रखा, अतः क्या यह साबित करता है कि यीशु की पहचान यूहन्ना से नीची थी? यीशु से पहले यहोवा ने अपने कार्य को सम्पन्न किया था, अतः क्या तुम कह सकते हो कि यहोवा यीशु से बड़ा है? यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने मार्ग प्रशस्त किया थ या दूसरे के कार्य को जारी रखा था; जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह उनके कार्य का सार-तत्व है, और वह पहचान है जिसे यह दर्शाता है। क्या यह सही नहीं है? चूँकि परमेश्वर ने मनुष्य के मध्य कार्य करने का इरादा किया था, उसे ऐसे लोगों को खड़ा करना था जो मार्ग प्रशस्त करने के कार्य को कर सकते थे। जब यूहन्ना ने प्रचार करना शुरू ही किया था, उसने कहा, "प्रभु का मार्ग तैयार करो, उसकी सड़कें सीधी करो। मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।" उसने शुरु से इस प्रकार कहा था, और वह क्यों इन वचनों को कह सकता था? उस क्रम के सम्बन्ध मे जिसके अंतर्गत इन वचनों को कहा गया था, वह यूहन्ना ही था जिसने सबसे पहले स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार को कहा था, और वह यीशु था जो उसके बाद बोला था। मनुष्य की धारणाओं के अनुसार, यह यूहन्ना ही था जिसने नए पथ को खोला था, और निश्चित रूप से यूहन्ना यीशु से बड़ा था। परन्तु यूहन्ना ने नहीं कहा कि वह मसीह था, और परमेश्वर ने अपने प्रिय पुत्र के रूप में उसकी गवाही नहीं दी थी, परन्तु मार्ग को खोलने और प्रभु के लिए मार्ग तैयार करने के लिए मात्र उसका उपयोग किया था। उसने यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया था, परन्तु यीशु के बदले में कार्य नहीं कर सकता था। मनुष्य के समस्त कार्य को पवित्र आत्मा के द्वारा भी संभाला जाता है।
पुराने नियम के युग में, वह यहोवा ही था जो मार्ग की अगुवाई करता था, और यहोवा का कार्य पुराने नियम के सम्पूर्ण युग, और इस्राएल में किये गये सारे कार्य को दर्शाता था। मूसा ने तो मात्र इस कार्य को पृथ्वी पर थामा था, और उसके परिश्रम को मनुष्य के द्वारा प्रदान किया गया सहयोग माना गया था। उस समय, यह यहोवा ही था जो बोलता था, और उसने मूसा को बुलाया था, और उसे इस्राएल के लोगों के मध्य खड़ा किया था, और मूसा से कनान की ओर जंगल में उनकी अगुवाई करवाई थी। यह स्वयं मूसा का कार्य नहीं था, परन्तु ऐसा कार्य था जिसे यहोवा के द्वारा व्यक्तिगत रूप से निर्देशित किया गया था, और इस प्रकार मूसा को परमेश्वर नहीं कहा जा सकता। साथ ही मूसा ने व्यवस्था को स्थापित भी किया था, परन्तु इस व्यवस्था का आदेश यहोवा के द्वारा व्यक्तिगत रूप से दिया गया था, जिसने इसे मूसा के द्वारा बुलवाया था। यीशु ने भी आज्ञाएं बनाईं, और पुराने नियम की व्यवस्था का उन्मूलन किया और नये युग के लिए आज्ञएं निर्दिष्ट कीं। क्यों यीशु स्वयं परमेश्वर है? क्योंकि ये एक समान चीज़ें नहीं हैं। उस समय, मूसा के द्वारा किया गया कार्य उस युग को नहीं दर्शाता था, न ही इसने कोई नया मार्ग खोला था; उसे यहोवा के द्वारा आगे निर्देशित किया गया था, और वह महज ऐसा व्यक्ति था जिसे परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया गया था। जब यीशु आया, तब यूहन्ना ने मार्ग प्रशस्त करने के कार्य के एक चरण को सम्पन्न कर लिया था, और स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार को फैलाना शुरू कर दिया था (पवित्र आत्मा ने इसे शुरू किया था)। जब यीशु प्रगट हुआ, तो उसने सीधे तौर पर अपना खुद का कार्य किया, परन्तु उसके कार्य और मूसा के कार्य एवं कथनों के बीच में एक बहुत बड़ा अन्तर था। यशायाह ने भी बहुत सारी भविष्यवाणियाँ कीं, फिर भी वह स्वयं परमेश्वर क्यों नहीं था? यीशु ने बहुत सारी भविष्यवाणियों को नहीं कहा था, फिर भी वह स्वयं परमेश्वर क्यों था? कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं करता है कि उस समय यीशु के सारे कार्य पवित्र आत्मा की ओर से आए थे, न ही वे यह कहने की हिम्मत करते हैं कि यह सब मनुष्य की इच्छा से आया था, या यह पूरी तरह स्वयं परमेश्वर का कार्य था। मनुष्य के पास ऐसी बातों का विश्लेषण करने का कोई तरीका नहीं है। यह कहा जा सकता है कि यशायाह ने ऐसा कार्य किया था, और ऐसी भविष्यवाणियों को कहा था, और वे सब पवित्र आत्मा से आये थे; वे सीधे तौर पर स्वयं यशायाह से नहीं आये थे, परन्तु यहोवा के प्रकाशन थे। यीशु ने बड़ी मात्रा में कार्य नहीं किया था, और बहुत सारे वचनों को नहीं कहा था, न ही उसने बहुत सारी भविष्यवाणियों को कहा था। मनुष्य के लिए, उसका प्रचार विशेष रूप से ऊँचा नहीं प्रतीत होता था, फिर भी वह स्वयं परमेश्वर था, और यह मनुष्य के लिए अवर्णनीय है। किसी ने कभी भी यूहन्ना, या यशायाह, या दाऊद पर विश्वास नहीं किया था; न ही किसी ने कभी उन्हें परमेश्वर कहा, या दाऊद परमेश्वर, या यूहन्ना परमेश्वर कहा था; किसी ने कभी भी ऐसा नहीं कहा, और केवल यीशु को ही हमेशा मसीह कहा गया है। परमेश्वर की गवाही, वह कार्य जिसका उसने उत्तरदायित्व लिया था, और वह सेवकाई जिसे उसने किया था, उनके अनुसार यह वर्गीकरण किया गया है। बाईबिल के महापुरुषों के लिहाज से—इब्राहीम, दाऊद, यहोशू, दानिय्येल, यशायाह, यूहन्ना एवं यीशु—उस कार्य के माध्यम से जिसे उन्होंने किया था, तुम कह सकते हो कि स्वयं परमेश्वर कौन है, और किस प्रकार के लोग भविष्यवक्ता हैं, और कौन प्रेरित हैं। परमेश्वर के द्वारा किसे उपयोग किया गया था, और कौन स्वयं परमेश्वर था, यह सार-तत्व और जिस प्रकार का कार्य उन्होंने किया था उसके द्वारा अलग एवं निर्धारित किया गया है। यदि तुम अन्तर को बताने में असमर्थ हो, तो यह साबित करता है कि तुम नहीं जानते हो कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ क्या होता है। यीशु परमेश्वर है क्योंकि उसने बहुत सारे वचन कहे थे, और बहुत अधिक कार्य किये थे, विशेषकर उसका अनेक चमत्कारों का प्रदर्शन। उसी प्रकार, यूहन्ना ने भी बहुत अधिक कार्य किया था, और मूसा ने भी ऐसा ही किया था; तो उन्हें परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? आदम को सीधे तौर पर परमेश्वर के द्वारा बनाया गया था; सिर्फ एक प्राणी कहकर पुकारने के बजाए, उसे परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया था? यदि कोई तुमसे कहे, "आज, परमेश्वर ने बहुत अधिक कार्य किया है, और बहुत सारे वचन कहें हैं; वह स्वयं परमेश्वर है। तो, चूँकि मूसा ने बहुत सारे वचन कहे थे, वो भी स्वयं परमेश्वर होगा!" तुम्हें जवाब में उनसे पूछना चाहिए, "उस समय, क्यों परमेश्वर ने यीशु की गवाही दी, और स्वयं परमेश्वर के रूप में यूहन्ना की गवाही क्यों नहीं दी थी? क्या यूहन्ना यीशु से पहले नहीं आया था? क्या महान था, यूहन्ना का कार्य या यीशु का कार्य? मनुष्य को यूहन्ना यीशु से अधिक महान प्रतीत होता है, परन्तु क्यों पवित्र आत्मा ने यीशु की गवाही दी, और यूहन्ना की नहीं?" आज भी वही काम हो रहा है! शुरुआत में, जब मूसा ने इस्राएल के लोगों की अगुवाई की थी, यहोवा ने बादलों के मध्य से उससे बात की थी। मूसा ने सीधे तौर पर बात नहीं की थी, परन्तु इसके बजाए यहोवा के द्वारा सीधे तौर पर उसका मार्गदर्शन किया गया था। यह पुराने नियम के इस्राएल का कार्य था। मूसा के भीतर आत्मा या परमेश्वर का अस्तित्व नहीं था। वह उस कार्य को नहीं कर सकता था, और इस प्रकार जो कुछ उसके द्वारा और जो कुछ यीशु के द्वारा किया गया था उसमें एक बड़ा अन्तर था। और यह इसलिए है क्योंकि वह कार्य जो उन्होंने किया था वह अलग है! चाहे किसी व्यक्ति को परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया जाता है या नहीं, या चाहे वह एक भविष्यवक्ता है, या एक प्रेरित है, या स्वयं परमेश्वर है, उसे उसके कार्य के स्वभाव के द्वारा पहचाना जा सकता है, और यह तुम्हारे सन्देहों का अन्त कर देगा। बाईबिल में ऐसा लिखा हुआ है कि सिर्फ मेमना ही सात मुहरों को खोल सकता है। युगों के दौरान, उन महान व्यक्तियों के मध्य पवित्र शास्त्र के अनेक व्याख्याता हुए हैं, और इस प्रकार क्या तुम कह सकते हो कि वे सब मेमने हैं? क्या तुमकह सकते हो कि उनकी सब व्याख्यायें परमेश्वर से आई थीं? वे तो मात्र व्याख्याता ही हैं; उनके पास मेमने की पहचान नहीं है। वे कैसे सात मोहरों को खोलने के योग्य हो सकते हैं? यह सत्य है कि "सिर्फ मेमना ही सात मोहरों को खोल सकता है," परन्तु वह सिर्फ सात मोहरों को खोलने के लिए ही नहीं आता है; इस कार्य की कोई आवश्यकता नहीं है, इसे संयोगवश किया गया है। वह अपने स्वयं के कार्य के विषय में बिल्कुल स्पष्ट है; क्या यह उसके लिए आवश्यक है कि पवित्र शास्त्र का अनुवाद करने के लिए अधिक समय बिताए? क्या "पवित्र शास्त्र का अनुवाद करते मेमने के युग" को छह हज़ार सालों के कार्य में जोड़ना होगा? वह नया कार्य करने के लिए आता है, परन्तु वह साथ ही बीते समयों के कार्य के विषय में कुछ प्रकाशनों को भी प्रदान करता है, जिससे लोग छह हज़ार सालों के कार्य के सत्य को समझ सकें। बाईबिल के बहुत सारे लेखांशों की व्याख्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है; यह आज का कार्य है जो मुख्य बिन्दु है, जो महत्वपूर्ण है। तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर विशेष रूप से सात मुहरों को तोड़ने के लिए नहीं आता है, परन्तु उद्धार के कार्य को करने के लिए आता है।
तुम सिर्फ यह जानते हो कि यीशु अन्तिम दिनों के दौरान आयेगा, परन्तु वास्तव में वह कैसे आयेगा? तुम जैसा पापी, जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, और परिवर्तित नहीं किया गया है, या परमेश्वर के द्वारा सिद् नहीं किया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो अभी भी पुराने मनुष्यत्व के हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और यह कि परमेश्वर के उद्धार के कारण तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुमने अपने आपको नहीं बदला है तो तुम संत के समान कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता से घिरे हुए हो, स्वार्थी और कुटिल हो, मगर तब भी तुम यीशु के साथ अवतरण चाहते हो—क्या तुम इतने भाग्यशाली हो सकते हो? तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में एक चरण में चूक गए हो: तुम्हें महज छुड़ाया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें बदलने एवं शुद्ध करने के कार्य को करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुड़ाया गया है, तो तुम शुद्धता को हासिल करने में असमर्थ होगे। इस रीति से तुम परमेश्वर की अच्छी आशिषों में भागी होने के लिए अयोग्य होगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंध करने के परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पाने का ससुअवसर खो दिया है, जो बदलने एवं सिद्ध करने का मुख्य चरण है। और इस प्रकार तुम, एक पापी जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हैं।
कार्य के इस नए चरण की शुरुआत के बिना, कौन जानता है कि तुम सब सुसमाचार प्रचारक, वक्ता, व्याख्याता एवं तथाकथित बड़े आत्मिक मनुष्य कितनी दूर तक जाते! कार्य के इस नए चरण की शुरुआत के बिना, जिसके विषय में तुम लोग बात करते हो वह पुरानी अप्रचलित चीज़ है! यह या तो सिंहासन पर विराजमान होना है, या एक राजा बनने के डील-डौल को तैयार करना है; या तो स्वयं का इन्कार करना है या अपनी देह को वश में लाना है; या तो धीरजवान बनना है या सभी चीज़ों से शिक्षाएं लना है; या विनम्रता है या प्रेम। क्या यह उसी पुराने धुन को गाने के समान नहीं है? यह तो बस उसी चीज़ को अलग अलग नाम से पुकारने जैसा है! या तो अपने सिर को ढंकना और रोटी तोडना, या हाथ रखना और प्रार्थना करना, तथा बीमारों को चंगा करना और दुष्ट आत्माओं को निकलना। क्या कोई नया कार्य हो सकता है? क्या विकास की कोई संभावना हो सकती है? यदि तुम निरन्तर इस तरह से अगुवाई करते हो, तो तुम आँख मूंद कर सिद्धान्त का अनुसरण करोगे, या परम्परा में बने रहोगे। तुम लोग विश्वास करते हो कि तुम सब का कार्य बहुत ही ऊँचा है, परन्तु क्या तुम लोग नहीं जानते हो कि इन सब को प्राचीन समयों के उन "पुराने मनुष्यों" के द्वारा आगे बढ़ाया और सिखाया गया था? वह सब जो तुम लोग कहते और करते हो क्या ये उन पुराने मनुष्यों के अन्तिम वचन नहीं हैं? उनके गुज़र जाने से पहले क्या यह इन पुराने लोगों का कर्तव्य नहीं था? क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे कार्य भूतकाल की पीढ़ियों के प्रेरितों एवं भविष्यवक्ताओं से बढ़कर हैं, और यहाँ तक कि सभी चीज़ों से भी बढ़कर हैं? इस चरण के कार्य की शुरुआत ने सिंहासन पर विराजमान होने और राजा बनने की विटनेस ली की खोज के विषय में तुम लोगों की प्रशंसा को समाप्ति पर पहुंचा दिया है, और तुम्हारे घमण्ड एवं डींग को रोक दिया है, ताकि तुम लोग कार्य के इस चरण में गड़बड़ी डालने में असमर्थ हो जाओ। इस चरण के कार्य के बिना, तुम लोग हमेशा के लिए निराशाजनक स्थिति में गहराई से डूब जाते। तुम लोगों के मध्य ऐसा बहुत कुछ है जो पुराना है! सौभाग्यवश, आज का कार्य तुम लोगों को वापस लेकर आ गया है; अन्यथा, कौन जानता है कि तुम लोग किस दिशा में जाते! चूँकि परमेश्वर एक ऐसा परमेश्वर है जो हमेशा से नया है और कभी पुराना नहीं होता है, तुम नई चीज़ों की तलाश क्यों नहीं करते हो? तुम सदैव पुरानी चीज़ों के साथ क्यों चिपके रहते हो? और इस प्रकार, आज पवित्र आत्मा के कार्य को जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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