परमेश्वर सम्पूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियन्ता है

मानवजाति का सदस्य और सच्चे ईसाई होने के नाते, अपने मन और शरीर को परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए समर्पित करना हम सभी की ज़िम्मेदारी और दायित्व है, क्योंकि हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व परमेश्वर से आया है, और यह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण अस्तित्व में है। यदि हमारे मन और शरीर परमेश्वर के आदेश के लिए नहीं हैं और मानवजाति के धर्मी कार्य के लिए नहीं हैं, तो हमारी आत्माएँ उन लोगों के योग्य नहीं हैं जो परमेश्वर के आदेश के लिए शहीद हुए हैं, परमेश्वर के लिए तो और भी अधिक अयोग्य हैं, जिसने हमें सब कुछ प्रदान किया है।

परमेश्वर ने इस संसार की सृष्टि की, उसने इस मानवजाति को बनाया, और इसके अलावा वह प्राचीन यूनानी संस्कृति और मानव सभ्यता का वास्तुकार था। केवल परमेश्वर ही इस मानवजाति को सांत्वना देता है, और केवल परमेश्वर ही रात-दिन इस मानवजाति का ध्यान रखता है। मानव का विकास और प्रगति परमेश्वर की सम्प्रभुता से अवियोज्य है और मानवजाति का इतिहास और भविष्य परमेश्वर की योजनाओं में जटिल है। यदि तुम एक सच्चे ईसाई हो, तो तुम निश्चय ही इस बात पर विश्वास करोगे कि किसी भी देश या राष्ट्र का उत्थान या पतन परमेश्वर की योजना के अनुसार होता है। केवल परमेश्वर ही किसी देश या राष्ट्र के भाग्य को जानता है और केवल परमेश्वर ही इस मानवजाति के जीवन के ढंग को नियंत्रित करता है। यदि मानवजाति अच्छा भाग्य पाना चाहती है, यदि कोई देश अच्छा भाग्य पाना चाहता है, तो मनुष्य को अवश्य परमेश्वर की आराधना में झुकना चाहिए, पश्चाताप करना चाहिए और परमेश्वर के सामने अपने पापों की स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा मनुष्य का भाग्य और मंज़िल अपरिहार्य रूप से तबाह हो कर समाप्त हो जाएँगे।

नूह की नाव के समय में पीछे पलट कर देखें: मानवजाति पूरी तरह से भ्रष्ट थी, परमेश्वर की आशीषों से भटक गई थी, परमेश्वर के द्वारा उनकी देखभाल नहीं की जा रही थी, और परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को खो चुकी थी। वे परमेश्वर की रोशनी के बिना अंधकार में रहते थे। इस प्रकार वे प्रकृति से व्यभिचारी बन गए थे, उन्होंने अपने आप को घृणित चरित्रहीनता के मध्य उन्मुक्त कर दिया था। इस प्रकार के लोग परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को प्राप्त नहीं कर सकते थे; वे परमेश्वर के चेहरे की गवाही देने के अयोग्य थे, न ही वे परमेश्वर की आवाज़ को सुनने के योग्य थे, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर को त्याग दिया था, उन सब चीजों को बेक़ार समझ कर छोड़ दिया था जो परमेश्वर ने उन्हें प्रदान की थीं, और परमेश्वर की शिक्षाओं को भूल गए थे। उनका मन परमेश्वर से बहुत दूर भटक गया था, और जैसा कि इससे हुआ, वे अत्यधिक मूर्खतापूर्ण स्तरों तक और मानवता से पथभ्रष्ट हो गए थे, और उत्तरोत्तर दुष्ट होते गए। इस प्रकार से वे मृत्यु के और भी निकट आ गए थे, और परमेश्वर के कोप और दण्ड के अधीन हो गए थे। केवल नूह ने परमेश्वर की आराधना की और बुराई को दूर रखा, और इसलिए वह परमेश्वर की आवाज़ को सुनने और परमेश्वर के निर्देशों को सुनने में सक्षम था। उसने परमेश्वर के वचन के अनुसार नाव बनायी, और सभी प्रकार के जीवित प्राणियों को उसमें एकत्रित किया। और इस तरह, जब एक बार सब कुछ तैयार हो गया, तो परमेश्वर ने संसार पर अपनी विनाशलीला शुरू कर दी। केवल नूह और उसके परिवार के सात लोग इस विनाशलीला में जीवित बचे, क्योंकि नूह ने यहोवा की आराधना की थी और बुराई को दूर रखा था।

फिर वर्तमान युग पर विचार करें: नूह के जैसे धर्मी मनुष्य, जो परमेश्वर की आराधना कर सके और बुराई को दूर रख सके, उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है। फिर भी परमेश्वर इस मानवजाति के प्रति दयालु है और इस अंतिम युग में मानवजाति को दोषमुक्त करता है। परमेश्वर उनकी खोज कर रहा है जो उसके प्रकट होने की लालसा करते हैं। वह उनकी खोज करता है जो उसके वचनों को सुनने में सक्षम हों, जो उसके आदेश को नहीं भूले हों और अपने हृदय एवं शरीर को उसके प्रति समर्पित करते हों। वह उनकी खोज करता है जो उसके सामने बच्चों के समान आज्ञाकारी हों, और उसका विरोध न करते हों। यदि तुम परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण में किसी भी ताकत से अबाधित हो, तो परमेश्वर तुम्हारे ऊपर अनुग्रह की दृष्टि डालेगा और अपने आशीष तुम्हें प्रदान करेगा। यदि तुम उच्च पद वाले, आदरणीय प्रतिष्ठा वाले, प्रचुर ज्ञान से सम्पन्न, विपुल सम्पदा के मालिक हो, और कई लोगों के द्वारा समर्थित हो, फिर भी ये चीज़ें तुम्हें परमेश्वर के आह्वान और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने, जो कुछ परमेश्वर तुम से कहता है उसे करने के लिए, उसके सम्मुख आने से नहीं रोकती हो, तब तुम जो कुछ भी करोगे वह पृथ्वी पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा और मानवजाति में सर्वाधिक धर्मी होगा। यदि तुम परमेश्वर के आह्वान को अपनी हैसियत और लक्ष्यों के वास्ते अस्वीकार करोगे, तो तुम जो कुछ भी करोगे वह श्रापित हो जाएगा और यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा भी तिरस्कृत किया जाएगा। हो सकता है कि तुम कोई अध्यक्ष, या कोई वैज्ञानिक, कोई पादरी, या कोई बुज़ुर्ग हो, किन्तु इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि तुम्हारा पद कितना उच्च है, यदि तुम अपने ज्ञान और अपने कार्य की योग्यता पर भरोसा रखोगे, तो तुम हमेशा ही असफल रहोगे, और परमेश्वर की आशीषों से हमेशा वंचित रहोगे, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो परमेश्वर उससे कुछ भी अपेक्षा नहीं करता है, और वह नहीं मानता है कि तुम्हारी वृत्ति धर्मी है, या यह स्वीकार नहीं करता है कि तुम मानवजाति के भले के लिए कार्य कर रहे हो। वह कहेगा कि जो कुछ भी तुम करते हो, वह मानवजाति को परमेश्वर की सुरक्षा से वंचित करने, और परमेश्वर के आशीषों को इनकार करने के लिए मानवजाति के ज्ञान और मानवजाति की शक्ति का उपयोग करना है। वह कहेगा कि तुम मानवजाति को अंधकारी की ओर, मृत्यु की ओर, और एक ऐसे अस्तित्व के आरंभ की ओर ले जा रहे हो जिसकी सीमाएँ नहीं है जिसमें मनुष्य परमेश्वर और उसके आशीष को खो देगा।

जब सबसे पहले मनुष्य को सामाजिक विज्ञान मिला, तब से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान में व्यस्त था। फिर विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं था, और परमेश्वर की आराधना के लिए अब और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं थी। मनुष्यों के हृदय में परमेश्वर की स्थिति और भी नीचे हो गई थी। मनुष्य के हृदय का संसार, जिसमें परमेश्वर के लिये जगह न हो, अंधकारमय, और आशारहित है। और इसलिए, मनुष्य के हृदय और मन को भरने के लिए, सामाजिक विज्ञान के सिद्धांत, मानव विकास के सिद्धांत और अन्य कई सिद्धांतों को व्यक्त करने के लिए कई सामाजिक वैज्ञानिक, इतिहासकार और राजनीतिज्ञ उत्पन्न हो गए जिन्होंने इस सच्चाई की अवहेलना की कि परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की। इस तरह, जो यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने सब कुछ बनाया है वे बहुत ही कम रह गए, और वे जो विकास के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं उनकी संख्या और भी अधिक बढ़ गई। अधिकाधिक लोग पुराने विधान के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों और उसके वचनों को मिथकों और पौराणिक कथाओं के रूप में मानते हैं। लोग, अपने हृदयों में, परमेश्वर की गरिमा और महानता के प्रति, और इस सिद्धांत के प्रति कि परमेश्वर का अस्तित्व है और सभी चीज़ों पर प्रभुत्व धारण करता है, उदासीन बन जाते हैं। मानवजाति का अस्तित्व और देशों एवं राष्ट्रों का भाग्य उनके लिए अब और महत्वपूर्ण नहीं रह जाते हैं। मनुष्य केवल खाने, पीने और भोग-विलासिता की खोज में चिंतित, एक खोखले संसार में रहता है। ... कुछ लोग स्वयं इस बात की खोज करने का उत्तरदायित्व ले लेते हैं कि आज परमेश्वर अपना कार्य कहाँ करता है, या यह तलाशने का उत्तरदायित्व ले लेते हैं कि वह किस प्रकार मनुष्य के गंतव्य पर नियंत्रण करता और उसे सँवारता है। और इस तरह, मानव सभ्यता मनुष्यों की इच्छाओं को पूर्ण करने में अनजाने में और भी अधिक अक्षम बन जाती है, और कई ऐसे लोग भी हैं जो यह महसूस करते हैं कि इस प्रकार के संसार में रह कर वे, उन लोगों के बजाय जो चले गए हैं, कम खुश हैं। यहाँ तक की उन देशों के लोग भी जो अत्यधिक सभ्य हुआ करते थे इस तरह की शिकायतों को हवा देते हैं। क्योंकि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि मानवजाति की सभ्यता को सुरक्षित रखने के लिए शासक और समाजशास्त्री अपना कितना दिमाग ख़पाते हैं, परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना, यह किसी लाभ का नहीं है। मनुष्य के हृदय का खालीपन कोई नहीं भर सकता है, क्योंकि मनुष्य का जीवन कोई नहीं बन सकता है, और कोई भी सामाजिक सिद्धांत मनुष्य को उस खालीपन से मुक्ति नहीं दिला सकता है जिससे वह व्यथित है। विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम ये सब मात्र अस्थायी चैन हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ भी, मनुष्य अपरिहार्य रूप से पाप करेगा और समाज के अन्याय पर विलाप करेगा। ये वस्तुएँ मनुष्य की लालसा और अन्वेषण की इच्छा को शांत नहीं कर सकती हैं। क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर के द्वारा बनाया गया है और मनुष्यों के बेहूदे बलिदान और अन्वेषण केवल और भी अधिक कष्ट की ओर लेकर जा सकते हैं। मनुष्य एक निरंतर भय की स्थिति में रहेगा, और नहीं जान सकेगा कि मानवजाति के भविष्य का किस प्रकार से सामना किया जाए, या आगे आने वाले मार्ग पर कैसे चला जाए। मनुष्य यहाँ तक कि विज्ञान और ज्ञान के भय से भी डरने लगेगा, और स्वयं के भीतर के खालीपन से और भी अधिक डरने लगेगा। इस संसार में, इस बात की परवाह किए बिना कि क्या तुम एक स्वंतत्र देश में या बिना मानव अधिकार वाले देश में रहतें हो, तुम मानवजाति के भाग्य से बचकर भागने में सर्वथा अयोग्य हो। चाहे तुम एक शासक हो या शासित, तुम भाग्य, रहस्यों और मानवजाति के गंतव्य की खोज की इच्छा से बच कर भागने में सर्वथा अक्षम हो। खालीपन के व्याकुल करने वाले अनुभव से बचकर भागने में तो बिल्कुल भी सक्षम नहीं हो। इस प्रकार की घटनाएँ जो समस्त मानवजाति के लिए साधारण हैं, समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक घटनाएँ कही जाती हैं, फिर भी कोई महान व्यक्ति इस समस्या का समाधान करने के लिए सामने नहीं आ सकता है। मनुष्य, आखिरकार, मनुष्य ही है। परमेश्वर का स्थान और जीवन किसी भी मनुष्य के द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है। मानवजाति को न केवल एक निष्पक्ष समाज की, जिसमें हर एक परिपुष्ट हो, और सभी एक समान और स्वतंत्र हों, बल्कि परमेश्वर द्वारा उद्धार और उनके लिए जीवन की उपलब्धता की भी आवश्यकता है। केवल जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा उद्धार और अपने जीवन के लिए खाद्य सामग्री प्राप्त कर लेता है तभी मनुष्य की आवश्यकताएँ, अन्वेषण की लालसा और आध्यात्मिक रिक्तता का समाधान हो सकता है। यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर द्वारा उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो इस प्रकार का देश या राष्ट्र विनाश के मार्ग पर, अंधकार की ओर, चला जाएगा, और परमेश्वर के द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा।

शायद तुम्हारा देश वर्तमान में समृद्ध हो रहा हो, किंतु यदि तुम लोगों को परमेश्वर से भटकने देते हो, तो तुम्हारा देश स्वयं को उत्तरोत्तर परमेश्वर की आशीषों से वंचित होता हुआ पाएगा। तुम्हारे देश की सभ्यता उत्तरोत्तर पैरों के नीचे कुचल दी जाएगी, और ज़्यादा समय नहीं लगेगा कि लोग परमेश्वर के विरूद्ध उठकर स्वर्ग को कोसने लगेंगे। और इसलिए देश का भाग्य का अनजाने में ही विनाश कर दिया जाएगा। परमेश्वर शक्तिशाली देशों को उन देशों से निपटने के लिए अधिक ऊपर उठाएगा जिन्हें परमेश्वर द्वारा श्राप दिया गया है, यहाँ तक कि पृथ्वी से उनका अस्तित्व भी मिटा सकता है। किसी देश का उत्थान और पतन इस बात पर आधारित होता है कि क्या इसके शासक परमेश्वर की आराधना करते हैं, और क्या वे अपने लोगों को परमेश्वर के निकट लाने और आराधना करने में उनकी अगुआई करते हैं। और फिर भी, इस अंतिम युग में, क्योंकि वे जो वास्तव में परमेश्वर को खोजते और आराधना करते हैं वे तेजी से दुर्लभ हो रहे हैं, इसलिए परमेश्वर उन देशों पर अपना विशेष अनुग्रह प्रदान करता है जिनमें ईसाईयत एक राज्य धर्म है। वह संसार में एक अपेक्षाकृत धार्मिक शिविर बनाने के लिए उन्हें एक साथ एकत्रित करता है, जबकि नास्तिक देश या जो देश सच्चे परमेश्वर की आराधना नहीं करते हैं वे धार्मिक शिविर के विरोधी बन जाते हैं। इस तरह, परमेश्वर का मानवजाति के बीच न केवल एक स्थान होता है जिससे वह अपना कार्य कर करता है, बल्कि उन देशों को भी प्राप्त करता है जो धर्मी अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, ताकि उन देशों पर शास्तियाँ और प्रतिबंध लगाए जाएँ जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। मगर, इसके बावजूद, अभी तक ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो परमेश्वर की आराधना करने के लिए आगे आते हैं, क्योंकि मनुष्य उससे बहुत दूर भटक गया है, और परमेश्वर बहुत लंबे समय से मनुष्यों के विचारों से अनुपस्थित रहा है। पृथ्वी पर ऐसे देश रह जाते हैं जो धार्मिकता का अभ्यास करते हैं और अधार्मिकता का विरोध करते हैं। किन्तु यह परमेश्वर की इच्छा से अत्यंत दूर है, क्योंकि किसी भी देश का शासक अपने लोगों के ऊपर परमेश्वर को नियंत्रण नहीं करने देगा, और कोई राजनीतिक दल परमेश्वर की आराधना करने के लिए अपने लोगों को एक साथ इकट्ठा नहीं करेगा; परमेश्वर ने प्रत्येक देश, राष्ट्र, सत्तारूढ़ दल, और यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में अपना न्यायसंगत स्थान खो दिया है। यद्यपि धर्मी ताक़तें इस दुनिया में मौजूद हैं, किन्तु वह शासन जिसमें मनुष्य के हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं हो नाज़ुक होता है। परमेश्वर के आशीष के बिना, राजनीतिक क्षेत्र अव्यवस्था में पड़ जाएँगे और हमले के लिए असुरक्षित हो जाएँगे। मानवजाति के लिए, परमेश्वर के आशीष के बिना होना धूप के न होने के समान है। इस बात की परवाह किए बिना कि शासक अपने लोगों के लिए कितने अधिक परिश्रम से योगदान करते हैं, इस बात पर ध्यान दिए बिना कि मानवजाति कितने धर्मी सम्मेलन आयोजित करती है, इनमें से कोई भी चीज़ों की कायापलट नहीं करेगा या मानवजाति के भाग्य को नहीं बदलेगा। मनुष्य का मानना है कि ऐसा देश जिसमें लोगों को खिलाया जाता है और पहनने के कपड़े दिए जाते हैं, जिसमें वे एक साथ शान्ति से रहते हैं, एक अच्छा देश है, और एक अच्छे नेतृत्व वाला देश है। किन्तु परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। उसका मानना है कि कोई देश जिसमें कोई भी व्यक्ति उसकी आराधना नहीं करता है एक ऐसा देश है जिसे वह जड़ से मिटा देगा। मनुष्य के सोचने का तरीका परमेश्वर के सोचने के तरीकों से पूरी तरह भिन्न है। यदि किसी देश का मुखिया परमेश्वर की आराधना नहीं करता है, तो उस देश का भाग्य बहुत ही दुःखदायक होगा, और उस देश का कोई गंतव्य नहीं होगा।

परमेश्वर मनुष्य की राजनीति में भाग नहीं लेता है, फिर भी देश या राष्ट्र का भाग्य परमेश्वर के द्वारा नियंत्रित होता है। परमेश्वर इस संसार को और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करता है। मनुष्य का भाग्य और परमेश्वर की योजना बहुत ही घनिष्ठता से जुड़ी हुई हैं, और कोई भी मनुष्य, देश या राष्ट्र परमेश्वर की सम्प्रभुता से मुक्त नहीं है। यदि मनुष्य अपने भाग्य को जानना चाहता है, तो उसे अवश्य परमेश्वर के सामने आना चाहिए। परमेश्वर उन लोगों को समृद्ध करवाएगा है जो उसका अनुसरण करते और उसकी आराधना करते हैं, और उनका पतन और विनाश करेगा जो उसका विरोध करते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं।

बाइबल के दृष्य का स्मरण करें जब परमेश्वर ने सदोम पर विनाश का कार्य किया और इस बारे में भी विचार करें कि किस प्रकार से लूत की पत्नी नमक का खम्भा बन गई। वापस विचार करें कि किस प्रकार से नीनवे के लोगों ने टाट और राख में पश्चाताप किया, और स्मरण करें कि 2,000 वर्ष पहले यहूदियों द्वारा यीशु को सलीब पर चढ़ा दिए जाने के बाद क्या हुआ था। यहूदियों को इस्राएल से निर्वासित कर दिया गया था और वे दुनियाभर के देशों में भाग गए थे। कई लोगों को मार दिया गया था, और सम्पूर्ण यहूदी देश अभूतपूर्व विनाश के अधीन कर दिया गया था। उन्होंने परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाया था—जघन्य अपराध किया था—और परमेश्वर के स्वभाव को उकसाया था। उन्होंने जो किया था उसका उनसे भुगतान करवाया गया था, उनसे उनके कार्यों के परिणामों को भुगतवाया गया था। उन्होंने परमेश्वर की निंदा की थी, परमेश्वर को अस्वीकार किया था, और इसलिए उनकी केवल एक ही नियति थी: परमेश्वर द्वारा दण्डित किया जाना। यही वह कड़वा परिणाम और आपदा है जो उनके शासक अपने देश और राष्ट्र पर लाए।

आज, परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए संसार में वापस आ गया है। उसका पहला ठहराव, नास्तिकता का कट्टर गढ़, तानाशाही शासकों का विशाल जमावड़ाः चीन, है। परमेश्वर ने अपनी बुद्धि और सामर्थ्य से लोगों का एक समूह प्राप्त कर लिया है। इस अवधि के दौरान, चीन की सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा उसका हर तरह से शिकार किया जाता है और उसे अत्याधिक पीड़ा के अधीन किया जाता है, उसके पास अपना सिर टिकाने के लिए कोई जगह नहीं है और वह किसी भी शरणस्थल को पाने में असमर्थ है। इसके बावजूद, परमेश्वर तब भी उस कार्य को जारी रखता है जिसे करने का उसका इरादा हैः वह अपनी वाणी बोलता है और सुसमाचार का प्रसार करता है। कोई भी परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की थाह नहीं ले सकता है। चीन में, जो कि एक ऐसा देश है जो परमेश्वर को एक शत्रु मानता है, परमेश्वर ने कभी भी अपना कार्य बंद नहीं किया है। इसके बजाय, और अधिक लोगों ने उसके कार्य और वचन को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि परमेश्वर मानवजाति के हर एक सदस्य को बचाने के लिए वह सब कुछ करता है जो वह कर सकता है। हमें विश्वास है कि परमेश्वर जो कुछ प्राप्त करना चाहता है उस मार्ग में कोई भी देश या शक्ति ठहर नहीं सकता है। वे जो परमेश्वर के कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं, परमेश्वर के वचन का विरोध करते हैं, परमेश्वर की योजना में विघ्न डालते हैं और उसे बिगाड़ते हैं, अंततः परमेश्वर के द्वारा दण्डित किए जाएँगे। वह जो परमेश्वर के कार्य की अवज्ञा करता है नष्ट कर दिया जाएगा; कोई भी राष्ट्र जो परमेश्वर के कार्य को अस्वीकार करता है, उसे नष्ट कर दिया जाएगा; कोई भी देश जो परमेश्वर के कार्य का विरोध करने के लिए उठता है, वह इस पृथ्वी पर से मिटा दिया जाएगा; और उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। मैं सभी देशों, राष्ट्रों और यहाँ तक कि उद्योग के लोगों से विनती करता हूँ, कि परमेश्वर की आवाज़ को सुनें, परमेश्वर के कार्य को देखें, मानवजाति के भाग्य पर ध्यान दें, इस प्रकार परमेश्वर को सर्वाधिक पवित्र, सर्वाधिक सम्माननीय, मानवजाति के बीच आराधना का सर्वोच्च, और एकमात्र लक्ष्य बनाएँ और सम्पूर्ण मानवजाति को परमेश्वर के आशीष के अधीन जीवन जीने की अनुमति दें, ठीक उसी तरह से जैसे अब्राहम के वंशज यहोवा की प्रतिज्ञाओं के अधीन रहे थे और ठीक उसी तरह से जैसे आदम और हवा, जो मूल रूप से परमेश्वर के द्वारा बनाए गए थे, अदन के बगीचे में रहे थे।

परमेश्वर का कार्य बलपूर्वक उमड़ती हुई लहरों के समान है। उसे कोई नहीं रोक सकता है, और कोई भी उसके क़दमों को थाम नहीं सकता है। केवल वे लोग ही जो उसके वचनों को सावधानीपूर्वक सुनते हैं, और उसकी खोज करते हैं और उसके लिए प्यासे हैं, उसके पदचिह्नों का अनुसरण करके उसकी प्रतिज्ञा को प्राप्त कर सकते हैं। जो ऐसा नहीं करते हैं वे ज़बर्दस्त आपदा और उचित दण्ड के अधीन किए जाएँगे।

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