संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों के रहस्य की व्याख्या - अध्याय 18

परमेश्वर के सभी वचनों में उसके स्वभाव का एक हिस्सा समाहित होता है। परमेश्वर के स्वभाव को वचनों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है, जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि उसमें कितनी प्रचुरता है। आखिरकार, जिसे लोग देख और स्पर्श कर सकते हैं, वो उतना ही सीमित है जितनी कि लोगों की क्षमता है। यद्यपि परमेश्वर के वचन स्पष्ट हैं, तब भी लोग इसे पूरी तरह से समझने में असमर्थ हैं। उदाहरण के लिए इन वचनों को लो: "बिजली की एक चमक पर, प्रत्येक जानवर अपने असली स्वरूप में प्रकट हो जाता है। इसी प्रकार, मेरे प्रकाश से रोशन हो कर मनुष्यों ने भी उस पवित्रता को पुनः प्राप्त कर लिया है जो उनके पास पहले कभी थी। ओह, अतीत का वह भ्रष्ट संसार! अंतत: यह गंदे पानी में पलट गया है, और सतह के नीचे डूब कर कीचड़ में घुल गया है!" परमेश्वर के सभी वचनों में उसके अस्तित्व का समावेश है, और भले ही सभी लोग इन वचनों से अवगत हों, फिर भी उन्होंने कभी उनके अर्थ को नहीं जाना है। परमेश्वर की दृष्टि में, वे सभी जो उसका विरोध करते हैं, उसके शत्रु हैं अर्थात् जो लोग दुष्टात्माओं से संबंधित हैं, वे पशु हैं। इस से कलीसिया की वास्तविक स्थिति को देखा जा सकता है। सभी लोग परमेश्वर के वचनों द्वारा रोशन होते हैं, और इस रोशनी में, वे फटकार, ताड़ना या दूसरों द्वारा सीधी उपेक्षा के बिना, चीज़ों के करने के अन्य मानवीय तरीकों के अधीन हुए बिना, और दूसरों की हिदायत बिना, स्वयं को जाँचते हैं। "सूक्ष्मदर्शी परिप्रेक्ष्य" से, वे बहुत स्पष्ट रूप से देखते हैं कि उनके भीतर वास्तव में कितनी बीमारी है। परमेश्वर के वचनों में, हर प्रकार की आत्मा को वर्गीकृत किया जाता है और उसे उसके मूल रूप में प्रकट किया जाता है। स्वर्गदूतों की आत्माएँ अधिक रोशन और प्रबुद्ध हो जाती हैं, इसलिए परमेश्वर के वचन हैं, कि "मनुष्यों ने भी उस पवित्रता को पुनः प्राप्त कर लिया है जो उनके पास पहले कभी थी।" ये वचन परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए अंतिम परिणामों पर आधारित हैं। फिलहाल, निस्संदेह, इस परिणाम को पूरी तरह से हासिल नहीं किया जा सकता है—यह सिर्फ एक पूर्वानुभव है, जिसके माध्यम से परमेश्वर की इच्छा देखी जा सकती है। ये वचन इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि बहुत से लोग परमेश्वर के वचनों के भीतर चूर-चूर हो जाएंगे और सभी लोगों के पवित्रीकरण की उत्तरोत्तर प्रक्रिया में पराजित हो जाएँगे। यहाँ, "यह कीचड़ में घुल गया है" परमेश्वर का आग से दुनिया को नष्ट करने का विरोध नहीं करता है, और "बिजली" परमेश्वर के कोप की ओर संकेत करती है। जब परमेश्वर अपने महान कोप को बंधन से मुक्त करेगा, तो परिणामस्वरूप, पूरी दुनिया, ज्वालामुखी के फटने की तरह, सभी प्रकार की आपदाओं का अनुभव करेगी। आकाश में ऊपर खड़े हो कर, यह देखा जा सकता है कि पृथ्वी पर सभी प्रकार की आपदाएँ, दिन प्रति दिन मानवजाति को घेर रही हैं। ऊपर से नीचे देखने पर, पृथ्वी भूकंप से पहले के विभिन्न दृश्यों को प्रदर्शित करती है। तरल अग्नि अनियंत्रित बहती है, लावा बेरोकटोक बहता है, पहाड़ सरकते हैं, और हर जगह उदासीन प्रकाश चमकता है। पूरी दुनिया आग में डूब गई है। यह परमेश्वर के कोप के उत्सर्जन का दृश्य है, और यह उसके न्याय का समय है। वे सभी जो मांस और रक्त वाले हैं भागने में असमर्थ होंगे। इस प्रकार, पूरी दुनिया को नष्ट करने के लिए देशों के बीच युद्ध और लोगों के बीच संघर्ष की आवश्यकता नहीं होगी; इसके बजाय दुनिया परमेश्वर की ताड़ना के पालने में "स्वयं का होशहवास में आनंद" लेगी। कोई भी बच निकलने में सक्षम नहीं होगा; हर एक व्यक्ति को, एक के बाद एक, इस कठिन परीक्षा से गुजरना होगा। इसके बाद संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक बार पुनः पवित्र कांति से जगमगाएगा और समस्त मानवजाति एक बार पुनः एक नया जीवन शुरू करेगी। और परमेश्वर ब्रह्मांड के ऊपर आराम करेगा और हर दिन मानवजाति को आशीष देगा। स्वर्ग असहनीय ढंग से उजाड़ नहीं होगा, किन्तु उस जीवन-शक्ति को पुनःप्राप्त करेगा जो दुनिया की सृष्टि के बाद से उसके पास नहीं है, और "छठे दिन" का आगमन तब होगा जब परमेश्वर एक नया जीवन शुरू करेगा। परमेश्वर और मनुष्यजाति दोनों विश्राम में प्रवेश करेंगे और ब्रह्मांड अब गंदा या मैला नहीं रहेगा, बल्कि नवीनीकरण को प्राप्त करेगा। यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा: "पृथ्वी अब निष्प्राण रूप से स्थिर और मूक नहीं है, स्वर्ग अब उजाड़ और दुःखी नहीं है।" स्वर्ग के राज्य में अधार्मिकता या मानवीय भावनाएँ, या मानवजाति का कोई भी भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं रहा है क्योंकि वहाँ शैतान का उपद्रव मौजूद नहीं है। सभी "लोग" परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम हैं, और स्वर्ग का जीवन खुशी से भरा जीवन है। स्वर्ग में सभी लोगों के पास परमेश्वर की बुद्धि और गरिमा है। स्वर्ग और पृथ्वी के बीच भिन्नताओं की वजह से, स्वर्ग के नागरिकों को "लोग" नहीं कहा जाता है, बल्कि परमेश्वर उन्हें "आत्माएँ" कहता है। इन दोनों शब्दों में सार-भूत अंतर हैं—अब जिन्हें "लोग" कहा जाता है वे शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं, जबकि "आत्माएँ" नहीं हुई हैं। अंत में, परमेश्वर पृथ्वी के लोगों को स्वर्ग की आत्माओं की विशेषताओं वाले प्राणियों में परिवर्तित कर देगा और फिर वे शैतान के उपद्रवों के अधीन अब और नहीं होंगे। इन वचनों, "मेरी पवित्रता पूरे ब्रह्मांड में फैल गई है।" का यही सही अर्थ है। "पृथ्वी अपनी मौलिक स्थिति में स्वर्ग से संबद्ध है और स्वर्ग पृथ्वी के साथ एक हो जाता है। मनुष्य, स्वर्ग और पृथ्वी को बाँधे रखने वाली डोर है, और मनुष्य की पवित्रता के कारण, मनुष्य के नवीनीकरण के कारण, स्वर्ग अब पृथ्वी से छुपा हुआ नहीं है, और पृथ्वी अब स्वर्ग की ओर मौन नहीं है।" यह उन लोगों के संदर्भ में कहा जाता है, जिनके पास स्वर्गदूतों की आत्माएँ हैं, और उस बिंदु पर, "स्वर्गदूत" एक बार पुनः शांति से मिलजुल कर एक साथ रहने और अपनी मूल अवस्था को पुनः प्राप्त करने में समर्थ होंगे, और देह की वजह से स्वर्ग और पृथ्वी के दो क्षेत्रों के बीच अब और विभाजित नहीं होंगे। धरती पर "स्वर्गदूत", स्वर्ग में स्वर्गदूतों के साथ संवाद करने में समर्थ होंगे, पृथ्वी पर लोग स्वर्ग के रहस्यों को जान जाएँगे, और स्वर्ग में स्वर्गदूत मानवीय दुनिया के रहस्यों को जान जाएँगे। स्वर्ग और पृथ्वी एकजुट हो जाएँगे और उनके बीच कोई दूरी नहीं रहेगी। यह राज्य के साकार होने की सुंदरता है। यही वह है जो परमेश्वर पूरा करेगा, और यह कुछ ऐसा है जिसकी सभी मनुष्य और आत्माएँ लालसा करती हैं। किन्तु धार्मिक दुनिया के लोग इसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं। वे सिर्फ़ एक सफेद बादल पर उद्धारकर्ता यीशु के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे पृथ्वी पर बिखरे पड़े "कचरे" को छोड़ (यहाँ "कचरा" लाशों का संकेत करता है) उनकी आत्माओं को दूर ले जायें। क्या यह ऐसी अवधारणा नहीं है जिसे सभी मनुष्य साझा करते हैं? यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा: "धार्मिक संसार—कैसे इसे पृथ्वी पर मेरी सामर्थ्य द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता था?" धरती पर परमेश्वर के लोगों के पूरे होने की वजह से धार्मिक दुनिया उलट जाएगी। उस "अधिकार" का सही अर्थ यही है जिसके बारे में परमेश्वर ने बात की है। परमेश्वर ने कहा था: "क्या कुछ लोग ऐसे हैं, जो मेरे दिवस में, मेरा नाम बदनाम करते हैं? सभी मनुष्य मेरी ओर श्रद्धा से देखते हैं, और अपने हृदय में वे मुझे चुपके से पुकारते हैं।" यही है वह जो उसने विनाश के परिणामों के बारे में कहा था। उसके वचनों की वजह से धार्मिक दुनिया परमेश्वर के सिंहासन के समक्ष पूरी तरह से समर्पण करेगी, और सफेद बादल के आने की अब और प्रतीक्षा नहीं करेगी या आकाश को और नहीं देखेगी, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर के सिंहासन के सामने जीत ली जाएगी। इस प्रकार यह वचन कि, "अपने हृदय में वे मुझे चुपके से पुकारते हैं" यह धार्मिक संसार का परिणाम है, जिसे परमेश्वर पूरी तरह से जीत लेगा। यही है वह जिसका परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता—सभी धार्मिक लोगों को, मनुष्य-जाति के सबसे बड़े विद्रोहियों को गिराने के रूप में उल्लेख करता है, ताकि वे फिर कभी अपनी अवधारणाओँ को नहीं पकड़ेंगे, कि वे परमेश्वर को जान सकें।

यद्यपि परमेश्वर के वचनों ने बार-बार राज्य की सुंदरता की भविष्यवाणी की है, इसके विभिन्न पहलुओं के बारे में बात की है और इसका विभिन्न दृष्टिकोणों से वर्णन किया है, किन्तु वे अभी भी राज्य के युग की हर स्थिति को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकते हैं क्योंकि लोगों में ग्रहण करने की योग्यता का बहुत अभाव है। उसके कथन के सभी वचन बोल दिए गए हैं, किन्तु लोगों ने अपने भीतर फ्लूरोस्कोप के माध्यम से, एक्स-रे के साथ, जैसे भी थे, नहीं देखा है, और इस प्रकार अस्पष्ट हैं और उनकी समझ में नहीं आया है। यह देह का सबसे बड़ा दोष है। यद्यपि अपने हृदयों में, लोग परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं, वे शैतान के उपद्रव के कारण उसका विरोध करते हैं, इसलिए परमेश्वर ने बार-बार लोगों के सुन्न और मूर्ख हृदयों को स्पर्श किया ताकि वे पुनर्जीवित हो सकें। परमेश्वर जो कुछ भी उजागर करता है वह शैतान की कुरूपता है, इसीलिए उसके वचन जितने अधिक कठोर होते हैं, शैतान उतना ही अधिक शर्मिन्दा होता है, और लोगों के हृदय उतना ही कम विवश होते हैं, और उतना ही अधिक लोगों के प्यार को जगाया जा सकता है। परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है। क्योंकि शैतान को उजागर कर दिया गया है और क्योंकि इसकी सही प्रकृति का पता लगाया जा चुका है, इसलिए यह लोगों के हृदयों पर अब और कब्जा करने का साहस नहीं करता है, और इस प्रकार स्वर्गदूतों को अब परेशान नहीं किया जाता है। इसी तरह से, वे अपने पूरे हृदय और मन से परमेश्वर को प्यार करते हैं। केवल इस समय ही यह देखने में स्पष्ट होता है कि, अपनी सच्ची अस्मिता में, स्वर्गदूत परमेश्वर से संबंधित हैं और परमेश्वर को प्यार करते हैं। यह केवल इसी मार्ग से है कि परमेश्वर की इच्छा को प्राप्त किया जा सकता है। "उनके हृदय में मेरे लिये एक जगह है। अब मैं मनुष्यों से घृणा या त्याग नहीं पाऊंगा, क्योंकि मेरा बड़ा कार्य पहले ही पूरा हो चुका है, और अब यह बाधित नहीं है।" जो ऊपर वर्णन किया गया था उसका यही अर्थ है। शैतान के उत्पीड़न के कारण, लोगों को परमेश्वर से प्रेम करने का समय नहीं मिलता है और वे हमेशा दुनिया की चीजों में उलझे रहते हैं, और वे शैतान द्वारा बहकाए जाते हैं जिसके कारण वे भ्रम में क्रिया-कलाप करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा है कि मनुष्य ने "जीवन की इतनी कठिनाइयां पार की हैं, मानवीय राज के बहुत सारे अन्याय झेले हैं, इतने उतार-चढ़ाव देखें हैं, लेकिन अब वे मेरे प्रकाश में रहते हैं। अतीत के अन्याय पर कौन नहीं रोता?" इन वचनों को सुनने के बाद लोग ऐसा महसूस करते हैं मानो कि परमेश्वर दुःख में उनका सहभागी है, उनके साथ सहानुभूति प्रकट कर रहा है, और उस समय, उनकी परेशानियों को साझा कर रहा है। वे अचानक मानवीय दुनिया की पीड़ा को महसूस करते हैं और सोचते हैं: "क्या यह सच नहीं है—मैंने दुनिया में कभी भी किसी चीज का आनंद नहीं लिया है। अपनी माँ के गर्भ से बाहर आने के बाद से अब तक, मैंने मानव जीवन का अनुभव किया है और मैंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, किन्तु मैंने पीड़ा काफी झेली है। यह सब कितना खोखला है! और अब मैं शैतान द्वारा बहुत भ्रष्ट किया गया हूँ! ओह! यदि परमेश्वर द्वारा उद्धार नहीं होता, तो जब मेरी मौत का समय आता, तो क्या मैं पूरी ज़िंदगी व्यर्थ में नहीं जिया होता? क्या मानव जीवन का कोई अर्थ है? कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर ने कहा कि पृथ्वी पर सब कुछ खोखला है। यदि परमेश्वर ने आज मुझे प्रबुद्ध नहीं किया होता, तो मैं अभी भी अंधकार में होता। यह कितना दयनीय है!" इस बिंदु पर, उनके हृदय में एक संदेह पैदा होता है : "यदि मैं परमेश्वर के वादे को प्राप्त नहीं कर सकता हूँ, तो मैं जीवन का अनुभव कैसे लेता रह सकता हूँ?" इन वचनों को पढ़ने वाला हर कोई प्रार्थना करते हुए रो पड़ेगा। मानवीय मानसिकता ऐसी ही है। यदि कोई मानसिक रूप से असंतुलित न हो तो उसके लिए यह असंभव होगा कि वह इसे पढ़े और कोई प्रतिक्रिया न दे। हर दिन, परमेश्वर हर तरह के लोगों की स्थितियों को उजागर करता है। कभी-कभी, वह उनकी ओर से शिकायतें करता है। कभी-कभी, वह लोगों की एक निश्चित माहौल पर क़ाबू पाने और उससे गुज़रने में सहायता करता है। कभी-कभी, वह लोगों के लिए उनके "रूपांतरणों" को बताता है। अन्यथा, लोग जान जाते कि वे जीवन में कितना पनपे हैं। कभी-कभी, परमेश्वर वास्तविकता में लोगों के अनुभवों को बताता है, और कभी-कभी, वह उनकी कमियों और दोषों को बताता है। कभी-कभी, वह उनसे नई अपेक्षाएँ करता है, और कभी-कभी, वह अपने बारे में उनकी समझ की हद को बताता है। हालाँकि, परमेश्वर ने यह भी कहा है : "मैंने कई व्यक्तियों द्वारा हृदय से बोले गये शब्दों को सुना है, इतने सारे लोगों द्वारा दुख में दर्दनाक अनुभवों के बारे में सुना है; मैंने बहुतों को देखा है जिन्होंने कठिनतम स्थितियों में भी, सदा अपनी निष्ठा मुझे अर्पित की है, और मैंने कइयों को पथरीले रास्ते पर चलते हुये, निकलने के लिए मार्ग की खोज में संघर्ष करते हुये भी देखा है।" यह सकारात्मक पात्रों का वर्णन है। "मानव इतिहास के नाटक" की प्रत्येक कड़ी में न केवल सकारात्मक पात्र रहे हैं बल्कि नकारात्मक पात्र भी रहे हैं। इसलिए परमेश्वर इन नकारात्मक पात्रों की कुरूपता को प्रकट करता जाता है। इस तरह, यह केवल "विश्वासघाती" के साथ उनके अंतर के माध्यम से है कि "ईमानदार मनुष्यों" की अटल वफादारी और निडर साहस प्रकट होते हैं। सभी लोगों के जीवन में नकारात्मक कारक होते हैं और, बिना किसी अपवाद के, सकारात्मक कारक भी होते हैं। परमेश्वर सभी लोगों के बारे में सच्चाई को प्रकट करने के लिए दोनों का उपयोग करता है, जिससे कि विश्वासघाती अपने सिरों को झुका लेंगे और अपने पापों को स्वीकार करेंगें, और ताकि ईमानदार मनुष्य प्रोत्साहन पाकर वफादार बने रहेंगे। परमेश्वर के वचनों का निहितार्थ बहुत गहरा है। कभी-कभी, लोग उन्हें पढ़ने के बाद हँसी से दोहरे हो जाते हैं, जबकि अन्य समयों में, वे मौन होकर अपने सिरों को लटका देते हैं। कभी-कभी वे यादें ताज़ा करते हैं, कभी-कभी वे फूट-फूट कर रोते हैं और अपने पापों को अभिस्वीकृत करते हैं, कभी-कभी वे अँधेरे में टटोलते हैं, और कभी-कभी वे तलाश करते हैं। कुल मिलाकर, उन विभिन्न परिस्थितियों की वजह से जिनमें परमेश्वर बोलता है, लोगों की प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन होते हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को पढ़ता है, तो कभी-कभी तमाशाई भी गलती से विश्वास कर सकते हैं कि वह व्यक्ति मानसिक रोगी है। इन वचनों पर विचार करो: "और इसलिए, पृथ्वी पर विवादास्पद मतभेद नहीं रहे, और, मेरे वचनों का अनुगमन करते हुये, आधुनिक युग के विविध 'हथियार' भी वापस ले लिये गये हैं।" "हथियार" शब्द पूरे दिन के लिए एक पर्याप्त हास्य का साधन हो सकता है, और जब कभी भी कोई संयोगवश "हथियार" शब्द को याद करेगा तो वह अपने आप में जोर से हँसेगा। क्या ऐसा नहीं है? तुम इस पर कैसे नहीं हँस सकते?

जब तुम हँसते हो, तो मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझना न भूलो, और कलीसिया की वास्तविक परिस्थिति को देखना न भूलो : "समस्त मानवजाति अब सामान्य स्थिति में लौट चुकी है और एक नए जीवन को आरम्भ कर चुकी है। नए परिवेश में निवास करते हुए, अच्छी संख्या में लोग, ऐसा महसूस करते हुए मानो कि वे एक बिल्कुल ही नए संसार में प्रवेश कर चुके हैं, अपने आसपास देखते हैं, और इस वजह से, वे तुरंत अपने वर्तमान परिवेश के अनुकूल बनने में या एक दम से सही मार्ग पर आने में समर्थ नहीं होते हैं।" यह कलीसिया की वर्तमान वास्तविक परिस्थिति है। सभी लोगों को तुरंत सही मार्ग में प्रवेश करवाने के लिए उद्विग्न न हो। एक बार जब पवित्र आत्मा का कार्य एक निश्चित स्तर तक प्रगति कर लेता है, तो सभी लोग इसे महसूस किए बिना इसमें प्रवेश करेंगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों के सार को समझोगे, तो तुम जान जाओगे कि उसके आत्मा ने किस चरण तक कार्य कर लिया है। परमेश्वर की इच्छा है: "मैं, उसकी अधार्मिकता पर निर्भर करते हुए, केवल 'शिक्षा' का एक उचित उपाय प्रशासित करता हूँ, जो हर एक को सही रास्ते पर आने में बेहतर सक्षम बनाता है।" यह परमेश्वर के बोलने और कार्य करने का तरीका है, और यह मानवजाति के अभ्यास का विशिष्ट मार्ग भी है। इसके बाद, उसने लोगों के लिए मानवजाति की अन्य स्थितियों को बताया: "यदि मानवजाति उस परमानंद का मज़ा लेने की अनिच्छुक है जो मुझ में है, तो मैं केवल इतना ही कर सकता हूँ कि उनकी अभिलाषाओं के अनुसार उन्हें अथाह गड्ढे में भेज दूँ।" परमेश्वर ने सुविस्तृत रूप से बोला और लोगों के पास शिकायत करने का जरा सा भी अवसर नहीं छोड़ा। परमेश्वर और मनुष्य के बीच यही सटीक अंतर है। परमेश्वर हमेशा स्पष्ट और मुक्त रूप से मनुष्य से बात करता है। परमेश्वर जो कुछ भी कहता है उसमें, कोई भी उसके ईमानदार हृदय को देख सकता है, जिसके कारण लोग अपने हृदयों की उसके हृदय से तुलना करते हैं और यह उन्हें समर्थ बनाता है कि वे अपने हृदयों को उसके प्रति खोलें, ताकि वह देख सके कि इंद्रधनुष के वर्णक्रम में उनका कौन सा रंग है। परमेश्वर ने कभी भी किसी भी व्यक्ति की आस्था या प्यार की सराहना नहीं की है, किन्तु उसने हमेशा लोगों से अपेक्षाएँ की हैं और उनके कुरूप पक्ष को उजागर किया है। यह दर्शाता है कि लोगों के पास कितनी छोटी "कद-काठी" है और उनके "गठन" में कितना अभाव है। इनकी क्षतिपूर्ति करने के लिए उन्हें अधिक "अभ्यास" करने की आवश्यकता है, यही कारण है कि परमेश्वर लोगों पर लगातार "अपना क्रोध भेजता" है। एक दिन, जब परमेश्वर मानवजाति के बारे में पूरी सच्चाई प्रकट कर देगा, तो लोग पूरे हो जाएँगे, और परमेश्वर निश्चिंत हो जाएगा। लोग अब परमेश्वर को नहीं फुसलायेँगे, और वह उन्हें अब और "शिक्षित" नहीं करेगा। तब से, लोग "अपने दम पर रहने" में समर्थ होंगे, किन्तु यह वो समय नहीं है। अभी भी लोगों में ऐसा बहुत कुछ है जिसे "नक़ली" कहा जा सकता है, और परीक्षा के कई दौरों की, तथा और अधिक "जाँच की चौकियों" की आवश्यकता है जहाँ उनके "करों" का उचित रूप से भुगतान किया जा सके। यदि अभी भी नकली माल हैं, तो उन्हें जब्त कर लिया जाएगा ताकि उन्हें बेचा नहीं जा सके, और तब तस्करी के सामान की उस खेप को नष्ट कर दिया जाएगा। क्या चीज़ों को करने का यह एक अच्छा तरीका नहीं है?

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