राज्य के युग में परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के बारे में

सबसे पहले, हम इस बारे में बात करते हैं कि प्रशासनिक आदेश क्या हैं और उनकी परिभाषा क्या है। इसे समझना जरूरी है। कुछ लोग “प्रशासनिक आदेशों” के बारे में सुनकर सोचते हैं, “‘प्रशासनिक आदेशों’ का क्या अर्थ है? क्या वे वैधानिक व्यवस्थाएँ हैं? क्या वे नियम हैं? क्या वे कोई प्रणाली हैं? किसी तरह की वंशागत निषेधाज्ञाएँ हैं? क्या वे आज्ञाएँ हैं? आखिर वे हैं क्या?” लोगों में समझ की कमी होती है। कोई नहीं समझता कि प्रशासनिक आदेश ठीक-ठीक क्या होते हैं या कैसे काम करते हैं। हालांकि लोग अक्‍सर कहते हैं, “परमेश्‍वर के अपने प्रशासनिक आदेश हैं। अगर तुम आज्ञाकारी नहीं हो, तो परमेश्वर तुम्हें नियंत्रित रखने और दंडित करने के लिए इन आदेशों का उपयोग करेगा।” “प्रशासनिक आदेश” शब्‍द उनकी जुबान पर होते हैं, लेकिन वे इन शब्‍दों का मूलभूत अर्थ नहीं समझते। तो असल में प्रशासनिक आदेश क्‍या हैं? ये लोगों की प्रकृति और उनके भ्रष्‍ट स्‍वभाव को ठीक करने के लिए परमेश्‍वर द्वारा प्रतिपादित वचन हैं, जिनका मकसद उन्हें नियंत्रित रखना है। प्रशासनिक आदेश कानून या वैधानिक व्‍यवस्‍थाएँ नहीं हैं, और मानव संसार के संविधानों से तो उनकी तुलना बिल्कुल नहीं की जा सकती। वे लोगों के आचरण को नियंत्रित रखने के मकसद से परमेश्‍वर द्वारा परिभाषित मापदंडों का संग्रह हैं। प्रशासनिक आदेशों के विस्तार में ये बातें शामिल हैं कि परमेश्‍वर का भय कैसे माना जाए, परमेश्‍वर की आराधना कैसे की जाए, उसकी आज्ञा का पालन कैसे किया जाए, एक सृजित प्राणी के रूप में कार्य कैसे किया जाए, एक इंसान के रूप में कैसे काम किया जाए, और परमेश्‍वर के नाम को कलंकित करने से कैसे बचा जाए। परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के विस्तार में कई चीजें शामिल हैं। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्‍वर का आत्‍मा बहुत कुछ कर सकता है। वह लोगों को दंडित कर सकता है और हर किसी को उसकी करनी का उचित फल दे सकता है। परमेश्वर ने सभी लोगों का मार्गदर्शन करने वाले सत्य भी बोले हैं। तब फिर प्रशासनिक आदेशों की क्‍या जरूरत है?” सत्‍य लोगों के जीवन-प्रवेश और अपने भ्रष्‍ट स्‍वभावों की उनकी समझ से जुड़ा हुआ है। प्रशासनिक आदेश स्‍पष्‍ट रूप से परिभा‍षित नियम हैं। तुम्हारी जो भी अवस्‍था हो, तुम किसी भी किस्म के व्‍यक्ति हो, अगर तुम परमेश्‍वर में विश्‍वास रखते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेशों द्वारा निर्देशित सारे नियमों का पालन करना ही चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम्हारा नाम हटा दिया जाएगा, और तुम परमेश्‍वर की नजरों में घृणा और तिरस्‍कार के योग्‍य बन जाओगे। वास्‍तव में, प्रशासनिक आदेश परमेश्‍वर में विश्‍वास करने वालों से की गई न्‍यूनतम अपेक्षाएँ हैं, उसी तरह जैसे इस्राएलियों ने त्याग के साथ यहोवा की आराधना की और सब्त को कायम रखा। व्‍यवस्‍था के युग में यहोवा ने कुछ कार्य किए, बहुत-से वचन कहे, और अनगिनत नियम बनाए थे। उन नियमों में स्वाभाविक रूप से ऐसा बहुत कुछ शामिल था जो मनुष्‍य को करना चाहिए : उदाहरण के लिए, उनको यहोवा की आराधना कैसे करनी चाहिए या यहोवा के लिए किस तरह त्याग करना चाहिए, कैसे अपनी आय का दसवां हिस्‍सा अर्पित करना चाहिए, भेंट देना चाहिए वगैरह। उस समय इन चीजों को व्यवस्था कहा जाता था, और अनुग्रह के युग में इससे मिलते-जुलते नियमों को आज्ञाएँ कहा गया, और सभी लोगों को उनका पालन करना जरूरी था। अब राज्य के युग में, अंत के दिनों के कार्य के इस चरण में, एक नए युग की आज्ञाएँ जारी की गई हैं, और अब इन्हें प्रशासनिक आदेश कहा जाता है। राज्य के युग में, ये आज्ञाएँ प्रशासनिक आदेशों का हिस्सा हैं। हालाँकि, अनुग्रह के युग की आज्ञाएँ आज प्रशासनिक आदेशों की भूमिका नहीं निभा सकतीं, क्‍योंकि परमेश्वर हर युग में मनुष्‍य से भिन्न तरह की अपेक्षाएँ रखता है।

हर युग की ईश्‍वरीय आज्ञाएँ होती हैं, और हर युग के अनुरूप मनुष्‍य से परमेश्‍वर की अपेक्षाएँ और कसौटियाँ होती हैं, ऐसी कसौटियाँ जो युग में आने वाले बदलावों और परमेश्‍वर के कार्य की अपेक्षाओं के अनुसार बदलती रहती हैं। व्यवस्था के युग की कुछ व्यवस्थाओं का इस्तेमाल आज के समय में करना उचित नहीं होगा, लेकिन बेशक, कुछ व्यवस्थाएँ अभी भी उपयुक्त हैं। जिन आज्ञाओं के बारे में यीशु ने अनुग्रह के युग में बात की थी, उनमें से ज्यादातर आज के समय में उपयुक्त हैं, लेकिन कुछ उपयुक्त नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं, “अपने माता-पिता का आदर करो, पाप मत करो, व्यभिचार मत करो, मूर्ति-पूजा मत करो—ये चीजें कैसे उपयुक्त नहीं हो सकतीं?” मैं उनमें से बस कुछ ही आज्ञाओं की बात कर रहा हूँ। “अपने माता-पिता का आदर करो” जैसी आज्ञाएँ परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं, इसलिए गलत मत समझना। कुछ बेतुके लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने कहा है कि पहले जारी की गई सभी व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ खत्म कर दी गई हैं, और उनमें से सिर्फ कुछ ही का अभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है।” तुम्हें ऐसा भ्रम नहीं फैलाना चाहिए। ऐसा संदेश फैलाना एक गलती है और इससे बाधा उत्पन्न होती है। यह परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या है। जो लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं, वे उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाते हैं, और जो उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाते हैं, वे राक्षस हैं। समय चाहे जो भी हो, तुम्हें संत जैसी न्यूनतम अपेक्षित शालीनता बनाए रखनी चाहिए। यह कम से कम किसी मनुष्य जैसा होने के लिए आवश्यक है। वे सभी व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ उनके समकालीन युग और संदर्भ के अनुसार जारी की गई थीं, और वे समकालीन कार्य और मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप थीं। वर्तमान युग में, परमेश्वर ने कुछ और वचन बोले हैं और लोगों को नियंत्रित रखने के लिए कुछ और नियम बनाए हैं। यानी उसने कुछ कसौटियाँ बनाई हैं, जैसे कि परमेश्वर में विश्वास कैसे करें, परमेश्वर में अपनी आस्था के भाग के रूप में लोगों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, वगैरह। अनुग्रह के युग में यीशु ने कहा था, “मैं व्यवस्था खत्म करने नहीं, बल्कि पूरी करने आया हूँ।” फिर भी, बाद में उसने बहुत-सी व्यवस्थाएँ खत्म कर दीं। वे व्यवस्थाएँ उस युग के लिए उपयुक्त नहीं थीं, वे उस समय के कार्य के लिए उपयुक्त नहीं थीं, और वे उस समय के माहौल के उपयुक्त नहीं थीं, इसलिए उसने उन्हें खत्म कर दिया। आज बेशक उन्हें खत्म किया जाना और भी ज्यादा जरूरी है। इसी तरह, नए युग में, नए नियम की कुछ आज्ञाएँ खत्म की जानी जरूरी हैं, और कुछ आज्ञाएँ बनी रहनी चाहिए, क्योंकि आज के कार्य का माहौल अलग है और लोगों की जरूरत भी अलग है। कार्य का प्रत्येक चरण पिछले चरण से उच्च स्तर का है। कुछ बेतुके लोग कहते हैं, “प्रभु यीशु ने कहा कि वह व्यवस्था पूरी करने आया है, तो फिर उसने इतनी सारी व्यवस्थाएँ खत्म करके हटा क्यों दीं? उसके कर्म व्यवस्था का उल्लंघन क्यों क्यों करते थे?” उसके द्वारा व्यवस्थाएँ खत्म किया जाना असल में उन्हें पूरा करना ही था। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसने जो कार्य किया उससे इस तरह का परिणाम आया, इसलिए अब उन व्यवस्थाओं का पालन करने की कोई जरूरत नहीं थी। ठीक वैसे ही, जैसे कि जब यीशु ने पापबलि देने का काम किया, उसके बाद उस व्यवस्था के अनुसार फिर पापबलि देने की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि परमेश्वर का कार्य नियमों का पालन नहीं करता। कुछ व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ खत्म की जा सकती हैं और उनकी जगह नए कार्य का इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर तुम लोग यह संदेश फैलाओ, “पिछली सभी आज्ञाएँ खत्म कर दी गई हैं। अब वे उपयोगी नहीं रहीं,” तो यह बेतुका होगा। आज, परमेश्‍वर ने मानवजाति की अवस्‍थाओं और जरूरतों के अनुरूप प्रशासनिक आदेश जारी किए हैं। कुछ लोग पूछते हैं, “हर युग में परमेश्वर प्रशासनिक आदेश क्यों जारी करेगा? यह तो पहले ही किया जा चुका है, और लोग उनके बारे में जानते हैं, और हम वही करते हैं जो हमसे कहा जाता है। यह सिलसिला तो यहीं खत्‍म हो जाना चाहिए। नए आदेश जारी करते रहने की क्‍या जरूरत है?” लोग अब जितने भ्रष्‍ट हैं, उसे देखते हुए क्‍या प्रशासनिक आदेश जारी न करना मुमकिन होगा? सभी लोगों के स्‍वभाव भ्रष्‍ट हैं। क्या लोग अपनी प्रकृति से नियंत्रित होकर भी परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं? तुम यह दावा नहीं कर सकते कि एक बार लोगों ने परमेश्वर में आस्था रख ली, वे आज्ञाओं को मानने और उन्हें पूरा करने में सक्षम हो गए, तो वे पवित्र और धार्मिक हो गए। ऐसा नहीं होता। लोगों में भ्रष्‍ट स्‍वभाव है, और वे हमेशा उन भ्रष्ट स्वभावों के बीच जीते हैं, इसलिए उनके व्यवहार को नियंत्रित रखने के लिए आवश्यक प्रशासनिक आदेशों की जरूरत हमेशा बनी रहती है। अगर लोग सचमुच इन प्रशासनिक आदेशों का उल्‍लंघन करते हैं, तो उन्‍हें अनुशासित किया जा सकता है, उन पर कुछ प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं या उन्हें हटाया और निकाला जा सकता है। सभी तरह के परिणाम हो सकते हैं। व्यवस्था और अनुग्रह के युगों में व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ थीं। अब, राज्य के युग में आज्ञाओं के अलावा प्रशासनिक आदेश भी होने चाहिए। तो, राज्य के युग के प्रमुख प्रशासनिक आदेश क्या हैं? अब दस आदेश जारी किए जाने हैं।

1. मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।

“मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।” ये चार चीजें वास्तव में एक मसले की बात करती हैं : अपनी बातचीत में लोगों को एक मानवीय दृष्टिकोण रखना चाहिए, और उन्हें अपने बारे में डींगें नहीं हाँकनी चाहिए। तुमने किसी कलीसिया की कितनी अच्छी तरह से अगुआई की है, इस बारे में डींगें मत हाँको, शेखी मत बघारो कि वह तुम्हारी है, और यह मत कहो कि परमेश्वर तुम्हारा इस्तेमाल करता है और वह तुम्हारे प्रति खास तौर से अच्छा है। ऐसी बातें मत बोलो, “परमेश्वर ने हमारे साथ खाया और हमसे बात की।” तुम्हारी ये बातें वास्तविकता से मेल नहीं खातीं। परमेश्वर अपने चुने हुए सभी लोगों से एक-जैसा बर्ताव करता है। अगर किसी व्यक्ति को उजागर करके निकाला नहीं गया है, तो परमेश्वर का सभी लोगों के प्रति एक-जैसा रवैया रहता है। अगर परमेश्वर ने तुम्हारे साथ सत्य पर संगति की है, तो इससे यह साबित नहीं होता कि तुम दूसरों से बेहतर हो; बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हें संयोग से यह अवसर मिला है। तो क्या कहना उचित है? अगर तुम सत्य पर संगति नहीं कर सकते, और अगर तुम अपने भाई-बहनों को जीवन प्रदान करने में सक्षम नहीं हो, तो तुम्हें आत्म-निरीक्षण का अभ्यास करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए, तुम्हें अपना विश्लेषण करना चाहिए, यह बताने में सक्षम होना चाहिए कि तुम्हारे दिल में क्या है; तुम्हें सबके सामने खुलकर बोलना चाहिए और अपना मन खोलकर रख देना चाहिए। इसका अभ्यास करने से अच्छे नतीजे मिलेंगे। मन खोलकर रखने का मतलब खुद को सही ठहराना नहीं है। इसका मतलब है अपने अंदर की गलत प्रेरणाओं और विचारों को विश्लेषण के लिए प्रस्तुत करना, ताकि सभी लोग उनके बारे में जान सकें और दूसरों को भी इसका लाभ मिल सके। ऐसा करके तुम अपनी बड़ाई नहीं करते। अगर तुम अपने साथ सही बर्ताव करते हो और खुद को सही स्थान पर रखते हो, यानी अगर तुम अपनी प्रेरणाएँ किनारे रखकर उनका विश्लेषण कर सकते हो, अपने अंदर की गंदी चीजें सबके सामने रख सकते हो, और ऐसा करके खुद को उजागर कर सकते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम सही जगह पर हो। मैंने पाया है कि कई अगुआ केवल लोगों को व्याख्यान देने और उच्च स्थान से दूसरों को उपदेश देने में सक्षम होते हैं, वे उनके साथ समान स्तर पर संवाद नहीं कर सकते। वे लोगों के साथ सामान्य रूप से बातचीत नहीं कर पाते। जब कुछ लोग बात करते हैं, तो हमेशा ऐसा लगता है मानो वे भाषण दे रहे हों या रिपोर्ट कर रहे हों। उनके शब्द हमेशा केवल अन्य लोगों की अवस्थाओं पर निर्देशित होते हैं, मगर वे अपने बारे में कभी खुलकर नहीं बताते। वे कभी अपने भ्रष्ट स्वभावों का विश्लेषण नहीं करते, केवल अन्य लोगों के मुद्दों का विश्लेषण करते हैं, उनका मिसाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, ताकि सभी लोग जान सकें। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे ऐसे उपदेश क्यों देते हैं और ऐसी बातें क्यों कहते हैं? यह इस बात का प्रमाण है कि उन्हें कोई आत्मज्ञान नहीं होता, उनमें विवेक की बहुत कमी होती है, वे बहुत अहंकारी और दंभी होते हैं। उन्हें लगता है कि अन्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को पहचानने की उनकी क्षमता यह साबित करती है कि वे अन्य लोगों से ऊपर हैं, वे लोगों और चीजों को दूसरों से बेहतर पहचानते हैं, और वे अन्य लोगों की तुलना में कम भ्रष्ट हैं। वे दूसरों का विश्लेषण करने और व्याख्यान देने में सक्षम होते हैं, लेकिन खुद को सबके सामने खोल नहीं पाते या अपने भ्रष्ट स्वभाव को उजागर नहीं करते या उसका विश्लेषण नहीं करते, अपना असली चेहरा नहीं दिखाते या अपनी प्रेरणाओं के बारे में कुछ नहीं कहते। वे केवल दूसरों को अनुचित व्यवहार करने पर भाषण झाड़ते हैं। यह अपने आप को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना और खुद को ऊँचा उठाना है। तुम अगुआ होकर भी अनुचित रूप से इतनी परेशानी खड़ी करने वाले इंसान कैसे हो सकते हो? कलीसिया के अगुआ बनाए जाने के बाद, क्यों तुम यूँ ही लोगों को फटकारते हो, मनमाना व्यवहार करते हो और अपनी मरजी से काम करते हो? तुम कभी अपने शब्दों के परिणामों पर विचार क्यों नहीं करते, अपनी पहचान के बारे में क्यों नहीं सोचते? तुम ऐसा क्यों करते हो? ऐसा इसलिए, क्योंकि अगुआ होकर भी तुम अपनी हैसियत या पहचान से वाकिफ नहीं हो। तुम्हें अगुआ बनाना सिर्फ तुम्हें ऊँचा उठाना और अभ्यास का एक अवसर देना है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास दूसरों के मुकाबले अधिक वास्तविकता है या तुम दूसरों से बेहतर हो। वास्तव में, तुम बाकी सबके समान ही हो। तुममें से किसी के पास वास्तविकता नहीं है, और कुछ मायनों में, तुम दूसरों से भी अधिक भ्रष्ट हो सकते हो। तो फिर क्यों तुम बेवजह परेशानी खड़ी करते हो, मनमाने ढंग से भाषण झाड़ते हो, दूसरों को फटकारते और बेबस करते हो। तुम गलत होकर भी दूसरों को अपनी बात सुनने को मजबूर क्यों करते हो? इससे क्या साबित होता है? इससे साबित होता है कि तुम्हारी सोच गलत है, तुम इंसान बनकर नहीं, परमेश्वर बनकर काम कर रहे हो, और खुद को दूसरों से ऊपर समझते हो। अगर तुम जो कहते हो वह सही और सत्य के अनुरूप है, तो लोग तुम्हारी बातें सुन सकते हैं। इस मामले में यह स्वीकार्य है। लेकिन जब तुम गलत होते हो, तो दूसरों को अपनी बात सुनने पर मजबूर क्यों करते हो? क्या तुम्हारे पास अधिकार है? क्या तुम सर्वोच्च हो? क्या तुम सत्य हो? जब कुछ लोग किसी स्थान पर सुसमाचार का प्रचार करने जाते हैं और वहाँ लोगों से मिलते हैं और उनकी जीवन-स्थितियाँ उन्हें पसंद नहीं आतीं, तो वे उस स्थान को पसंद नहीं करते और किसी दूसरे स्थान पर जाना चाहते हैं। दूसरा व्यक्ति उनसे कह सकता है, “सुसमाचार के प्रचार के लिए यहाँ किसी की जरूरत है। अगर तुम चले जाओगे, तो काम में देरी होगी।” मगर वे इसे अनसुना कर देंगे और यह कहकर जाने पर जोर देंगे, “तो फिर तुम ही यहाँ क्यों नहीं रह जाते? मुझे जाना है! तुम लोगों को मेरी बात सुननी चाहिए और आज्ञापालन करना सीखना चाहिए।” वे मनमानी करने के लिए कलीसिया के कार्य में देरी करेंगे और अपनी पसंद का स्थान चुन लेंगे। वे जो चाहते हैं वही करते हैं और दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे वही करें जो वे कहते हैं। क्या वे खुद को बड़ा नहीं दिखा रहे? क्या वे खुद को ऊँचा नहीं उठा रहे? क्या वे अहंकारी लोग नहीं हैं? वे अपने काम में सत्य का जरा-सा भी अभ्यास किए बिना, जहाँ तक संभव होता है, बस अपनी प्राथमिकताओं पर चलते हैं। इसलिए, जब वे लोगों की अगुआई करते हैं, तो वे उन्हें सत्य का अभ्यास करने को नहीं कहते, बल्कि अपनी बात सुनने और अपने तौर-तरीकों पर चलने को कहते हैं। क्या यह लोगों से यह कहना नहीं है कि वे उन्हें परमेश्वर समझें, परमेश्वर की तरह उनका आज्ञापालन करें? क्या उनके पास सत्य है? वे सत्य से रहित होते हैं, शैतान के स्वभाव से लबालब भरे होते हैं, और राक्षसों जैसे होते हैं। तो फिर वे लोगों से अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए क्यों कहते हैं? क्या ऐसा व्यक्ति खुद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करता? क्या वह खुद को ऊँचा नहीं दिखाता? क्या ऐसे व्यक्ति लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हैं? क्या वे लोगों से परमेश्वर की आराधना करवा सकते हैं? वे ऐसे लोग हैं, जो चाहते हैं कि लोग उनकी आज्ञा का पालन करें। जब वे इस तरह काम करते हैं, तो क्या वे वास्तव में लोगों को सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने की ओर ले जा रहे हैं? क्या वे वास्तव में परमेश्वर द्वारा सौंपा गया कार्य कर रहे हैं? नहीं, वे अपना ही राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, और वे चाहते हैं कि लोग उनके साथ ऐसा व्यवहार करें जैसे वे परमेश्वर हों, और परमेश्वर मानकर उनकी आज्ञा का पालन करें। क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? मसीह-विरोधी अपना काम हमेशा इसी तरह करते हैं; चाहे परमेश्वर के घर के काम में कितनी भी देरी हो जाए या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में कितनी भी बाधा खड़ी करें या उनका कितना भी नुकसान करें, सभी को उनकी बात सुननी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। क्या यह राक्षसों वाली प्रकृति नहीं है? क्या यह शैतान का स्वभाव नहीं है? इस तरह के लोग इंसानी वेश में जीते-जागते राक्षस होते हैं। उनके चेहरे भले ही इंसानी हों, लेकिन उनके अंदर सब-कुछ राक्षसी होता है। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह राक्षसी होता है। उनका कोई भी काम सत्य के अनुरूप नहीं होता, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जो कोई समझदार व्यक्ति करता हो। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि ये राक्षसों, शैतानों और मसीह-विरोधियों के कार्य हैं। तुम लोगों को इसे स्पष्ट रूप से पहचानना चाहिए। जब तुम लोग कोई काम करते हो, कुछ बोलते हो और दूसरों से संवाद करते हो—अपने जीवन में तुम लोग जो कुछ भी करते हो—तुम्हें यह आदेश अपने हृदय में धारण करना चाहिए : “मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।” इस तरह लोगों पर सीमाएँ लगाई जाती हैं, और तब वे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने की हद तक नहीं जाएँगे। यह प्रशासनिक आदेश बेहद अहम है, और तुम सभी को इस पर अच्छे से विचार करना चाहिए कि इस प्रशासनिक आदेश का क्या मतलब है, क्यों परमेश्वर मानवजाति से ऐसी अपेक्षा करता है, और वह क्या हासिल करना चाहता है। इस पर ध्यान से विचार करो। इसे एक कान से सुनकर दूसरे कान से मत निकालो। यह तुम लोगों के लिए वाकई बहुत लाभकारी होगा।

2. वह सब कुछ करो जो परमेश्वर के कार्य के लिए लाभदायक है और ऐसा कुछ भी न करो जो परमेश्वर के कार्य के हितों के लिए हानिकर हो। परमेश्वर के नाम, परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करो।

तुम्‍हें उस हर चीज का समर्थन करना चाहिए और उसके प्रति जवाबदेह होना चाहिए जो परमेश्‍वर के घर के हित से संबंध रखती है, या जिसका ताल्‍लुक परमेश्‍वर के घर के कार्य और परमेश्‍वर के नाम से है। तुममें से हर एक की यह जिम्‍मेदारी और दायित्व है, और यही तुम सबको करना चाहिए।

3. परमेश्वर के घर में धन, भौतिक पदार्थ और समस्त संपत्ति ऐसी भेंट हैं, जो मनुष्य द्वारा दी जानी चाहिए। इन भेंटों का आनंद याजक और परमेश्वर के अलावा अन्य कोई नहीं ले सकता, क्योंकि मनुष्य की भेंटें परमेश्वर के आनंद के लिए हैं। परमेश्वर इन भेंटों को केवल याजकों के साथ साझा करता है; और उनके किसी भी अंश का आनंद उठाने के लिए अन्य कोई योग्य और पात्र नहीं है। मनुष्य की समस्त भेंटें (धन और आनंद लिए जा सकने योग्य भौतिक चीज़ों सहित) परमेश्वर को दी जाती हैं, मनुष्य को नहीं और इसलिए, इन चीज़ों का मनुष्य द्वारा आनंद नहीं लिया जाना चाहिए; यदि मनुष्य उनका आनंद उठाता है, तो वह इन भेंटों को चुरा रहा होगा। जो कोई भी ऐसा करता है वह यहूदा है, क्योंकि, एक ग़द्दार होने के अलावा, यहूदा ने बिना इजाज़त थैली में रखा धन भी लिया था।

मुझे इन शब्दों की व्याख्या करनी होगी। अगर मैंने ऐसा नहीं किया, तो कुछ लोग ऐसे बेशर्म और मोटी चमड़ी वाले होते हैं कि वे भेंटें चुरा लेंगे। वर्तमान में, कलीसिया में सभी स्तरों पर अगुआ और कार्यकर्ता अस्थायी परिवीक्षा पर हैं। जो उपयुक्त हैं उनका इस्तेमाल किया जाता रहेगा, लेकिन जो उपयुक्त नहीं है उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा या निकाल दिया जाएगा। ये ओहदे स्थायी नहीं हैं। यह मत सोचो कि अगुआ या कार्यकर्ता होने का मतलब यह है कि तुम्हारा स्थान निश्चित है और तुम्हें कभी बर्खास्त नहीं किया जाएगा या निकाला नहीं जाएगा। इस भ्रम में मत रहो। यह एक बेतुकी इच्छा है। याजक कोई साधारण अगुआ नहीं होता। उसके पास सीधे परमेश्वर की सेवा करने का अधिकार और योग्यता होती है। स्वाभाविक रूप से, यह अधिकार और योग्यता उसे परमेश्वर ने दी है। यह व्यवस्था के युग के याजकों जैसा ही है। वे मंदिर में प्रवेश कर सकते थे, पर कोई और नहीं कर सकता था, वे त्याग की भेंटों का उपभोग कर सकते थे, पर कोई और नहीं कर सकता था। आज, राज्य के युग में, याजक किस किस्म का व्यक्ति होता है? ऐसा व्यक्ति जिसे पहले याजक के रूप में जाना जाता था, उसे अब पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला व्यक्ति कहा जाता है। तो, क्या यह तुम लोगों के बारे में बताता है? तुम लोग याजक बिल्कुल नहीं हो! याजक वह होता है जिसे पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किया जाता है, और ऐसे व्यक्ति के सिवाय कोई भी भेंटों का उपभोग नहीं कर सकता। कोई अन्य व्यक्ति इसके लायक नहीं होता। अगर तुम यह दावा करते हो कि तुम इसके लायक हो, तो तुम यह दावा अपनी इच्छा से कर रहे हो। तुम्हें भेंटों का उपभोग करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। वे तुम्हारे लिए नहीं हैं।

मैं तुम लोगों की स्थिति के बारे में और बात करूँगा। तुम जैसे लोगों को, जो कलीसिया में विशिष्ट कार्य करने वाले अगुआ और कार्यकर्ता हैं, कलीसिया यात्रा-खर्च दे सकती है, लेकिन कलीसिया तुम लोगों की रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए जिम्मेदार नहीं है। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना स्वैच्छिक है। अगर तुम कहते हो, “मैं यह स्वेच्छा से नहीं करता, इसकी व्यवस्था परमेश्वर के घर ने की है,” तो तुम छोड़कर जा सकते हो। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने मुझे बुलाया है, परमेश्वर मेरा इस्तेमाल करना चाहता था, इसलिए मैं यहाँ आया। मैं स्वेच्छा से नहीं आया।” अगर ऐसा है, तो अभी मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम छोड़कर जा सकते हो। मैं कभी लोगों को मजबूर नहीं करता। अगर तुम स्वेच्छा से भी आए हो, तो भी तुम्हारा यहाँ बने रहना तुम्हारी योग्यताओं पर निर्भर करता है। अगर तुम योग्य नहीं हो, तो तुम्हारा इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। तुम्हारी जगह लेने के लिए कोई और मिल सकता है। परमेश्वर का घर इसी सिद्धांत के अनुसार लोगों का इस्तेमाल करता है। कोई विशेष छूट नहीं दी जाती। परमेश्वर के घर का पैसा उसके कार्य पर खर्च होता है, वह किसी व्यक्ति के भरण-पोषण के लिए नहीं है, न ही वह लोगों के निजी मनोरंजन के लिए है।

4. मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है और इसके अतिरिक्त, उसमें भावनाएँ हैं। इसलिए, परमेश्वर की सेवा के समय विपरीत लिंग के दो सदस्यों को अकेले एक साथ मिलकर काम करना पूरी तरह निषिद्ध है। जो भी ऐसा करते पाए जाते हैं, उन्हें बिना किसी अपवाद के निष्कासित कर दिया जाएगा।

कुछ भाई सिर्फ बहनों के साथ सहभागिता करने पर जोर देते हैं, और वह भी अकेले में। वे जब बहनों के साथ सहभागिता करते हैं, तो सचमुच उनके सामने एकदम खुल जाते हैं, लेकिन किसी अन्‍य के साथ खुलने से इनकार कर देते हैं। ये अच्छे लोग नहीं होते! कुछ बहनें दूसरी बहनों के साथ सहभागिता नहीं करतीं, और उनके सामने कभी नहीं खुलतीं। वे सहभागिता के लिए सिर्फ भाइयों की ही तलाश में लगी रहती हैं। ये किस तरह के लोग हैं? क्‍या एक भी ऐसी बहन नहीं है जो तुम्‍हारा साथ दे सके? क्‍या तुम्‍हारे साथ सहभागिता करने के लिए एक भी बहन नहीं है? क्‍या वे सब तुमसे नफरत करती हैं? क्या उनमें से कोई भी तुम्‍हारे लिए ठीक नहीं है? क्‍या सिर्फ भाइयों के साथ ही तुम्‍हारी निभती है? मुझे लगता है कि तुम्‍हारे कुछ दूसरे ही इरादे हैं! कुछ पुरुष महिलाओं के साथ और कुछ महिलाएँ पुरुषों के साथ इश्कबाजी किया करती हैं। यह खतरनाक है। तुम्हें खुद पर संयम रखना चाहिए, कुछ अंतर्दृष्टि विकसित करनी चाहिए, और कुछ विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए लंपटता मत दिखाओ। तुम्हें थोड़ा संयम बरतना चाहिए, इस तरह तुम्हारा व्यवहार सुधरेगा। संयम के बिना, और परमेश्वर के भय के बिना, लोग बेहद ऐयाश हो जाते हैं। जब वे प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन कर देते हैं, तो परिणाम भयंकर होते हैं; इसलिए उन्हें हमेशा यह प्रशासनिक आदेश याद रखना चाहिए।

5. परमेश्वर की आलोचना न करो और न परमेश्वर से संबंधित बातों पर यूँ ही चर्चा करो। वैसा करो, जैसा मनुष्य को करना चाहिए और वैसे बोलो जैसे मनुष्य को बोलना चाहिए, तुम्हें अपनी सीमाओं को पार नहीं करना चाहिए और न अपनी सीमाओं का उल्लंघन करना चाहिए। अपनी ज़ुबान पर लगाम लगाओ और ध्यान दो कि कहाँ कदम रख रहे हो, ताकि परमेश्वर के स्वभाव का अपमान न कर बैठो।

6. वह करो जो मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए और अपने दायित्वों का पालन करो, अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करो और अपने कर्तव्य को धारण करो। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के कार्य में अपना योगदान देना चाहिए; यदि तुम नहीं देते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के योग्य नहीं हो और परमेश्वर के घर में रहने के योग्य नहीं हो।

छठा आदेश मनुष्‍य के कर्तव्‍यों से ताल्‍लुक रखता है। तुम्‍हारा पिछला जीवन प्रवेश कैसा भी क्‍यों न रहा हो या तुम्‍हारा निजी अनुसरण जिस किसी दिशा में क्‍यों न गया हो, और तुम्‍हारी काबिलियत या मानवता कैसी भी क्‍यों न रही हो, अगर कलीसिया का कार्य तुमसे कोई अपेक्षा रखता है, तो तुम्‍हें उसे करना चाहिए, भले ही उसे करने में कितनी ही मुश्किल या परेशानी क्‍यों न आए। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम परमेश्‍वर के घर में रहने लायक नहीं हो। परमेश्‍वर का घर तुम्‍हारे मुफ्त में रहने के लिए नहीं है, और यहाँ निकम्मे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। अगर व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसे कम से कम सेवाकर्मी होने में सक्षम अवश्य होना चाहिए। अगर वे जरा-सी भी सेवा नहीं करना चाहते या सिर्फ रोटी के एक टुकड़े की खातिर जरा-सा ही प्रयास करना चाहते हैं, तो उन्हें अवश्य निकाल दिया जाना चाहिए, उनसे परमेश्वर के वचनों की किताबें वापस ले लेनी चाहिए, और उनके साथ गैर-विश्वासियों जैसा बर्ताव किया जाना चाहिए। परमेश्वर के घर में बने रहने योग्य होने के लिए लोगों को कम से कम परमेश्वर में सच्चा विश्वास करना चाहिए, अपने हृदय में परमेश्वर का थोड़ा-सा भय रखना चाहिए और परमेश्वर की आराधना करने के कुछ लक्षण दिखाने चाहिए। परमेश्वर का घर लोगों से बहुत अधिक अपेक्षा नहीं करता। अगर किसी में जमीर और विवेक है, वह सत्य को समझ और स्वीकार सकता है, और अपने कर्तव्य में जिम्मेदार है, तो इतना होना काफी है। कम से कम, तुम्हारा व्यवहार और काम करने का तौर-तरीका स्वीकार्य होना चाहिए। तुम्हारे हृदय में थोड़ा-सा परमेश्वर का भय होना चाहिए, और तुम्हें उसके प्रति थोड़ी आज्ञाकारिता दिखानी चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम्हें जल्द से जल्द घर लौट जाना चाहिए और परमेश्वर के घर में जैसे-तैसे काम करना बंद कर देना चाहिए। अगर तुम छोटे-से-छोटा काम करने से भी इनकार कर देते हो, और बस परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो, तो क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखता है? मेरी नजर में, ऐसा इंसान गैर-विश्वासी है और वह किसी अविश्वासी से जरा भी अलग नहीं है। ऐसे लोगों को तो देखने से भी घिन आती है! अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हो, तो ठीक से करो, वरना बिल्कुल मत करो। परमेश्वर में विश्वास स्वैच्छिक है। कोई तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा। अगर तुम यह छोटी-सी बात भी नहीं समझ सकते, तो परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में और क्या कहा जाए। परमेश्वर के घर को नाकारा लोग नहीं चाहिए। कलीसिया कोई कबाड़खाना नहीं है। जो लोग सत्य की सामान्य-सी भी स्वीकृति नहीं रखते, उन्हें निकालकर हटा दिया जाएगा! परमेश्वर के घर में सत्य शासन करता है। अगर कोई किसी तरह की बकवास करता है या बाधा या परेशानी खड़ी करता है, तो उसे हटा दिया जाना चाहिए और पूरी तरह से त्याग दिया जाना चाहिए।

7. कलीसिया के कार्यों और मामलों में, परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अलावा, उस व्यक्ति के निर्देशों का पालन करो, जिसे पवित्र आत्मा हर चीज़ में उपयोग करता है। ज़रा-सा भी उल्लंघन अस्वीकार्य है। अपने अनुपालन में एकदम सही रहो और सही या ग़लत का विश्लेषण न करो; क्या सही या ग़लत है, इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं। तुम्हें ख़ुद केवल संपूर्ण आज्ञाकारिता की चिंता करनी चाहिए।

तुम्हें पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले इंसान की बात सुननी चाहिए और उसकी आज्ञा माननी चाहिए, चाहे वह जो कहता या करता हो। तुमसे जो करने को कहा गया है वही करो, जैसे करने को कहा गया है वैसे ही करो। यह मत कहो, “क्या परमेश्वर जानता है? मुझे परमेश्वर से पूछना चाहिए।” पूछने की कोई जरूरत नहीं, बस वह करो जो पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले इंसान ने तुमसे करने को कहा है। क्या तुम समझते हो? इस बारे में और अधिक बोलने की कोई जरूरत नहीं। तुम लोगों को पहले ही यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए।

8. जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है।

कुछ लोग खास तौर पर बहती गंगा में हाथ धोने और दूसरों को प्रभावित करने में माहिर होते हैं। वे मुझे जिसकी भी बड़ाई करते, जिससे भी अच्छा बर्ताव करते या जिसके साथ भी अक्सर संगति करते देखते हैं, उन्हें ही प्रभावित करने में लग जाते हैं। उनके मन में एक धारणा घर कर गई है : अब परमेश्वर के बाद इस भाई-विशेष का ही स्थान है, और उसके बाद इस बहन-विशेष का। अपने मन में क्रम-निर्धारण का ख्याल मत पालो : पहले परमेश्वर है, दूसरा, तीसरा या चौथा अमुक व्यक्ति है...। क्या इस तरह के श्रेणीकरण से कोई मकसद पूरा होता है? क्या यह कोई राज-दरबार है, जहाँ सम्राट पहला, प्रधानमंत्री दूसरा और अन्य अधिकारी तीसरा स्थान रखता है। परमेश्वर के घर में ऐसी कोई श्रेणियाँ नहीं होतीं, वहाँ सिर्फ परमेश्वर और परमेश्वर के चुने गए लोग होते हैं, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को सिर्फ परमेश्वर की आज्ञा माननी और उसकी आराधना करनी चाहिए! वास्तव में, तुम सब लोग बराबर हो। चाहे तुम लोगों ने पहले परमेश्वर को स्वीकार किया या बाद में, और चाहे तुम्हारा लिंग, उम्र या काबिलियत जो भी हो, परमेश्वर के समक्ष तुम सब बराबर हो। लोगों की आराधना मत करो, और खुद को महान मत समझो। श्रेणीकरण या क्रम-निर्धारण मत करो। अगर तुम ऐसा करते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे हृदय में जो कुछ है, वह कई इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से संदूषित हो गया है, और इसलिए तुम्हारे द्वारा आदेशों का उल्लंघन किए जाने की संभावना है।

9. अपने विचार कलीसिया के कार्य पर लगाए रखो। अपनी देह की इच्छाओं को एक तरफ़ रखो, पारिवारिक मामलों के बारे में निर्णायक रहो, स्वयं को पूरे हृदय से परमेश्वर के कार्य में समर्पित करो और परमेश्वर के कार्य को पहले और अपने जीवन को दूसरे स्थान पर रखो। यह एक संत की शालीनता है।

10. सगे-संबंधी जो विश्वास नहीं रखते (तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे पति या पत्नी, तुम्हारी बहनें या तुम्हारे माता-पिता इत्यादि) उन्हें कलीसिया में आने को बाध्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर में सदस्यों की कमी नहीं है और ऐसे लोगों से इसकी संख्या बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, जिनका कोई उपयोग नहीं है। वे सभी जो ख़ुशी-ख़ुशी विश्वास नहीं करते, उन्हें कलीसिया में बिल्कुल नहीं ले जाना चाहिए। यह आदेश सब लोगों पर निर्देशित है। इस मामले में तुम लोगों को एक दूसरे की जाँच, निगरानी करनी चाहिए और याद दिलाना चाहिए; कोई भी इसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यहाँ तक कि जब ऐसे सगे-संबंधी जो विश्वास नहीं करते, अनिच्छा से कलीसिया में प्रवेश करते हैं, उन्हें किताबें जारी नहीं की जानी चाहिए या नया नाम नहीं देना चाहिए; ऐसे लोग परमेश्वर के घर के नहीं हैं और कलीसिया में उनके प्रवेश पर जैसे भी ज़रूरी हो, रोक लगाई जानी चाहिए। यदि दुष्टात्माओं के आक्रमण के कारण कलीसिया पर समस्या आती है, तो तुम निर्वासित कर दिए जाओगे या तुम पर प्रतिबंध लगा दिये जाएँगे। संक्षेप में, इस मामले में हरेक का उत्तरदायित्व है, हालांकि तुम्हें असावधान नहीं होना चाहिए, न ही इसका इस्तेमाल निजी बदला लेने के लिए करना चाहिए।

ये परमेश्वर के दस प्रशासनिक आदेश हैं, जिनका राज्य के युग में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पालन करना चाहिए। इन्हें अच्छे से याद कर लो।

1995 के अंत में

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