परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है

जब परमेश्वर में तुम लोगों के विश्वास की बात आती है, तो अपने कर्तव्य को सही तरीके से निभाने के अलावा सत्य को समझना, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना और जीवन में प्रवेश करने के लिए अधिक प्रयास करना महत्वपूर्ण होता है। चाहे कुछ भी हो जाए, सीखने के लिए कुछ सबक तो होते ही हैं, इसलिए इसे हल्के में लेकर छोड़ो मत। तुम्हें इस बारे में एक-दूसरे से सहभागिता करनी चाहिए, तब तुम्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध और प्रकाशित करेगा और तुम सत्य समझ पाओगे। संगति के जरिए, तुम्हारे पास अभ्यास का एक मार्ग होगा और तुम जान जाओगे कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाता है। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम्हारी कुछ समस्याओं का समाधान हो जाएगा, तुम्हें ज्यादा से ज्यादा बातें स्पष्ट रूप से समझ आने लगेंगी और सत्य की तुम्हारी समझ बढ़ जाएगी। इस तरह, तुम्हारी जानकारी के बिना ही तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ जाएगा। तुम्हें सत्य के लिए प्रयास करने की पहल करनी चाहिए और सत्य के लिए तुम्हें अपनी पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मैं बरसों से परमेश्वर में विश्वास करता आया हूँ और मैंने बहुत सारे सिद्धांत समझ लिए हैं। अब मेरे पास एक आधार है। अब विदेशों में हमारा कलीसियाई जीवन अच्छा है, भाई-बहन परमेश्वर में विश्वास के मामलों में संगति के लिए दिन भर इकट्ठे होते हैं, और इस तरह मैं जो देखता और सुनता हूँ उससे प्रभावित होता हूँ, और इससे मुझे पोषण मिलता रहता है—और इतना पर्याप्त है। मुझे अपने जीवन-प्रवेश की समस्याएँ या अपने विद्रोह की समस्याएँ दूर करने का प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर मैं हर दिन प्रार्थना करने, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, भजन गाने, अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए अपनी समय-सारणी का पालन करता हूँ तो मैं स्वाभाविक रूप से जीवन विकास करूँगा।” वे भ्रमित विश्वासी ऐसा ही सोचते हैं। ये लोग सत्य को कतई स्वीकार नहीं करते। वे केवल धार्मिक अनुष्ठानों में लिप्त रहते हैं, वाक्पटुता से बोलते हैं, खोखले नारे लगाते हैं, सिद्धांत की बातें करते हैं और सोचते हैं कि उन्होंने अच्छा काम किया है। परिणामस्वरूप, जब अन्य लोग सत्य का अभ्यास करके अपने में थोड़ा-बहुत बदलाव ला रहे होते हैं, तब इन भ्रमित विश्वासियों के पास न तो कोई अनुभव होता है और न ही कोई गवाही। वे अपने बारे में किसी ज्ञान की बात भी नहीं कर पाते। वे खाली हाथ रह जाते हैं और कुछ हासिल नहीं कर पाते। क्या वे दरिद्र और दयनीय नहीं होते? उद्धार प्राप्त करने के लिए कोई भी मार्ग सत्य को स्वीकार करने और खोजने से ज्यादा वास्तविक या व्यावहारिक नहीं है। अगर तुम सत्य को नहीं पा सकते तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास खोखला है। जो लोग धर्म-सिद्धांत के खोखले शब्द झाड़ते हैं, जो हमेशा तोते की तरह नारे लगाते हैं, ऊंची प्रतीत होती बातें कहते हैं, नियमों का पालन करते हैं, और कभी भी सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं देते, वे कुछ भी हासिल नहीं करते, चाहे वे कितने ही वर्षों पुराने विश्वासी क्यों न हों। वे कौन-से लोग हैं जो कुछ हासिल करते हैं? वे लोग जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं और सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होते हैं, जो परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को अपना मिशन समझते हैं, जो खुशी-खुशी अपना सारा जीवन परमेश्वर के लिए खपा देते हैं और खुद अपने लिए योजनाएँ नहीं बनाते, जिनके पाँव मजबूती से जमीन पर टिके होते हैं और जो परमेश्वर के आयोजनों का पालन करते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य के सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते हैं, और हर काम सही ढंग से करने के लिए अथक प्रयास करते हैं, इससे उन्हें परमेश्वर की गवाही देने के परिणाम को हासिल करने और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का अवसर मिलता है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और परमेश्वर की इच्छा को समझने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर की तरफ से आने वाले आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम रहते हैं, और वे अपने हर काम में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करते हैं। वे तोते की तरह नारे नहीं लगाते या ऊंची प्रतीत होने वाली बातें नहीं कहते, बल्कि अपने पाँव मजबूती से जमीन पर टिकाकर हर काम करने पर, और बहुत जतन से सिद्धांतों का पालन करने पर ही ध्यान देते हैं। वे हर काम दिल लगाकर करते हैं, हर चीज की तहेदिल से सराहना करना सीखते हैं, और कई मामलों में वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम रहते हैं, जिसके बाद वे ज्ञान और समझ हासिल कर लेते हैं, और वे सबक सीखने और सचमुच कुछ पा लेने में सफल हो जाते हैं। जब उनके विचार या स्थितियाँ गलत होती हैं तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और उनके समाधान के लिए सत्य की खोज करते हैं; वे चाहे जिन सत्यों को भी समझते हों, उनके मन में उनके लिए प्रशंसा की भावना होती है, और वे अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोग आखिर में सत्य को प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग लापरवाह और सतही समझ वाले होते हैं वे कभी नहीं सोचते कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। वे केवल संघर्ष करने, काम में जुटे रहने, खुद को प्रदर्शित करने और दिखावा करने में ही लगे रहते हैं, लेकिन कभी सत्य का अभ्यास करने की खोज नहीं करते, जिसकी वजह से उनके लिए सत्य पाना मुश्किल हो जाता है। जरा सोचो, किस तरह के लोग सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकते हैं? (जिनके पैर जमीन पर होते हैं, जो व्यावहारिक होते हैं और काम में दिल लगाते हैं।) जिन लोगों के पैर जमीन पर होते हैं, जो काम में दिल लगाते हैं और जो दयालु होते हैं : ऐसे लोग वास्तविकता पर और कार्य करते समय सत्य के सिद्धांतों के उपयोग पर अधिक ध्यान देते हैं। साथ ही, वे सभी चीजों में व्यावहारिकता पर ध्यान देते हैं, वे व्यावहारिक होते हैं, उन्हें सकारात्मक चीजें, सत्य और व्यावहारिक चीजें पसंद होती हैं। ऐसे ही लोग अंततः सत्य समझते हैं और उसे प्राप्त करते हैं। तुम लोग किस प्रकार के व्यक्ति हो? (अव्यावहारिक, जो हमेशा दिखावे के लिए काम करना चाहता है, और छल-कपट पर निर्भर रहता है।) क्या ऐसा करने से कुछ हासिल हो सकता है? (नहीं।) क्या तुम्हें अपनी समस्याओं को हल करने का तरीका मिल गया है? यदि तुम इसे पहचानकर चीजों को बदलना शुरू करते हो, तो क्या यह जान पाओगे कि चीजों पर तुम्हारी धारणाओं, कल्पनाओं और दृष्टिकोण में बदलाव हुआ है या नहीं? (मुझे लगता है कि उनमें कुछ हद तक बदलाव हुए हैं।) जब तक परिणाम मिलते हैं और प्रगति होती है, तुम्हें उस पर संगति करनी चाहिए और दूसरों को सीखने देना चाहिए। भले ही तुम्हारा अनुभव सीमित है, फिर भी यह जीवन में विकास का अनुभव है। परमेश्वर में विश्वास करने का तुम्हारा अनुभव और परमेश्वर के वचन का अनुभव करते हुए जीवन में प्रगति करना ही जीवन में विकास की प्रक्रिया है। ये अनुभव सबसे अधिक मूल्यवान हैं।

जब सभी लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं, तो ऐसा क्यों है कि कुछ वर्षों के बाद वे एक-दूसरे से भिन्न हो जाते हैं, ऊँच-नीच उभर आती है, और लोगों के असली रंग सामने आ जाते हैं? वास्तव में, हर कोई अपनी किस्म के अनुसार अलग-अलग हो जाता है। कुछ लोग अपने अनुभव और गवाही के बारे में बात कर पाते हैं, जबकि अन्य लोगों के पास कोई अनुभव या गवाही नहीं होती। कुछ लोग बहुत से सत्यों को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होते हैं, जबकि अन्य लोग कोई भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं या अपने स्वभाव को जरा भी बदल नहीं पाते हैं। कुछ लोगों को अपने कर्तव्यों में परिणाम मिलते हैं, वे समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होते हैं, और वे धीरे-धीरे अपने कर्तव्य ठीक से निभाने लगते हैं। कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाने में लापरवाह और सुस्त होते हैं, जैसे-तैसे काम करते हैं, और सत्य को समझने के बाद भी उसे अभ्यास में नहीं लाते हैं। वे सभी सभाओं में भाग लेते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं, फिर भी परिणाम भिन्न क्यों होते हैं? ऐसा क्यों है कि कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पाते हैं जबकि अन्य अपने ही रास्ते पर चलते हैं? कुछ लोग सत्य स्वीकारने में सक्षम होते हैं जबकि अन्य ऐसा नहीं कर पाते? ऐसा कैसे हो सकता है? क्यों कुछ लोग काट-छाँट और निपटान का सामना होने पर इसे स्वीकारने और आज्ञाकारी बनने में सक्षम होते हैं, जबकि अन्य लोग प्रतिरोध, कुतर्क और विद्रोह करते हैं, और यहाँ तक कि बखेड़ा खड़ा कर देते हैं? वे सभी सभाओं में परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, उपदेश और संगति सुनते हैं, कलीसियाई जीवन जीते हैं, और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, तो उनके बीच इतना बड़ा अंतर क्यों है? क्या तुम इस समस्या की जड़ को देख सकते हो? यह अच्छी और बुरी मानवता के बीच का अंतर है, और इसका सीधा संबंध इस बात से है कि लोग सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। वास्तव में, चाहे किसी व्यक्ति की काबिलियत कैसी भी हो, यदि वह सत्य स्वीकार सकता है, लगन से अपना कर्तव्य निभा सकता है, और चिंतन-मनन करके खुद को पहचान सकता है, तो वह जीवन में प्रवेश करने, सच्चा बदलाव लाने, और पर्याप्त रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होगा। यदि तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में मेहनत नहीं करते, सत्य नहीं समझते, तो तुम आत्मचिंतन नहीं कर सकते; तुम केवल सांकेतिक प्रयास करने और कोई अपराध न करने मात्र से संतुष्ट रहोगे और इसे पूंजी के रूप में उपयोग करोगे। तुम हर दिन जैसे-तैसे गुजार दोगे, भ्रम की स्थिति में रहोगे, केवल नियत समय पर काम करोगे, जी-जान नहीं लगाओगे, अपना दिमाग नहीं लगाओगे, हमेशा सतही और लापरवाह रहोगे। इस तरह, तुम कभी भी स्वीकार्य स्तर पर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाओगे। किसी चीज में अपना सारा प्रयास लगाने के लिए, पहले तुम्हें पूरी तरह उसमें अपना मन लगाना होगा; अगर तुम पहले किसी चीज में पूरी तरह अपना मन लगाते हो, तभी तुम अपना सारा प्रयास उसमें लगा सकते हो और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकते हो। आज, ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के निर्वहन में मेहनत करना शुरू कर चुके हैं, वे सोचने लगे हैं कि परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाया जाए। वे नकारात्मक और आलसी नहीं हैं, वे निष्क्रिय होकर ऊपर से आदेश आने की प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि थोड़ी पहल करते हैं। तुम लोगों के कर्तव्य प्रदर्शन को देखते हुए, तुम पहले की तुलना में थोड़े अधिक प्रभावी हो। हालांकि यह अभी भी मानक से नीचे है, फिर भी इसमें थोड़ी-बहुत वृद्धि तो हुई है—जो कि अच्छा है। लेकिन तुम्हें यथास्थिति से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, तुम्हें खोजते और बढ़ते रहना चाहिए—तभी तुम अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाकर एक स्वीकार्य-स्तर तक पहुँच पाओगे। हालाँकि, जब कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कभी भी अपना सौ प्रतिशत नहीं देते, इसे अपना सर्वस्व नहीं देते, वे केवल अपने प्रयास का 50-60% ही देते हैं और अपना कार्य पूरा होने तक कामचलाऊ ढंग से कार्य करते रहते हैं। वे कभी भी सामान्य स्थिति को बनाए नहीं रख पाते : जब उन पर नजर रखने या उनका समर्थन करने वाला कोई नहीं होता, तो वे सुस्त होकर हिम्मत हार जाते हैं; जब सत्य पर संगति करने वाला कोई होता है, तो वे उत्साहित रहते हैं, लेकिन यदि कुछ समय के लिए उनके साथ सत्य पर संगति न की जाए, तो वे उदासीन हो जाते हैं। जब वे इस तरह अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं, तो यहाँ समस्या क्या है? जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो उनकी स्थिति ऐसी ही होती है, वे सभी जुनून में जीते हैं—जिसे बनाए रखना बेहद कठिन होता है : कोई न कोई ऐसा होना चाहिए जो हर दिन उन्हें उपदेश दे और उनके साथ संगति करे; जब कोई उनका सिंचन और देखभाल करने वाला तथा उनका समर्थन करने वाला नहीं होता, तो वे फिर से ठंडे पड़ जाते हैं और सुस्त हो जाते हैं। और जब उनका हृदय शिथिल हो जाता है, तो वे अपने कार्य में कम प्रभावी हो जाते हैं; यदि वे अधिक मेहनत करते हैं, तो उनकी प्रभावशीलता बढ़ जाती है, कर्तव्य निर्वहन में उनके नतीजे बेहतर हो जाते हैं, और उन्हें अधिक लाभ होता है। क्या तुम लोगों का यह अनुभव है? तुम लोग कह सकते हो, “हमें अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा परेशानी क्यों होती है? जब इन समस्याओं का समाधान हो जाता है, तो हम उत्साहित हो जाते हैं; जब नहीं होता, तो हम उदासीन हो जाते हैं। जब हमारे कर्तव्य निभाने का कोई परिणाम आता है, जब परमेश्वर हमारे विकास की प्रशंसा करता है, तो हम प्रसन्न होते हैं, हमें लगता है कि हमने अंततः बढ़त हासिल की है, लेकिन जैसे ही कोई समस्या आती है, तो हम फिर से नकारात्मक हो जाते हैं—हमारी अवस्था हमेशा एक-समान क्यों नहीं रहती?” दरअसल, इसका मुख्य कारण यह है कि तुम लोग बहुत कम सत्य समझते हो, तुम्हारे अनुभवों और प्रवेश में गहराई की कमी है, तुम अभी भी बहुत से सत्य नहीं समझते, तुममें इच्छाशक्ति की कमी है और तुम बस अपना कर्तव्य निभाकर ही संतुष्ट हो जाते हो। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो तुम अपने कर्तव्य का पालन ठीक से कैसे कर सकते हो? वास्तव में, परमेश्वर लोगों से जो माँगता है, उसे लोग प्राप्त कर सकते हैं; अगर तुम लोग अपने अंतःकरण से काम लो, अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण का अनुसरण करो, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना आसान होगा—और यदि तुम सत्य स्वीकार सको, तो तुम अपना कार्य ठीक से कर सकते हो। तुम लोगों को इस तरह से सोचना चाहिए : “इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, इन वर्षों में परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हुए, मैंने बहुत कुछ पाया है, परमेश्वर ने मुझ पर महान अनुग्रह और आशीर्वाद बरसाया है। मैं परमेश्वर के हाथों में जीता हूँ, मैं परमेश्वर की शक्ति और उसके प्रभुत्व में जीता हूँ, उसी ने मुझे ये सांसें दी हैं, इसलिए मुझे अपना मन लगाना और पूरी ताकत से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करना चाहिए—यही कुंजी है।” लोगों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए; जिनमें इच्छाशक्ति है, वही वास्तव में सत्य के लिए प्रयास कर सकते हैं, सत्य समझ लेने के बाद ही वे अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं और शैतान को शर्मसार कर सकते हैं। यदि तुममें इस प्रकार की ईमानदारी है, और तुम अपने लिए कोई योजना नहीं बनाते हो, बल्कि सत्य प्राप्त कर अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन सामान्य हो जाएगा और पूरे समय स्थिर रहेगा; तुम्हारे सामने चाहे कोई भी परिस्थिति हो, तुम दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहोगे। चाहे तुम्हें कोई भी गुमराह या परेशान करने आए, और चाहे तुम्हारी मनःस्थिति चाहे अच्छी हो या बुरी, तब भी तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाओगे। इस तरह, तुम्हारी ओर से परमेश्वर का मन निश्चिंत हो सकता है, पवित्र आत्मा सत्य के सिद्धांत समझने में तुम्हें प्रबुद्ध कर पाएगा और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। परिणामस्वरूप, तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन यकीनन मानक के अनुरूप होगा। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाओगे, विनम्रता से अपना कर्तव्य-पालन करोगे, धूर्तता से काम नहीं करोगे या चालबाजी नहीं करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार कर लेगा। परमेश्वर लोगों का मन, विचार और इरादे देखता है। यदि तुम्हारे दिल में सत्य के लिए तड़प है और तुम सत्य खोज सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा। किसी भी मामले में, अगर तुम सत्य खोजते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय को प्रकाश के प्रति खोल देगा और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देगा, और तब तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन फलदायी होगा। परमेश्वर की प्रबुद्धता उसका अनुग्रह और आशीष है। मामूली बातों के लिए भी, यदि परमेश्वर लोगों को प्रबुद्ध न करे, तो उन्हें कभी प्रेरणा नहीं मिलेगी। प्रेरणा के बिना लोगों के लिए अपनी समस्याओं को हल करना कठिन है, और वे अपने कर्तव्य में परिणाम प्राप्त नहीं करेंगे। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन पर लोग कई वर्षों के अध्ययन के बाद भी केवल मानव प्रतिभा, बुद्धि और काबिलियत के बल पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि अभी तक परमेश्वर का तय किया हुआ समय नहीं आया है। यदि परमेश्वर कार्य न करे, तो व्यक्ति चाहे कितना भी काबिल क्यों न हो, वह बेकार है। इसे स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। तुम्हें विश्वास होना चाहिए कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और लोग बस सहयोग कर रहे हैं। यदि तुम ईमानदार हो, तो परमेश्वर जान जाएगा, और वह हर हालात में तुम्हारे लिए रास्ता खोलेगा। किसी भी कठिनाई को पार करना मुश्किल नहीं है; तुम्हें यह विश्वास होना चाहिए। इसलिए, अपने कर्तव्य निभाते हुए, तुम लोगों को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए। यदि तुम इसमें अपना सब कुछ लगाकर पूरे दिल से काम करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें कठिनाइयाँ नहीं देगा, और न ही वह तुम्हें तुम्हारी क्षमता से अधिक कोई जिम्मेदारी देगा। तुम्हें केवल तभी चिंता करनी चाहिए जब तुम निरर्थक बातें कहते हो, केवल बातें करते हो और कोई काम नहीं करते, और ऐसी बातें कहते हो जो सुनने में अच्छी लगती हैं लेकिन वास्तव में तुम्हारे कर्तव्यों को पूरा नहीं करती हैं—फिर तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। यदि अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा यही रवैया है, तो क्या तुम्हें परमेश्वर की आशीष प्राप्त होगी? बिल्कुल नहीं। यदि तुम जैसे-तैसे काम करते हो और परमेश्वर को धोखा देते हो, तो परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा, और तुम्हें बाहर निकाल देगा; यही तुम्हारा परिणाम होगा। परमेश्वर को धोखा देना खुद को धोखा देना है। परमेश्वर कहेगा, “इस व्यक्ति का दिल छल-कपट से भरा है, और इसमें ईमानदारी का नामोनिशान नहीं है। ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता या उन्हें कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा सकती। उन्हें अलग ही रहने दो।” इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हें अकेला छोड़ दिया जाएगा और अनदेखा कर दिया जाएगा। यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम पूरी तरह से त्याग दिए जाओगे। तुम्हें सजा देने के लिए शैतान, दुष्ट आत्माओं और अशुद्ध आत्माओं के हवाले कर दिया जाएगा। जब किसी को अकेला छोड़ दिया जाता है और अनदेखा किया जाता है तो उसकी अवस्था कैसी होती है? इसका मतलब है कि अब पवित्र आत्मा तुम में कार्य नहीं कर रहा है। तुम कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख सकोगे, और जहाँ अन्य लोग हमेशा प्रबुद्ध और प्रकाशित किए जाएँगे, तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा; तुम सुन्न ही रह जाओगे। जब कोई सत्य और जीवन प्रवेश पर संगति करेगा, तो तुम्हें हमेशा नींद आएगी और तुम झपकी लोगे। यह किस प्रकार की स्थिति है? ऐसी जहाँ परमेश्वर कार्य नहीं कर रहा है। यदि परमेश्वर कार्य नहीं करेगा, तो क्या व्यक्ति जिंदा लाश बनकर नहीं रह जाएगा? परमेश्वर में विश्वास करके भी उसकी मौजूदगी का एहसास नहीं कर पाना बहुत भयावह है। ऐसा व्यक्ति अपनी जीने की इच्छाशक्ति और प्रेरणा खो देता है। वह जीने के लिए अपनी सारी पूंजी खो देता है। ऐसे जीवन का क्या मूल्य है? क्या तुम सूअरों और कुत्तों से भी बदतर नहीं हो? तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के कारण, परमेश्वर को लगता है तुम भरोसा या विश्वास करने लायक नहीं हो। परमेश्वर अपने दिल की गहराई से तुमसे घृणा करता है, और इस प्रकार तुम्हें त्याग देता है या कुछ समय के लिए तुम्हें अलग कर देता है। मैं सोचता हूँ कि ऐसा व्यक्ति अपने दिल की पीड़ा और परेशानी को क्यों नहीं जानता? उनके दिल में क्या समस्या है? क्या उनके पास अंतरात्मा है? चाहे तुमने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, या चाहे तुम्हारी आस्था सच्ची है या नहीं, तुम पहले से ही व्यवहार के कुछ सिद्धांतों को समझ चुके हो, और किसी पर निर्भर हुए बिना जी सकते हो और जीवित रह सकते हो, लेकिन यदि तुम जानते हो कि तुम्हें उजागर किया गया है, परमेश्वर तुम्हें त्याग चुका है, तो क्या तुम तब भी जीवित रह सकोगे? क्या तुम्हारे जीवन का तब भी कोई अर्थ होगा? उस समय तुम रोओगे और अँधेरे में अपने दाँत पीसोगे। कलीसिया में, हम अक्सर ऐसे लोगों को देखते हैं, जिन्हें उजागर करके निकाला गया है, जब कलीसिया उन्हें दूर भेजने वाली होती है, वे रो-रोकर आँखें लाल कर लेते हैं और यहाँ तक कि मरने की सोचते हैं, उनके पास जीने की इच्छा नहीं होती है। रोते हुए, वे कसम खाते हैं कि वे पश्चात्ताप करेंगे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। यह वैसा ही है जैसे ताबूत देखने तक आँसू न बहाना। तो, यदि तुम पश्चात्ताप करना चाहते हो, तो तुम्हें यह अभी करना चाहिए। अपने कर्तव्य निर्वहन में आई समस्याओं, अपनी बेपरवाही और लापरवाही, और अपनी गैर-जिम्मेदारी के किसी भी पहलू पर चिंतन-मनन करने में देरी मत करो। इस पर चिंतन करो कि तुमने वास्तव में अपने कर्तव्य निर्वहन में परिणाम प्राप्त किए हैं या नहीं—यदि किए हैं, तो चिंतन करो कि ये परिणाम क्यों प्राप्त हुए हैं; और यदि परिणाम प्राप्त नहीं किए, तो चिंतन करो कि क्यों नहीं किए हैं? चिंतन-मनन करके इन चीजों पर स्पष्टता प्राप्त करो, और यदि फिर भी समस्याएँ बनी रहती हैं, तो उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजो। ऐसा करने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। जो समस्याएँ आने पर उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम हैं, न केवल अपने कर्तव्यों को निभाने में उनकी कठिनाइयाँ कम होंगी, बल्कि वे उन्हें निभाने में और अधिक प्रभावी बनेंगे, और इस दौरान जीवन प्रवेश भी प्राप्त करेंगे। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग सत्य को तब समझना शुरू करते हैं जब वे कई दौर की काट-छाँट और निपटान से गुजर चुके होते हैं। वे अक्सर आत्म-चिंतन करने में सक्षम होते हैं, और जब भी उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कुछ गलत किया है, तो उन्हें पता होता है कि उन्होंने सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उन्हें बहुत पछतावा होता है। कभी-कभी, वे स्वयं से घृणा भी करते हैं, और यह कहते हुए खुद को तमाचा भी जड़ते हैं : “मैं फिर से कुछ गलत करके परमेश्वर को पीड़ा कैसे दे सकता हूँ? मैं कितना हृदयहीन हूँ! परमेश्वर ने इतना कुछ कहा है—मुझे यह लंबे समय तक याद क्यों नहीं रहता? मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी इच्छा को संतुष्ट क्यों नहीं कर पाता? शैतान ने मुझे सचमुच बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और मैं सत्य को संजोता नहीं हूँ। मैं हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार जीता हूँ, और मुझे परमेश्वर की इच्छा की कोई परवाह नहीं है। मेरे पास वास्तव में अंतरात्मा या विवेक नहीं है। मैं परमेश्वर के प्रति बहुत विद्रोही हूँ!” इस प्रकार, वे पश्चात्ताप करने की इच्छा रखते हैं और सत्य को अभ्यास में लाने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं। उनके पास वास्तव में एक पश्चात्ताप करने वाला दिल है, लेकिन भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना कोई आसान काम नहीं है—इससे पहले कि वे थोड़ा सा बदल सकें, उनका कुछ परीक्षणों और शोधन से गुजरना आवश्यक है। अब ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अपना ध्यान सत्य पर लगाना शुरू कर दिया है, जो सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाले लोग बनने के इच्छुक हैं। तो फिर, वास्तव में पश्‍चात्ताप करने वाला दिल रखने वाले व्यक्ति को कैसे अभ्यास करना चाहिए? एक तो उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सत्य की अधिक खोज करनी चाहिए, अपने कर्तव्य निर्वहन में उन्हें अपनी समस्याओं को हल करना और अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। दूसरा यह कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को खोजकर उसके साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य को समझता हो, उन्हें अपनी विद्रोहशीलता, अपनी प्रकृति और सार का, और उन पहलुओं का विश्लेषण करना चाहिए जिनमें वे परमेश्वर का विरोध करते हैं। उन्हें इन समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए, फिर परमेश्वर के वचनों पर अच्छी तरह से विचार करना चाहिए और देखना चाहिए कि वे उन पर कैसे लागू होते हैं; एक बार फिर, उन्हें परमेश्वर के उन वचनों पर विचार करना चाहिए जो बहुत महत्वपूर्ण हैं, और जब तक उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त न हो, तब तक उन्हें अपनी खुद की समस्याओं, अपनी प्रकृति, और सार पर चिंतन-मनन करना चाहिए। इस तरह, वे सच्चा पश्चात्ताप करके खुद से घृणा कर सकेंगे। इसके बाद उन्हें आगे बढ़कर अपने कर्तव्य निर्वहन में आने वाली समस्याओं का खुलासा करके सत्य के जरिए उन्हें हल करना चाहिए। इस तरह, अपना कर्तव्य निभाने में आने वाली समस्याएँ कम होने लगेंगी, और परिणाम हासिल होंगे। यदि कोई वास्तव में पश्चात्ताप करना चाहता है, तो उसे इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। सच्चे पश्चात्ताप का यही एकमात्र मार्ग है।

सत्य का अनुसरण करने से क्या मिलेगा? पहला यह कि सत्य का अनुसरण करने से व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव ठीक होता है; दूसरा यह कि ऐसा करने से व्यक्ति अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य का अभ्यास कर पाता है और वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाला व्यक्ति बन सकता है। यह सच्चे पश्चात्ताप की गवाही है। सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए, व्यक्ति का सत्य समझना और उसका अभ्यास करना जरूरी है, तभी कोई परिणाम प्राप्त होता है। यदि तुम समस्या हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, और तुम बस कहने के लिए पश्चात्ताप करते हो, तो इसका कोई परिणाम नहीं मिलेगा। इस तरह, तुम्हें शांति या जमीन से जुड़ा हुआ महसूस नहीं होगा। यदि तुम प्रार्थना में बस यह कहते हो कि तुम सच में पश्चात्ताप करना चाहते हो, लेकिन अपने कर्तव्य निर्वहन में, तुम अपनी समस्याओं को हल करने और कर्तव्य में संतोषजनक प्रदर्शन करने के लिए सत्य नहीं खोजते हो, तो तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे हो। सच्चा पश्चात्ताप मुख्य रूप से वफादारी दिखाने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने, सत्य का अभ्यास करने, और अपने कर्तव्य के निर्वहन में सच्ची गवाही देने में दिखता है। ये सच्चे पश्चात्ताप के लक्षण हैं, और यही सच्चे पश्चात्ताप की गवाही भी है। यदि कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाए बिना, प्रार्थना में परमेश्वर से बस पश्चात्ताप की बातें करता है, तो क्या वह परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहा है? यदि कोई बात किसी की अंतरात्मा तक ही नहीं पहुँच रही है, तो वह परमेश्वर तक कैसे पहुँचेगी? तुम्हारी वर्तमान परिस्थितियाँ जो भी हों, अगर तुम ईमानदारी से परमेश्वर के लिए अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकते, यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में बहुत-सी समस्याएँ बनी रहती हैं, जिन्हें हल करने के लिए तुम सत्य नहीं खोजते, तो यह एक बड़ी समस्या है, और तुम्हें इसके बारे में पूरी निष्ठा से प्रार्थना और आत्म-चिंतन करना चाहिए। यदि तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर सकते और हमेशा खराब तरीके से अपना कर्तव्य निभाते हो, तो बेशक तुम पर बाहर निकाले जाने का खतरा बना रहेगा। चाहे तुमने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो—अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा लापरवाह और बेपरवाह रहोगे, हमेशा अपने फायदे के पीछे भागते रहोगे, हमेशा परमेश्वर के घर का फायदा उठाओगे, सत्य को नहीं स्वीकारोगे या उसका जरा भी अभ्यास नहीं करोगे, तो तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं हो। दरअसल, तुम सत्य से ऊब चुके हो, तुम एक गैर-विश्वासी हो जो केवल अपना पेट भरना चाहता है। भले ही तुम अब भी परमेश्वर के घर में रह रहे होगे, अब भी खुद को परमेश्वर का विश्वासी बताते होगे, पर सच तो यह है कि अब परमेश्वर के साथ तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर ने तुम्हें बहुत पहले ही किनारे कर दिया है, और तुम एक बेजान खोल, चलती-फिरती लाश बन गए हो। ऐसे में जीने का क्या मतलब है? जो इस स्तर पर पहुँच गया है, उसके पास वैसे भी बताने लायक कोई मंजिल नहीं है। परमेश्वर के सामने आकर जल्द-से-जल्द अपने पापों को कबूलना ही उनका एकमात्र रास्ता है। यदि तुम सचमुच ईमानदार हो और वास्तव में पश्चात्ताप करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे अपराधों को भुला देगा। हालाँकि, एक बात है जो तुम्हें याद रखनी चाहिए : किसी भी समय, और चाहे तुम्हें परमेश्वर के बारे में पता हो या नहीं, या उसे लेकर तुम्हारे मन में धारणाएँ या गलतफहमियाँ हों, तुम्हें कभी भी उससे लड़ना या उसका विरोध करना नहीं चाहिए। नहीं तो, तुम्हें पक्का कठोर दंड भुगतना पड़ेगा। यदि तुम अपना दिल कठोर पाते हो, या ऐसी अवस्था में हो जहाँ तुम कहते हो, “मैं इसे ऐसे ही करूँगा, देखते हैं परमेश्वर मेरा क्या बिगाड़ सकता है। मैं किसी से नहीं डरता। मैंने पहले भी हमेशा इसे ऐसे ही किया है,” तो तुम मुसीबत में हो। यह एक शैतानी प्रकृति का उभार है; यह हठ है। तुम पहले से ही अच्छी तरह जानते हो कि तुम जो कर रहे हो वह गलत है, जो पहले से ही खतरनाक है, लेकिन तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते। तुम्हारे दिल में भय नहीं है, यह किसी आरोप या दोष को स्वीकार नहीं करता, और चिंतित या दुखी नहीं होता है—तुम तो पश्चात्ताप करना भी नहीं जानते। यह हठ करने की अवस्था है और इससे तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। इससे परमेश्वर के लिए तुम्हें किनारे करना आसान हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति इस स्तर तक पहुँच जाता है और अभी भी इतना सुन्न है कि यह भी नहीं जानता कि उसे वापस लौट जाना चाहिए, तो क्या परमेश्वर के साथ उसका संबंध वापस ठीक किया जा सकता है? इसे ठीक करना आसान नहीं होगा। फिर तुम परमेश्वर के साथ वापस सामान्य संबंध कैसे बना पाओगे, ताकि उसके करीब आने पर महसूस कर पाओ कि यह सही है? जहाँ तुम उसकी आज्ञा मान सको, उसके आगे झुक सको, और अपना सब कुछ उसे समर्पित कर सको, उसका भय मान सको और चाहे तुम उसके वचनों को समझ पाओ या नहीं, उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार सको, और फिर सत्य खोजकर आज्ञाकारिता का अभ्यास कर सको? तुम कब वापस इस अवस्था तक पहुँच पाओगे? इस स्थिति को वापस बनाने के लिए तुम्हें किस हद तक जाना होगा? मुझे डर है कि यह वाकई कठिन होगा, क्योंकि यह समय या यात्रा की लंबाई या तुम्हारी तय की गई दूरी का सवाल नहीं है। यह तुम्हारे जीवन की अवस्था और इस बात का सवाल है कि तुम सचमुच सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो या नहीं। यदि तुमने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, फिर भी अपने भीतर मौजूद समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं हुए हो, और तुम इन समस्याओं की गंभीरता से अनजान हो, बेखबर रहते हुए अक्सर एक विद्रोही अवस्था में आनंद से रहते हो, गलत चीजें करते हो, गलत शब्द कहते हो, कठोर दिल से परमेश्वर के खिलाफ विरोध, प्रतिरोध और विद्रोह करते हो, और हठपूर्वक अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों पर अड़े रहते हो, इन चीजों से तुम बिल्कुल ही बेखबर हो, तो तुम्हारे पास सत्य की कोई वास्तविकता नहीं है, तुम परमेश्वर की आज्ञा मानने वाले व्यक्ति नहीं हो, और अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने से बहुत दूर हो। तुम्हें अपने दिल में इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम अपनी वास्तविक अवस्था को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, हमेशा अपने विश्वास करने के तरीके को सही मानते हो, परमेश्वर के लिए खपने में खुद को सक्षम मानते हो, समझते हो कि तुमने कष्ट उठाया है और कीमत चुकाई है, और यह मानते हो कि तुम्हें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश जरूर मिलेगा, तो तुम विवेकहीन हो। न केवल तुम्हारे पास सत्य की कोई वास्तविकता नहीं है, बल्कि तुम इसे जानते भी नहीं हो। इसका मतलब यह है कि तुम्हारे मन में उलझन है, तुम दुविधा में हो, तुम एक भ्रमित दिमाग वाले व्यक्ति हो, और तुममें सत्य समझने या खुद को जानने की पर्याप्त काबिलियत नहीं है, और इसलिए परमेश्वर तुम्हें नहीं बचा सकता।

क्या तुम लोग जानते हो परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को त्याग देता है? (जो हमेशा हठ करते हैं और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप नहीं करते।) इस प्रकार के लोगों की विशिष्ट अवस्था क्या होती है? (अपने कर्तव्य निभाते समय वे हमेशा असावधान और लापरवाह होते हैं, और समस्याओं का सामना होने पर उन्हें हल करने के लिए वे सत्य नहीं खोजते हैं। वे इस बारे में गंभीर नहीं होते कि उन्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, और वे हर काम को लापरवाही से करते हैं। वे केवल बुरे या खराब काम न करके ही संतुष्ट रहते हैं, सत्य खोजने का प्रयास नहीं करते।) असावधान और लापरवाह व्यवहार हालात पर निर्भर करता है। कुछ लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, यहाँ तक कि उन्हें असावधान और लापरवाह होना सामान्य बात लगती है। कुछ लोग जानबूझकर असावधान और लापरवाह होते हैं, जानबूझकर इस तरह से कार्य करना चुनते हैं। जब वे सत्य नहीं समझ पाते तो इस तरह व्यवहार करते हैं, और सत्य समझने के बाद भी, वे अपने व्यवहार में सुधार नहीं करते। वे सत्य का पालन नहीं करते, जरा-सा भी बदलाव किए बिना लगातार इसी तरह से काम करते रहते हैं। जब कोई उनकी आलोचना करता है तो वे उस पर ध्यान नहीं देते, न ही काट-छाँट या निपटान को स्वीकारते हैं। बल्कि, वे हठपूर्वक अंत तक अपना पक्ष रखते हैं। इसे क्या कहा जाता है? यह हठ है। हर कोई जानता है कि “हठ” एक नकारात्मक शब्द है, एक अपमानजनक शब्द है। यह अच्छा शब्द नहीं है। तो तुम्हें क्या लगता है, यदि किसी के लिए “हठ” शब्द का उपयोग किया जा रहा है और वह उसके विवरण पर सही बैठता है, तो उसका परिणाम क्या होगा? (परमेश्वर उनसे घृणा करेगा, उन्हें ठुकरा देगा और किनारे कर देगा।) तुम सब जान लो, परमेश्वर इसी प्रकार के हठी लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है और इन्हें ही त्यागना चाहता है। वे अपने गलत कर्मों से पूरी तरह वाकिफ होते हैं पर पश्चात्ताप नहीं करते, कभी अपनी गलतियों को नहीं स्वीकारते और हमेशा खुद को सही ठहराने के लिए बहाने बनाते और तर्क देते हैं, और दूसरों पर दोष मढ़ देते हैं; वे दूसरों की नजरों से बचते हुए, बिना किसी पछतावे के या अपने दिल में बिना किसी अपराध-बोध के लगातार गलतियाँ करते रहते हैं और उनसे बचने के लिए आसान और कपटपूर्ण रास्ते खोजने की कोशिश करते हैं। ऐसा व्यक्ति बहुत कष्टदायक होता है, और उसके लिए उद्धार प्राप्त करना आसान नहीं होता। ये वही लोग हैं जिन्हें परमेश्वर त्याग देना चाहता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को क्यों त्यागेगा? (क्योंकि वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, और उनकी अंतरात्मा सुन्न हो गई है।) ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर इन लोगों को नहीं बचाता; वह ऐसे बेकार काम नहीं करता। बाहरी तौर पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है, और उन्हें नहीं चाहता है, पर वास्तव में इसके पीछे एक व्यावहारिक कारण है, जो यह है कि ये लोग परमेश्वर के उद्धार को नहीं स्वीकारते हैं; वे परमेश्वर के उद्धार को ठुकराकर उसका विरोध करते हैं। वे सोचते हैं, “तुम्हारी आज्ञा मानने, सत्य स्वीकारने और सत्य का अभ्यास करने से मुझे क्या हासिल होगा? इसमें क्या फायदा है? मैं इसे तभी करूँगा जब इससे मेरा कोई फायदा होगा। अगर कोई फायदा नहीं हुआ तो मैं नहीं करूंगा।” ये किस प्रकार के लोग हैं? ये स्वार्थ से प्रेरित लोग हैं, जो सत्य से प्रेम नहीं करते। स्वार्थ से प्रेरित लोग सत्य को स्वीकार नहीं सकते। यदि तुम स्वार्थ से प्रेरित किसी व्यक्ति के साथ सत्य पर संगति करने की कोशिश करोगे, और उससे खुद को जानने और अपनी गलतियों को स्वीकारने के लिए कहोगे, तो वह कैसी प्रतिक्रिया देगा? “अपनी गलतियों को स्वीकारने से मुझे क्या हासिल होगा? यदि तुम मुझसे यह स्वीकार करवाते हो कि मैंने कुछ गलत किया है, और मुझे मेरे पापों को कबूल करके पश्चात्ताप करने पर मजबूर करते हो, तो मुझे कौन-सी आशीष प्राप्त होगी? मेरी प्रतिष्ठा और हितों को नुकसान होगा। मुझे घाटा होगा। इसकी भरपाई कौन करेगा?” यह उनकी मानसिकता है। वे केवल अपना फायदा देखते हैं, और सोचते हैं कि परमेश्वर की आशीष प्राप्त करने के लिए किसी खास तरीके से काम करना बहुत अस्पष्ट है। उन्हें यह नामुमकिन लगता है; वे केवल वही मानते हैं जो अपनी आँखों से देखते हैं। ऐसे लोग स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, और वे इस शैतानी फलसफे के अनुसार जीते हैं कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” यही उनकी प्रकृति का सार है। उनके दिलों में, परमेश्वर को स्वीकारने और सत्य को स्वीकारने का अर्थ है कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। बुराई न करना उन्हें स्वीकार्य है, पर इससे उन्हें फायदा होना चाहिए और नुकसान तो कतई नहीं होना चाहिए। जब उनके हित प्रभावित नहीं होंगे, तभी वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर की आज्ञा मानने की बात करेंगे। यदि उनके हितों को नुकसान पहुँचता है, तो वे न तो सत्य का अभ्यास कर सकेंगे और न ही परमेश्वर की आज्ञा का पालन करेंगे। उनसे खुद को खपाने, कष्ट उठाने या परमेश्वर के लिए कीमत चुकाने के लिए कहना तो और भी नामुमकिन है। ऐसे लोग सच्चे विश्वासी नहीं होते हैं। वे अपने हितों के लिए जीते हैं, केवल आशीष और लाभ की खोज में होते हैं, और कष्ट सहने या कीमत चुकाने के इच्छुक नहीं होते, फिर भी मृत्यु के परिणाम से बचने के लिए वे परमेश्वर के घर में जगह पाना चाहते हैं। ऐसे लोग रत्ती भर भी सत्य नहीं स्वीकारते और परमेश्वर उन्हें नहीं बचा सकता। क्या अब भी परमेश्वर उन्हें बचा सकता है? यकीनन परमेश्वर उनसे घृणा करेगा और उन्हें ठुकराकर बाहर निकाल देगा। क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता? उन्होंने खुद को ही त्याग दिया है। जब वे सत्य नहीं खोजते, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, या उस पर भरोसा नहीं करते, तो परमेश्वर उन्हें कैसे बचा सकता है? एकमात्र उपाय यह है कि उन्हें त्याग दिया जाए और सबसे अलग करके आत्म-चिंतन करने के लिए छोड़ दिया जाए। यदि लोग बचाया जाना चाहते हैं, तो उनके लिए एकमात्र तरीका यही है कि वे सत्य को स्वीकारें, खुद को जानें, पश्चात्ताप करें और सत्य की वास्तविकता को जीएँ। इस तरह, वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए ताकि वे परमेश्वर का आज्ञापालन करें और उसका भय मानें, जो कि उद्धार का अंतिम लक्ष्य है। आज्ञाकारिता और परमेश्वर का भय लोगों में और उनके जीवन जीने के तरीके में रचा-बसा होना चाहिए। यदि तुम सत्य खोजने के मार्ग पर नहीं चलते, तो तुम्हारे लिए कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। यदि कोई व्यक्ति इस मार्ग पर नहीं चलता, तो इसका केवल यही मतलब है कि उसे विश्वास नहीं कि सत्य उसे बचा सकता है। उसे विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के कहे सभी वचन उसे बदल सकते और वास्तविक इंसान बना सकते हैं। इसके अलावा, वे बुनियादी तौर पर यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर सत्य है, न ही वे इस तथ्य में विश्वास करते हैं कि सत्य लोगों को बदलकर बचा सकता है। इसलिए, चाहे तुम कैसे भी इसका विश्लेषण करो, ऐसे व्यक्ति का दिल हठी ही रहेगा। चाहे कुछ भी हो जाए, वे सत्य को स्वीकारने से इनकार करते हैं, और उन्हें बचाया नहीं जा सकता।

क्या तुम लोगों में से किसी की हठी अवस्था है? (हाँ।) तो क्या तुम सब हठी हो? हठी अवस्था होने और हठी व्यक्ति होने में क्या अंतर है? दोनों को अलग-अलग देखना चाहिए क्योंकि वे अलग-अलग मामले हैं। हठी अवस्था होने का अर्थ है इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव का होना। यदि तुम सत्य स्वीकार सकते हो, तो तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो, लेकिन यदि तुम हठी व्यक्ति हो, तो तुम्हें परेशानी होगी। हठी लोग सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते; वे उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। इन दोनों प्रकार के लोगों में यही अंतर है। हठी अवस्था वाले कुछ लोग विद्रोही व्यवहार दिखाते हैं, और अपने आप में थोड़ी भ्रष्टता उजागर करते हैं। हालाँकि, भ्रष्टता उजागर करने की प्रक्रिया के दौरान, वे लगातार अपने पापों को स्वीकारते, परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करते, और लगातार परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, और अनुशासन को स्वीकारते हैं। चाहे कितनी ही बार असफलता का अनुभव करें या ठोकर खाएँ, वे आत्म-चिंतन करके समस्याओं को हल करने, वापस उठकर खड़ा होने, और परमेश्वर का अनुसरण करते रहने में सक्षम होते हैं। इस अनुभव से, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव की सच्ची समझ प्राप्त करते हैं और एहसास करते हैं कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करना वास्तव में उद्धार का एक रूप है, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना वे कुछ नहीं कर सकते। निरंतर पश्चात्ताप करने, लगातार अपने पापों को कबूलने, और निरंतर परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने से, उनके जीवन में प्रगति होती है, और उनकी आध्यात्मिक स्थिति लगातार बदलती रहती है। इस प्रक्रिया में, व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव को धीरे-धीरे खत्म किया जा सकता है, और वे प्रगति और बदलाव का अनुभव करते हैं। उनके विद्रोही व्यवहार को देखते हुए, यह लग सकता है कि ऐसे लोग भी बहुत हठी होते हैं, और कभी-कभी उनकी हठी अवस्था भी होती है, लेकिन वे उस प्रकार के व्यक्ति नहीं होते। चूँकि वे उस प्रकार के व्यक्ति नहीं हैं, तो वे सकारात्मक व्यवहार और प्रगति जरूर दिखाते हैं। ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है। तुम लोग किस प्रकार के व्यक्ति हो? (हमें गलत काम करने पर उसका आभास हो जाता है, और हम परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करके अपनी गलतियों को सुधारना चाहते हैं।) यदि तुम्हें अपने गलत कर्मों, अपनी विद्रोही प्रकृति, और अपने भ्रष्ट स्वभाव का एहसास है, और तुम अपने दिल में पश्चात्ताप और पछतावा महसूस करते हो, तो यह अच्छी बात है और तुम उद्धार पाने की उम्मीद कर सकते हो। हालाँकि, यदि तुम्हारे मन में अपनी विद्रोही प्रकृति या भ्रष्टता के बारे में थोड़ी सी भी जागरूकता नहीं हैं, और जब कोई तुम्हें इस बारे में बताता है, तो तुम अड़ियल और अस्वीकार्य बने रहते हो, यहाँ तक कि कुतर्क करके खुद को सही ठहराते हो, तो तुम्हें परेशानी होगी, और तुम्हारा बचाया जाना आसान नहीं होगा। यदि तुमने थोड़े समय के लिए, जैसे कि तीन से पाँच वर्षों के भीतर परमेश्वर में विश्वास किया है, और तुम अभी भी आस्था के बारे में ज्यादा कुछ नहीं समझते, तो ऐसा तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद के कारण है। लेकिन, यदि तुम दस वर्ष से अधिक समय से विश्वासी रहे हो और अभी भी खुद को नहीं जानते, काट-छाँट या निपटान को नहीं स्वीकारते, तो तुम मुसीबत में हो। यह ऐसा हठी स्वभाव वाला व्यक्ति है जो सत्य स्वीकारने से इनकार करता है। जब उन लोगों की बात आती है जो सत्य नहीं समझते हैं और जिनमें वास्तविकता का अभाव है, तो तुम्हें यह देखना होगा कि वे समय के किस मुकाम पर हैं। कुछ लोगों में अच्छे गुण होते हैं, जल्दी सत्य में प्रवेश करते हैं, और केवल एक या दो वर्षों के विश्वास के बाद ही, वे जीवन में प्रवेश करने का अर्थ समझ जाते हैं। यह भी संभव है कि उनका संपर्क ऐसे लोगों से हो जो जीवन में अच्छी तरह से प्रवेश कर चुके हों, जिनके पास सत्य की वास्तविकता हो, और जो बहुत से सत्यों को समझते हों। नए विश्वासी भी इन चीजों के लिए तरसते हैं, इसलिए वे बहुत कुछ सुनते हैं, और बहुत कुछ प्राप्त करते हैं, और इस प्रकार जीवन में जल्दी प्रवेश करते हैं। कुछ लोगों के पास अच्छे गुण नहीं होते और अच्छे गुण वाले लोगों के संपर्क में रहने के बाद भी, उनकी प्रगति धीमी होती है। कुछ लोग अंदर से सत्य को नापसंद करते हैं, और चाहे कितने ही वर्षों से उन्होंने विश्वास किया हो, वे सत्य का अभ्यास या जीवन में प्रगति नहीं करते। कुछ लोग केवल चीजें करना पसंद करते हैं और बहुत उत्साही होते हैं, लेकिन सत्य खोजने के इच्छुक नहीं होते। वे हर दिन व्यस्त रहते हैं, फिर भी जीवन में प्रगति नहीं कर पाते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग हर तरह की परिस्थितियों में हो सकते हैं। हालाँकि, केवल सत्य से प्रेम करने वाले ही सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और सत्य प्राप्त करके उद्धार पा सकते हैं। विश्वासियों के लिए सबसे बड़ी चिंता हठी स्वभाव का होना और सत्य को न स्वीकारना है। ऐसे लोग बहुत परेशानियाँ खड़ी करते हैं और यही इनकी प्रकृति की समस्या है। वे धर्म-सिद्धांत को स्वीकार सकते हैं, पर वे सत्य को स्वीकारने से इनकार करते हैं। ये ऐसे लोग हैं जिनके उद्धार प्राप्त करने की संभावना सबसे कम है। जो व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य से तंग आ चुके हैं, उन्हें बिना सोचे त्याग देना चाहिए।

मैं झूठ बोलने के दो उदाहरण देता हूँ। दो प्रकार के लोग झूठ बोलने में सक्षम होते हैं। तुम्हें अंतर करना होगा कि कौन-से लोग हठी हैं और कभी सुधर नहीं सकते। तुम्हें यह अंतर भी करना होगा कि किन लोगों को बचाया जा सकता है। हालाँकि, जिन लोगों को बचाया जा सकता है वे अक्सर भ्रष्टता उजागर करते हैं, यदि वे सत्य स्वीकार कर और चिंतन-मनन करके खुद को पहचान सकें, तो उनके लिए अब भी उम्मीद बची है। पहले उदाहरण में, व्यक्ति बार-बार झूठ बोलता है। लेकिन, सत्य समझने के बाद, अगली बार झूठ बोलने पर उसकी प्रतिक्रिया अलग होती है। उसे बेहद कष्ट और पीड़ा महसूस होती है, तो उसने विचार किया, “मैंने फिर झूठ बोला। मैं क्यों नहीं बदल पा रहा? इस बार, चाहे जो हो जाए, मुझे इस समस्या को उजागर करना होगा, अपनी वास्तविकता को उजागर कर उसका विश्लेषण करने के लिए खुलकर बात करनी होगी। मुझे इस तथ्य को साफ तौर पर समझ लेना चाहिए मैं बस बदनामी से बचने के लिए झूठ बोल रहा था।” खुलकर बोलने और संगति करने के बाद, उसे शांति महसूस हुई और एहसास हुआ, “झूठ बोलना कितना कष्टदायी है, वहीं ईमानदार इंसान बनना कितना आसान और बढ़िया है! परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार बनें; लोगों में यही सदृश्ता होनी चाहिए।” इस थोड़ी सी अच्छाई का अनुभव करने के बाद, आगे से वह कम झूठ बोलने, जहाँ तक मुमकिन हो झूठ न बोलने, अपने मन की बात कहने, ईमानदारी से बोलने, सही कर्म करने और ईमानदार व्यक्ति बनने पर ध्यान देने लगा। हालाँकि, जब उसे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा जिसमें उसकी अपनी गरिमा शामिल थी, तो उसने स्वाभाविक रूप से झूठ बोला और बाद में पछताया। फिर, जब उसने खुद को ऐसी स्थिति में पाया, जहाँ वह खुद को अच्छा दिखा सकता था, तो उसने फिर से झूठ बोला। उसने यह सोचकर खुद से घृणा की, “मैं अपने मुँह पर काबू क्यों नहीं रख पा रहा? क्या यह मेरी प्रकृति की कोई समस्या हो सकती है? क्या मैं बेहद कपटी हूँ?” उसे एहसास हुआ कि इस समस्या का समाधान किया जाना चाहिए; नहीं तो, परमेश्वर उससे घृणा करेगा और उसे अस्वीकार कर बाहर निकाल देगा। उसने परमेश्वर से प्रार्थना की, दोबारा झूठ बोलने पर खुद को अनुशासित करने को कहा, और वह दंड स्वीकारने के लिए तैयार था। उसने सभाओं में खुद का विश्लेषण करने का साहस जुटाया और कहा, “इन परिस्थितियों में मैंने झूठ इसलिए बोला क्योंकि मेरी स्वार्थी मंशाएँ थीं और मैं उनके काबू में था। आत्म-चिंतन करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि मैं जब भी झूठ बोलता था तो यह मेरे घमंड या निजी फायदे के लिए होता था। अब मैं इसे स्पष्ट देख सकता हूँ : मैं अपने घमंड और निजी हितों के लिए जीता हूँ, इसलिए मैं हर चीज के बारे में हमेशा झूठ ही बोलता था।” अपने झूठों का विश्लेषण करते हुए, उसने अपने इरादे को भी उजागर किया और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का पता लगा लिया। यह फायदे की ही बात है; वह ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करने के साथ-साथ प्रबोधन प्राप्त कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान सकता है। बाद में, उसने विचार किया, “मुझे बदलना होगा! मुझे अभी पता चला है कि मुझमें यह समस्या है। यह परमेश्वर की ओर से सच्चा प्रबोधन है। सत्य का अभ्यास करने वाले लोगों को परमेश्वर आशीष देता है!” उसने सत्य का अभ्यास करने का थोड़ा सा मीठा स्वाद भी चखा। हालाँकि, एक दिन अनजाने में उस व्यक्ति ने फिर से झूठ बोला। उसने एक बार फिर परमेश्वर से अनुशासित होने के लिए प्रार्थना की। इसके अलावा, उसने इस बात पर भी विचार किया कि उसकी बातों में हमेशा कोई इरादा क्यों छिपा होता है, और वह परमेश्वर की इच्छा के बजाय अपने अहंकार और घमंड के बारे में क्यों सोचता है। चिंतन करके, उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ प्राप्त होती है और वह खुद से घृणा करने लगता है। वह इस तरह से सत्य खोजता रहता है। तीन से पाँच वर्षों के बाद, उसके झूठ वास्तव में कम-से-कम होते गए और वह अधिकतर अपने मन की बात कहने और ईमानदारी से व्यवहार करने लगा। उसका हृदय धीरे-धीरे शुद्ध होता गया और वह अधिक शांत और खुश रहने लगा। वह अपना ज्यादातर समय परमेश्वर की मौजूदगी में बिताने लगा और उसकी स्थिति सामान्य होती गई। यह उस व्यक्ति की वास्तविक स्थिति है जो ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करते हुए अक्सर झूठ बोलता था। तो क्या वह व्यक्ति अब भी झूठ बोलता है? क्या वह अब भी झूठ बोल सकता है? क्या वह वास्तव में ईमानदार व्यक्ति है? ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह ईमानदार व्यक्ति है। उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति ईमानदार व्यक्ति बनने के सत्य का अभ्यास कर सकता है, और वह ईमानदार व्यक्ति बनने के अभ्यास की प्रक्रिया में है, पर वह अब तक पूरी तरह से ईमानदार व्यक्ति नहीं बना है। दूसरे शब्दों में, वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार है। क्या जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने को तैयार है उसे सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति कहा जा सकता है? उसने सत्य का अभ्यास किया है और तथ्य उजागर हो चुके हैं, तो क्या उसे सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित करना स्वाभाविक नहीं है? बेशक, जब वह ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर रहा था, तो वह तुरंत शुद्ध और खुली संगति का अभ्यास करने, या बिना किसी आशंका के अपने भीतर छिपी हर चीज को उजागर करने में सक्षम नहीं था। वह अब भी कुछ चीजों को छिपाकर आगे बढ़ने की कोशिश करता था। हालाँकि, अपनी कोशिशों और अनुभवों से, उसे एहसास हुआ कि वह जितना अधिक ईमानदारी से जीता रहा उतना ही उसे अच्छा महसूस हुआ, उतना ही उसका मन शांत हुआ, और बिना किसी बड़ी कठिनाई के सत्य का अभ्यास करना उसके लिए आसान हो गया। तभी उसने ईमानदार व्यक्ति होने का मीठा स्वाद चखा, और परमेश्वर में उसका विशवास बढ़ गया। ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करने से, वह न केवल सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हुआ, बल्कि अपने दिल में शांति और आनंद का अनुभव भी किया। साथ ही, उसे ईमानदारी का अभ्यास करने के मार्ग की स्पष्ट समझ प्राप्त हुई। उसे एहसास हुआ कि ईमानदार व्यक्ति बनना बहुत कठिन नहीं है। उसने देखा कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उचित और पूरा करने लायक हैं, और उसे परमेश्वर के कार्य की थोड़ी समझ प्राप्त हुई। यह सब कोई अतिरिक्त लाभ नहीं है, बल्कि वह है जो व्यक्ति को जीवन में प्रवेश करने की अपनी यात्रा में प्राप्त करना चाहिए, और वह इसे प्राप्त करने में सक्षम है।

दूसरा उदाहरण एक ऐसे व्यक्ति के बारे में है जिसे झूठ बोलना पसंद है—यह उसकी प्रकृति में है। जब वह कुछ नहीं कहता, तो सब ठीक होता है, पर जैसे ही वह अपना मुँह खोलता है, उसकी बातें मिलावट से भरी होती हैं। वह ऐसा जानबूझकर करता है या नहीं, सच तो यह है कि उसकी ज्यादातर बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक दिन, झूठ बोलने के बाद, उसने विचार किया, “झूठ बोलना गलत है और इससे परमेश्वर नाराज होता है। यदि लोगों को पता चला कि मैंने झूठ बोला है, तो मेरी बदनामी होगी! लेकिन ऐसा लगता है कि किसी को मेरे झूठ की भनक लग चुकी है। जो भी हो, मैं देख लूँगा। मैं कोई और विषय ढूँढ लूँगा, और उनका ध्यान भटकाने के लिए अलग तरह के शब्द इस्तेमाल करूँगा, उन्हें उलझन में डाल दूँगा, जिससे वे मेरा झूठ नहीं पकड़ पाएँगे। अब ये हुई ना असली चालाकी?” फिर अपने पुराने झूठ पर पर्दा डालने और चीजों को ठीक करने के लिए उसने और बड़ा झूठ बोल दिया, जिसके बहकावे में लोग आ गए। उसने यह सोचकर आत्मतुष्टि और दंभ महसूस किया, “देखो मैं कितना चतुर हूँ! मैंने बिना किसी चूक के झूठ बोला, और अगर कोई चूक हुई भी, तो मैं फिर से झूठ बोलकर उस पर पर्दा डाल दूँगा। ज्यादातर लोग मेरी असलियत नहीं जान पाते। झूठ बोलना भी एक कला है!” कुछ लोग कहते हैं, “झूठ बोलना मेहनत का काम है। एक झूठ पर पर्दा डालने के लिए कई झूठ बोलने पड़ते हैं। इसमें बहुत सोच-विचार और मेहनत लगती है।” लेकिन, इस झूठ बोलने में माहिर व्यक्ति को ऐसा नहीं लगा। इस उदाहरण में, उसके झूठ उजागर नहीं हुए थे। उसने दूसरों को बहकाने के लिए अच्छी तरह से झूठ बोला, फिर उजागर किए जाने के डर से, उसने पिछला झूठ छिपाने के लिए एक और झूठ बोल दिया। उसे बहुत गर्व हुआ, और उसने अपने दिल में कोई अपराध-बोध या खेद महसूस नहीं किया। उसकी अंतरात्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह कैसे मुमकिन है? वह इस बात से अनजान है कि झूठ बोलना उसके लिए कितना हानिकारक है। उसे लगता है कि अपने पिछले झूठों पर पर्दा डालने के लिए नए झूठ बोलने से उसकी छवि बेहतर होगी और उसे फायदे होंगे। इतनी कठिनाई और थकान के बाद भी, उसे लगता है कि ऐसा करना ठीक है। उसे यह सत्य समझने और सत्य का अभ्यास करने से ज्यादा मूल्यवान लगता है। वह बिना कसूरवार महसूस किए अक्सर झूठ क्यों बोलता है? क्योंकि उसके दिल में सत्य के लिए प्रेम नहीं है। ऐसे लोगों के लिए उनका अभिमान, प्रतिष्ठा, और रुतबा ज्यादा प्यारा है। वे संगति में दूसरों के सामने कभी अपना दिल खोलकर नहीं रखते; बल्कि, अपने झूठों को छिपाने के लिए स्वांग रचते और ढोंग करते हैं। वे लोगों के साथ इसी तरह से संवाद करते और पेश आते हैं। चाहे वे कितने भी झूठ बोलें, कितने भी झूठों पर पर्दा डालें या अपने स्वार्थी और नीच इरादों को कितना भी छिपाएँ, उन्हें अपने दिल में जरा भी अपराध-बोध या अशांति महसूस नहीं होती। आम तौर पर, जिन लोगों के पास अंतरात्मा और थोड़ी मानवता है वे झूठ बोलने पर थोड़ा असहज महसूस करेंगे, और खुद को उसके अनुसार ढालने में दिक्कत होगी। उन्हें शर्म महसूस होगी; लेकिन यह व्यक्ति तो ऐसा नहीं सोचता। ऐसा व्यक्ति झूठ बोलकर आत्मतुष्ट महसूस करता है और कहता है, “आज मैंने फिर से झूठ बोलकर उस बेवकूफ को चकमा दे दिया। मेरे पसीने छूट रहे थे, पर उसे भनक तक नहीं लगी!” क्या वह बार-बार झूठ बोलने और अपने झूठ पर पर्दा डालने वाले ऐसे जीवन से तंग नहीं आ गया है? यह कैसी प्रकृति है? यह एक राक्षस की प्रकृति है। राक्षस रोज झूठ बोलते हैं। वे बिना किसी परेशानी या पीड़ा के झूठ से भरा जीवन जीते हैं। यदि उन्हें परेशानी या पीड़ा महसूस होती, तो वे जरूर बदलते, पर वे पीड़ा नहीं महसूस करते, क्योंकि झूठ बोलना ही उनका जीवन है—यह उनकी प्रकृति में है। जब वे स्वाभाविक रूप से खुद को व्यक्त करते हैं, तो कोई संयम नहीं दिखाते और कोई आत्म-चिंतन नहीं करते। चाहे वे कितने भी झूठ बोलें या कितनी भी चालें चलें, उन्हें अपने दिल में कोई अपराध-बोध नहीं होता, और उनकी अंतरात्मा में कोई टीस नहीं उठती। वे इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई की जाँच करता है; वे झूठ बोलने और छल-कपट करने के बाद अपनी जिम्मेदारी और उन्हें मिलने वाले प्रतिकार का एहसास तक नहीं कर पाते हैं। उनका सबसे बड़ा डर यह है कि कोई उनकी कपटपूर्ण साजिशों को उजागर कर देगा, इसलिए वे अपनी साजिशों पर पर्दा डालने के लिए और भी अधिक झूठ बोलते हैं, और साथ ही अपने झूठों और अपनी असलियत को छिपाने के लिए कोई न कोई रास्ता, कोई न कोई साधन ढूंढने की कोशिश में खुद को थका देते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति ने इस पूरी प्रक्रिया में एक बार भी पश्चात्ताप किया है? क्या उसे कोई ग्लानि या दुख महसूस होता है? क्या उसमें खुद को बदलने की कोई इच्छा है? नहीं, उसे लगता है कि झूठ बोलना या उस पर पर्दा डालना कोई पाप नहीं है, ज्यादातर लोग ऐसे ही जीते हैं, और वह जरा भी नहीं बदलना चाहता। जहाँ तक ईमानदार व्यक्ति बनने की बात है, वह अपने दिल में सोचता है, “मैं ईमानदार व्यक्ति क्यों बनूँ, दिल की बात क्यों कहूँ, और सच क्यों बोलूँ? मैं ऐसा नहीं करता। यह बेवकूफों के लिए है और मैं उतना बेवकूफ नहीं हूँ। यदि मैं झूठ बोलता हूँ और उजागर होने से डरता हूँ, तो मैं उस पर पर्दा डालने के लिए कोई और तर्क या बहाने ढूँढ लूँगा। मैं ईमानदारी से बात करने वालों में से नहीं हूँ। यदि ऐसा होता तो मैं निहायत ही बेवकूफ होता!” वे सत्य नहीं स्वीकारते या उसे नहीं मानते। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते वे सत्य से प्रेम नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति की शुरू से अंत तक क्या स्थिति होती है? (वे खुद को बदलना नहीं चाहते।) चीजों को न बदलने की उनकी इच्छा एक वस्तुपरक दृष्टिकोण से स्पष्ट है, लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? वे बुनियादी तौर पर इस बात से इनकार करते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होना जीवन का सही मार्ग है। वे सत्य के अस्तित्व, अंत के दिनों में मानवजाति के लिए परमेश्वर के न्याय, और इस बात से भी इनकार करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य का अंतिम परिणाम और व्यक्ति के कर्मों के लिए अलग-अलग दंड निर्धारित करता है। यह अविवेकी, मूर्खतापूर्ण और अड़ियल रवैया है। ऐसी सोच ही उनकी हठी स्थिति, कार्यों और व्यवहार को जन्म देती है। ये चीजें व्यक्ति की प्रकृति और सार से उत्पन्न होती हैं। वे इसी प्रकार के लोग हैं—निहायत ही कपटी इंसान—और वे बदल नहीं सकते। ऐसे लोगों को सत्य स्वीकारने से इनकार करते देखना कुछ लोगों को अकल्पनीय लग सकता है, और वे इसे समझ नहीं पाते। वास्तव में, ऐसे लोगों में सामान्य मानवता का अभाव होता है और उनकी अंतरात्मा काम नहीं करती है। इसके अलावा, उनमें सामान्य मानवता की भावना का अभाव होता है। सत्य और न्याय के वचनों को सुनकर, सामान्य मानवता और समझ वाला व्यक्ति कम-से-कम आत्म-चिंतन करेगा और सच्चा पश्चात्ताप करेगा, लेकिन ऐसा व्यक्ति सच्चे मार्ग को सुनने के बाद कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाता है। परमेश्वर में अपने बरसों के विश्वास में जरा सा भी बदले बिना वह अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीने पर जोर देता है। ऐसे व्यक्ति में सामान्य मानवता की भावना का अभाव होता है, और ऐसे व्यक्ति का बचाया जाना कठिन है।

तुम लोगों को क्या लगता है, परमेश्वर दोनों में से किस प्रकार के व्यक्ति को बचाता है? (पहले प्रकार के, क्योंकि भले ही वे झूठ बोलते हों, पर वे सत्य स्वीकार कर ईमानदार बनने में सक्षम हैं।) इसे देखकर लोग पूछ सकते हैं, “परमेश्वर जिन लोगों को बचाता है वे झूठ अभी भी हमेशा झूठ कैसे बोल सकते हैं और गलत काम कैसे कर सकते हैं? क्या वे अभी भी भ्रष्ट लोग नहीं हैं? वे लोग पूर्ण नहीं हैं!” वे यहाँ पर “पूर्ण” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इसके बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? ये ऐसे व्यक्ति के शब्द हैं जो जीवन में विकास की सामान्य प्रक्रिया को नहीं समझता। परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया और जिनका स्वभाव भ्रष्ट है, उन लोगों को नहीं जो परिपूर्ण हैं, जिनमें कोई कमियाँ नहीं है या जो शून्य में रहते हैं। कुछ लोग, थोड़ी सी भ्रष्टता दिखाने पर सोचते हैं, “मैंने फिर से परमेश्वर का विरोध किया। इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं नहीं बदला। जाहिर है कि परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता!” फिर वे निराश हो जाते हैं और सत्य का अनुसरण करना नहीं चाहते। इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? उन्होंने खुद ही सत्य को त्याग दिया है, और मानते हैं कि परमेश्वर अब उन्हें नहीं चाहता। क्या यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी नहीं है? ऐसी नकारात्मकता का शैतान आसानी से फायदा उठा सकता है। शैतान ऐसे लोगों का उपहास करते हुए कहता है, “बेवकूफ कहीं के! परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, लेकिन तुम अभी भी इस तरह पीड़ा झेल रहे हो! हार ही मान लो, न! यदि तुम हार मान लोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा, जो उसका तुम्हें मेरे हवाले कर देने जैसा ही है। मैं तुम्हें तड़पाकर मार डालूँगा!” शैतान कामयाब हुआ, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे। नतीजतन, चाहे व्यक्ति को कितनी भी कठिनाइयों या नकारात्मकता का सामना करना पड़े, उसे हार नहीं माननी चाहिए। उसे समाधान के लिए सत्य खोजना चाहिए, और निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। जीवन के विकास की प्रक्रिया और मानव उद्धार के दौरान, लोग कभी-कभी गलत मार्ग अपना सकते हैं, भटक सकते हैं, या कभी-कभी वे जीवन में अपरिपक्वता की स्थिति और व्यवहार दिखा सकते हैं। कभी-कभी वे कमजोर और नकारात्मक हो सकते हैं, गलत बातें कह सकते हैं, लड़खड़ा सकते हैं या नाकामयाब हो सकते हैं। यह सब परमेश्वर की दृष्टि में सामान्य बातें हैं। वह इसे उनके खिलाफ नहीं मानता। कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी है, और वे कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे, इसलिए वे दुखी महसूस करते हैं और खुद से घृणा करते हैं। जिन लोगों के पास इस प्रकार पश्चात्ताप करने वाला दिल है, परमेश्वर उन्हें ही बचाता है। दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है, जो सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है, आम तौर पर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। जो मैं तुम लोगों को बता रहा हूँ उसके पीछे का अर्थ क्या है? जिसे भी समझ आया हो, बोलो। (भ्रष्टता के अपने प्रदर्शनों को ठीक से संभालना, सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना, और तुम्हें परमेश्वर का उद्धार प्राप्त होगा। यदि तुम लगातार परमेश्वर को गलत समझोगे, तो आसानी से निराशा में डूब जाओगे।) तुम्हें आस्था रखनी चाहिए और कहना चाहिए, “भले ही मैं अभी कमजोर हूँ, और मैंने ठोकर खाई और नाकामयाब हुआ हूँ। मैं आगे बढ़ूंगा, और एक दिन सत्य समझूंगा और परमेश्वर को संतुष्ट करके उद्धार प्राप्त करूँगा।” तुम्हारे पास यह संकल्प होना चाहिए। चाहे तुम्हें कैसी भी रुकावटों, कठिनाइयों, नाकामियों या उलझनों का सामना करना पड़े, तुम्हें नकारात्मक नहीं होना चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को बचाता है। इसके अलावा, यदि तुम्हें लगता है कि तुम अभी तक परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के योग्य नहीं हो, या जब कभी तुम ऐसी स्थिति में होते हो जिससे परमेश्वर घृणा करता है और नाखुश होता है, या जब कभी तुम बुरा व्यवहार करते हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तुमसे घृणा करता है और तुम्हें ठुकरा देता है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। अब तुम जान गए हो, और अभी भी देर नहीं हुई है। यदि तुम पश्चात्ताप करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें एक अवसर जरूर देगा।

परमेश्वर में विश्वास करते समय सबसे महत्वपूर्ण क्या है? (सत्य समझना और जीवन में प्रवेश करना।) बिल्कुल सही, जीवन में प्रवेश सबसे महत्वपूर्ण चीज है—यह सबसे पहले आता है। चाहे तुम कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारी उम्र कितनी भी हो, तुमने कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो, और चाहे तुम कितना ही सत्य समझते हो, जीवन में प्रवेश सबसे पहले आता है। ऐसा मत सोचो, “कुछ लोगों ने परमेश्वर में बीस वर्षों से विश्वास किया है, लेकिन मैंने केवल पाँच वर्षों से विश्वास किया है। मैं उनसे बहुत पीछे हूँ। क्या अब भी मेरे बचाए जाने की आशा है? क्या मैं बहुत पीछे रह गया हूँ?” कुछ वर्षों की देरी से विश्वास करना कोई बड़ी समस्या नहीं है। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने वालों में से हो, तो अभी भी उन लोगों की बराबरी कर सकते हो जो पहले से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं। क्या बाइबल यह नहीं कहती, “परन्तु बहुत से जो पहले हैं, पिछले होंगे; और जो पिछले हैं, पहले होंगे” (मत्ती 19:30)? यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण न करने के लिए हमेशा कुतर्क और बहाने ढूंढता है, तो भले ही वह जीवन-भर विश्वासी रहा हो, यह सब व्यर्थ होगा, और उसे कुछ भी हासिल नहीं होगा। परमेश्वर के घर में, ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्होंने बीस या तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया, लेकिन अपने कर्तव्यों को मानक के अनुरूप पूरा नहीं किया, और बाहर निकाल दिए गए। ऐसे बहुत से लोग हैं जो हमेशा शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी बन जाते हैं, और बाहर निकाल दिए जाते हैं। ऐसे कई गैर-विश्वासी हैं जिन्होंने अड़ियल बनकर सत्य स्वीकारने से इनकार किया और उन सभी को निकाल दिया गया। क्या यह सच है? (हाँ।) इसके अलावा, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो केवल तीन से पाँच वर्षों के विश्वास के बाद ही अपने अनुभवों और गवाहियों के बारे में बोल पाते हैं। उनकी गवाही और विश्वास उन लोगों से कहीं अधिक है जिन्होंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है। इन लोगों को परमेश्वर की आशीष मिली है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया, पर सत्य का अनुसरण नहीं किया और उन सभी को निकाल बाहर किया गया। इससे लोगों को एक तथ्य स्पष्ट हो जाता है : परमेश्वर सभी के लिए धार्मिक और निष्पक्ष है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम पहले कैसे थे या अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद कैसा है, वह देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो या नहीं। तुम्हें कभी भी परमेश्वर को गलत समझकर यह नहीं कहना चाहिए, “जिन लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है वे अब भी झूठ क्यों बोलते और भ्रष्टता क्यों दिखाते हैं? परमेश्वर को उन्हें बचाना चाहिए जो झूठ नहीं बोलते।” क्या यह भ्रांति नहीं है? क्या भ्रष्ट मानवजाति में कोई ऐसा है जो झूठ नहीं बोलता? क्या जो लोग झूठ नहीं बोलते उन्हें अब भी परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है? शैतान ने जिस मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, परमेश्वर उसे ही बचाता है। यदि तुम इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते, तो तुम अज्ञानी और मूर्ख हो। जैसा कि परमेश्वर ने कहा, “इस पृथ्वी पर कोई भी धर्मी नहीं है, जो धर्मी हैं वे इस संसार में नहीं हैं।” इसका मूल कारण यह है कि मानवजाति को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, इसलिए परमेश्वर देहधारण करके पृथ्वी पर आया, ताकि हम भ्रष्ट मनुष्यों को बचा सके। परमेश्वर स्वर्गदूतों को बचाने के बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? ऐसा इसलिए क्योंकि स्वर्गदूत स्वर्ग में हैं, और शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए गए हैं। परमेश्वर ने शुरू से ही हमेशा यही कहा है, “जिस मानवजाति को मैं बचाता हूँ वह शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, वह मानवजाति जो शैतान के हाथों से वापस ली जा चुकी है, वह मानवजाति जिसमें शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वह मानवजाति जो मेरा विरोध करती है, मुझे ठुकराती है और मेरे खिलाफ विद्रोह करती है।” तो फिर लोग इस सच्चाई का सामना क्यों नहीं करते? क्या वे परमेश्वर को गलत नहीं समझते? परमेश्वर को गलत समझना उसके खिलाफ प्रतिरोध का सबसे आसान रास्ता है और इसे तुरंत हल किया जाना चाहिए। इस समस्या को हल नहीं कर पाना बहुत खतरनाक है, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप परमेश्वर तुम्हें आसानी से किनारे कर सकता है। लोगों की गलतफहमियाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में निहित हैं। यदि वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहे, तो उनके सत्य को न स्वीकारने की संभावना सबसे अधिक होगी। जब तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, यदि तुमने समाधान के लिए सत्य नहीं खोजा, तो इसके परिणाम तुम लोग बेहतर जानते हो। परमेश्वर तुम्हें ठोकर खाने, असफल होने और गलतियाँ करने देता है। परमेश्वर तुम्हें सत्य समझने, सत्य का अभ्यास करने, धीरे-धीरे उसकी इच्छा को समझने, उसकी इच्छा के अनुसार सब कुछ करने, वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा मानने, और सत्य की वास्तविकता को प्राप्त करने के लिए अवसर और समय देगा जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों के पास हो। लेकिन, परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति से सबसे अधिक घृणा करता है? जो अपने दिल में सत्य जानते हुए भी, उसे स्वीकारने से इनकार करते हैं, उसे अभ्यास में लाना तो दूर की बात है। बल्कि, वे अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, फिर भी खुद को परमेश्वर के प्रति बहुत अच्छा और आज्ञाकारी मानते हैं और साथ ही दूसरों को धोखा देकर परमेश्वर के घर में जगह पाने की कोशिश करते हैं। परमेश्वर इस प्रकार के लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है, वे मसीह-विरोधी हैं। हालाँकि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव है, पर ये कर्म अलग-अलग प्रकृति के होते हैं। यह कोई सामान्य भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और न ही भ्रष्टता का कोई सामान्य प्रकाशन है; बल्कि, इसमें तुम सोच-समझकर और अड़ियल बनकर अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हो। तुम जानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, फिर भी जानबूझकर उसका विरोध करना चुनते हो। यह परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने और गलतफहमी होने की समस्या नहीं है; बल्कि तुम जानबूझकर अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हो। क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को बचा सकता है? परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का दुश्मन है, इसलिए वह राक्षस शैतान है। क्या परमेश्वर अब भी राक्षस शैतान को बचा सकता है?

आज मेरी संगति सुनकर तुम लोगों को कैसा लगा? क्या तुमने इसे समझा? (हाँ, हमने समझा।) यदि तुम लोग कुछ समझते हो, तो तुम्हें कुछ हासिल होगा, और तुम सत्य में थोड़ा प्रवेश कर सकोगे। यदि तुम सत्य में प्रवेश करते हो, तो तुम्हारे जीवन में प्रगति होगी, लेकिन अगर तुम सत्य में प्रवेश नहीं करते हो, तो तुम्हारे जीवन में प्रगति नहीं होगी। यह एक अंकुरित बीज की तरह है जिसे खाद-पानी देने और सूरज की रोशनी दिखाने की जरूरत है। यदि तुमने इसका सावधानी से पोषण नहीं किया, तो यह विकसित नहीं होगा और अंत में सूखकर मर जाएगा। मेरे यह कहने का क्या अर्थ है? यह केवल बातों-बातों में अपने पाप कबूलना और अपने दिलों में परमेश्वर के देहधारण पर विश्वास करना परमेश्वर को जानने और उसके राज्य में प्रवेश करने योग्य होने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह पक्का नहीं है; यह केवल एक प्रारंभिक कदम है। तुमने अभी तक उद्धार प्राप्त नहीं किया है, तुममें परिवर्तन नहीं हुआ है और तुम्हें अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है। अंत के दिनों में, परमेश्वर मानवजाति को पूरी तरह से बचाने के लिए सत्य की घोषणा करता है। जब तुम परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे पास शुरुआत से ही परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का अवसर होता है। यह एक महान आशीष है! इसे छोड़ा नहीं जा सकता। अंत के दिनों में परमेश्वर का मानवता को बचाना और पूर्ण करना एक अत्यंत दुर्लभ अवसर है। मानवजाति हजारों पीढ़ियों से कायम रही है, लेकिन यह अवसर पहले किसी को नहीं मिला था। बचाया जाना बहुत बड़ी बात है; तुम्हें यह अवसर गंवाना नहीं चाहिए। तुम्हारी पीढ़ी ने परमेश्वर का देहधारण देखा है; यह एक आशीष है! धर्मनिरपेक्ष दुनिया को यह आशीष नजर नहीं आती है, लेकिन तुम लोगों ने इसे देखा है और इसका आनंद लिया है, यही परमेश्वर की आशीष है। शायद कुछ लोगों को अभी भी दर्शन के बारे में स्पष्ट नहीं हैं; वे केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, लेकिन उनकी आस्था वास्तविक नहीं है। उन्हें बस यही लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छी बात है, और परमेश्वर के वचन पढ़ने से उनके दिलों को रोशनी मिलती है, इसलिए वे मानते हैं कि यह जीवन का सही मार्ग है और उनके दिलों में हिम्मत आती है। वे अविश्वासियों के विनाश के मार्ग पर और परमेश्वर का विरोध करने वाले धार्मिक लोगों के मार्ग पर न चलने के लिए दृढ़-संकल्प कर चुके हैं। वे केवल परमेश्वर का अनुसरण करने, सत्य खोजने, पवित्रता प्राप्त करने, उद्धार प्राप्त करने और केवल परमेश्वर का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का मन बना चुके हैं। लोगों का ऐसा संकल्प रखना अच्छा है, और इसका मतलब है कि अभी उम्मीद बाकी है। परमेश्वर का अनुसरण परमेश्वर की सुरक्षा के साथ आता है। कम-से-कम अब वे इस जीवन में खुश तो होंगे। उन्हें अब शैतान, समाज या मानवजाति कोई नुकसान नहीं पहुँचाएगी, और वे पूरी तरह से और वास्तव में परमेश्वर के प्रभुत्व में रहेंगे। यह सम्मान और खुशी की बात है जिसे इसी जीवन में महसूस किया जा सकता है। अब, आने वाले जीवन का क्या होगा? परमेश्वर ने एक वादा किया है। तुम्हारा उद्धार करने और तुम्हें सत्य और जीवन देने के अलावा, वह तुम्हें इस जीवन में सौ गुना देने और आने वाले जीवन में शाश्वत जीवन देने का भी वादा करता है। इसलिए, इस बात को कम करके मत आंको। सत्य और उद्धार प्राप्त करने के लिए तुम जो कीमत चुकाते हो और जो कष्ट सहते हो, वह अस्थायी है। भविष्य में, जब लोग सत्य समझेंगे और उसे प्राप्त करेंगे, तो उन्हें जो खुशी, आनंद और आशीष मिलेगी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कहने का अर्थ यह है कि जब तुम सत्य समझोगे और उसे प्राप्त करोगे, तभी तुम परमेश्वर का वादा पाने के योग्य होगे। परमेश्वर तुम्हें जीवन के सभी सत्य और प्रावधान मुफ्त में देता है। यह सच है कि परमेश्वर तुम्हें बचा सकता है, लेकिन तुम अंत में जीवन और सत्य प्राप्त कर पाते हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुनते हो या नहीं। क्या यह चुनाव करने का निर्णय तुम्हारे हाथों में है? (हाँ।) दूसरे शब्दों में, तुम जीवन और सत्य प्राप्त कर सकते हो या नहीं, तुम परमेश्वर का वादा पाने के योग्य बनते हो या नहीं, तुम आशीष प्राप्त कर सकते हो या नहीं, “इस जीवन में सौ गुना और आने वाले जीवन में शाश्वत जीवन” की आशीष प्राप्त करना एक ऐसा अवसर है जो तुम्हारे हाथों में है। कोई भी तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकता, तुम्हारी मदद नहीं कर सकता या तुम्हें रोक नहीं सकता। तुम्हारे पास यह अधिकार है; परमेश्वर तुम्हें यह अधिकार दे चुका है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम अंत में सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का विकल्प चुनते हो या नहीं। यही सबसे अहम बात है।

9 नवंबर, 2016

पिछला: केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है

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