परमेश्वर के दैनिक वचन : देहधारण | अंश 122
19 जुलाई, 2020
परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के शुरूआती कार्य को सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा किया गया था, और देह के द्वारा नहीं। फिर भी, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के अंतिम कार्य को देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया है, और आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया गया है। माध्यमिक चरण के छुटकारे के कार्य को भी देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया था। समूचे प्रबंधकीय कार्य के दौरान, सबसे महत्वपूर्ण कार्य है शैतान के प्रभाव से मनुष्य का उद्धार। मुख्य कार्य है भ्रष्ट मनुष्य पर सम्पूर्ण विजय, इस प्रकार यह जीते गए मनुष्य के हृदय में परमेश्वर के मूल आदर को फिर से ज्यों का त्यों करता है, और उसे एक सामान्य जीवन हासिल करने की अनुमति देता है, कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर के एक जीवधारी का सामान्य जीवन। यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, और प्रबंधकीय कार्य का केन्द्रीय भाग है। उद्धार के कार्य के तीन चरणों में, व्यवस्था के कार्य का प्रथम चरण प्रबंधकीय कार्य के केन्द्रीय भाग से काफी दूर था; उसके पास उद्धार के कार्य का केवल हल्का सा रूप था, और यह शैतान के प्रभुत्व से मनुष्य को बचाने हेतु परमेश्वर के कार्य का आरम्भ नहीं था। पहले चरण के कार्य को सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा किया गया था क्योंकि, व्यवस्था के अन्तर्गत, मनुष्य केवल इतना जानता था कि व्यवस्था में बने रहना था, और उसके पास और अधिक सच्चाई नहीं थी, और क्योंकि व्यवस्था के युग में कार्य मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तनों को बमुश्किल ही शामिल करता था, और यह उस कार्य से तो बिलकुल भी सम्बन्धित नहीं था कि किस प्रकार मनुष्य को शैतान के प्रभुत्व से बचाया जाए। इस प्रकार परमेश्वर के आत्मा ने इस अत्यंत साधारण चरण के कार्य को पूरा किया था जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से सम्बन्धित नहीं था। इस चरण के कार्य ने प्रबंधन के केन्द्रीय भाग से थोड़ा सा सम्बन्ध रखा था, और इसका मनुष्य के उद्धार के आधिकारिक कार्य से कोई बड़ा परस्पर सम्बन्ध नहीं था, और इस प्रकार इसे आवश्यकता नहीं थी कि परमेश्वर अपने कार्य को व्यक्तिगत रीति से अंजाम देने के लिए देह धारण करे। आत्मा के द्वारा किए गए कार्य को सूचित किया गया है एवं यह अथाह है, और यह मनुष्य के लिए भय योग्य एवं अगम्य है; उद्धार के कार्य को सीधे तौर पर करने के लिए आत्मा उपयुक्त नहीं है, और मनुष्य को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने के लिए उपयुक्त नहीं है। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त यह है कि आत्मा के कार्य को सुगमता (पहुंच) में रूपान्तरित कर दिया जाए जो मनुष्य के करीब हो, कहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है वह यह है कि परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए एक साधारण एवं सामान्य व्यक्ति बन जाए। यह परमेश्वर के लिए आवश्यक है कि वह आत्मा के कार्य का स्थान लेने के लिए देहधारण करे, और मनुष्य के लिए, कार्य करने हेतु परमेश्वर के लिए कोई और उपयुक्त मार्ग नहीं है। कार्य के इन तीन चरणों के मध्य, दो चरणों को देह के द्वारा सम्पन्न किया गया है, और ये दो चरण प्रबंधकीय कार्य के मुख्य पहलु हैं। दो देहधारण परस्पर पूरक हैं और एक दूसरे को सिद्ध करते हैं। परमेश्वर के देहधारण के प्रथम चरण ने द्वितीय चरण के लिए नींव डाली थी, ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के दो देहधारण ने एक पूर्णता का आकार लिया था, और वे एक दूसरे से असंगत नहीं हैं। परमेश्वर के कार्य के इन दो चरणों को परमेश्वर के द्वारा उसकी देहधारी पहचान में सम्पन्न किया गया है क्योंकि वे समूचे प्रबंधकीय कार्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लगभग ऐसा कहा जा सकता है कि, परमेश्वर के दो देहधारण के कार्य के बिना, समूचा प्रबंधकीय कार्य थम गया होता, और मानवजाति को बचाने का कार्य और कुछ नहीं बल्कि खोखली बातें होतीं। ऐसा कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं यह मानवजाति की आवश्यकताओं, एवं मानवजाति की कलुषता की वास्तविकता, और शैतान की अनाज्ञाकारिता और कार्य के विषय में उसकी गड़बड़ी पर आधारित है। सही व्यक्ति जो कार्य करने में समर्थ है वह अपने कार्य के स्वभाव, और कार्य के महत्व पर आधारित होता है। जब इस कार्य के महत्व की बात आती है, इस सम्बन्ध में कि कार्य के कौन से तरीके को अपनाया जाए—आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया गया कार्य, या देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य, या मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य—जिसे पहले निष्काषित किया जाना है वह मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य है, और, उस कार्य के स्वभाव, और देह के कार्य के विपरीत आत्मा के कार्य के स्वभाव पर आधारित है, अंततः यह निर्णय लिया गया है कि देह के द्वारा किया गया कार्य आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य की अपेक्षा मनुष्य के लिए अत्यधिक लाभदायक है, और अत्यधिक लाभ प्रदान करता है। यह उस समय परमेश्वर का विचार है कि वह निर्णय ले कि कार्य आत्मा के द्वारा किया गया था या देह के द्वारा। कार्य के प्रत्येक चरण का एक महत्व एवं आधार होता है। वे आधारहीन कल्पनाएं नहीं हैं, न ही उन्हें स्वेच्छा से क्रियान्वित किया गया है; उनमें एक निश्चित बुद्धि है। परमेश्वर के सारे कार्यों के पीछे की सच्चाई ऐसी ही है। विशेष रूप में, ऐसे बड़े कार्य में परमेश्वर की और भी अधिक योजना है चूँकि देहधारी परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के बीच में कार्य कर रहा है। और इस प्रकार, परमेश्वर की बुद्धि और उसके अस्तित्व की सम्पूर्णता उसके प्रत्येक कार्य, सोच, एवं कार्य करने की युक्ति में प्रतिबिम्बित होती है; यह परमेश्वर का अस्तित्व है जो अत्यधिक ठोस एवं क्रमानुसार है। इन विलक्षण विचारों एवं युक्तियों की कल्पना करना मनुष्य के लिए कठिन है, और मनुष्य के लिए विश्वास करना कठिन है, और, इसके अतिरिक्त, मनुष्य के लिए जानना कठिन है। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य सामान्य सिद्धान्त के अनुसार होता है, जो मनुष्य के लिए अत्यंत संतोषजनक होता है। फिर भी परमेश्वर के कार्य से तुलना करने पर, केवल एक बहुत बड़ी असमानता ही दिखाई देती है; यद्यपि परमेश्वर के कार्य महान हैं और परमेश्वर के कार्य शोभायमान स्तर के होते हैं, फिर भी उनके पीछे अनेक सूक्ष्म एवं सटीक योजनाएं एवं इंतज़ाम होते हैं जो मनुष्य के लिए अकल्पनीय हैं। उसके कार्य का प्रत्येक चरण न केवल सिद्धान्त के अनुसार होता है, बल्कि अनेक चीज़ों को रखता है जिन्हें मानवीय भाषा में स्पष्टता से व्यक्त नहीं किया जा सकता है, और ये ऐसी चीज़ें हैं जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं। इसकी परवाह किए बगैर कि यह आत्मा का कार्य है या देहधारी परमेश्वर का कार्य है, हर एक उसके कार्य की योजनाओं को रखता है। वह बिना किसी आधार के कार्य नहीं करता है, और महत्वहीन कार्य नहीं करता है। जब आत्मा सीधे तौर पर कार्य करता है तो यह उसके लक्ष्यों के साथ होता है, और जब वह कार्य करने के लिए मनुष्य (कहने का तात्पर्य है, जब वह अपने बाहरी आवरण को रूपान्तरित करता है) बन जाता है, तो यह उसके उद्देश्य के साथ और भी अधिक होता है। वह और किस लिए अपनी पहचान को स्वतन्त्र रूप से बदलेगा? वह और किस लिए ऐसा व्यक्ति बनेगा जिसे निकृष्ट माना गया है और जिसे सताया गया है?
— 'वचन देह में प्रकट होता है' से उद्धृत
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