परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए

हालांकि बढ़ती उम्र के बहुत-से बच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वे कम्प्यूटर गेम्स खेलने की लत नहीं छोड़ पाते। कम्प्यूटर गेम्स में किस तरह की चीजें होती हैं? उनमें बहुत सारी हिंसा होती है। गेमिंग यानी जुआ—जोकि शैतान की दुनिया है। इन खेलों को बहुत देर तक खेलने के बाद अधिकांश बच्चे कोई असली काम नहीं कर पाते—वे स्कूल या काम पर जाना नहीं चाहते, या अपने भविष्य के बारे में कोई विचार करना नहीं चाहते, अपने जीवन के बारे में विचार करना तो दूर की बात है। समाज में आजकल कौनसी चीजें तरुणों के दिलों में भरी हुई हैं? खाने-पीने और मौज करने के अलावा उनके मन में गेम्स खेलने की धुन सवार रहती है। वे जो कुछ भी कहते या सोचते हैं, वह सब बेहूदा और अमानवीय है। वे जिन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनका वर्णन करने के लिए अब कोई “गंदा” या “बुरा” जैसे शब्दों का उपयोग नहीं कर सकता है; ये ऐसी चीजें नहीं हैं जो सामान्य मानवता वालों में होनी चाहिए, ये सभी चीजें बेहूदा और अमानवीय हैं। यदि तुम उनके साथ सामान्य मानवता से संबंधित मामलों या विषयों पर बात करो, तो वे इसके बारे में सुनना तक सहन नहीं कर पाते; उनकी न तो इसमें कोई रुचि है और न ही वे इसके बारे में कुछ सुनने के लिए तैयार हैं, और यही नहीं, वे तुमसे चिढ़ने तक लगेंगे। सामान्य मनुष्यजाति के साथ वे आम भाषा या कोई आम विषय साझा नहीं कर पाते। उनके सभी विषय खाने-पीने और मजे करने से जुड़े होते हैं। उनके दिल सांसारिक प्रवृत्तियों से भरे पड़े हैं। उनके भविष्य की क्या संभावनाएँ हैं? क्या उनका कोई भविष्य है? (नहीं, ये लोग कूड़े की तरह बेकार हो जाएँगे।) “कूड़ा” बड़ा ही सटीक शब्द है। इसका क्या अर्थ है? क्या ये लोग ऐसी गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं जिनमें सामान्य मानवजाति को शामिल होना चाहिए? (नहीं।) ये लोग अपनी पढ़ाई पर कोई मेहनत नहीं करते, और अगर कोई उनसे अपने काम में मेहनत करने के लिए कहे, तो क्या वे इसके लिए तैयार होंगे? (नहीं।) वे क्या सोचेंगे? वे सोचेंगे, “काम करने का क्या फायदा है? यह काम बहुत थका देने वाला है। इससे मुझे मिलेगा क्या? कुछ भी नहीं, सिवाय थकावट और दर्द के। खेलने में कितना मजा आता है, कितना आराम और आनंद मिलता है! कंप्यूटर के सामने बैठते ही मैं एक आभासी दुनिया में रहता हूँ, मेरे पास सब-कुछ होता है।” यदि तुम उनसे नौ से पांच बजे तक काम करवाते हो, समय पर और निश्चित घंटे काम करवाते हो, तो उन्हें इस बारे में कैसा लगेगा? क्या वे उस समय-सारणी का पालन करने और इस तरह बँधने को तैयार होंगे? (नहीं।) जब लोग लगातार गेम्स खेलते हुए कम्प्यूटर पर अपना समय नष्ट करते हैं तो कुछ समय बाद उनकी इच्छा-शक्ति खत्म हो जाती है और उनका पतन होने लगता है। अविश्वासी लोग, खासकर युवा, सांसारिक प्रवृत्तियों के मजे लेते हैं और उन्हें फैशन पसंद है, और उनमें से अधिकांश अपने वास्तविक कार्य नहीं करते या सही रास्ते पर नहीं चलते हैं; उनके माता-पिता उन्हें संभाल नहीं पाते, उनके शिक्षक भी उनका कुछ नहीं कर पाते, और इस प्रवृत्ति को लेकर किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली कुछ नहीं कर सकती है। दुष्ट शैतान लोगों को लुभाने और भ्रष्ट करने के लिए ये सब चीजें करता है। जो लोग आभासी दुनिया में जीते हैं, उन्हें सामान्य मानवता की जिंदगी में कोई रुचि नहीं रहती; वे काम या अध्ययन करने की मनोदशा में भी नहीं रहते। उन्हें तो बस गेम्स खेलने की चिंता रहती है, मानो वे किसी चीज के द्वारा सम्मोहित किए जा रहे हों। वैज्ञानिकों का दावा है कि गेम्स खेलने वाले लोग जैसे ही किसी गेम के किरदार में प्रवेश करते हैं, वैसे ही उनके दिमाग के अंदर कुछ ऐसा रिसने लगता है जो उन्हें उत्तेजित तो करता ही है, कुछ हद तक भ्रमित भी करता है, और फिर उन्हें गेम्स की लत लग जाती है और वे हमेशा इन्हीं के बारे में सोचते रहते हैं। जब भी वे ऊब महसूस करते हैं या कोई वास्तविक काम कर रहे होते हैं, तो वे इसकी बजाय गेम खेलना चाहते हैं, और धीरे-धीरे गेम खेलना ही उनकी पूरी जिंदगी बन जाता है। गेम खेलना एक तरह से किसी नशीले पदार्थ का सेवन करना है : एक बार जब किसी को इसकी लत लग जाती है तो फिर इससे पिंड छुड़ाकर बाहर निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है—यह उन्हें बर्बाद कर देता है। बच्चा हो या कोई बड़ी उम्र का व्यक्ति, एक बार यह बुरी लत लग जाए तो इसे छोड़ना आसान नहीं होता। कुछ बच्चे रात-रात भर जागकर गेम खेलते रहते हैं, और उनके माता-पिता न तो उन्हें नियंत्रित कर पाते हैं और न ही उन पर नजर रख पाते हैं, इसलिए बच्चे कंप्यूटर के सामने बैठकर गेम खेलते-खेलते मर तक जाते हैं। वे कैसे मरे? वैज्ञानिक प्रमाणों के अनुसार उनका मस्तिष्क क्षतिग्रस्त था—उन्होंने खेल-खेलकर अपनी ही जान ले ली। क्या तुम लोग गेमिंग को किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला काम कहोगे? अगर गेमिंग सामान्य मानवता के लिए जरूरी होती—अगर यह सही रास्ता होता—तो लोग इसे छोड़ क्यों नहीं पाते हैं? वे इस हद तक इससे वशीभूत कैसे हो सकते हैं? इससे तो यही साबित होता है कि गेमिंग सही रास्ता नहीं है। दिनभर इंटरनेट में खोए रहना, इस या उस चीज के लिए ऑनलाइन सर्फिंग करते रहना, हानिकारक चीजें देखना, और गेम्स खेलना—सारे दिन ऐसी चीजों में उलझे रहकर लोग बेकार की चीजों की खातिर अपना स्तर गिराते हैं, लोग इससे आहत होते हैं और नुकसान भी उठाते हैं। इनमें से कोई भी सही रास्ता नहीं है। इन दिनों तरुण, युवा और यहां तक कि अधेड़ और बुजुर्ग भी, सभी वीडियोगेम्स खेल रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा लोग इन्हें खेलते हैं। भले ही अधिकांश लोग जानते हैं कि यह अच्छी चीज नहीं है, वे इससे बच नहीं पाते। यह गेमिंग युवा पीढ़ियों को नुकसान पहुँचा रही है और कई-कई लोगों का नुकसान कर चुकी है। और गेम्स आए कहाँ से हैं? क्या ये शैतान से नहीं आए हैं? कुछ बेहूदा किस्म के लोग कहते हैं, वीडियोगेम्स आधुनिक वैज्ञानिक तरक्की के प्रतीक हैं—ये वैज्ञानिक उपलब्धि हैं। इस स्पष्टीकरण का क्या? यह घिनौनी बात है! गेमिंग न तो अच्छा रास्ता है, न सही रास्ता है! यह गेमिंग केवल सामाजिक प्रवृत्तियों को अपनाने का मामला नहीं है, यहाँ तक कि अविश्वासी भी कहते हैं कि गेमिंग तुम्हारे उद्देश्य बोध को खत्म कर देती है। अगर तुम इतनी साधारण चीज भी नहीं छोड़ सकते, इस मामले में खुद पर काबू नहीं पाते हो, तो फिर तुम खतरे में हो। इन दिनों लोग चाहे छोटे हों या बड़े, वीडियो गेम्स खेलना और मादक पदार्थों का सेवन आम हो चुका है, और सारा संसार ऐसा ही है। तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करते हुए चाहे जितना अरसा हो गया हो, अगर तुम वीडियो गेम्स खेलने जैसी किसी चीज पर लगाम नहीं लगा सकते, तो फिर एक दिन जब तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर में विश्वास करना निरर्थक, उबाऊ और नीरस है तो क्या तुम अविश्वासियों की तरह मादक पदार्थ और ऐसी ही तमाम तरह की उत्तेजक चीजों को आजमाना शुरू नहीं कर दोगे? यह भयंकर रूप से खतरनाक है! हो सकता है तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन तुम्हारे पास टिकने के लिए कोई ठोस आधार नहीं है और अब भी तुम्हारे सामने परमेश्वर से विश्वासघात करने का पूरा खतरा है। अपने साथ कुछ भी घटित होने की स्थिति में बहुत संभव है कि तुम गिर पड़ो। इस दुष्ट दुनिया में ललचाने वाली इतनी ज्यादा चीजें हैं, और जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं मगर सत्य का अनुसरण नहीं करते, उन्हें बरगलाने के लिए शैतान सभी हथकंडे इस्तेमाल करता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं हो, और तुम्हारा दिल-दिमाग अक्सर खाली रहता है तो तुम बिल्कुल खतरे में हो। क्या तुम्हारा दिल अधिकांश समय खाली रहता है? बच्चे अधिकांश समय खाली रहते हैं! इस समस्या का समाधान न करना बहुत खतरनाक है। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते तो, तुम्हें उसके वचन और अधिक पढ़ने चाहिए, और जब तुम कुछ सत्य स्वीकारने में सक्षम हो जाओगे तो यह तुम्हारे लिए एक नया मोड़ होगा और तुम इस खतरनाक घड़ी से बचने और कलीसिया में दृढ़ता से खड़े होने में सक्षम रहोगे।

अधिक से अधिक लोग परमेश्वर के घर में शामिल हो रहे हैं और उनमें से कई लोगों की उम्र बीस-तीस साल के बीच है। वे अपने पूरे यौवन पर हैं, अभी तक उन्होंने अपने जीवन-लक्ष्य तय नहीं किए हैं, उनकी कोई आकांक्षा नहीं है, वे अभी यह भी नहीं समझते हैं कि जीवन क्या है। और इन लोगों से क्या प्रकट होता है? तुम लोगों के लिए मेरे पास दो उक्तियाँ हैं : जवानी का घमंड और अविवेक। और मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? पहले “जवानी के घमंड” का अर्थ समझने के लिए चर्चा करते हैं। क्या तुम समझा सकते हो कि “जवानी का घमंड” क्या है? यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह किन-किन रूपों में प्रकट होता है? (इस स्थिति में लोग मानते हैं कि उन्हें जो कुछ भी पसंद है वही सबसे अच्छा है, कि वे जो कुछ भी कल्पना करते हैं वह सही है, और वे किसी की कुछ नहीं सुनते हैं।) एक शब्द में कहें तो यह “अहंकारी” स्वभाव है। इस उम्र के लोगों का यह ठेठ स्वभाव है। उनका परिवेश या पृष्ठभूमि चाहे जैसी हो, या वे चाहे जिस पीढ़ी के हों, इस आयु वर्ग में सबके सब जवानी के घमंड में हैं। और मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ? ऐसा नहीं है कि मैं उनसे दुर्भावना रखता हूँ या उन्हें कमतर मानता हूँ, बल्कि बात यह है कि इस आयु वर्ग के लोगों का एक खास तरह का स्वभाव होता है, यह बहुत ही अहंकारी, ओछा और अभिमानी स्वभाव है। चूँकि उन्हें दुनियादारी का बहुत अधिक अनुभव नहीं होता और वे जीवन के बारे में बहुत कम समझते हैं, इसलिए जब इस दुनिया या जीवन में उनका सामना किसी चीज से होता है तो वे सोचते हैं, “मैं समझता हूँ, मैंने इसका पता लगा लिया है, अब मैं सब कुछ जानता हूँ! मैं बूढ़े लोगों की बात समझ सकता हूँ और समाज में लोकप्रिय चीजों के साथ कदम मिलाकर चल सकता हूँ। अब देखो मोबाइल फोन कितनी तेजी से विकसित हो रहे हैं और उनके सारे फीचर कितने जटिल हैं। मैं ये सब जानता हूँ और तुम जैसे बूढ़े लोगों की तरह नहीं हूँ जो कुछ भी नहीं समझते हैं।” उनके पास जब कोई बूढ़ा कोई चीज समझने के लिए मदद माँगता है तो वे यह करने से भी नहीं चूकते, “बुढ़ापे में लोग बेकार हो जाते हैं। वे कंप्यूटर तक नहीं चला सकते, ऐसे लोगों के जीने का क्या मतलब है?” यह क्या है? यह भी जवानी के घमंड की झलक है। नौजवानों की बेहतर याददाश्त होती है और वे तेजी से नए विचार स्वीकारते हैं, और जब भी वे कोई नई चीज सीखते हैं तो वे बूढ़े लोगों को अपमान की दृष्टि से देखते हैं। यह भ्रष्ट स्वभाव है। तो क्या ऐसा स्वभाव सामान्य मानवता का स्वभाव है? क्या इसे सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति समझा जाएगा? (नहीं समझा जाएगा।) इसीलिए इसे जवानी का घमंड कहते हैं। तो फिर इसे “घमंड” क्यों कहते हैं, “अहंकार” क्यों नहीं? क्योंकि यह ठेठ जवानी का स्वभाव है—वे कोई छोटी-सी चीज सीखते हैं और घमंड में चूर हो जाते हैं, उन्हें न तो स्वर्ग की ऊंचाई का ख्याल होता है, न ही पृथ्वी की गहराई का, और वे जिस चीज को सीखते हैं, उसे अपनी पूँजी समझने लगते हैं। जवानी में सारे लोग ऐसे ही होते हैं। फिर जब वे कुछ उम्रदराज और समझदार होकर जिंदगी के उतार-चढ़ाव देख लेते हैं तो उनमें ज्यादा परिपक्वता और स्थिरता आ जाती है, और उन्हें विनम्रता के साथ पेश आना पसंद आने लगता है—तब अगर वे कोई नई चीज सीखते हैं तो यह उनके सिर चढ़कर नहीं बोलती, और जब वे कोई चीज नहीं कर पाते तो इससे परेशान भी नहीं होते हैं। नौजवान अत्यंत दंभी होते हैं : वे जब कभी कुछ काम करना सीखते हैं तो इसका दिखावा करना चाहते हैं, और इससे उनका अहंकार तुष्ट होता है। कभी-कभी उत्तेजना के क्षणों में उन्हें लगता है कि उन्होंने सबको पीछे छोड़ दिया है, कि यह संसार उनके लिए छोटा पड़ गया है, और वे चाहते हैं कि काश किसी दूसरे पिंड पर बस सकते। यही घमंड कहलाता है। जवानी के घमंड का प्रमुख लक्षण यह है कि इसमें न तो स्वर्ग की ऊँचाई और पृथ्वी की गहराई का ज्ञान होता है, न ही इन बातों का कि लोग क्या चाहते हैं और जीवन में उन्हें कौन-से मार्ग पर चलना चाहिए, कौन-सी स्थितियाँ जीने के लिए खतरनाक हैं, और उन्हें क्या करना चाहिए। यह वैसा ही है जैसा लोग अक्सर कहते हैं: “वे अविवेकी हैं और जीवन के बारे में नहीं जानते हैं।” इस उम्र में घमंडी स्वभाव होता है इसलिए वे ऐसी बकबक करते हैं। ऐसे भी युवा हैं जो सोचते हैं कि सबके सब उनके नीचे हैं, और जब तुम कुछ ऐसा कह देते हो जो उन्हें पसंद नहीं है तो वे तुम्हें बिल्कुल अनदेखा कर देंगे। माता-पिता के लिए यह पता लगाना मुश्किल है कि युवा क्या सोच रहे हैं—एक गलत शब्द सुनते ही वे नखरे दिखाते हैं और गुस्से में उठकर चले जाते हैं। उनके साथ बातचीत करना मुश्किल हो जाता है। ऐसा क्यों है कि इन दिनों माता-पिता को अपने बच्चों को संभालने और पढ़ाने-लिखाने में कठिनाई हो रही है? इसका कारण यह नहीं है कि माता-पिता कम पढ़े-लिखे हैं और युवाओं के मन की बात नहीं समझते हैं, बल्कि ऐसा इसलिए है कि युवाओं की सोच असामान्य हो चुकी है। सभी युवा सांसारिक प्रवृत्तियों से प्यार करते हैं और इनके बंदी बन जाते हैं; वे शैतान के लिए बलि के बकरे हैं, वे बहुत तेजी से पथभ्रष्ट होते जा रहे हैं, और उनके लिए इस स्थिति से जागना कठिन है। इसलिए माँ-बाप होना आसान नहीं है—कुछ माता-पिता तो अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए बाल मनोविज्ञान सीखने की हद तक जाते हैं। आजकल कई बच्चे ऑटिज्म और अवसाद जैसी विचित्र बीमारियों से पीड़ित हो रहे हैं जिससे उन्हें संभालना भी मुश्किल हो रहा है। इन समस्याओं को समझने के लिए लोगों के पास कोई रास्ता या स्पष्ट व्याख्या नहीं है और स्कूल-समाज में बुद्धिजीवियों ने “विद्रोही मानसिकता” या “विद्रोही दौर” जैसे जुमले गढ़ लए हैं। पिछली पीढ़ियों के दौरान ये शब्द क्यों नहीं थे? विज्ञान आज बहुत तरक्की कर चुका है और तरह-तरह के विचित्र जुमले बना लिए गए हैं; यह मानवजाति अधिक से अधिक पथभ्रष्ट होती जा रही है, और सामान्य मानवता की चीजें क्षीण होती जा रही हैं—क्या यह समाज की दुष्ट प्रवृत्तियों के कारण नहीं हो रहा है? (इसी कारण हो रहा है।) तो तुम लोगों का अब यहाँ आना और सच्चे मन से मुझे बोलते हुए और इस तरह संगति करते हुए सुनने का कारण यह नहीं है कि तुम बहुत अच्छे हो और सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनना चाहते हो—बल्कि इसका कारण परमेश्वर का अनुग्रह है, क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें संसार या शैतान को नहीं सौंपा है। तुम समाज में उन युवाओं को देखते हो जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें कोई भी मनाता रहे। अगर मैं भी उनसे बात करूँ तो व्यर्थ ही रहेगा। क्या यह सिर्फ जवानी के घमंड का मामला है? ये किस किस्म के लोग हैं? अगर उनमें विवेक या समझ नहीं है तो वे जानवरों और दुष्टों से सिवाय और कुछ नहीं हैं! अगर तुम उनसे मानवीय शब्दों में बात करो तो क्या वे समझ सकेंगे? अब मसला यह नहीं रहा कि उनसे संवाद करना कठिन है, बल्कि यह है कि वे सुनने से ही साफ इनकार कर रहे हैं। यह परमेश्वर का अनुग्रह और संरक्षण ही है जिसके कारण तुम उसके कार्य को अब स्वीकार कर पा रहे हो, उसके वचनों को समझ पा रहे हो और सत्य के मार्ग में रुचि जगा रहे हो! और इसलिए, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने का यह अवसर संजोकर रखना चाहिए और इस दौरान परमेश्वर में विश्वास की मजबूत नींव रखने का अथक प्रयास करना चाहिए। तब तुम सुरक्षित रहोगे और इन दुष्ट प्रवृत्तियों की बाढ़ में आसानी से नहीं बहोगे। जैसे ही लोग इन दुष्ट प्रवृत्तियों के चक्कर में फँसते हैं, वे आसानी से इनमें बह जाते हैं, और अगर तुम फिर से इनमें बह जाओ तो क्या परमेश्वर तुम्हें चाहेगा? नहीं, वह नहीं चाहेगा! परमेश्वर पहले ही तुम्हें एक मौका दे चुका है और फिर कभी तुम्हें बिल्कुल नहीं चाहेगा। जब परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता, तो तुम खतरे में पड़ जाओगे, और तुम कुछ भी कर डालने की हालत में पहुँच जाओगे।

“जवानी के घमंड” पर चर्चा कर चुकने के बाद अब हमें “अविवेक” के बारे में बात करनी चाहिए। “अविवेक” कुछ-कुछ औपचारिक शब्द है। तो आगे बढ़ो और इसका शाब्दिक अर्थ समझाओ। (इसका अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति अच्छे-बुरे में भेद न कर सके, और यह सोचे कि वह जिसे अच्छा मानता है वह हमेशा अच्छा ही होगा, और जिसे बुरा मानता है वह हमेशा बुरा ही होगा, और उन्हें चीजें चाहे जैसे समझाई जाएँ, वे सुनेंगे नहीं।) (ऐसा तब होता है जब कोई सही-गलत में भेद करना नहीं जानता और उसमें विवेक की कमी होती है।) यह इसका कमोबेश शाब्दिक अर्थ है—सही-गलत का फर्क न बता सकना, और यह भी न जानना कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक। वे अपनी जवानी के घमंड के कारण लोगों की कही कोई भी बात समझ नहीं पाते, और सोचते हैं : “कोई कुछ भी कहे, वह गलत है, और मैं जो कहता हूँ वही सही है। किसी को भी मुझे यह बताने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि चीजें कैसी हैं, मैं उनकी नहीं सुनूँगा। मैं बहुत जिद्दी हूँ, और जिद्दी ही रहूँगा और अपने विचारों पर अड़ा रहूँगा, भले ही मैं गलत निकलूँ।” उनका इसी प्रकार का स्वभाव होता है—वे अविवेकी हैं। दिखाने के लिए तो वे सिद्धांत पर सिद्धांत बघार सकते हैं और इनके बारे में किसी और के मुकाबले ज्यादा स्पष्टता और समग्रता के साथ बात कर सकते हैं, तो फिर जब इन पर अमल करने का समय आता है तो वे हमेशा ढुलमुल और भ्रमित क्यों हो जाते हैं? वे बखूबी जानते हैं कि सही क्या है, लेकिन वे सुनेंगे बिल्कुल नहीं—वे जो चाहते हैं वही करते हैं, और जैसा पसंद आए वैसा ही करते हैं। यह सनकीपन है, और बेहूदगी है। सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागने वाले लोग खासे बेहूदा होते हैं। वे पारकोर और बंजी जंपिंग करते हैं, और तमाम तरह के जोखिमभरे खेलों में रोमांच खोजना पसंद करते हैं। क्या यह बेहूदा नहीं है? क्या तुम लोग भी पारकोर करते हो? (मैं करता था।) और तुम इसे क्यों पसंद करते थे? क्या तुम नहीं जानते थे कि पारकोर खतरनाक है? क्या तुम्हें पता नहीं था कि पारकोर करते हुए तुम अपनी जिंदगी खतरे में डाल रहे हो? लोग मकड़ियाँ या छिपकलियाँ नहीं हैं। अगर वे किसी दीवार पर चढ़ते हैं तो गिरकर रहेंगे। मनुष्यों में वैसी क्षमता नहीं है, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो सामान्य मानवता वाले लोगों में हो। तुम इसे कैसे पसंद कर सकते हो? इसका कारण यह है कि ये चीजें लोगों को चाक्षुक और भावनात्मक उत्तेजना देती हैं, इसीलिए लोग पारकोर करना चाहते हैं। वह क्या है जो इस सोच को नियंत्रित करता है? क्या यह “स्पाइडर-मैन” से मिलती है? क्या यह मनुष्य की मानसिकता और गहरी इच्छा नहीं है जो महानायक बनकर विश्व को बचाना चाहती है? बहुत सारी फिल्मों और टीवी शो में उड़ने वाले नायक होते हैं जो एक छत से दूसरी पर टप्पे खाकर उड़ते रहते हैं, और लोग वाकई उन्हें सराहते हैं। इसी तरह ये चीजें बाल मन पर अंकित हो जाती हैं। और वे इस तरह विषपान कैसे कर लेते हैं? इसका संबंध लोगों की अपनी-अपनी तरजीह और तलाश से है। हर व्यक्ति नायक बनना चाहता है, विशेष शक्तियाँ हासिल करना चाहता है, इसलिए शैतान की स्तुति करता है। मुझे बताओ, क्या सामान्य लोग ऐसी बेहूदा चीजें पसंद करते हैं? क्या सामान्य लोगों के पास ऐसी विशेष शक्तियाँ होती हैं। बिल्कुल नहीं। क्या ये सारी चीजें लोगों ने नहीं गढ़ी हैं, ये उनकी दिमागी उपज नहीं हैं? अगर इन विचित्र चीजों का वास्तव में अस्तित्व होता तो जिनके पास ये होतीं, क्या उन लोगों पर दुष्ट आत्माओं का साया नहीं होता? क्या आदम और हव्वा के काल में पारकोर था? क्या बाइबल में पारकोर के बारे में कुछ लिखा हुआ है? (नहीं।) पारकोर इस दुष्ट, आधुनिक समाज की उपज है; यह लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए शैतान का एक तरीका है। शैतान विचित्र और रोमांचक चीजों के लिए युवा लोगों के रुझान का फायदा ठाकर कुछ मनगढ़ंत कहानियाँ गढ़ता है और उन्हें एक खास तरतीब में पेश करता है। इस तरह यह इन अविवेकी किशोरों को गुमराह करता है जिससे वे शैतान की विचित्र और रोमांचकारी विशेष शक्तियों का अनुसरण करने लगते हैं। क्या यह लोगों को जहर नहीं दे रहा है? ये बातें लोगों के दिमाग में घुसते ही जहर बन जाती हैं। अगर तुम इस जहर को पहचान नहीं सकते तो इसे पूरी तरह त्याग नहीं सकोगे, और इसके असर, खलल और चंगुल से कभी भी मुक्त नहीं होओगे। क्या इस जहर को आसानी से मिटाया जा सकता है? (आसानी से तो नहीं।) इस समस्या को कैसे हल किया जा सकता है? कुछ लोग इन चीजों को छोड़ने के अनिच्छुक होते हैं। उन्हें लगता है कि ये अच्छी चीजें हैं, जहर नहीं हैं, और जब वे ऐसा सोचते हैं तो इन्हें छोड़ नहीं सकते। इसलिए अभी जबकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा ही है, तुम्हें शैतान के लालच के जाल से बचने के लिए उन चीजों से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा जो तुम्हारे दिल को छीज सकती हैं और तुम्हें जहर दे सकती हैं क्योंकि तुममें विवेक की कमी है और तुम अब भी नासमझ हो और घमंड में चूर हो। तुम्हारे पास पर्याप्त सकारात्मक चीजें नहीं हैं, और न कोई सत्य की वास्तविकता ही है। आस्था की शब्दावली में कहें तो तुम्हारे पास न तो जीवन है, न ही आध्यात्मिक कद। तुम्हारे पास बस थोड़ी-सी तैयारी है, परमेश्वर में विश्वास करने की एक इच्छा मात्र। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है, कि यह चलने के लिए अच्छा मार्ग है और अच्छा इंसान बनने का रास्ता है, फिर भी तुम सोचते हो : “अविश्वासियों में मैं बुरा व्यक्ति नहीं हूँ, मुझे पारकोर पसंद है लेकिन मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है, मैं अब भी अच्छा इंसान हूँ।” क्या यह सत्य से मेल खाता है? क्या तुम्हें लगता है सिर्फ इसलिए कि तुमने कुछ भी गलत नहीं किया है तो तुममें भ्रष्ट स्वभाव है ही नहीं? तुम दुष्ट प्रवृत्तियों के बीच जी रहे हो, इसी से साफ दिख जाता है कि तुम्हारा दिल दुष्ट चीजों से भरा हुआ है।

मुझे बताओ, क्या कोई व्यक्ति अपने परिवेश से काफी प्रभावित होता है? तुम अब कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो, यही तुम्हारा परिवेश है; तुम रोजाना अपने भाई-बहनों के साथ रहते हो और परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों से घिरे रहते हो, और तुम परमेश्वर में अपने विश्वास पर भी दृढ़ हो। अगर तुम्हें अविश्वासियों के बीच रखा जाए, अगर तुम्हें उनके बीच रहने को कहा जाए, तो क्या तब भी तुम्हारे दिल में परमेश्वर होगा? अगर तुम उनके संपर्क में या उनके साथ रहो तो क्या तुम भी उन्हीं जैसी प्रवृत्तियों के पीछे नहीं भागोगे? कुछ लोग कहते हैं, “कोई दिक्कत नहीं है, परमेश्वर मेरी देखभाल और सुरक्षा कर रहा है, इसलिए मैं कभी उस रास्ते पर नहीं चलूँगा।” क्या तुम ऐसी प्रतिज्ञा करने का साहस कर सकते हो? जब तक तुम इन चीजों से प्यार कर इनका अनुसरण करते रहते हो तो तुम जानबूझकर इन प्रवृत्तियों के पीछे भागने में सक्षम हो। भले ही तुम मन ही मन जानते हो कि यह गलत है, तुम बिल्कुल बेपरवाह होकर खुद से कहोगे, “परमेश्वर मुझे माफ करना, यह मेरी गलती थी।” समय बीतने के साथ तुम्हारे मन में अपराध बोध या ऐसा ही कोई भाव बिल्कुल नहीं आएगा, और तुम सोचोगे : “परमेश्वर है ही कहाँ? मैंने उसे क्यों नहीं देखा।” तुम परमेश्वर पर लगातार संदेह करोगे, और कभी तुम्हारे दिल में जो विश्वास हुआ करता था, वह धीरे-धीरे गायब हो जाएगा। जब तुम्हारा दिल पूरी तरह परमेश्वर को नकारने लगेगा, तुम फिर कभी उसका अनुसरण या अपने कर्तव्य से जुड़ा कोई भी कार्य नहीं करना चाहोगे, और इस बात पर ही पछताने लगोगे कि तुमने कर्तव्य निभाने का कदम ही क्यों उठाया। लोग क्यों इतनी आसानी से बदल सकते हैं? सत्य यह है कि तुम बदले नहीं हो—बल्कि तुममें सत्य की वास्तविकता कभी थी ही नहीं। यद्यपि दिखावे के लिए तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और अपना कर्तव्य निभाते हो, लेकिन तुम्हारे सांसारिक और शैतानी विचार, जीने के तरीके और तुम्हारे अंदर मौजूद भ्रष्ट स्वभाव कभी मिटे ही नहीं थे और अब भी तुम्हारे अंदर शैतानी चीजें भरी पड़ी हैं। तुम अब भी इन चीजों के साथ जीते हो, इसीलिए अब भी तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है। तुम अब भी खतरनाक दौर में हो; तुम अभी सकुशल या सुरक्षित नहीं हो। जब तक तुममें शैतानी स्वभाव रहता है, तुम परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विश्वासघात करते रहोगे। इस समस्या का समाधान करने के लिए तुम्हें पहले यह समझना होगा कि कौन-सी चीजें दुष्ट हैं या शैतान की हैं, जब लोग इन्हें स्वीकार करते हैं तो किस किस्म के जहर से ग्रसित होते हैं, और ये लोग क्या बनेंगे, साथ ही परमेश्वर लोगों से कैसा इंसान बनने की अपेक्षा करता है, कौन-सी चीजें सामान्य मानवता की हैं, कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं तो कौन-सी नकारात्मक हैं। तुम्हें रास्ता तभी मिलेगा जब तुममें विवेक होगा और तुम इन चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकोगे। यही नहीं, सकारात्मक पहलुओं के तहत तुम्हें नेकनीयती और समर्पण भावना से अपना कर्तव्य भी सक्रिय होकर निभाना होगा। धूर्तता या काहिली से बचो, अपना कर्तव्य निभाने में या परमेश्वर ने तुम्हें जो भी काम सौंपा है, उसमें अविश्वासियों के रवैये को या शैतान के फलसफों को मत अपनाओ। तुम्हें परमेश्वर के वचन और अधिक खाने-पीने चाहिए, सत्य के सभी पहलुओं को समझने का प्रयास करना चाहिए, कर्तव्य निभाने के महत्व को सुस्पष्ट समझना चाहिए, और फिर अपना कर्तव्य निभाने के दौरान सत्य के सभी पहलुओं में प्रवेश कर उनका अभ्यास करना चाहिए, और धीरे-धीरे परमेश्वर को, उसके कार्य और स्वभाव को जानना शुरू करना चाहिए। इस तरीके से, तुम जान भी नहीं पाओगे कि कब तुम्हारी आंतरिक दशा बदल गई, तुम्हारे भीतर और अधिक सकारात्मक और सक्रिय चीजें होंगी, और नकारात्मक और निष्क्रिय चीजें घट जाएंगी, और चीजों का गुणभेद करने की तुम्हारी क्षमता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद इस स्तर तक बढ़ जाएगा, तब तुममें संसार के सभी तरह के लोगों को, मामलों और चीजों को पहचानने का विवेक आ जाएगा, और तुम समस्याओं के सार को पूरी तरह समझने लगोगे। अगर तुम्हें अविश्वासियों की बनाई कोई फिल्म देखनी पड़े तो तुम जान सकोगे कि इसे देखकर लोग कैसे-कैसे जहर से ग्रसित हो सकते हैं, शैतान इन तरीकों और प्रवृत्तियों के जरिए लोगों के मन में क्या-क्या भरना या रोपना चाहता है, और लोगों में किस चीज का क्षरण करना चाहता है। तुम धीरे-धीरे इस चीजों को समझने में सक्षम हो जाओगे। फिल्म देखकर तुममें जहर नहीं भरेगा, बल्कि तुममें इसके प्रति विवेक जाग चुका होगा—तभी तुम सचमुच आध्यात्मिक कद पाओगे।

सुपरहीरो और फंतासी फिल्में देखकर कुछ युवा लोगों पर एक सनक सवार हो जाती है—वे चाहते हैं कि उनमें भी मुख्य पात्रों की तरह असाधारण क्षमताएँ हों। क्या उन्हें इस तरह जहर नहीं दिया जा रहा है? अगर तुमने ऐसी फिल्में नहीं देखी हैं तो क्या तुम्हें इस जहर से नुकसान हो सकता है? नहीं हो सकता। इससे मेरा आशय क्या है? आशय यह है कि तुम एक दुष्ट समाज में रहते हो इसलिए जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा हो और तुममें विवेक की कमी भी हो तो तुम पर बुरी प्रवृत्तियों वाली चीजें हावी हो सकती हैं क्योंकि तुम पहली बार उनका सामना कर रहे हो, और तुम उन्हें सकारात्मक, सामान्य और उचित चीजें मान लोगे। यह लोगों को जहर देने का शैतान का एक तरीका है। मुझे बताओ, क्या शैतान दुष्ट नहीं है? शैतान के पास लोगों को भ्रष्ट करने के बहुत तरीके हैं! कहा जा सकता है कि जिस किसी ने ऐसी फिल्में देखी हैं, उसकी ऐसी इच्छा होती है। एक ऐसा बच्चा था जिसने एक फंतासी फिल्म देखी और फिर तो फुर्सत पाते ही वह अपने अहाते में झाडू पर सवार होकर इधर-उधर दौड़ने लगता। पहले तो वह भरसक कोशिश करके भी उड़ नहीं सका, लेकिन एक दिन वह वाकई उड़ने लगा। वह अपने आप नहीं उड़ता था, यह कोई बाहरी साया था जो उसे उड़ा रहा था। उड़ना शुरू करने के बाद वह वैसी ही विचित्र चीखें निकालने से बच नहीं सका, जैसी चीख फिल्म का पात्र निकालता था; उसके अंदर एक प्रकार का प्रेतात्मा प्रवेश कर चुका था। क्या झाड़ू की सवारी करना सामान्य मानव जीवन का हिस्सा है? तुम किसी घोड़े या गधे की सवारी तो कर सकते हो, लेकिन झाड़ू की सवारी करके उड़ने की जरूरत क्या है? क्या यह संभव है? आप फटाक से बता सकते हैं कि ऐसा सामान्य लोग नहीं करते हैं। झाड़ू उड़ नहीं सकती, वह केवल दुष्ट आत्माओं की मदद से उड़ सकती है, इसलिए यह शैतान और दुष्ट आत्माओं का काम है। शैतान और दुष्ट आत्मा ऐसी चौंकाने वाली, विचित्र और हास्यास्पद चीजें करते हैं जिन्हें सामान्य लोग नहीं करते। क्या तुम लोगों में उन चीजों के बारे में थोड़ा-सा भी विवेक है जो शैतान करता है? उन चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? क्या उन्हें त्याग नहीं देना चाहिए? जब तुम्हारे पास समय हो तो आत्मचिंतन कर यह देखना कि तुम्हारे दिमाग में कौन-सी विचित्र चीजें कायम हैं। तुम्हारे मन में कई विचित्र चीजें क्यों हैं? क्योंकि तुम्हारी पीढ़ी के लोगों को इतना ज्यादा जहर दिया जा चुका है—तुम सब एक छत से दूसरी छत पर उड़कर स्पाइडर-मैन या बैटमैन बनना चाहते हो, और एक अतिमानव बनना चाहते हो। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो सामान्य मानवता के लोगों में होनी चाहिए। अगर तुम ऐसी चीजें खोजने पर जोर देते हो जिनकी जरूरत सामान्य मानवता वाले लोगों को नहीं है, और अगर तुम इन्हें आजमाने और इनका अनुभव लेने में लगातार जुटे रहते हो तो तुम दुष्ट आत्माओं के कार्य को आकर्षित कर सकते हो। लोगों पर जब दुष्ट आत्माओं का साया पड़ता है तो वे परेशानी में पड़ जाते हैं, शैतान उन्हें काबू कर लेता है, और फिर वे खतरे में पड़ जाते हैं। इस समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? लोगों को नियमित रूप से परमेश्वर की शरण में जाना चाहिए। उन्हें न किसी प्रलोभन में पड़ना चाहिए, न शैतान के छलावे में फँसना चाहिए। इस बुरे युग में जहाँ दुष्ट और अस्वच्छ आत्मा झुंड बनाकर और बड़े बेकाबू होकर फिर रहे हैं, अगर तुम परमेश्वर से अनुग्रह और सुरक्षा पाने और सदा तुम्हारा साथ देने की प्रार्थना कर सकते हो, और अपनी देखरेख और रक्षा करने की विनती कर सकते हो, ताकि तुम्हारा हृदय उससे भटक न जाए और तुम ईमानदारी और दिल से परमेश्वर की स्तुति कर सको, तो क्या यह सही मार्ग नहीं है? (यह सही मार्ग है।) और क्या तुम लोग इस रास्ते पर चलने के इच्छुक हो? क्या तुम लोग हमेशा परमेश्वर की देखरेख, सुरक्षा और अनुशासन के अधीन रहने के इच्छुक हो या फिर अपनी स्वतंत्र दुनिया में ही रहना चाहते हो? अगर परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करता है तो इससे तुम्हें कभी-कभी शारीरिक कष्ट उठाने पड़ सकते हैं। क्या तुम यह सहने को तैयार हो? (बिल्कुल।) तुम लोग कहते हो कि तुम अभी तैयार हो, लेकिन जब तुम्हारा सामना इसकी वास्तविकता से होता है तो संभव है तुम बड़बड़ाने लगो। कष्ट सहने के लिए तैयार होना ही काफी नहीं है, तुममें सत्य हासिल करने के प्रयास करने की इच्छा भी होनी चाहिए। सत्य को समझने पर ही तुम अडिग रह सकते हो। यह चिंताजनक है कि युवा लोग बहुत अस्थिर हैं, वे अपने उचित कर्तव्यों पर गौर नहीं करते या उनके मन में उचित चीजें नहीं हैं, और यह भी कि वे परमेश्वर के वचन पढ़ने या सत्य हासिल करने के प्रयासों के इच्छुक नहीं हैं—यह खतरनाक है। कहना मुश्किल है कि इसका अंत जीवन में होगा या मृत्यु में। आज कुछ ऐसे युवा भी हैं जो कई बरसों तक उपदेश सुन चुके हैं; वे सत्य में रुचि लेने लगे हैं, और उपदेश सुनते हुए नोट्स लेने के इच्छुक भी होते हैं। उन्हें धार्मिकता के लिए एक प्रकार की भूख-प्यास महसूस होती है, और वे सत्य को भी समझ लेते हैं। इसका मतलब है कि उनकी नींव पहले ही पड़ चुकी है, और अगर सत्य उनके दिलों में जड़ जमा ले तो वे और अधिक सुरक्षित हो जाएंगे। अगर वे सत्य हासिल करने के प्रयास जारी रखें तो इससे यह गारंटी मिल जाएगी कि वे सत्य को समझने, उसकी वास्तविकता में प्रवेश करने और उद्धार प्राप्त करने में सक्षम रहेंगे।

क्या तुम लोग जानते हो कि परम बुद्धिमानी क्या है? अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के आधार पर क्या तुम जानते हो कि अपने विश्वास में तुम्हें किस चीज पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तुम्हें कैसे अनुसरण और अभ्यास करना चाहिए, इस संदर्भ में सबसे बड़ी बुद्धिमानी क्या है? कुछ लोग बाहर से देखने में बहुत कुशल नहीं लगते, वे हमेशा चुपचाप और धीर-गंभीर रहते हैं। वे ज्यादा नहीं बोलते, लेकिन उनके अंदर बहुत बुद्धिमानी होती है जो दूसरों में नहीं होती। अधिकतर लोग इसे देख नहीं पाते, और अगर देख भी लें तो वे इसे बुद्धिमानी नहीं मानेंगे। वे सोचेंगे कि यह अनावश्यक है और इसका कोई मूल्य नहीं है। क्या तुम सोच सकते हो कि उनकी यह परम बुद्धिमानी क्या है? (वे एक ऐसे दिल के मालिक हैं जो परमेश्वर के सामने सदा शांत रहता है, सदा प्रार्थना करता रहता है, और सदा उसके निकट बढ़ रहा है।) तुमने सही उत्तर को थोड़ा-सा ही छुआ है। परमेश्वर के निकट बढ़ने का उद्देश्य क्या है? (परमेश्वर की इच्छा खोजना।) परमेश्वर की इच्छा खोजने का अर्थ क्या है? क्या यह उस पर भरोसा करना है? (हाँ।) बात परमेश्वर पर भरोसे की ही है। अगर तुम हर चीज में परमेश्वर पर भरोसा करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, तुम्हारी अगुआई करेगा, और तुम्हें मार्गदर्शन देगा। तुम्हें किसी नेत्रहीन की तरह अँधेरे में अपना रास्ता टटोलना नहीं पड़ेगा, और तुम बस परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते सकते हो। क्या यह कहीं ज्यादा आसान नहीं है? तुम्हें फिर कभी बड़बड़ाते रहने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जैसा परमेश्वर संकेत करता है तुम केवल वैसा कर सकते हो। यह सरल और त्वरित है, और इसमें तुम्हें घुमावदार रास्ते नापकर खुद को थका डालने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने अपने वचन बहुत स्पष्ट रूप से कहे हैं, इसलिए तुम्हें यह तय करने की चिंता भी नहीं करनी पड़ेगी कि कार्य कैसे करें। क्या यह बुद्धिमानी नहीं है? क्या तुम अब समझ गए? चलो मैं तुम लोगों को बताता हूँ : सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना परम बुद्धिमानी है। आम लोग इस बात को नहीं समझते। सभी लोग सोचते हैं कि सभाओं में ज्यादा जाने, ज्यादा उपदेश सुनने, भाई-बहनों के साथ ज्यादा संगति करने, ज्यादा त्याग करने, ज्यादा कष्ट उठाने और ज्यादा कीमत चुकाने से उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति और उद्धार मिल जाएगा। उन्हें लगता है कि इस तरह से अभ्यास करना सबसे बड़ी समझदारी है, पर वे सबसे महत्वपूर्ण चीज को अनदेखा कर देते हैं : परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना। वे तुच्छ मानवीय चालाकी को बुद्धिमानी समझते हैं और उस अंतिम प्रभाव की अनदेखी कर देते हैं जो उनके क्रियाकलापों से पड़ना चाहिए। यह एक भूल है। चाहे कोई कितना भी सत्य समझता हो या उसने कितने ही कर्तव्यों को पूरा किया हो, उन कर्तव्यों को पूरा करते समय उसने कितने ही अनुभव किये हों, उसका आध्यात्मिक कद कितना ही बड़ा या छोटा हो या वो किसी भी परिवेश में हो, लेकिन अपने हर काम में परमेश्वर की तरफ देखे बिना और उस पर भरोसा किए बिना उसका काम नहीं चल सकता। यही सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि है। मैं इसे सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि क्यों कहता हूँ? किसी ने कुछ सत्य समझ भी लिए हों तो क्या परमेश्वर पर भरोसा किए बिना काम चल सकता है? कुछ लोग बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं और उन्होंने बहुत-से परीक्षणों का अनुभव किया है, उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव है, थोड़ा-बहुत सत्य समझते हैं, और सत्य का थोड़ा व्यावहारिक ज्ञान है, लेकिन वे नहीं जानते कि परमेश्वर पर भरोसा कैसे करना है और वे यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर की तरफ देखकर उस पर भरोसा कैसे करना है। क्या ऐसे लोगों में बुद्धि होती है? ऐसे लोग सबसे ज़्यादा मूर्ख होते हैं, और खुद को चतुर समझते हैं; वे परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते। कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई सत्य समझता हूँ और मेरे पास सत्य की वास्तविकता है। सैद्धांतिक तरीके से काम करना अच्छा होता है। मैं परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हूँ और मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के करीब कैसे जाना है। क्या इतना पर्याप्त नहीं है कि जब मुझ पर कोई विपत्ति आती है तो मैं सत्य का अभ्यास करता हूँ? परमेश्वर से प्रार्थना करने या परमेश्वर की तरफ देखने की कोई जरूरत नहीं है।” सत्य का अभ्यास करना सही है, लेकिन कई मौके और स्थितियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें लोगों को पता नहीं चलता कि सत्य क्या है, या इस मामले में सत्य के कौन-से सिद्धांत लागू होते हैं। व्यावहारिक अनुभव वाले लोग यह जानते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आए, तो शायद तुम्हें यह पता न हो कि इस मुद्दे से कौन-सा सत्य जुड़ा हुआ है, या इस मुद्दे से जुड़े सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए या इसे कैसे लागू करना चाहिए। तुम्हें ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए? चाहे तुम्हें कितना भी व्यावहारिक अनुभव हो, तुम सभी स्थितियों में सत्य के सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। चाहे तुमने कितने ही लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास किया हो, चाहे तुमने कितनी ही चीज़ों का अनुभव किया हो, चाहे तुम कितनी ही काट-छाँट, निपटारे और अनुशासन से गुज़रे हो, अगर तुम सत्य को समझते भी हो तो भी क्या यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम ही सत्य हो? क्या तुम यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम सत्य के स्रोत हो? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे वचन देह में प्रकट होता है पुस्तक के सभी जाने-माने कथन और अंश याद हैं। मुझे परमेश्वर पर भरोसा करने या परमेश्वर की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। जब समय आएगा, मैं परमेश्वर के इन वचनों पर ही भरोसा करके आराम से काम चला लूँगा।” जिन वचनों को तुमने याद किया है, वे गतिहीन हैं, लेकिन जिन परिवेशों और अवस्थाओं का तुम सामना करते हो, वे गतिशील हैं। तुम धर्म-सिद्धांत के शब्द उगल सकते हो, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है तो तुम उनके साथ कुछ नहीं कर सकते, जिससे साबित होता है कि तुम सत्य को नहीं समझते। तुम धर्म-सिद्धांत के शब्द बोलने में भले ही कितने ही माहिर क्यों न हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य को समझते हो, सत्य के अभ्यास में सक्षम होना तो दूर की बात है। इस तरह, यहाँ सीखने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण सबक है। और यह सबक क्या है? वो यह है कि लोगों को सभी बातों में परमेश्वर की ओर देखने की ज़रूरत है और ऐसा करके, लोग परमेश्वर पर भरोसा हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर पर भरोसा रखने से ही लोगों को अनुसरण का मार्ग और पवित्र आत्मा का कार्य मिलेगा। अन्यथा, तुम सही तरीके से और सत्य का उल्लंघन किए बिना कोई काम कर तो सकते हो, लेकिन यदि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो, तो तुम जो भी करोगे वह सिर्फ मनुष्य का सद्कर्म होगा, और यह परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता। चूँकि लोगों को सत्य की इतनी उथली समझ होती है, इसलिए संभव है कि वे नियमों का पालन करें और विभिन्न परिस्थितियों का सामना होने पर एक ही सत्य का उपयोग करते हुए धर्म-सिद्धांतों के शब्दों से हठपूर्वक चिपके रहें। यह मुमकिन है कि वे कई मामलों को आम तौर पर सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप पूरा कर लें, लेकिन उसमें परमेश्वर के मार्गदर्शन को या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं देखा जा सकता है। यहाँ पर एक गंभीर समस्या है, वो यह है कि लोग अपने अनुभव और उन्होंने जो नियम समझे हैं उन पर, और कुछ मानवीय कल्पनाओं पर निर्भर रहकर बहुत से काम करते हैं। परमेश्वर से सच्ची प्रार्थना हासिल करना और जो कुछ भी वे करते हैं उसमें सचमुच परमेश्वर की ओर देखना और उस पर भरोसा करना मुश्किल है। अगर कोई परमेश्वर की इच्छा को समझता भी है, तो भी परमेश्वर के मार्गदर्शन और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार काम करने का प्रभाव हासिल करना मुश्किल है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सबसे बड़ी बुद्धिमानी परमेश्वर की तरफ देखना और सभी बातों में परमेश्वर पर भरोसा करना है।

लोग सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखने और परमेश्वर पर निर्भर रहने का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं कमउम्र हूँ, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है, और मुझे परमेश्वर में विश्वास करते थोड़ा ही समय हुआ है। मुझे नहीं पता कि कुछ घटने पर परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने का अभ्यास कैसे करें।” क्या यह एक समस्या है? परमेश्वर में विश्वास करने में बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं, और तुम्हें बहुत-से क्लेशों, परीक्षणों और पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। इन कठिन घड़ियों को झेल पाने के लिए परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने का अभ्यास नहीं कर सकते, तो तुम कठिनाइयाँ झेल नहीं पाओगे, और परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाओगे। परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना कोई खोखला धर्म-सिद्धांत नहीं है, न ही यह परमेश्वर में विश्वास करने का मंत्र है। बल्कि यह एक मुख्य सत्य है, ऐसा सत्य जो परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए तुम्हारे पास होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “तभी परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना चाहिए जब कोई बड़ी घटना हो जाती है। उदाहरण के लिए, जब तुम क्लेशों, परीक्षणों, गिरफ्तारी और अत्याचार का सामना करते हो, या जब तुम अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों का सामना करते हो, या जब तुम्हारी काट-छाँट और निपटारा होता है। व्यक्तिगत जीवन के छोटे-मोटे और मामूली मामलों के लिए परमेश्वर की तरफ देखने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि परमेश्वर उनकी परवाह नहीं करता।” क्या यह वक्तव्य सही है? यह कतई सही नहीं है। यहाँ एक भटकाव है। बड़े मामलों में परमेश्वर की तरफ देखना जरूरी है, लेकिन क्या तुम जीवन के मामूली और छोटे मामलों को बिना सिद्धांतों के संभाल सकते हो? पहनावे और खानपान के मामलों में क्या तुम सिद्धांतों के बिना चल सकते हो? बिल्कुल नहीं। और लोगों और मसलों से निपटने के मामले में? बिल्कुल नहीं। रोजाना की जिंदगी और मामूली मामलों में भी तुम्हारे पास मनुष्य के समान जी सकने के सिद्धांत होने चाहिए। सिद्धांतों से जुड़ी समस्याएँ सत्य से जुड़ी समस्याएँ होती हैं। क्या लोग इन्हें अपने आप हल कर सकते हैं? निश्चित ही नहीं। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर की तरफ देखना होगा और उस पर निर्भर रहना होगा। परमेश्वर की प्रबुद्धता और सत्य की समझ हासिल करने के बाद ही ये मामूली मामले सुलझाए जा सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर की तरफ नहीं देखते और उस पर निर्भर नहीं रहते तो क्या तुम लोग समझते हो कि सिद्धांतों से जुड़े ये मामले सुलझाए जा सकते हैं? आसानी से तो बिल्कुल नहीं। यह कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जिन्हें लोग साफ-साफ नहीं समझते, उन्हें सत्य को तलाशने की जरूरत होती है, उन्हें परमेश्वर की तरफ देखना चाहिए और उस पर निर्भर रहना चाहिए। मामला चाहे कितना भी बड़ा या छोटा हो, जिस भी समस्या को सत्य से सुलझाना होता है, उसमें परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने की जरूरत होती है। यह एक अनिवार्यता है। अगर लोग सत्य समझते भी हों, और खुद ही समस्याएँ सुलझा सकते हों, तो भी यह समझ और ये समाधान बहुत सीमित और सतही होते हैं। अगर लोग परमेश्वर की तरफ न देखें और उस पर निर्भर न करें तो उनका प्रवेश कभी भी अधिक गहरा नहीं होगा। उदाहरण के लिए, अगर तुम आज बीमार हो और इससे तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर असर पड़ता है, तो तुम्हें जरूरत है कि इस मामले में प्रार्थना करके यह कहो, “परमेश्वर, मैं आज ठीक महसूस नहीं कर रहा, मैं खा नहीं पा रहा और इससे मेरे कर्तव्य के निर्वाह पर असर पड़ रहा है। मुझे अपनी जाँच करनी है। मेरे बीमार होने का असली कारण क्या है? क्या अपने कर्तव्य में निष्ठावान न होने के कारण परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है? परमेश्वर, मैं तुमसे मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने की विनती करता हूँ।” तुम्हें इसी तरह पुकारना चाहिए। यह परमेश्वर की तरफ देखना हुआ। पर जब तुम परमेश्वर की तरफ देखते हो तो तुम औपचारिकताओं और नियमों के चक्कर में नहीं पड़ सकते। अगर तुम समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य को नहीं खोजते, तो तुम काम में देर करोगे। परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसकी ओर देखने के बाद भी तुम्हें अपना जीवन, अपना कर्तव्य निभाने में देरी किए बिना, वैसे ही जीना चाहिए, जैसे कि तुमसे अपेक्षित है। अगर तुम बीमार हो तो तुम्हें डॉक्टर के पास जाना चाहिए, जो कि उचित है। साथ ही, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, और समस्या को सुलझाने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। इस तरह अभ्यास करना ही पूरी तरह उपयुक्त है। कुछ चीजों के लिए, अगर लोगों को उन्हें ठीक-से करना आता है, तो उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। लोगों को इसी तरह सहयोग करना चाहिए। पर क्या इन मामलों में इच्छित प्रभाव और लक्ष्य को पूरी तरह हासिल किया जा सकता है, यह परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर भरोसा करने पर निर्भर करता है। जिन समस्याओं को लोग साफ-साफ समझ नहीं पाते और उनसे अच्छी तरह निपट नहीं पाते, उनके समाधान के लिए उनका परमेश्वर की तरफ देखना और सत्य की खोज करना और भी जरूरी है। सामान्य मानवता वाले हर इंसान में ऐसा कर पाने की क्षमता होनी चाहिए। परमेश्वर की तरफ देखने में कई सबक सीखने होते हैं। परमेश्वर की तरफ देखने की प्रक्रिया में तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हो, और तुम्हें एक रास्ता मिलेगा, या अगर परमेश्वर के वचन तुम पर आते हैं तो तुम सहयोग करना जान जाओगे, या शायद परमेश्वर तुम्हारे लिए कुछ सबक सीखने की स्थितियाँ आयोजित करे, जिसके पीछे परमेश्वर के भले इरादे होंगे। परमेश्वर की तरफ देखने की प्रक्रिया में तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और अगुआई दिखाई देगी, और इनसे तुम कई सबक सीख सकोगे और परमेश्वर की बेहतर समझ हासिल कर सकोगे। परमेश्वर की तरफ देखने का यह प्रभाव होता है। इसलिए, परमेश्वर की तरफ देखना एक ऐसा सबक है जिसे परमेश्वर के अनुयायियों को अवश्य सीखना चाहिए, और यह एक ऐसी चीज है जिसे वे जीवन भर अनुभव करते रहेंगे। बहुत-से लोगों को बहुत कम अनुभव होता है और वे परमेश्वर के क्रियाकलाप नहीं देख पाते, इसलिए वे सोचते हैं, “बहुत-सी ऐसी छोटी-छोटी चीजें हैं जो मैं खुद कर सकता हूँ, इसके लिए मुझे परमेश्वर की तरफ देखने की जरूरत नहीं है।” यह गलत है। कुछ छोटी चीजें बड़ी चीजों की तरफ ले जाती हैं, और कुछ छोटी चीजों में परमेश्वर की इच्छा छिपी होती है। बहुत-से लोग छोटी चीजों की अवहेलना करते हैं, और परिणामस्वरूप वे छोटे मामलों के कारण बड़ी विफलताओं के शिकार हो जाते हैं। जो लोग छोटे-बड़े सभी मामलों में सचमुच परमेश्वर का भय मानते हैं, वे परमेश्वर की तरफ देखेंगे, परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, सब कुछ परमेश्वर को सौंप देंगे और फिर देखेंगे कि कैसे परमेश्वर उनकी अगुआई और मार्गदर्शन करता है। एक बार जब तुम्हें ऐसा अनुभव हो जाता है तो तुम सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखने में सक्षम हो जाओगे, और तुम्हें इसका जितना ज्यादा अनुभव होगा, उतना ही तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखना अत्यंत व्यावहारिक लगेगा। जब तुम किसी मामले में परमेश्वर की तरफ देखते हो, तो संभव है कि परमेश्वर तुम्हें कोई एहसास न करवाए, कोई स्पष्ट अर्थ न दे, और स्पष्ट निर्देश तो बिल्कुल ही न दे, पर वह तुम्हें मामले की सटीक प्रासंगिकता के साथ एक विचार समझाएगा, और यह परमेश्वर का एक अलग तरीके से तुम्हारा मार्गदर्शन करना और तुम्हें एक रास्ता देना है। अगर तुम इसका बोध कर सके, इसे समझ सके, तो तुम्हें लाभ होगा। हो सकता है तुम उस क्षण कुछ भी न समझ पाओ, पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करते और उसकी तरफ देखते रहना चाहिए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, और देर-सवेर तुम्हें प्रबुद्धता प्राप्त होगी। इस तरह अभ्यास करने का मतलब नियमों का पालन करना नहीं है। इसके बजाय, यह आत्मा की जरूरत को पूरा करना है, और लोगों को इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। हो सकता है कि परमेश्वर की तरफ देखने और प्रार्थना करने के बाद तुम्हें हर बार प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त न हो, पर लोगों को इसी तरह अभ्यास करते रहना चाहिए, और अगर वे सत्य को समझना चाहते हैं तो उन्हें इसी तरह अभ्यास करने की जरूरत है। यह जीवन और आत्मा की सामान्य अवस्था है, और सिर्फ इसी तरीके से लोग परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बना सकते हैं, ताकि उनके दिल परमेश्वर के नजदीक हों। इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर की तरफ देखना, दिल में परमेश्वर के साथ सामान्य बातचीत है। भले ही तुम परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सको या नहीं, तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसकी तरफ देखना चाहिए। परमेश्वर के सामने जीने का यह एकमात्र तरीका भी है। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, तो उन्हें हमेशा परमेश्वर की तरफ देखने की मनोस्थिति में होना चाहिए। सामान्य मानवता वाले लोगों की यही मनोस्थिति होनी चाहिए। कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है: “हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ...,” जब उनके मन में यह विचार आता है, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब यह विचार लोगों के मन में उठता है, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मन:स्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तेरा हृदय ईमानदार होता है, जब तुम परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करते हो मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तुमने कसकर पकड़ रखा है और यह उम्मीद करते हो कि वह तुम्हारी मदद करेगा। यद्यपि तुमने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तुम्हारा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तुम परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देते हो, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, तो वह तुम्हारी कठिनाइयों को देखता है, और वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हारी सहायता करेगा। मनुष्य का ह़दय कब सबसे ईमानदार होता है? मनुष्य का हृदय तब सबसे ज्यादा ईमानदार होता है जब कोई रास्ता न होने पर वह परमेश्वर की तरफ देखता है। परमेश्वर की तरफ देखने के लिए तुम्हारे पास जो सबसे महत्वपूर्ण चीज होनी चाहिए, वह है एक ईमानदार दिल। तुम्हें ऐसी अवस्था में होना चाहिए जहाँ तुम्हें सचमुच परमेश्वर की जरूरत हो। अर्थात, लोगों के दिल कम-से-कम ईमानदार तो होने चाहिए, न कि अनमने; उन्हें सिर्फ अपने मुँह ही नहीं हिलाने चाहिए, बल्कि उनका दिल भी प्रेरित होना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर से बात करते हुए सिर्फ खानापूर्ति करते हो, पर तुम्हारा दिल भाव-विह्वल नहीं होता, तो तुम्हारा अभिप्राय होता है कि “मैंने पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली हैं, परमेश्वर, मैं बस तुम्हें सूचित कर रहा हूँ। भले ही तुम सहमत हो या नहीं, मैं उन्हीं के अनुसार चलूँगा। मैं सिर्फ खानापूर्ति कर रहा हूँ,” तो यह परेशानी की बात है। तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो, उसके साथ खेल कर रहे हो, और यह परमेश्वर के प्रति अनादर की अभिव्यक्ति भी है। इसके बाद परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर तुम्हारी तरफ ध्यान नहीं देगा और तुम्हें एक तरफ रख देगा, और तुम पूरी तरह शर्मिंदा होकर रह जाओगे। अगर तुम सक्रियता से परमेश्वर को नहीं खोजते हो, और सत्य में प्रयास नहीं करते हो, तो तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा।

परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग इस स्थिति में होते हैं। वे अधिकांश समय विचारों से रहित, अचेतन स्थिति में जीते हैं, और जब सामान्य से हटकर कुछ घटित नहीं होता, जब वे किसी बड़ी परेशानी में नहीं घिरते, वे परमेश्वर से प्रार्थना करना या उस पर भरोसा करना नहीं जानते हैं; आम समस्याएँ सामने आने पर वे सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि अपने ज्ञान, सिद्धांतों और रुझानों के अनुसार जीते हैं। वे बखूबी जानते हैं कि परमेश्वर पर भरोसा करना असली चीज है, लेकिन अधिकांश समय वे स्वयं पर और अपने आसपास की लाभकारी स्थितियों और वातावरण पर, और साथ ही अपने लिए लाभदायक किन्हीं भी लोगों, घटनाओं, और चीजों पर भरोसा करते हैं। बस इसी में लोग सबसे निपुण होते हैं। जिसमें वे सबसे निकृष्ट हैं, वह है परमेश्वर पर भरोसा करना और उसकी ओर देखना, क्योंकि उन्हें लगता है कि परमेश्वर की ओर देखना बहुत जहमत मोल लेना है, कि वे परमेश्वर से चाहे जैसे प्रार्थना कर लें, फिर भी उन्हें न तो प्रबोधन और प्रकाश मिलेगा, न ही त्वरित उत्तर; लिहाजा वे परेशानी से बचने और समस्या हल करने के लिए कोई व्यक्ति तलाशने की सोचते हैं। इस प्रकार, अपनी शिक्षाओं के इस पहलू में, लोग सबसे निकृष्ट प्रदर्शन करते हैं, और इसमें उनका प्रवेश सबसे उथला होता है। अगर तुम परमेश्वर की ओर देखना और उस पर भरोसा करना नहीं सीखते, तो तुम अपने भीतर परमेश्वर के कार्य को तुम्हारा मार्गदर्शन, या तुम्हारा प्रबोधन करते कभी नहीं देख पाओगे। अगर तुम इन चीज़ों को नहीं देख सकते, तो ऐसे प्रश्न कि “परमेश्वर विद्यमान है या नहीं और वह मानवजाति के जीवन में हर ची का मार्गदर्शन करता है या नहीं”, तुम्हारे हृदय की गहराइयों में, विराम चिह्न या विस्मयादिबोधक चिह्न की बजाय प्रश्नवाचक चिह्न के साथ समाप्त होंगे। “क्या परमेश्वर मानवजाति के जीवन में हर चीज का मार्गदर्शन करता है?” “क्या परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराइयों में देखता है?” अगर तुम ऐसा सोचते हो तो तुम मुसीबत में हो। क्या कारण है कि तुम इन बातों को प्रश्नों में बदल देते हो? अगर तुम सच में परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो या उसकी ओर नहीं देखते हो, तो तुम उसमें अपनी सच्ची आस्था उत्पन्न नहीं कर पाओगे। अगर तुम उसमें सच्ची आस्था को उत्पन्न नहीं कर पाते हो, तो तुम परमेश्वर जो भी करता है उस पर हमेशा प्रश्नवाचक चिह्न ही लगाओगे, कभी कोई विराम चिह्न नहीं लगाओगे। जब तुम लोग व्यस्त न हों तो खुद से पूछना : “‘मेरा मानना है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु शासक है’—क्या इसके पीछे प्रश्नवाचक चिह्न, पूर्ण विराम या विस्मयादिबोधक चिह्न लगाना है?” जब तुम इस पर विचार करोगे, तो कुछ समय के लिए तुम ठीक-ठीक यह नहीं कह पाओगे कि तुम किस स्थिति में हो। जब तुम कुछ अनुभव प्राप्त कर लोगे तो चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकोगे और निश्चित होकर कहोगे : “परमेश्वर वास्तव में सभी चीजों का संप्रभु शासक है!!!” इसके पीछे तीन विस्मयादिबोधक चिह्न लगेंगे, क्योंकि तुम्हें वास्तव में परमेश्वर के शासन का ज्ञान है, इसमें कोई संदेह नहीं रहा। तुम लोग इनमें से किस स्थिति में हो? तुम्हारी वर्तमान स्थितियों और आध्यात्मिक कद को देखते हुए यह स्पष्ट है कि ज्यादातर प्रश्न चिह्न लगे हैं, और ये काफी सारे हैं। इससे यही दिखता है कि तुम एक भी सत्य को नहीं समझते हो, और यह भी कि तुम्हारे दिल में अभी भी संदेह हैं। जब लोगों को परमेश्वर के बारे में बहुत सारे संदेह होते हैं तो वे पहले ही खतरे की कगार पर होते हैं। वे किसी भी समय नीचे गिरकर परमेश्वर को दगा दे सकते हैं। और मैं क्यों कहता हूँ कि लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा होता है? किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक कद किस आधार पर तय जाता है? यह इस बात से तय किया जाता है कि तुम्हें परमेश्वर पर कितना सच्चा विश्वास है और कितना वास्तविक ज्ञान है। और तुम्हारे पास कितना है? क्या तुमने पहले कभी इन बातों की जाँच की है? ऐसे बहुत से युवा हैं जो अपने माता-पिता के माध्यम से परमेश्वर में विश्वास करने लगे हैं। परमेश्वर में विश्वास के बारे में उन्होंने अपने माता-पिता से कुछ सिद्धांत सीख लिए हैं, और वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छी बात है, कि यह सकारात्मक बात है, लेकिन उन्हें अभी भी उन सत्यों को वास्तव में समझना या अनुभव करना और सत्यापित करना है जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों को समझने चाहिए। इसलिए, उनके पास बहुत सारे प्रश्न चिह्न और धारणाएँ हैं। उनके मुँह से निकलने वाले अधिकांश शब्द सकारात्मक या विस्मयादिबोधक नहीं हैं, वे प्रश्न हैं। इसका कारण यह है कि उनमें बहुत सी कमियाँ हैं, और वे चीजों को अच्छी तरह नहीं देख सकते हैं, और यह कहना मुश्किल है कि क्या वे दृढ़ रह पाएंगे। उम्र के 20 से 40 साल तक के पड़ाव में कई प्रश्न चिह्न होना सामान्य है, लेकिन कुछ समय तक अपना कर्तव्य निभाते रहने के बाद तुम लोग इनमें से कितने प्रश्न चिह्नों से छुटकारा पा सकोगे? क्या तुम इन प्रश्न चिह्नों को विस्मयादिबोधक चिह्नों में बदल पाओगे? यह तुम्हारे अनुभव पर निर्भर करेगा। यह महत्वपूर्ण है या नहीं? (महत्वपूर्ण है।) यह बहुत ही महत्वपूर्ण है! मैंने अभी जो कहा क्या वह सबसे बड़ी बुद्धिमानी है? (परमेश्वर की ओर देखना और सभी बातों में उस पर भरोसा करना।) यह सुनकर कुछ लोग कहते हैं : “यह बहुत ही सरल और सामान्य उत्तर है। यह एक घिसी-पिटी कहावत है, और आजकल इसे कोई नहीं सुनाता।” परमेश्वर की ओर देखना अभ्यास का एक जाहिर तरीका लग सकता है, लेकिन यह एक ऐसा सबक है जिसका अध्ययन परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी को अपने जीवनकाल में करना चाहिए और इसमें प्रवेश करना चाहिए। क्या अय्यूब ने परमेश्वर की ओर तब देखा जब वह 70 वर्ष की उम्र पार कर चुका था? (हाँ।) और उसने परमेश्वर की ओर कैसे देखा? परमेश्वर की ओर देखने की उसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या थीं? जब अय्यूब की संपत्ति के साथ ही सारे बच्चों की जान भी छीन ली गई, तो उसने परमेश्वर की ओर किस दृष्टि से देखा? उसने मन ही मन प्रार्थना की, और उसने बाहरी तौर पर कुछ किया, तो फिर उसके विषय में बाइबल में क्या लिखा है? “तब अय्यूब ... बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् करके कहा” (अय्यूब 1:20)। वह भूमि पर गिर गया और दण्डवत् किया। यह परमेश्वर की ओर देखने की अभिव्यक्ति है! यह अत्यंत धर्मनिष्ठा थी। क्या यह कुछ ऐसा है जो तुम लोग कर सकते हो? (हम अभी तक ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं।) तो क्या तुम इसके इच्छुक हो? (हाँ।) यदि कोई अय्यूब के स्तर तक उठ सकता है, परमेश्वर का भय मानकर बुराई से बच सकता है, और एक निष्कलंक व्यक्ति बन सकता है, तो वह पूर्ण है! लेकिन अपना कर्तव्य निभाने दौरान तुममें कठिनाई सहने की इच्छा होनी चाहिए। तुम्हें सत्य को जानने के प्रयास करते रहने चाहिए। जब तुम सत्य को समझकर सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभालने लगोगे, तो परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर चुके होगे। तुम्हें बस इसे ही याद रखना है।

1 जनवरी, 2015

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