मनुष्य और परमेश्वर के बीच संबंध सुधारना अत्यंत आवश्यक है

परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उसके वचनों को किस तरह लें। परमेश्वर चाहे जिस भी अंदाज में बोले, किसी भी विषय पर या किसी भी हद तक बोले, तथ्य यह है कि वह वही सब कहता है जिसकी मनुष्य को सबसे ज्यादा जरूरत होती है, जो उसे समझना चाहिए और जो उसे मालूम होना चाहिए। और फिर, परमेश्वर जो वचन कहता है वे पूरी तरह मनुष्य के मस्तिष्क और विचारों की पहुंच में होते हैं, अर्थात मनुष्य की मूल क्षमता के अनुरूप। वे मनुष्य द्वारा बूझे और समझे जाने योग्य होते हैं। परमेश्वर जो भी कहता या करता है, चाहे वह पवित्र आत्मा का किसी व्यक्ति के भीतर कार्य हो, या परमेश्वर द्वारा विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों, या परिवेशों की व्यवस्था हो, यह मनुष्य की मूल क्षमता या उसके विचारों की दुनिया से बाहर नहीं होता; उल्टे यह प्रासंगिक, सही और वास्तविक होता है। अगर कोई मनुष्य इसे समझ नहीं पाता तो यह उनकी ही कोई समस्या होती है। इसका अर्थ है कि वे लोग बेहद कम काबिलियत वाले लोग हैं। जो भी हो, परमेश्वर के बोलने का अंदाज और लहजा, उसके व्याख्यान का आवेग, और मनुष्य के लिए उपलब्ध कराए गए उसके सभी वचन ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर के विश्वासियों को समझ में आनी ही चाहिए, और ये सभी मनुष्य के लिए सुगमता से समझने योग्य हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य से बात कर रहा होता है, और जो वह बोलता है वह मनुष्य की भाषा होती है, और इन वचनों को अभिव्यक्त करते हुए वह इन्हें समझाने के लिए बोलचाल की भाषा, भाषाई विविधता और ऐसी शब्दावली का प्रयोग करता है जो मनुष्य के लिए आसानी से उपलब्ध और अधिक-से-अधिक सुगम हो, ताकि भिन्न-भिन्न विचारों और परिप्रेक्ष्य वाले लोग, शिक्षा के अलग-अलग स्तरों और अलग-अलग शैक्षणिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले लोग इन्हें आसानी से सुन-पढ़ और समझ सकें। परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वचनों में कुछ-न-कुछ ऐसा होता है जो तुम्हें समझना चाहिए : उसके वचनों में कुछ भी गूढ या अमूर्त नहीं होता, कोई भी ऐसा शब्द नहीं जिसे मनुष्य समझ-बूझ न सके। अगर व्यक्ति के पास एक निश्चित काबिलियत है और वह परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करने पर ध्यान देता है, तो ऐसे लोग सत्य की समझ हासिल कर सकते हैं और परमेश्वर की इच्छा को जान सकते हैं। परमेश्वर जिन सत्यों को अभिव्यक्त करता है वे उसी से आते हैं, पर इनकी अभिव्यक्ति के लिए वह भाषा के जिन स्वरूपों और आम लोगों की जिस शब्दावली का प्रयोग करता है वे सभी मानवीय होते हैं। वे मानवीय भाषा की सीमाओं से बाहर नहीं जाते हैं। परमेश्वर अपने वचन बोलने के लिए चाहे भाषा के किसी भी स्वरूप का प्रयोग करे, या वह जिस भी अंदाज और लहजे में बोले, चाहे उसकी शब्दावली पश्चिम की हो या पूरब की, वह चाहे प्राचीन या आधुनिक मानवीय भाषा का प्रयोग करे, क्या उसके व्याख्यान की कोई ऐसी भाषा है जो मनुष्य की समझ से परे या गैर-मानवीय है? (नहीं।) आज तक किसी को भी ऐसी कोई भाषा नहीं दिखी। कुछ लोग कहते हैं, “यह सही नहीं है; मुझे ऐसे दो शब्द मिले हैं : ‘धार्मिकता’ और ‘प्रताप’।” “धार्मिकता” और “प्रताप” दो ऐसे वर्णन या वक्तव्य हैं जो दिव्यता के सार के एक पहलू के बारे में हैं। पर क्या ये शब्द वर्तमान में मानवजाति में प्रचलित नहीं हैं? (हां, वे हैं।) इन दो शब्दों के बारे में तुम्हारी समझ चाहे जिनती दूर तक जाती हो, पर तुम कम-से-कम शब्दकोश में तो इनकी सबसे मूल और आधारभूत परिभाषाएं तो पा ही सकते हो, और इन सबसे मूल परिभाषाओं की परमेश्वर के सार, उसके स्वभाव और जो वह स्वयं है से तुलना करते हुए, और इस संयोजन में, ये शब्द मनुष्यों के लिए ज्यादा ठोस हो जाते हैं और वे अमूर्त नहीं रह जाते। इसके साथ ही अगर परमेश्वर के वचनों में इन शब्दों की लंबी तथ्यात्मक अभिव्यक्तियों, टिप्पणियों और व्याख्याओं को भी ध्यान में रखा जाए, तो सभी लोगों के लिए ये शब्द और भी ठोस बन जाते हैं और वे एक अधिक जीवंत छवि का, और अधिक प्रामाणिक रूप लेकर परमेश्वर के सार, उसके पास जो है और जो वह स्वयं है के ज्यादा-से-ज्यादा नजदीक प्रतीत होते हैं, जिसके बारे में लोगों को पता होना चाहिए। तो, ऐसी शब्दावली और वक्तव्य जिनका संबंध परमेश्वर के स्वभाव से है, तुम लोगों के लिए अमूर्त और रहस्यमयी नहीं लगते। तो बताओ मुझे : क्या उन सत्यों में कुछ भी अमूर्त है जो मनुष्य के सामान्य अभ्यास, उसके द्वारा चुने गए रास्ते, और सत्य के सिद्धांतों से जुड़ा हुआ है? (नहीं।) फिर से कहता हूँ, वहां कुछ भी अमूर्त नहीं है।

मैंने जबसे अपने वचनों को अभिव्यक्त करना औए प्रवचन देना शुरू किया है, मैंने उपदेश देने, सत्य पर संगति करने और इसके सिद्धांतों की चर्चा करने के लिए मानवीय भाषा के प्रयोग के सर्वोत्तम प्रयास किए हैं—वह भाषा जिसे लोग समझ सकें, जिसके साथ वे जुड़ सकें, जिसका अर्थ जान सकें—ताकि तुम लोग सत्य को बेहतर ढंग से समझ सको। क्या यह अधिक मानवीय नजरिया नहीं है? तुम लोगों को इससे क्या लाभ पहुंचता है? इससे तुम लोग सत्य को समझने में और अधिक सक्षम हो पाते हो। और इस तरह बात करने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य है? तुम लोगों को अधिक समृद्ध, अधिक विविधतापूर्ण भाषा को सुनने में सक्षम बनाना, और फिर इस विविधतापूर्ण भाषा का प्रयोग करके लोगों के लिए सत्य को समझना सरल बनाना, ताकि उन्हें यह थकाऊ न लगे। बाइबल, पुराने और नए नियम की विविधतापूर्ण भाषा एक जैसी है, सभी एक खास तरह के मुहावरे में आती हैं, इसलिए लोग एक ही नजर में बता सकते हैं कि ये खास वचन बाइबल से जुड़े हुए हैं, ये बाइबल के वचन हैं। इन वचनों में कुछ बहुत विशिष्ट या प्रतीकात्मक है। मैं यह प्रयास करता हूं कि आज की भाषा की शैली और शब्दावली में प्रतीकात्मक चीजें न हों, ताकि लोग यह देख सकें कि यह भाषा बाइबल के मुहावरे से आगे की भाषा है। हालांकि लोग परमेश्वर के व्याख्यान के विषय और लहजे से यह देख सकते हैं कि इसका स्रोत और बाइबल में परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों का स्रोत एक ही प्रतीत होता है, पर इसकी शब्दावली में वे यह भी देख सकते हैं कि यह बाइबल से, पुराने और नए नियम से बहुत आगे निकल चुकी है, और एक हजार वर्ष से सभी आध्यात्मिक लोगों द्वारा प्रयोग की गई आध्यात्मिक शब्दावली से भी बहुत ऊपर उठ चुकी है। तो अब परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों में किस तरह के शब्द होते हैं? इनमें से कुछ आम लोगों द्वारा अक्सर प्रयोग की जाने वाली सकारात्मक और प्रोत्साहन भरी भाषा के शब्द होते हैं, जबकि परमेश्वर के कुछ अन्य शब्द और भाषा मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर और अभिव्यक्त करने के लिए अधिक उपयुक्त है। साहित्य, संगीत, नृत्य, अनुवाद इत्यादि से जुड़ी कुछ विशिष्ट चीजें भी हैं। इसका उद्देश्य यह है कि किसी के कर्तव्य या पेशेवर हुनर का चाहे कोई भी क्षेत्र हो, वह यह महसूस कर सके कि जिन सत्यों को मैं अभिव्यक्त करता हूं, वे वास्तविक जीवन से और लोगों द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं, और सत्य का कोई भी पहलू लोगों के वास्तविक जीवन और उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों से कटा हुआ नहीं है। तो क्या ये सत्य तुम लोगों के लिए बेहद मददगार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) अगर मैं इन चीजों की परवाह न करता, और अनुवाद, फिल्म, कला, लेखन और संगीत से जरा-सा भी जुड़े विषयों को सिरे से टालता रहता, ऐसे शब्दों का कभी भी इस्तेमाल नहीं करता, और उनसे इरादतन कतराता रहता, तो क्या मैं अपना कार्य अच्छी तरह से कर पाता? अगर ऐसा होता, तो भी मैं शायद इसका कुछ हिस्सा कर पाता, पर फिर तुम लोगों के साथ संवाद करना दूभर हो जाता। इसलिए, मैं ऐसी भाषा के अध्ययन और उसमें महारत के लिए भरपूर मेहनत करता हूं। एक बात तो यह है कि इससे तुम लोगों को अपने पेशेवर काम की परिकल्पना और सिद्धांतों को जानने में मदद मिल सकती है, दूसरी यह कि जब तुम लोग इन क्षेत्रों में अपने कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हें ऐसा महसूस करने में मदद मिलती है कि तुम्हारे कर्तव्य से जुड़ा तुम्हारा पेशेवर काम सत्य से कटा हुआ नहीं है। तुम्हारी विशेषज्ञता चाहे कुछ भी हो, तुम्हारी चाहे कोई भी खूबी हो, तुम चाहे जिस किसी भी पेशे का अध्ययन करते हो, तुम इन शब्दों को पढ़ और समझ सकते हो, और वे तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य में प्रवेश करने के लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम बनाते हैं। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, ऐसा अच्छा नतीजा कैसे हासिल किया जा सकता है? इसके लिए परमेश्वर, अपनी मानवता में, कुछ चीजें होने की अपेक्षा करता है। और ये चीजें क्या हैं? देहधारी परमेश्वर की सामान्य मानवता को बहुत-सी विशेषज्ञताओं के बारे में थोड़ा-बहुत समझने की जरूरत होती है, हालांकि मुझे मेहनत करने और महारत हासिल करने के लिए इन चीजों के अध्ययन की जरूरत नहीं होती। यह इसलिए है ताकि सत्य पर संगति करते हुए और परमेश्वर की गवाही देते हुए मैं सभी क्षेत्रों के ज्ञान का प्रयोग कर सकूं। इससे किसी भी क्षेत्र से जुड़े लोग परमेश्वर के घर की गवाहियों को समझ और सराह पाते हैं, और इसके सभी फिल्मांकित कार्यों को भी, जो सुसमाचार के प्रचार के लिए अत्यंत लाभदायक हैं। अगर मैं सत्य पर संगति करने के लिए सिर्फ परमेश्वर के घर की भाषा का प्रयोग करूं, और समाज के विविध, विशेषज्ञताओं वाले क्षेत्रों की भाषा और ज्ञान का प्रयोग बिल्कुल न करूं, तो नतीजे बहुत खराब होंगे। तो यह कार्य अच्छी तरह से करने के लिए मुझे क्या हासिल करने की जरूरत है? मेरे पास कुछ हद तक पेशेवर ज्ञान होना चाहिए, और यही कारण है कि मैं कभी-कभी गीत सुनता हूं, समाचार देखता हूं, पत्रिकाएं पढ़ता हूं, और कुछ अवसरों पर अखबार पढ़ता हूं। कई बार, मैं अविश्वासियों के मामलों पर भी ध्यान देता हूं। अविश्वासियों के मामलों से कई अलग-अलग चीजें जुड़ी होती हैं, और उनकी कुछ भाषा परमेश्वर के घर में मौजूद नहीं है—लेकिन अगर इस भाषा का प्रवचनों की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए तो कई बार यह बड़ी प्रभावी साबित होगी, और तुम लोगों को यह एहसास करने में मदद मिलेगी कि परमेश्वर में विश्वास का रास्ता बहुत चौड़ा है, और यह थकाऊ या नीरस नहीं है। यह तुम लोगों के लिए बहुत मददगार होगा, और तुम इससे कुछ उपयोगी बातें सीख सकोगे। हालांकि तुम में से ज़्यादातर अपनी सीख में सफल नहीं हो पाओगे, पर पर्याप्त काबिलियत वाले लोग कुछ उपयोगी चीजें सीखने में सक्षम होंगे, जो उनके कर्तव्य निर्वहन में मददगार साबित होंगी। जब मुझे कोई काम नहीं होता, तो मैं बिना सोचे ही समाचार देखकर और संगीत सुनकर कुछ बातें सीख लेता हूं। इसके लिए किसी विशेष प्रयास की जरूरत नहीं होती; मैं बस अपना खाली समय चीजों को सीखने, चीजों को देखने और चीजों को सुनने में गुजरता हूं, और बिना किसी इरादे के कुछ चीजों पर महारत हासिल कर लेता हूं। क्या इन चीजों पर मेरी महारत मेरे कार्य पर असर डालेगी? बिल्कुल भी नहीं—बल्कि यह जरूरी है कि ऐसा ही हो। यह परमेश्वर के घर के कार्य और सुसमाचार के प्रचार के लिए लाभदायक है। तुम लोगों के साथ इन मामलों की चर्चा के पीछे मेरा क्या आशय है? यह कि परमेश्वर जो वचन बोलता है वे तुम लोगों के लिए सुगम होने चाहिए, वे सभी समझने में आने लायक और व्यवहार में लाने के लिए सरल होने चाहिए। कम-से-कम, वे ऐसी चीजें हैं जो मानवता के पास होनी चाहिए। जब मैं कहता हूँ कि ये चीजें मानवता के पास होनी चाहिए, तो इससे मेरा मतलब है कि जब परमेश्वर अपना कार्य करता है और अपने वचन व्यक्त करता है तो वे चीजें पहले ही उसकी मानवता द्वारा संसाधित हो चुकी होती हैं। “संसाधित” का क्या अर्थ है? उदाहरण के लिए, यह भूसा हटाए हुए गेहूं की तरह है, जिसे गहाई और पीसने के बाद आटा बनाया जाता है, और फिर इससे ब्रेड, केक और नूडल बनाए जाते हैं। संसाधित करने के बाद ये चीजें तुम लोगों को दी जाती हैं, और आखिर में तुम लोग जिसे ग्रहण करते हो वह अंतिम उत्पाद, एक तैयार भोजन होता है। तुम लोगों की इसमें क्या भूमिका होती है? यह कि परमेश्वर आज जो वचन बोल रहा है, उन्हें जल्दी-से-जल्दी समूचे का समूचा खाना और पीना। उन्हें और ज्यादा खाओ-पियो, उन्हें और ज्यादा स्वीकार करो, और उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके अनुभव, हजम और आत्मसात करो। तुम लोग उन्हें अपनी जिंदगी, अपने आध्यात्मिक कद का हिस्सा बना लो, और परमेश्वर के वचनों को अपनी जिंदगी के हर दिन पर और अपने कर्तव्य निर्वहन पर छा जाने दो। परमेश्वर जो भी वचन बोलता है, वे सभी मानवता की भाषा में होते हैं, और भले ही वे झट से समझ में आ जाते हैं, पर उनके भीतर के सत्य को समझना या उसमें प्रवेश करना इतना आसान नहीं होता; भले ही भाषा आसानी से समझ में आ जाती हो, सत्य में प्रवेश करना कई चरणों की प्रक्रिया होती है। परमेश्वर ने इतने सारे वचन बोले हैं और मनुष्य को वर्तमान तक लेकर आया है, और हर वचन जो उसने बोला है, वह तुम लोगों के भीतर थोड़ा-थोड़ा साकार हो रहा है, और उसने जो सत्य अभिव्यक्त किया है, और वह कार्य-प्रणाली जो सत्य में प्रवेश करने और उद्धार के मार्ग पर चलने में लोगों का मार्गदर्शन करती है, साफ तौर से और प्रत्यक्ष रूप से तुम लोगों में थोड़ी-थोड़ी करके साकार और पूर्ण हो रही है। ऐसे नतीजे तुम लोगों में थोड़े-थोड़े करके झलकते हैं। इसमें कुछ भी अमूर्त नहीं है। अब हमें इस तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए कि परमेश्वर के वचन उसकी मानवता के माध्यम से किस तरह संसाधित होते हैं। इस प्रक्रिया की तरफ देखने की कोई जरूरत नहीं है—इसमें एक ऐसा रहस्य है जिसे मनुष्य का अध्ययन भेद नहीं सकता। सिर्फ यह ध्यान रखो कि तुम सत्य स्वीकारते हो। यह सबसे समझदारी की बात और सबसे सही रवैया है। इसका कोई लाभ नहीं है कि हम हमेशा चीजों में ताक-झांक करना चाहें। यह समय और मेहनत की बर्बादी है। सत्य अध्ययन के माध्यम से प्राप्त की जाने वाली चीज नहीं है, विज्ञान द्वारा इसे खोजा जाना तो दूर की बात है। इसे परमेश्वर सीधे अभिव्यक्त करता है, और इसे सिर्फ अनुभव के माध्यम से समझा और जाना जा सकता है। सिर्फ परमेश्वर के कार्य के अनुभव के माध्यम से ही सत्य को पाया जा सकता है। अगर कोई चीजों के अध्ययन के लिए सिर्फ मानसिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करता है, पर उसके पास कोई अभ्यास या अनुभव नहीं है, तो वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। चीजों में झांकने के बजाय परमेश्वर के वचनों को लेकर एक सकारात्मक रवैया क्या हो सकता है? स्वीकृति, सहयोग और बिना किसी समझौते के आज्ञापालन। सचमुच, अगर कोई इस अध्ययन के लिए सबसे ज्यादा योग्य है, तो वह मैं हूं, फिर भी मैं कभी ऐसा नहीं करता। मैं कभी नहीं कहता, “ये वचन कहां से आते हैं? मुझे ये किसने बताए? मैं इन्हें कैसे जानता हूं? मैंने इन्हें कब जाना? क्या दूसरे भी इन्हें जानते हैं? जब मैं इन्हें कहता हूं तो क्या ये नतीजे लाएंगे? इनसे क्या हासिल होगा? मैं इतने सारे लोगों की अगुवाई करता हूं—अगर मुझे आखिर में मनवांछित नतीजे न मिले, अगर मैं उन्हें उद्धार के मार्ग पर न ले जा सका, तो मैं क्या करूंगा?” बताओ मुझे—क्या ये ऐसी चीजें हैं जिन पर ध्यान देना चाहिए? (नहीं, ये ऐसी चीजें नहीं हैं।) मैं इन चीजों की तरफ कभी नहीं देखता। मुझे जो कहना होता है, मुझे जो तुम लोगों को बताना होता है, मैं तुमसे सीधे कह देता हूं। मुझे इनके अध्ययन के लिए मानसिक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत नहीं है। मुझे सिर्फ यह ध्यान रखने की जरूरत होती है कि अगर मैं इसे एक खास तरीके से कहूं तो क्या तुम लोग इसे समझ पाओगे; क्या मुझे ज्यादा ठोस तरीके से बात करनी चाहिए, क्या मुझे और ज्यादा उदाहरणों और कथाओं का संदर्भ देना चाहिए, ताकि तुम लोगों को एक विशिष्ट जानकारी और अभ्यास का एक विशिष्ट मार्ग मिल सके; क्या जो कुछ मैंने कहा है तुम लोग उसे समझ पाए हो; क्या मेरी शब्दावली में, मेरे बोलने की शैली और लहजे में, या मेरी व्याकरण या मेरे वाक्यांशों में कोई ऐसी चीज है जिससे तुम लोग गलतफहमी या उलझन में पड़ सकते हो; या मेरे व्याख्यान में कोई ऐसी चीज है जो तुम लोगों को अमूर्त, रहस्यमयी या खोखली प्रतीत हो। मुझे सिर्फ इन चीजों को देखना और इनका ध्यान रखना पड़ता है। मैं बाकी चीजें नहीं देखता। यह मेरे लिए सामान्य बात है कि मैं चीजों की जांच-पड़ताल न करूं, पर क्या तुम लोगों के लिए भी यह सामान्य बात है? तुम लोगों के लिए चीजों की जांच-पड़ताल करना बड़ी सामान्य बात है, ऐसा न करना असामान्य होगा। यह मनुष्य के सहज बोध और भ्रष्ट मानवता की प्रकृति की उपज है। तुम सभी के लिए चीजों की जांच-पड़ताल करना निश्चित है। फिर भी एक ऐसी चीज है जो इस समस्या का समाधान कर सकती है : जब मनुष्य धीरे-धीरे परमेश्वर के साथ संवाद की तरफ बढ़ता है, तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच संबंध सामान्य होने लगते हैं, और मनुष्य अपनी सही जगह तय करके अपने दिल में परमेश्वर को उचित स्थान दे देता है। जब यह संबंध प्रगति करते हुए बेहतरी की तरफ और अधिक सौम्य दिशा में बढ़ता है, तो परमेश्वर के कार्यों को लेकर मनुष्य की जागरूकता, ज्ञान, निश्चितता और स्वीकृति का स्तर और गहरा होता जाता है, और जब यह होता है, तो मनुष्य की निश्चितता, जागरूकता, ज्ञान और देहधारण की स्वीकृति की गहराई भी बढ़ जाती है। जब ये चीजें गहरी हो जाती हैं, तो हल्के-फुल्के तरीके से भी, तुम लोग परमेश्वर का और भी कम अध्ययन और उस पर और भी कम संदेह करने लगते हो।

मनुष्य परमेश्वर का अध्ययन क्यों करता है? इसका कारण यह है कि उनमें परमेश्वर को लेकर बहुत सारी धारणाएं और कल्पनाएं होती हैं, और बहुत सारे अनिश्चित कारक, संदेह और न समझी जा सकने वाली चीजें होती हैं, बहुत सारी ऐसी चीजें और बहुत सारे ऐसे रहस्य होते हैं जो उन्हें अबूझ लगते हैं, और इसलिए वे अध्ययन के द्वारा इन्हें समझना चाहते हैं। जब तुम कोई ऐसा अध्ययन करते हो जिसमें बाहरी घटनाओं और तुम्हारे विशिष्ट ज्ञान या मानसिक निर्णय का उपयोग होता है तो तुम कुछ भी समझ नहीं सकते; तुम फिजूल की मेहनत करोगे और फिर भी यह नहीं समझ सकोगे कि परमेश्वर और सत्य क्या है। पर जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें नतीजे देख पाने, परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हासिल करने, और उसके प्रति श्रद्धा और आज्ञाकारिता भरा दिल विकसित करने में कुछ ही वर्ष लगते हैं। कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन यथार्थपूर्ण या तथ्यपरक हैं, इसलिए वे हमेशा परमेश्वर का, उसके वचनों का, और उसके देहधारण का भी, अध्ययन करना चाहते हैं। जीवन के मामले और आत्मा के मामले किसी अध्ययन के वश में नहीं होते। जब वह दिन आएगा जब तुम इन सत्यों का अनुभव करोगे, और तुम्हारा समूचा मस्तिष्क, तुम्हारे द्वारा चुकाया गया समूचा मूल्य, और सत्य के अभ्यास और अपने कर्तव्य के निर्वाह पर तुम्हारा पूरा जोर तुम्हें उद्धार के मार्ग पर ले जाएगा, और तुम देहधारी परमेश्वर का अध्ययन नहीं करोगे। मतलब यह कि क्या वह मनुष्य है या परमेश्वर, इस सवाल का जवाब मिल चुका होगा। परमेश्वर की मानवता कितनी ही सामान्य क्यों न हो, वह आम लोगों से कितना ही मिलता-जुलता क्यों न हो, यह अब महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुमने आखिरकार उसके दिव्य सार को खोज लिया होगा, और आखिरकार उसके द्वारा अभिव्यक्त सत्यों को स्वीकार लिया होगा, और तब तक, तुमने दिल की गहराइयों से इस तथ्य को स्वीकार लिया होगा कि यह व्यक्ति वह देह है जिसमें देहधारी परमेश्वर है। कुछ तथ्यों, कुछ प्रक्रियाओं, कुछ अनुभवों के कारण, और लड़खड़ाने और विफल होने से सीखे कुछ सबकों के कारण, तुम अपने भीतर की गहराइयों में थोड़े-से सत्य को समझ पाओगे, और यह मान लोगे कि तुम गलत थे। तुम अब उस व्यक्ति पर संदेह या उसका अध्ययन नहीं करोगे, बल्कि यह महसूस करोगे कि वह व्यावहारिक परमेश्वर है, यह एक निर्विवाद तथ्य बन चुका है। तब तुम अपने सहज बोध से, और बिना किसी संदेह के, यह स्वीकार लोगे कि वह देहधारी परमेश्वर है। उसकी मानवता चाहे कितनी ही सामान्य क्यों न हो, और भले ही वह एक मामूली व्यक्ति की तरह बोले और व्यवहार करे, और वह किसी भी तरह से असाधारण या भव्य न हो, तुम उस पर संदेह नहीं करोगे, और न ही तुम उसका तिरस्कार करोगे। अतीत में, तुम्हें परमेश्वर अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं लगा होगा, और तुमने उसका अध्ययन किया होगा, और तुम अपने दिल में उसके प्रति तिरस्कार, उपहास और विद्रोह महसूस करते रहे होगे—पर आज चीजें अलग हैं। आज, तुम एक अलग नजरिए से, उसके वचनों को बड़े चाव से और पूरे विवरण के साथ सुनते हो, और उसके द्वारा अभिव्यक्त किया गया सब कुछ स्वीकारते हो। और यह नजरिया क्या है? “मैं एक सृजित प्राणी हूं। मसीह भले ही लंबा न हो, उसकी वाणी भले ही ऊंची न हो, चाहे वह जरा भी विशिष्ट न दिखता हो, पर उसकी पहचान मुझसे अलग है। वह भ्रष्ट मानवता का सदस्य नहीं है; वह हममें से एक नहीं है। हम उसके बराबर नहीं हैं, उसके समतुल्य नहीं हैं।” इसमें तुम्हारे पिछले नजरिए से अंतर है। यह अंतर कैसे आया? अपने भीतर की गहराइयों में, तुम अपनी शुरुआती अस्वीकृति और अनैच्छिक अध्ययन से एक परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरकर उसके वचनों को जीवन और अपने अभ्यास के मार्ग के रूप में स्वीकारने लगे हो, और यह महसूस करने लगे हो कि उसके पास सत्य है; वह सत्य, मार्ग, और जीवन है; उस पर परमेश्वर की छाया है और उसमें परमेश्वर के स्वभाव का प्रवाह है; उस व्यक्ति में परमेश्वर का आदेश और कार्य है। तब तुम उसे पूरी तरह स्वीकार चुके होगे। जब उसके प्रति तुम्हारी कोई भी प्रतिक्रिया, उसके प्रति तुम्हारा रवैया, एक ऐसा सहज बोध और सही प्रतिक्रिया बन जाएगा जो एक सृजित प्राणी में होने चाहिए, तब तुम मनुष्य के इस देहधारी पुत्र को परमेश्वर के रूप में देखने में सक्षम हो जाओगे और उसका अध्ययन करना छोड़ दोगे, भले ही तुम्हें ऐसा करने के लिए कहा जाए, जैसे कि तुम यह अध्ययन नहीं करोगे कि तुम अपने मां-बाप की संतान के रूप में क्यों पैदा हुए या तुम उनके जैसे क्यों दिखते हो। जब तुम इस बिंदु पर पहुंच जाओगे तो तुम अपने सहज बोध से ऐसी चीजों का अध्ययन करना छोड़ दोगे। ये विषय तुम्हारे दैनिक जीवन के दायरे से जुड़े हुए नहीं हैं और अब कोई सवाल नहीं रह गया है। इन चीजों को लेकर तुम्हारा रवैया अध्ययन करने की अपनी शुरुआती सनक से लेकर सहज बोध द्वारा ऐसा करने से इनकार तक एक बदलाव के दौर से गुजर चुका है, और तुम्हारे सहज बोध में इस बदलाव से देहधारी परमेश्वर का रुतबा और परिमाण और भी ऊंचा और किसी मनुष्य द्वारा बराबरी न किया जा सकने वाला हो जाएगा, और वह तुम्हारे दिल में स्वयं परमेश्वर की तरह बस जाएगा। फिर परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध बिल्कुल सामान्य होंगे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम आध्यात्मिक दुनिया को देख नहीं सकते, और किसी भी व्यक्ति के लिए, आध्यात्मिक दुनिया का परमेश्वर अपेक्षाकृत अमूर्त है। वह कहां है, वह कैसा है, मनुष्य के प्रति उसका रवैया क्या है, मनुष्य से बात करते हुए उसके मुखभाव कैसे होते हैं—लोग इस बारे में कुछ भी नहीं जानते। आज, तुम्हारे सामने जो खड़ा है, वह स्वरूप और समानता वाला एक व्यक्ति है और परमेश्वर कहलाता है। तुम पहले तो अपने प्रतिरोध, संदेह, अंदाजों, गलतफहमियों, और तिरस्कार के कारण उसे नहीं समझते हो; फिर तुम उसके वचनों को अनुभव करते हो और उन्हें जीवन और सत्य के रूप में, अपने अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में, और अपने चुने हुए मार्ग के उद्देश्य और दिशा के रूप में स्वीकारने लगते हो; और वहीं से तुम इस ईमानदार और भले व्यक्ति को स्वीकार लेते हो, मानो वह तुम्हारे दिल में बसे उस परमेश्वर की भौतिक छवि हो जिसे तुम देख नहीं सकते। जब तुम ऐसा महसूस करते हो, तो क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध एक खोखली चीज होंगे? (नहीं।) नहीं, ये ऐसे नहीं होंगे। जब तुम परमेश्वर को एक अस्पष्ट और देखी न जा सकने वाली छवि के रूप में देखते हो और उसे इतना ठोस रूप दे देते हो कि वह हाड़-मांस की एक देह बन जाए, लोगों में एक ऐसा व्यक्ति बन जाए जिसे कोई पलटकर न देखे, अगर तुम फिर भी उसके साथ एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता वाले संबंध बनाने में सक्षम हो जाते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध बिल्कुल सामान्य होंगे। फिर उसके साथ तुम जो भी करोगे, वह आधारभूत रूप से वही प्रतिक्रिया होगी जो एक सृजित प्राणी में सहज बोध से होनी चाहिए। तुम्हें कहा भी जाए तो तुम उस पर संदेह नहीं करोगे, न ही तुम उसका अध्ययन करोगे; तुम यह कहते हुए उसका अध्ययन नहीं करोगे कि “परमेश्वर इस तरह क्यों बोलता है? उसके मुखभाव ऐसे क्यों हैं? वह मुस्कुराता क्यों है और ऐसा व्यवहार क्यों करता है?” ऐसी चीजें तुम्हारे लिए सामान्य नहीं रहेंगी। तुम अपने-आपसे कहोगे, “परमेश्वर ऐसा है और उसे ऐसा ही होना चाहिए—हां! वह कुछ भी करे, उसके साथ मेरे संबंध सामान्य और अपरिवर्तित रहेंगे।”

समूची मानवजाति में ये विचार और धारणाएं हैं कि देहधारण के जरिए परमेश्वर का एक आम इंसान बनना एक ऐसा काम है जो परमेश्वर को कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि आम लोग समाज में मामूली हैसियत रखते हैं और दूसरों की घृणा के पात्र होते हैं, और परमेश्वर, जो इतना ऊँचा है, उसे एक मामूली इंसान की तरह देहधारण नहीं करनी चाहिए। यह लोगों की धारणाओं से बिल्कुल उलट है। यह तथ्य कि आज जब परमेश्वर एक मामूली इंसान बन गया है, तब तुम लोगों का उसे अपना परमेश्वर स्वीकार कर पाना और मान पाना अपने आप में गवाही है। और अगर ऐसा है, तो इससे परमेश्वर के साथ तुम्हारे सामान्य संबंध पर क्या प्रभाव पड़ सकता है या क्या नुकसान हो सकता है? कुछ भी नहीं। इस बात को ध्यान में रखते हुए, मसीह को अपना परमेश्वर मान पाना तुम्हारे और परमेश्वर के बीच के संबंध को मापने का सबसे महत्वपूर्ण मानदंड है। बहुत-से लोग परमेश्वर में विश्वास तो रखते हैं, लेकिन वे यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है—तो जो लोग जो यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है, क्या वे यह स्वीकार कर सकते हैं कि परमेश्वर उनका परमेश्वर है? तो जो लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, उनका परमेश्वर से किस तरह का संबंध हो सकता है? क्या वे सचमुच परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम हैं? क्या वे परमेश्वर की अवज्ञा करने में सक्षम नहीं हैं? तुम्हें इन चीजों को साफ-साफ देखना चाहिए। तुम्हारा और परमेश्वर दोनों का एक ही मानवीय रूप है, एक ही मानवीय आकार और एक ही मानवीय झुकाव है, एक ही मानवीय भाषा है, और तुम दोनों ही इंसानों की दुनिया में रहते हो। लेकिन तुम अपनी स्थिति ठीक रखने में सक्षम हो, तुम अपनी और परमेश्वर की हैसियत के अंतर को पहचान सकते हो, और तुम परमेश्वर के साथ अपना संबंध सुधार सकते हो। तुम्हें इस संबंध को पार नहीं करना है, तुम्हें अपनी सीमा से बाहर नहीं जाना है। यदि तुम इस आध्यात्मिक कद को प्राप्त कर लोगे, तो परमेश्वर के लिए तुम पर्याप्त हो, और कोई भी शक्ति परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को बिगाड़ नहीं कर सकती। यह सभी संबंधों में सबसे स्थिर संबंध होना चाहिए, और यह मानदंड पर खरा उतरने वाला संबंध होगा। यदि इस भौतिक देह के साथ तुम्हारा संबंध इंसान और परमेश्वर के बीच के संबंध के स्तर तक नहीं उठता, यदि तुम्हारा संबंध ऐसा नहीं है, तो जब तुम कहते हो, “मेरा स्वर्ग के परमेश्वर के साथ अच्छा संबंध है और वह बहुत ही सामान्य संबंध है,” तो क्या यह सच है? यह सच नहीं है। तुम कहते हो कि परमेश्वर के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं, पर क्या किसी ने कभी इसे देखा है? यह कहां दिखाई देता है? इसका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है। क्योंकि लोग अपनी देह में रहते हैं और आध्यात्मिक दुनिया को भेद नहीं पाते या परमेश्वर तक नहीं पहुंच पाते, इसलिए वे परमेश्वर के आत्मा के साथ कैसे संवाद कर सकते हैं? इस समय, क्या तुम लोग देहधारी परमेश्वर के साथ मनुष्य और परमेश्वर के बीच के सामान्य संबंध को प्राप्त करने में सक्षम हो? (नहीं।) तो कठिनाई कहाँ है? ऐसे बहुत-से सत्य हैं जिन्हें इंसान नहीं समझता। इसका क्या अर्थ है कि इंसान नहीं समझता? इसका अर्थ है कि मानवजाति, जो कि भ्रष्ट है, ऐसे विचार और मत रखती है जो, कई संदर्भों में, देहधारी परमेश्वर के विचारों और मतों से मेल नहीं खाते; जिन सिद्धांतों के अनुसार इंसान कई चीजों के साथ व्यवहार करता है, वे देहधारी परमेश्वर के सिद्धांतों के साथ मेल नहीं खाते, और इंसान में परमेश्वर को लेकर बहुत-सी धारणाएं और कल्पनाएं भी हैं। इन समस्याओं का अभी तक कोई समाधान नहीं हो पाया है। और इन समस्याओं की जड़ कहाँ है? परमेश्वर और मानवजाति के बीच के संबंधों को कौनसा कारक प्रभावित कर रहा है? वह है मानवजाति का भ्रष्ट स्वभाव। अर्थात्, मानवजाति अभी भी शैतान के पाले में खड़ी है; इंसान शैतान के जहर पर निर्भर होकर जीता है, और इंसान शैतान के स्वभाव और सार के अनुसार ही जीता है। परमेश्वर का सार सत्य है; उसका सार अपरिवर्तनीय है। तो, वह कौन है जिसे परमेश्वर के अनुरूप होने के लिए बदलना होगा? निस्संदेह, यह मानवजाति ही होगी; यह निश्चित है। तो फिर मानवजाति को कैसे बदलना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के कार्य के आगे समर्पण करना चाहिए, सत्य स्वीकारना चाहिए, न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए, और खुद की काट-छांट और निपटारे को स्वीकारना चाहिए। परमेश्वर के अनुरूप होने का मनुष्य के पास यही एकमात्र रास्ता है। जब तुम इस रास्ते पर कदम रखोगे, तभी तुम धीरे-धीरे सत्य को समझ पाओगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग सकोगे, और लोगों और चीजों दोनों को परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार देख सकोगे। इस तरह, जिन सिद्धांतों के अनुसार तुम चलते हो, जिस परिप्रेक्ष्य में तुम चीजों को देखते हो, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया, और तुम्हारे मूल्य, सभी परमेश्वर के अनुरूप होंगे। तुम्हारे और परमेश्वर के बीच की बाधाएं और भी कम हो जाएंगी, और कोई विरोधाभास नहीं रहेगा। तुम परमेश्वर का कम-से-कम अध्ययन करोगे, तुम्हारी आज्ञाकारिता स्वाभाविक रूप से बढ़ती चली जाएगी, और धीरे-धीरे तुम पूरी तरह परमेश्वर के अनुरूप हो जाओगे।

क्या तुम लोग मेरे साथ बातचीत से डरते हो? (नहीं।) तुम लोग भले ही न डरो, पर मैं डरता हूं। मैं किस बात से डरता हूं? तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और ऐसे बहुत सारे सत्य हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, और कुछ चीजें जो मैं करता या कहता हूं, उनके लिए मुझे तुम लोगों के आध्यात्मिक कद का ध्यान रखना पड़ता है। मैं वो चीजें सीधे नहीं कह या कर सकता, और मुझे तुम्हें इतनी जगह और इतना समय देना पड़ता है कि तुम उन सत्यों से गुजर सको और उन्हें अनुभव कर सको। फिर मैं प्रतीक्षा करता हूं। मैं तुम लोगों द्वारा उन सत्यों को समझने, उन्हें धीरे-धीरे स्वीकारने, अपना आध्यात्मिक कद बढ़ाने की प्रतीक्षा करता हूं, और फिर उस मुकाम पर मैं थोड़ा-थोड़ा करके फिर से तुम लोगों से बात करने की कोशिश करता हूं। फिर मैं यह देखता हूं कि क्या तुम लोगों के आध्यात्मिक कद में कुछ बढ़ोतरी हुई है। अगर हुई है तो मैं तुम लोगों से थोड़ा अधिक कह देता हूं; अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी भी छोटा है, तो मैं थोड़ी अधिक दूरी बनाए रखता हूं। मुझे तुम लोगों से यह दूरी क्यों बनानी पड़ती है? अगर मैं तुम लोगों के ज्यादा पास आ जाऊंगा और तुम लोगों से जल्दबाजी में ज्यादा अपेक्षा करूंगा, तो यह जल्दबाजी व्यर्थ भी साबित हो सकती है। और अगर जल्दबाजी में किया गया प्रयास व्यर्थ चला जाए, तो इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? वे बहुत खतरनाक हो सकते हैं, तुम लोगों की सहनशक्ति से कहीं ज्यादा। आज जो स्थिति है, उसमें हम अपनी बातचीत में न सिर्फ समरसता और सहमति पर नहीं पहुंच पाएंगे, बल्कि आपस में एक सच्चा जुड़ाव स्थापित करना भी हमारी पहुंच से दूर होगा। अगर मैं तुम लोगों से बार-बार संपर्क करने या तुम्हारे साथ रहने, तुम्हारे कर्तव्य से जुड़े मामलों के हर पहलू पर तुम्हें सीख देने लग जाऊं तो तुम लोग बहुत ज्यादा दबाव महसूस करोगे। तुम्हें यह बहुत कष्टदायक लगेगा। क्या यह मुझे भी सहना नहीं पड़ेगा? और इसे सहते हुए क्या मुझे कष्ट होगा? मुझे भी कष्ट झेलना होगा। अगर यह कष्ट तुम लोगों की भलाई के लिए होगा, अगर इससे तुम्हारी प्रगति की रफ्तार बढ़ेगी, तो मुझे थोड़ा कष्ट उठाने की परवाह नहीं होगी। मैं थोड़ा ज्यादा बर्दाश्त कर लूंगा, थोड़ा कम बोलूंगा, थोड़ी ज्यादा ढील दूंगा, और थोड़े धीरज के साथ तुम लोगों की थोड़ी और प्रतीक्षा करूंगा। इसमें कोई मुश्किल नहीं होगी। अगर तुम लोगों को समय से पहले थोड़े कष्ट उठाने पड़ें, तो क्या एक हद तक, इसके अच्छे नतीजे निकलेंगे? शायद कुछ विशिष्ट लोगों के लिए, जो सत्य को समझ सकते हैं, और जिनमें अंतरात्मा और समझ दोनों ही हैं, जो निष्पक्ष और तर्कसंगत हैं, और जो इसके साथ ही और खास तौर से सत्य से प्रेम करते हैं, जो सत्य का सतत अनुसरण कर सकते हैं, और जो अपने दिल की गहराई में अपने प्रेम और प्रकाश और सकारात्मक चीजों के अनुसरण के साथ कोई समझौता नहीं करते—पतरस जैसे लोग, जो सत्य के अनुसरण में अतिसक्रिय और सकारात्मक होते हैं—सिर्फ ऐसी मानवता, ऐसे अनुसरण वाले और ऐसी ग्रहणशीलता वाले लोग ही समय से पहले ऐसे कष्ट उठा सकते हैं। क्या तुम लोगों में कोई ऐसा है जो इस कसौटी पर खरा उतरता है? (नहीं।) तो फिर, मैं खेद के साथ कहता हूं कि हमें अपनी दूरी बनाए रखनी होगी, ताकि तुम लोगों को समय से पहले ऐसा कष्ट न सहना पड़े। तो तुम कब इसमें से गुजरोगे? जब तुम लोग एक निश्चित आध्यात्मिक कद तक पहुंच जाओगे, तो परमेश्वर स्वाभाविक रूप से तुम्हारे लिए ऐसे परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था कर देगा। यह वैसा ही है जैसा अय्यूब के साथ हुआ : जब वह एक निश्चित आध्यात्मिक कद तक पहुंचा, तब शैतान उसके खिलाफ एक आरोप लेकर परमेश्वर के पास आया, और परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब को प्रलोभन देने, और उससे इस प्रलोभन के आगे समर्पण करवाने की अनुमति दे दी, जिसके परिणामस्वरूप अय्यूब अपनी पूरी धन-संपदा से हाथ धो बैठा। क्या यह तुम लोगों के लिए बहुत दूर की बात है? कितनी दूर? इसका एक पक्ष तुम लोगों के अनुसरण पर निर्भर है, और दूसरा पक्ष परमेश्वर के कार्य की अपेक्षाओं और उस घड़ी पर निर्भर करता है, जिसे उसने अपनी योजना में तय कर रखा है। और यह घड़ी कौनसी है? यह घड़ी तब आएगी जब लोग समूचे सत्य को पा लेंगे और उसे समझने लगेंगे। अगर उस समय भी कुछ लोग आध्यात्मिक कद के मामले में उस स्तर तक न पहुंच पाते हैं, तो क्या किया जाए? जब सही वक्त आएगा तो परमेश्वर कोई कदम उठाएगा। क्या तुम सोचते हो कि तुम कहीं छिप सकोगे? उस मुकाम पर कोई भी इधर-उधर नहीं दुबक पाएगा। इसे मनुष्य के कार्य का निरीक्षण कहा जाता है, और हरेक को इससे गुजरना होगा। कोई भी पहले नहीं गुजर सकता, और कोई भी पीछे नहीं रह सकता। “कोई भी पहले नहीं गुजर सकता” का मतलब है कि अगर किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक कद उस स्तर तक नहीं पहुंचा है, और ऐसे लोगों ने सत्य को ज्यादा नहीं सुना है, तो जब वह व्यक्ति परमेश्वर से अपनी परीक्षा लेने के लिए कहेगा तो परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। किसी को भी इसमें छूट नहीं मिलेगी, क्योंकि परमेश्वर सबको बराबर मानता है और सबको बराबर के अवसर देता है, और वह सभी के लिए बराबर के प्रावधान और कार्य करता है। तो अब, तुम लोगों की अवस्था और आध्यात्मिक कद के अनुसार तुम्हारे प्रति मेरा यह रवैया अपनाना क्या तुम लोगों के लिए लाभदायक नहीं है? (बिल्कुल है।) यह तुम लोगों के लिए बिल्कुल सही है, बिल्कुल वही जिसकी तुम लोगों को अब जरूरत है। जब तुम लोग हर क्षेत्र में सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभा रहे होते हो, तो तुम्हें बिना किसी विलंब के उन सत्यों की आपूर्ति की जाती है जिन्हें तुम्हें हासिल करने और समझने की जरूरत होती है, ताकि तुम लोग समय पर और माप-तोल के अनुसार यह पोषण और मदद प्राप्त कर सको। फिर जब तुम लोग अपना कर्तव्य निभा रहे होगे, तो तुम धीरे-धीरे इन सत्यों को समझ, आत्मसात और अनुभव कर पाओगे, और सत्य के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग को खोज पाओगे; तुम धीरे-धीरे परमेश्वर की इच्छा को समझने लगोगे, और इस तरह, मनुष्य और परमेश्वर के संबंध सही पटरी पर आ जाएंगे, और तुम एक सृजित प्राणी का स्थान प्राप्त कर लोगे, जिसका अर्थ है कि तुम अपना स्थान ग्रहण कर लोगे और अपने कर्तव्य में अडिग खड़े रहोगे। और इसके बाद, कुछ ऐसे लोग हो सकते हैं, जो बिना इसका एहसास किए, परीक्षणों और परिशोधन से गुजर सकते हैं। ऐसा कब होगा? मैं तुम लोगों को एक वाक्य में बता दूं, जिसका अर्थ है : परीक्षण निर्धारित योजना के अनुसार आएंगे। यह थोड़ा अमूर्त प्रतीत हो सकता है, पर परमेश्वर के लिए यह सीधी-सी बात है। जब परमेश्वर के लिए कदम उठाने का समय आएगा, तो तुम लाख कोशिश करके भी छिप नहीं पाओगे। मैं अब क्या करूंगा? मैं अपना ओहदा संभाले रखूंगा, अपना स्थान ग्रहण किए रहूंगा, अपना कार्य करता रहूंगा, रुक जाने या जल्दबाजी करने के बजाय थोड़ा संयम बरतूंगा, पर अपना कार्य उसके निर्धारित क्रम से करता रहूंगा। तुम लोगों के लिए उद्धार के सभी रास्ते खुले हुए हैं—मैं उन्हें बंद नहीं करूंगा, तुम लोगों को विलंब करवाना तो दूर की बात है।

क्या कोई चिंता करते हुए यह पूछता है : “तुम्हारा अनुसरण करने से, क्या हमें बचाया जा सकता है?” शायद कुछ लोगों ने कभी भी इस सवाल के बारे में नहीं सोचा, पर यह संदेह न करने जैसा नहीं है, यह संदेह अब भी मौजूद हो सकता है। इसलिए, मैं तुम्हें एक सच्ची बात बताऊंगा : तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। तुमसे पहले मैं चिंता करूंगा; मुझे ही चिंता करनी चाहिए, पर मैं कभी भी ऐसा नहीं करता, तो तुम किस बात के लिए चिंतित हो? क्या तुम कुछ ज्यादा ही चिंता नहीं कर रहे हो? तुम बहुत ज्यादा चिंता करते हो, पर ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं इस मामले को लेकर कभी चिंता नहीं करता, क्योंकि यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसकी जिम्मेदारी मुझे लेनी पड़े। क्या यह एक अच्छी बात नहीं है? तो, इसकी जिम्मेदारी कौन लेता है? कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारे लिए ऐसा कहना गैर-जिम्मेदाराना है! अगर तुम जिम्मेदार नहीं हो, तो कौन है?” मुझे जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि मुझे कभी भी ऐसी चिंताएं नहीं होतीं। मुझे आशंका करने की जरूरत नहीं है, इस मामले पर कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं है। अगर मैं यह कहते हुए चिंता करूंगा कि, “ओह! मैं तुम लोगों के परिणामों और गंतव्यों का बोझ नहीं उठा सकता! मुझे अपने द्वारा उठाए गए हर कदम और अपने द्वारा कहे गए हर शब्द का सावधानी से अध्ययन और विश्लेषण करना चाहिए, और उनके परिणाम देखने के बाद ही कुछ करना चाहिए,” तो यह मेरी तरफ से कोताही बरतना होगा। फिर भी मैं कभी चिंता नहीं करता; मैं यह नहीं देखता कि किसी चीज का क्या परिणाम होगा। ऐसा क्यों है? कुछ लोग कहते हैं, “तुमने इस मामले के आर-पार देख लिया है।” नहीं। आम तौर पर, कोई किसी चीज के आर-पार तभी देख सकता है जब वह शोध और विश्लेषण की प्रक्रिया से गुजर चुका हो, पर मैं अपने सहज बोध से कभी भी इस मामले की छानबीन नहीं करता, जैसे कोई व्यक्ति यह छानबीन नहीं करता कि वह अपने माता-पिता जैसा क्यों दिखता है। मैं सहज बोध से इन चीजों की छानबीन नहीं करता—वे मेरी सोच में मौजूद ही नहीं होतीं। चीजों की छानबीन न करना एक बढ़िया परिणाम होगा, इसलिए तुम लोगों को यह नहीं सीखना चाहिए कि इसकी छानबीन कैसे करें। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम अपने सहज बोध से चीजों की छानबीन नहीं करते। हमें यह कैसे सीखना है? यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हम सीख सकें!” इसमें कुछ ऐसा है जिसके लिए थोड़ी संगति की जरूरत है। परमेश्वर का देहधारण, देहधारी रूप में उसका साकार होना, उसका मनुष्य बनना—यह व्यक्ति ठीक-ठीक किस तरह अस्तित्व में आया, यह जानना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी छानबीन की जरूरत नहीं है। सीधे-सीधे कहें, तो परमेश्वर एक मनुष्य बन गया है। क्या इसमें कोई रहस्य है कि परमेश्वर अपनी मानव देह में क्या करता है और खुद को कैसे अभिव्यक्त करता है? (हां।) क्या यह मामला शोध की मांग करता है? यह शोध की मांग नहीं करता, पर तुम लोगों के लिए इसके सत्य की खोज की मांग करता है। इसका सत्य क्या है? क्या तुम लोग इसके आर-पार देख सकते हो? किसी व्यक्ति का सार, उसका दर्जा और मिशन एक हो जाते हैं। उनका मिशन उनका सार है, उनका सहज बोध है; वे जो जीते हैं, जो उजागर करते हैं, जो वे करना चाहते हैं, और जो उनमें भर जाता है—वह उनका सार है, और साथ ही उनका सहज बोध और उनका मिशन है, जो सब मिलकर एक हो जाते हैं। यह सब तुम्हें क्या बताता है? यहां एक ऐसा तथ्य है जिसे तुम लोगों को देख पाना चाहिए, जो यह है कि परमेश्वर के देहधारण की बात निर्विवाद है। परमेश्वर इतने सारे सत्य व्यक्त करता है, और लोग इन्हें जितना ज्यादा पढ़ते हैं उतना ही ज्यादा वे समझ पाते हैं; वे इन्हें जितना ज्यादा पढ़ते हैं उतना ही ज्यादा उन्हें इसके सत्य होने का एहसास होता है; और वे जितना ज्यादा इन्हें अनुभव करते हैं और व्यवहार में लाते हैं, उतना ही उनका दिल उजला होता जाता है, और जब यह होता है तो परमेश्वर के साथ उनके संबंध भी सामान्य होने लगते हैं। क्या सचमुच इसे किसी शोध की जरूरत है? इसकी जितनी चाहे शोध करो, पर तुम शोध के माध्यम से यह नहीं जान पाओगे कि सत्य क्या है। सत्य की समझ अनुभव पर निर्भर करती है। जब कोई ज्यादा अनुभव प्राप्त कर लेता है, तो वे स्वाभाविक तौर पर यह समझने लगते हैं कि सत्य क्या है, और सत्य को समझने के बाद, वे स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि परमेश्वर के कार्य का ज्ञान प्राप्त करना सत्य को समझने पर निर्भर करता है। कुछ बेतुके लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और कभी भी इसे व्यवहार में नहीं लाते, और परमेश्वर में विश्वास करने के समय से ही वे उसका अध्ययन करते रहे हैं। वे चाहे कितना भी अध्ययन कर लें, पर क्या इस तरीके से वे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं? यह असंभव है। धार्मिक दुनिया हजार वर्ष से परमेश्वर का अध्ययन कर रही है, पर कोई इकलौता मनुष्य भी उसका सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया है। वे बरसों परमेश्वर में विश्वास करते रहते हैं, और आखिर में बस यही कहते हैं, “मैं परमेश्वर के अस्तित्व में गहरा विश्वास करता हूं।” क्या ये किसी ऐसे व्यक्ति के शब्द हैं जो परमेश्वर को जानता है? क्या तुम अब भी परमेश्वर का अध्ययन करते हो? तुम कितने वर्षों से उसका अध्ययन कर रहे हो? क्या तुम्हारे अध्ययन का कोई परिणाम निकला है? मैं तुमसे कहता हूं : देहधारी परमेश्वर कभी भी यह शोध नहीं करता कि वह कौन है, और न ही उसमें कोई दूसरी वाणी होती है, बस एक ही होती है। मनुष्य इसे जिस तरह देखता है, देहधारी परमेश्वर जो भी सोचता, जीता और करता है, वह एक व्यक्ति का विचार और कृत्य होता है, और वह भी खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो यह सब कर और सोच रहा है। यहां क्या हो रहा है? उसके भीतर सिर्फ एक जीवन है, कोई दूसरा जीवन नहीं है। तो इस जीवन का सार क्या है? शायद इसे कोई बाहर से देखकर न जान पाए, और यही सोचे कि यह बस एक साधारण व्यक्ति का जीवन है, लेकिन अगर इसे परमेश्वर के मिशन और उसके कार्य के सार की रोशनी में देखा जाए तो ऐसा क्यों है कि उस पर परमेश्वर की छाया है? यह समझने योग्य बात है। यह हाड़-मांस की देह दरअसल कौन है, जिसमें परमेश्वर की छाया और परमेश्वर के सार का प्रवाह है, यह खोज और गहरी छानबीन का विषय है। तो क्या यह सामान्य बात है कि यह हाड़-मांस की देह यह नहीं जानती कि वह इस तरह का व्यक्ति क्यों है, या अपने सार में वह कौन है? यह बिल्कुल सामान्य है, यह अलौकिक नहीं है। कुछ लोग कहेंगे, “यह अलौकिक नहीं है? यह परमेश्वर की वाणी जैसा नहीं लगता। परमेश्वर को तो अलौकिक होना ही चाहिए!” यह “होना ही चाहिए” कहां से आता है? यह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से आता है। दरअसल, परमेश्वर का वह पहला कृत्य, पहला व्यवहार क्या है जिसके बारे में मनुष्य जानता है और जिसका मनुष्य पर प्रभाव है? शुरू में, परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों की रचना की, और छठे दिन उसने कुछ मिट्टी लेकर इससे एक मनुष्य बनाया और उसका नाम आदम रखा। फिर उसने आदम को सुला दिया और उसके शरीर से एक पसली लेकर एक दूसरे मनुष्य, हव्वा, की रचना की। अगर परमेश्वर के इस पूरे कृत्य और व्यवहार के अनुक्रम को देखा जाए तो क्या इसमें एक विशिष्ट चित्रात्मकता नहीं है? हर कृत्य कितना असली लगता है, जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के परमेश्वर से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता। यह मनुष्य की अलौकिक होने की कल्पनाओं से कहीं आगे है। तो अब, जब लोग देहधारी परमेश्वर के संपर्क में आते हैं, और उसके द्वारा बोले जाने वाले वचन सुनते हैं, और उसके द्वारा किया गया समूचा कार्य देखते हैं, और फिर शुरुआत में मनुष्य की रचना करते समय परमेश्वर द्वारा किए गए वास्तविक कृत्यों और व्यवहार से इनकी तुलना करते हैं, तो क्या कोई विसंगति दिखाई देती है? क्या कोई अंतर दिखता है? मुमकिन है कुछ अंतर हो, क्योंकि तुमने उन कृत्यों को कभी देखा नहीं है। खास तौर पर, अगर शुरुआत में परमेश्वर के कथनों के अंदाज और स्रोत की तुलना परमेश्वर द्वारा आज बोले जाने वाले वचनों के अंदाज और स्रोत से की जाए, तो कोई आधारभूत अंतर दिखाई नहीं देता। मैं “आधारभूत” क्यों कह रहा हूं? “आधारभूत” शब्द का अपना एक अर्थ है। यहां “आधारभूत” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि मनुष्य के दिल में अभी भी एक अलौकिक तत्व जैसी कोई चीज है, जिसे वह परमेश्वर द्वारा किए गए वास्तविक कार्यों और उसके बोलने के अंदाज से जोड़कर देखता है, जबकि परमेश्वर के बोलने का अंदाज, तरीका और लहजा, जिसे मनुष्य देखता-सुनता है, बिल्कुल वास्तविक है और जिसे किसी अलौकिक तत्व या मनुष्य की कल्पनाओं से जोड़े बिना आसानी से समझा जा सकता है। इन दोनों चीजों में काफी दूरी है, और यह दूरी अंतत: और आधारभूत रूप से तुम लोगों के नजरिए के अनुसार है और उससे बिल्कुल मिलती-जुलती है। यहीं से यह “आधारभूत” शब्द आता है।

क्या यह जरूरी है कि तुम लोगों से आज ये सबसे सच्चे और हृदयस्पर्शी वचन कहे जाएं? (बिल्कुल है।) ऐसी चीजों की बात क्यों की जाए? बहुत-से लोग निरंतर यह महसूस करते रहे हैं कि देहधारी परमेश्वर की ये बातें काफी रहस्यमय और अबूझ हैं, और वे हमेशा इनका अध्ययन करना चाहते हैं। इन चीजों का अध्ययन परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों में हस्तक्षेप करता है। अगर तुम हमेशा परमेश्वर का अध्ययन करते रहते हो तो क्या तब भी तुम सत्य में प्रवेश कर सकते हो? अगर तुम हमेशा परमेश्वर का अध्ययन करते रहते हो, तो तुम उसके वचनों को सत्य नहीं मानोगे, और उसके साथ तुम्हारे संबंध विकृत, भटकावपूर्ण और असामान्य हो जाएंगे। तो तुम अपने संबंधों को ज्यादा-से-ज्यादा सामान्य कैसे बना सकते हो? उसकी हाड़-मांस की देह समेत, उसके सभी कृत्यों को सामान्य मानकर, और थोड़ा-थोड़ा करके अपने दिल में उसे स्वीकार कर। उसे उसके हर पहलू में स्वीकार करो—उसके बोलने का अंदाज और लहजा, और उसका स्वरूप, और वह जैसा दिखता है। तुम्हें यह स्वीकारना होगा। अगर तुम ऐसा नहीं करते बल्कि हमेशा उसका अध्ययन करते रहते हो, इस चीज का और उस चीज का अध्ययन करते हो, तो आखिर में, जिसके साथ सबसे बुरा होगा और जिसे नुकसान उठाना पड़ेगा, वह तुम होओगे। परमेश्वर द्वारा सामने लाया गया यह तथ्य नहीं बदलेगा। परमेश्वर ने एक नए युग का सूत्रपात किया है, और वह इस समूचे युग को प्रभावित करेगा और इन सबकी अगुवाई करेगा। यह तथ्य नहीं बदलेगा। तो फिर, इस मामले में किसी व्यक्ति को क्या चुनाव करना चाहिए? उसे परमेश्वर का अध्ययन नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे स्वीकारना और जानना चाहिए, और परमेश्वर के साथ अपने संबंध निरंतर सुधारने चाहिए, और हर समय खुद को यह याद दिलाते रहना चाहिए : “मैं एक सृजित प्राणी हूं, और मैं भ्रष्ट मानवता से संबंध रखता हूं; परमेश्वर बाहरी तौर पर एक साधारण व्यक्ति है, पर उसके भीतर परमेश्वर का सार है। यह तथ्य कि वह परमेश्वर है, अखंडनीय है; वह बाहर से जो कुछ भी करता है, जो कुछ भी कहता है, और वह जिस तरह से भी कुछ करता है, मेरे अध्ययन के दायरे में नहीं है। मेरे पास इसी तरह की तर्कशीलता होनी चाहिए, और मुझे यही स्थान ग्रहण करना चाहिए।” मैंने आज तुम लोगों के साथ थोड़ी अपने बारे में बात की है, ताकि तुम लोगों में इन चीजों को लेकर समझ और स्पष्टता पैदा हो सके, और तुम इन्हें लेकर हमेशा धुंधलके में न रहो, मानो मैं कुछ छिपा रहा हूं, और मैं नहीं चाहता कि तुम लोग उसे जानो। सच्चाई यह है कि मेरे पास कोई ऐसा रहस्य नहीं है जो मैं तुम लोगों को नहीं बता सकता। मैं यही सोचता हूं, और यही मैं करने जा रहा हूं। इसमें कुछ भी अमूर्त नहीं है, न ही कुछ रहस्यमय है। तुम लोग मेरे जिस पक्ष को देखते हो, वह ऐसा ही है, और मेरा जो पक्ष परदे के पीछे है और जिसे तुम लोग देख नहीं सकते, वह भी ऐसा ही है। यह सचमुच ऐसा ही है। फिर भी एक चीज है जो तुम लोगों को समझनी चाहिए; तुम अपने सामने जो भी तथ्य और बाहरी परिघटना देखते हो, अगर तुम सत्य नहीं समझते तो तुम उन घटनाओं को सत्य और तथ्य समझ बैठोगे; और अगर तुम सत्य समझते हो, तो तुम उन घटनाओं और बाहरी चीजों के माध्यम से सार और सत्य को समझ सकोगे, और परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध निरंतर सामान्य होते जाएंगे। तुम्हारे लिए, परमेश्वर की पहचान, दर्जा और सार कभी नहीं बदलेगा। वह सृष्टिकर्ता है, वह जो सभी पर संप्रभुता रखता है। यह निश्चित है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और अगर तुम हमेशा परमेश्वर के दैहिक रूप का अध्ययन करते रहोगे, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। परमेश्वर के साथ तुम्हारा कोई संबंध नहीं रह जाएगा, मतलब यह कि एक सृजित प्राणी के रूप में सृष्टिकर्ता के साथ तुम्हारा कोई संबंध नहीं रह जाएगा। इसके परिणामों की चर्चा करने की जरूरत नहीं है। वे बहुत बुरे होते हैं। परिणाम के रूप में कुछ भी घट सकता है—कुछ भी हो सकता है। इस संबंध के बिना हमारे बीच कोई कहने लायक संपर्क नहीं रह जाएगा। क्या यह सीधे-सीधे दो टूक बताना हुआ? अगर हमें अपने नजदीकी संबंध जारी रखने हैं, अपने संबंध बनाए रखने हैं, तो फिर मनुष्य का दर्जा क्या होना चाहिए? (एक सृजित प्राणी का।) हमेशा के लिए एक सृजित प्राणी का। हमारे मेलजोल का यही एक तरीका है, एक सच्चे संबंध के अस्तित्व का एकमात्र तरीका। अगर तुम यह स्वीकार नहीं करते कि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो हमारे बीच कोई संबंध नहीं हो सकता। मैं तुम्हारे साथ कोई वास्ता नहीं रखूंगा, न ही मैं यह जानना चाहूंगा कि तुम कौन हो। हमारे बीच कोई बंधन नहीं होगा। मैं तुम्हारे साथ कोई दखलंदाजी नहीं करूंगा। तुम जैसे जीना चाहते हो, जियो—मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हें मेरा अध्ययन करने या मेरी निंदा करने की जरूरत नहीं है। मेरी पहचान, दर्जा, और वह सब जो मैं करता हूं, ऐसी चीजें नहीं हैं कि तुम जैसा साधारण व्यक्ति उनकी निंदा कर सके या उनके बारे में अपने निष्कर्ष निकाल सके। इन सबको जांचने-परखने का काम मनुष्य का नहीं, परमेश्वर का है। यह साफ और सीधे-सीधे कहना हो गया, है न? क्या यह सत्य नहीं है? (सत्य है।) तो वह कौनसा सत्य है जो लोगों को यहां समझना चाहिए? किस आधार पर, किस नींव पर कोई व्यक्ति परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बना सकता है? उन्हें पता होना चाहिए कि वे सृजित प्राणी हैं। अगर तुम यह स्वीकारते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो, और तुम्हारे पास यह नींव है, तो जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ोगे, बहुत-से ऐसे मामले आएंगे जहां तुम भटकने से बच जाओगे। पर अगर तुम हमेशा परमेश्वर का अध्ययन करना चाहते हो, और परमेश्वर के साथ अपने संबंध को एक सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से नहीं देखते हो, तो परिणाम इतने कष्टदायक और भयानक होंगे कि उनकी कल्पना नहीं की जा सकती। तुम यह बात समझते हो न?

कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं यह नहीं मानता कि मैं एक सृजित प्राणी हूं तो क्या हमारा एक-दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं है? क्या हम एक-दूसरे को नहीं जानते हैं? उस स्तर के संबंधों के बिना भी हम दोस्त, सखा, संबंधी हो सकते हैं—ठीक है?” नहीं। मेरा कोई “सखा” नहीं है, न ही मेरा कोई दोस्त है, और निश्चित रूप से मेरे ऐसे कोई संबंधी नहीं हैं। कोई पूछता है, “तो फिर, तुम्हारे सच्चे संबंधी कौन हैं? क्या तुम्हारे परिवार के लोग?” नहीं। मेरा कोई संबंधी नहीं है, न ही मेरे कोई भाई-बंधु हैं। मेरे कोई सहायक या सेवक भी नहीं हैं। सृष्टिकर्ता के लिए, सिर्फ वही जीव उसके संबंधी हैं जो सृष्टि के प्राणी हैं। सभी सृजित मनुष्यों के लिए, सभी सृजित प्राणियों के लिए, परमेश्वर की एक ही पहचान है—सृष्टि का प्रभु। बस यही एकमात्र संबंध है। अगर कोई मुझसे पूछता, “हमारे बहुत अच्छे संबंध हैं। क्या हम दोस्त नहीं हो सकते? क्या हमारे बीच मित्रता नहीं हो सकती?” नहीं, मैं तुम्हें नहीं जानता; मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो। मैं तुम्हारे साथ दोस्ती क्यों करूंगा? हमारे बीच ऐसा कोई संबंध नहीं हो सकता। वे कहते हैं, “तुम यहां कुछ ज्यादा ही निश्चितता के साथ बोल रहे हो, नहीं क्या? क्या तुम कुछ ज्यादा ही निष्ठुर नहीं हो रहे हो?” यह उतना ही निश्चित है। मुझे ऐसे संबंधों की कोई जरूरत नहीं है। मैं जो भी करता या कहता हूं, वह पोषण के व्यावहारिक लक्ष्यों के प्रावधान के लिए होता है—और ये लक्ष्य कौन हैं? यह सृजित मानवजाति है, वह मानवजाति जो सत्य से प्रेम करती है; ये वे लक्ष्य हैं जिन्हें परमेश्वर बचा लेगा, और सिर्फ यही एकमात्र संबंध है। इस संबंध के अलावा, और कोई भी ऐसा संबंध नहीं है जिसे मैं पहचानता हूं। क्या तुम समझ रहे हो? (हां।) कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम मेलजोल के लिए एक कठोर व्यक्ति हो!” ऐसा नहीं है कि मेरे साथ मेलजोल रखना मुश्किल है, पर इस तरह के संबंध का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए किसी को भी ऐसा नहीं कहना चाहिए कि “मैं बरसों से तुम्हारे संपर्क में हूं। क्या हम लोग दोस्त नहीं हैं?” अगर तुम यह स्वीकारते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो हमारे बीच एक घनिष्टतम और सर्वोत्तम रिश्ता है, सबसे वैध और सबसे पवित्र रिश्ता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अनेक वर्षों से तुम्हारी सेवा करता रहा हूं, क्या हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह नहीं जानते? क्या मैं तुम्हारा विश्वासपात्र, तुम्हारा घनिष्ठ मित्र नहीं हूं?” नहीं। मेरा कोई घनिष्ठ मित्र नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “तुम हमेशा मुझे बताते हो कि तुम क्या पहनना पसंद करते हो, और तुम्हें कौनसे लोग अच्छे लगते हैं। मैं भी तुम्हें यही सब बताता हूं। कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसकी हम चर्चा नहीं करते, तो क्या हम दोस्त नहीं हैं?” नहीं। मैं लोगों के साथ दोस्ती नहीं करता। मेरा कोई दोस्त नहीं है। अगर तुम एक सृजित प्राणी हो, तो हमारे पास चर्चा करने के लिए कुछ है; हम बातचीत कर सकते हैं, एक संबंध स्थापित कर सकते हैं, और एक-दूसरे के साथी बनकर चल सकते हैं। पर हमारे बीच यह सौहार्द विकसित हो जाने के बाद क्या हम दोस्त भी हो सकते हैं? नहीं। सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता के बीच का रिश्ता कभी नहीं बदलता। कुछ लोगों ने मुझे पनाह दी है और मेरा बचाव किया है, इसलिए उन्हें लगता है कि उनमें पात्रता है, कि वे मुझे बचाने वाले लोग हैं। पर इसे इस तरह नहीं देखना चाहिए; सब कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित है। और अगर वे पूछते हैं, “क्या तुम उसी हाथ को काट नहीं रहे हो जो तुम्हें खिलाता है?” तो इस वक्तव्य की कैसे व्याख्या की जाए? अगर कुछ लोग किसी चीज को साफ-साफ नहीं देख सकते, तो वे मनमाने ढंग से इस पर अपने नियम लागू नहीं कर सकते। ऐसा करने से वे बड़ी आसानी से न्यायकर्ता बन बैठते हैं। अगर तुम जानते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो तो तुम्हें इस मामले को किस तरह देखना चाहिए? अगर तुम इस रिश्ते को हथियार की तरह लहराकर मुझे मजबूर करना चाहो, या मेरे पास आना या मेरी वाहवाही करके मेरा कृपापात्र बनना चाहो, तो मैं तुम्हें बता दूं कि तुम गलतफहमी के शिकार हो। ऐसा करने की कोशिश न करना, और अगर तुम मेरी खुशामद करके मेरा कृपापात्र बनना चाहोगे तो मैं तुमसे ऊब जाऊंगा। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या तुम इसे झेल नहीं पाते?” नहीं। लोगों का मुझे लुभाने की कोशिश करना गलत है—यह एक सामान्य संबंध नहीं हुआ। कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं युवा और आकर्षक हूं और अच्छा बोल लेता हूं। क्या परमेश्वर मुझ जैसे लोगों को पसंद नहीं करता?” तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। अगर तुम्हारे ऐसे विचार हैं तो तुम्हें इनका जवाब परमेश्वर के वचनों में मिल सकता है। मुझे कभी भी खीज जाने पर मजबूर न करो। क्या यह साफ-साफ और सीधा बोलना हुआ? इससे स्पष्ट और क्या हो सकता है? तो तुम लोगों को इसे कैसे ग्रहण करना चाहिए? (मनुष्य और परमेश्वर के बीच एकमात्र संबंध सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का संबंध है।) बिल्कुल सही। मनुष्य को अपना सही स्थान पहचानना चाहिए। कभी भी, अपनी शैक्षणिक योग्यताओं की शेखी न बघारो, न ही अपनी वरिष्ठता का दम भरो या न ही छोटी-छोटी चालाकी भरी चालें चलो, और कभी भी अपनी पहचान या परमेश्वर के साथ अपने संबंध बदलने के प्रयास में किसी फलसफे का उपयोग न करो। किसी भी परिस्थिति में ऐसा कभी न करना, वरना बहुत बुरी फटकार पड़ेगी। ऐसे निरर्थक संघर्ष में उलझो ही नहीं। इसका कोई लाभ नहीं होगा! लोग हमेशा अपने पुराने तौर-तरीकों पर वापस क्यों लौट आते हैं? आज की बातचीत के बाद, तुममें से ज्यादातर अब इस मामले में कोई गलती नहीं करेंगे, या अब भी गलती करोगे? (नहीं।) चलो मेरी चिंता कुछ कम हुई। मैं इन चीजों पर बात करते रहना नहीं चाहता, मुझे इनसे बहुत तकलीफ पहुंचती है! एक समझदार व्यक्ति के लिए, इन चीजों को समझना बहुत आसान है। परमेश्वर के बहुत सारे वचनों में इन चीजों का जिक्र है, और जिन लोगों में ग्रहण करने की क्षमता है, उनके लिए इन्हें समझना मुश्किल नहीं होगा। जो लोग अनेक वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं और थोड़ा सत्य समझते हैं, उन्हें भी इन चीजों को समझने में कोई समस्या नहीं आएगी, क्योंकि लोगों ने परमेश्वर से बहुत कुछ पाया है और वे उसके कार्य को पूरी तरह जानते हैं।

23 जनवरी, 2019

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