सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (5)

अपनी पिछली सभा में हमने किस पर संगति की थी? (परमेश्वर ने पहले शाओशाओ और शाओजी की कहानी पर संगति की। उसके बाद तुमने इस पर संगति की कि वे व्यवहार, जिन्हें मनुष्य अच्छा मानता है, क्या दर्शाते हैं, तुमने उन कुछ अपेक्षाओं के बारे में भी बात की जो परमेश्वर को मनुष्य से हैं, और सत्य के उन सिद्धांतों पर विशेष जोर दिया, जो संतान के कर्तव्य के संबंध में हमें समझने चाहिए।) पिछली बार, हमने सत्य के अनुसरण से संबंधित एक ऐसे विषय पर संगति की थी, जो मनुष्य की धारणाओं के लिए सबसे उपयुक्त था। यह एक नकारात्मक विषय भी था, अर्थात् ऐसे व्यवहार जिन्हें मनुष्य की धारणाओं के अनुसार सही और अच्छा माना जाता है। हमने इस विषय में कुछ उदाहरण दिए, और फिर हमने उन माँगों के कुछ और उदाहरण दिए, जो परमेश्वर ने मनुष्य का व्यवहार विनियमित करने के लिए की हैं। कमोबेश यही वे विशिष्ट चीजें थीं, जिन पर हमने संगति की। इस संगति में बहुत सारे बड़े खंड नहीं थे, लेकिन हमने लोगों के ज्ञान, अभ्यास और सत्य की उनकी समझ के बारे में कई विवरणों पर चर्चा की। आज हम इन्हीं चीजों पर एक संक्षिप्त नजर डालेंगे। आम तौर पर, मनुष्य किन्हें अच्छे व्यवहार मानता है? क्या हमारे पास इसका कोई निष्कर्ष या मोटी परिभाषा नहीं होनी चाहिए? क्या तुम लोग किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो? क्या तुमने सभाओं में इन चीजों पर संगति की है? (की है। परमेश्वर द्वारा कई बार हमारे साथ संगति करने के बाद, हम यह देख पाए कि अच्छे व्यवहार, जिन्हें मनुष्य सही मानता है, सिर्फ एक प्रकार के व्यवहार हैं। वे सत्य नहीं दर्शाते, वे सिर्फ लोगों के खुद को छिपाने के तरीके हैं।) मनुष्य द्वारा बाहरी व्यवहारों के बारे में सारांशित कुछ कथनों के आधार पर—वास्तव में, इन व्यवहारों का सार क्या है? क्या मनुष्य के सार और उसके बाहरी अच्छे व्यवहारों के बीच कोई संबंध है? ये बाहरी अच्छे व्यवहार लोगों को बहुत सभ्य और प्रतिष्ठित दिखाते हैं; ऐसे व्यवहार करने वाले लोगों का दूसरे लोग सम्मान और प्रशंसा करते हैं, वे उच्च माने जाते हैं और अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं। क्या यह अच्छा प्रभाव मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सार के अनुरूप है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो, इस दृष्टिकोण से, मनुष्य के अच्छे व्यवहारों की प्रकृति क्या है? क्या वे सिर्फ सतही स्तर के दृष्टिकोण और पैकेजिंग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या ये सतही स्तर के दृष्टिकोण और पैकेजिंग सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्तियाँ हैं? (नहीं, वे ये नहीं हैं।) यही कारण है कि जिन व्यवहारों को लोग अपनी धारणाओं के भीतर सही और अच्छा मानते हैं, वे वास्तव में सिर्फ मनुष्य के सतही स्तर के दृष्टिकोण और पैकेजिंग हैं। यही उन व्यवहारों की प्रकृति है। वे सामान्य मानवता को जीना नहीं हैं, न ही वे सामान्य मानवता के उद्गार हैं; वे सिर्फ बाहरी दृष्टिकोण हैं। ये दृष्टिकोण मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों पर पर्दा डालते हैं, ये मनुष्य की शैतानी प्रकृति और सार पर पर्दा डालते हैं, और ये दूसरे लोगों की आँखों में धूल झोंकते हैं। लोग दूसरों की कृपा, सम्मान और आदर पाने के लिए इन अच्छे व्यवहारों का अभ्यास करते हैं—ऐसे व्यवहार लोगों को एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करने या एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से बातचीत करने में मदद नहीं कर सकते, इंसानी समानता को जीने की तो बात ही छोड़ दो। ये अच्छे व्यवहार वे दृष्टिकोण नहीं हैं जो हार्दिक ईमानदारी से उत्पन्न होते हैं, न ही ये सामान्य मानवता के स्वाभाविक उद्गार हैं। ये किसी भी तरह से मनुष्य का सार नहीं दर्शाते; ये विशुद्ध रूप से वह स्वाँग और मुखौटा हैं, जिन्हें मनुष्य रचता और लगाता है—ये भ्रष्ट मनुष्य के गहने हैं। ये मनुष्य का दुष्ट सार छिपा देते हैं। यही मनुष्य के अच्छे व्यवहारों का सार है, यही उनके पीछे का सत्य है। तो, उन व्यवहारों का सार क्या है, जिनकी परमेश्वर मनुष्य से माँग करता है? पिछली दो बार की संगति में हमने कुछ ऐसे दृष्टिकोणों का, जिनकी परमेश्वर मनुष्य के व्यवहार के संबंध में माँग करता है, और उन कुछ चीजों का, जिन्हें जीने की वह लोगों से अपेक्षा करता है, उल्लेख किया। उनमें क्या शामिल था? (लोग धूम्रपान नहीं करेंगे, शराब नहीं पीएँगे और दूसरों के साथ मारपीट या उनका अपमान नहीं करेंगे। वे अपने माता-पिता का सम्मान करेंगे, और संत जैसी शालीनता रखेंगे। वे मूर्ति-पूजा नहीं करेंगे, व्यभिचार, चोरी, दूसरों की संपत्ति का गबन नहीं करेंगे, या झूठी नहीं गवाही देंगे, इत्यादि।) इन माँगों का सार क्या है? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर किस आधार पर ये माँगें करता है? ये किस मूलभूत स्थिति पर आधारित हैं? क्या ये माँगें इस संदर्भ के भीतर और इस आधार पर नहीं रखी गईं कि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है और मनुष्य की प्रकृति पापपूर्ण है? और क्या ये माँगें सामान्य मानवता के दायरे में नहीं हैं? क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं? (हाँ, हैं।) ये माँगें पूरी तरह से इस मूलभूत स्थिति के आधार पर रखी जाती हैं कि सामान्य मानवता वाला व्यक्ति इन्हें प्राप्त कर सकता है। तो, इस संबंध में, उन व्यवहारों का सार क्या है, जिनकी परमेश्वर मनुष्य से माँग करता है? क्या हम कह सकते हैं कि यह सामान्य मानवता द्वारा जी गई सच्ची समानता और साथ ही वह न्यूनतम चीज है, जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए? हमने जो उदाहरण दिए हैं : कि लोगों में संत जैसी शालीनता होनी चाहिए, और वे संयम रखेंगे और ऐयाशी नहीं करेंगे, दूसरों के साथ मारपीट या उनका अपमान नहीं करेंगे, या धूम्रपान नहीं करेंगे, शराब नहीं पिएँगे, व्यभिचार, चोरी या मूर्ति-पूजा नहीं करेंगे, और वे अपने माता-पिता का सम्मान करेंगे, और अनुग्रह के युग में, लोगों को धैर्यवान, सहिष्णु, इत्यादि बनने के लिए भी कहा गया था—क्या ये माँगें जो परमेश्वर ने रखी हैं, सिर्फ एक तरह के दृष्टिकोण तक सीमित हैं? नहीं, परमेश्वर ने मानदंड निर्धारित किया है कि कैसे लोगों को सामान्य मानवता को जीना चाहिए। “मानदंड” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक। एक व्यक्ति के रूप में, सामान्य मानवता से युक्त होने के लिए तुम्हें किस चीज को जीने की आवश्यकता है? तुम्हें वे अपेक्षाएँ पूरी करनी चाहिए, जिन्हें परमेश्वर ने रखा है। हमने उन माँगों के सिर्फ एक हिस्से को सूचीबद्ध किया है, जो परमेश्वर ने मनुष्य से की हैं। दूसरों के साथ मारपीट या उनका अपमान न करने, धूम्रपान न करने, शराब न पीने, व्यभिचार न करने, या चोरी न करने, इत्यादि जैसी माँगें ऐसी चीजें हैं, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं। हालाँकि ये चीजें सत्य से कमतर हैं और सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचतीं, फिर भी ये इस बात का मूल्यांकन करने के लिए कुछ बुनियादी मानक हैं कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं।

उन व्यवहारों का सार क्या था, जिनकी परमेश्वर मनुष्य से माँग करता है और जिन्हें हमने अभी सारांशित किया है? सामान्य मानवता को जीना। यदि व्यक्ति परमेश्वर की माँगों के अनुसार जी सकता या व्यवहार कर सकता है, तो परमेश्वर की नजरों में उस व्यक्ति में सामान्य मानवता है। सामान्य मानवता होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति पहले से ही वह व्यवहारिक मापदंड रखता है, जिसकी परमेश्वर माँग करता है, और अपने व्यवहार, दृष्टिकोणों, और जिसे वह जीता है उसके संदर्भ में वह सामान्य मानवता का मानक पूरा करता है, क्योंकि वह उस तरह से सामान्य मानवता को उत्सर्जित करता और जीता हैं, जिस तरह से परमेश्वर माँग करता है। क्या इसे ऐसे कहा जा सकता है? (हाँ।) चाहे व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता हो या नहीं, चाहे उसमें सच्ची आस्था हो या नहीं, अगर वह दूसरे लोगों के यहाँ चोरी करता है, उनके साथ छल करता है या उनका फायदा उठाता है; या अगर वह अक्सर गंदी भाषा का प्रयोग करता है; या अगर वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, छवि या अन्य हित दाँव पर लगने पर बेहिचक दूसरे लोगों को मारता और चोट पहुँचाता है; या अगर वह व्यभिचार का पाप करने की हद तक भी चला जाता है—अगर उसके मानवता को जीने के तरीके में अभी भी ये समस्याएँ हैं, खासकर उसके परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद, तो क्या उसकी मानवता सामान्य है? (नहीं, वह सामान्य नहीं है।) चाहे तुम अविश्वासियों का मूल्यांकन कर रहे हो या विश्वासियों का, व्यवहार के ये मानक, जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं, व्यक्ति की मानवता का मूल्यांकन करने के सिर्फ निम्नतम और न्यूनतम मानक हैं। कुछ लोग हैं, जो विश्वासी बनने के बाद खुद को थोड़ा त्यागते और खपाते हैं, और थोड़ी कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, लेकिन वे व्यावहारिक मानक कभी पूरे नहीं करते जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं। स्पष्ट है कि इस तरह के लोग सामान्य मानवता को नहीं जीते—वे सबसे बुनियादी मानवीय समानता तक को नहीं जीते। व्यक्ति के सामान्य मानवता को न जीने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उसमें सामान्य मानवता नहीं है। क्योंकि वह उन अपेक्षाओं के मानक भी पूरे नहीं कर सकता, जो मानवता को जीने के संदर्भ में परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के लिए रखे हैं, उनकी मानवता बहुत खराब है, और उन्हें सिर्फ एक खराब मूल्यांकन ही दिया जा सकता है। व्यक्ति की मानवता के मूल्यांकन के लिए न्यूनतम मानक यह देखना है कि क्या उसका व्यवहार उन अपेक्षाओं के मानक पूरे करता है, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के लिए निर्धारित किया है। देखो कि क्या परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वह खुद को संयमित करता है; क्या उसकी कथनी और करनी में संत जैसी शालीनता है; दूसरों के साथ बातचीत करने पर वह उनका लाभ उठाता है या नहीं; क्या वह कलीसिया में अपने परिवार के सदस्यों और भाई-बहनों के साथ प्रेम, सहनशीलता और धैर्य से पेश आता है; क्या वह अपने माता-पिता के प्रति अपने उत्तरदायित्व भरसक पूरे करता है; क्या वह अब भी मूर्ति-पूजा करता है जब कोई नहीं देख रहा होता, इत्यादि। हम व्यक्ति की मानवता का मूल्यांकन करने के लिए इन चीजों का उपयोग कर सकते हैं। व्यक्ति सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है या नहीं, इसे एक तरफ रखकर, पहले मूल्यांकन करो कि क्या उसमें सामान्य मानवता है—क्या उसके शब्द और व्यवहार उन व्यवहारगत मानकों को पूरा करते हैं, जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं। अगर वे उन व्यवहारगत मानकों को पूरा नहीं करते, तो तुम उसकी मानवता का मूल्यांकन, जिसे वह जीता है उसकी मात्रा के आधार पर, इस क्रम से कर सकते हो : औसत, खराब, बहुत खराब, या भयानक—यह सटीक है। अगर कोई विश्वासी सुपरमार्केट या सार्वजनिक स्थानों पर जाकर दुकानों से चोरी करता है और लोगों की जेब काटता है, अगर वह चोरी करने का आदी है, तो उसमें किस तरह की मानवता है? (बुरी मानवता।) कुछ लोग हैं, जो किसी बात से गुस्सा होने पर दूसरों को गाली देते हैं, यहाँ तक कि उन्हें मारते भी हैं। उनका अपमान किसी अन्य व्यक्ति के सार का उचित आकलन नहीं होता, बल्कि वे मनमाने आरोप होते हैं और गंदी भाषा से भरे होते हैं। ऐसे लोग अपनी नफरत निकालने के लिए जो चाहे कह देते हैं, कुछ बाकी नहीं रखते। कुछ लोग, खास तौर से, अपने माता-पिता से, अपने भाई-बहनों से, अपने अविश्वासी रिश्तेदारों से, यहाँ तक कि अपने अविश्वासी मित्रों से भी ऐसी बातें कह देते हैं, जिन्हें तुम सुनना नहीं चाहोगे, कि कहीं वे तुम्हारे कान दूषित कर दें। इस तरह के व्यक्ति में किस तरह की मानवता होती है? (बुरी मानवता।) तुम यह भी कह सकते हो कि उसमें मानवता नहीं है। फिर कुछ ऐसे भी हैं, जिनकी निगाहें हमेशा पैसे पर टिकी रहती हैं। जब ये लोग किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसके पास पैसा होता है, जो अच्छा खाता है और अच्छे कपड़े पहनता है, और जिसका जीवन समृद्ध है, तो वे हमेशा उसका फायदा उठाना चाहते हैं। वे हमेशा उससे अप्रत्यक्ष रूप से चीजें माँगते रहते हैं, या उसका खाना खाते और उसकी चीजें इस्तेमाल करते रहते हैं, या उससे चीजें उधार लेते रहते हैं पर लौटाते नहीं। हालाँकि उन्होंने किसी बड़े तरीके से दूसरों का लाभ नहीं उठाया होता, और उनके कार्य गबन या रिश्वतखोरी की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन उनके ये चोरी के व्यवहार वास्तव में नीच और घृणित हैं, और वे दूसरों के तिरस्कार के भागी हैं। अधिक गंभीरता से, ऐसे लोग हैं जो विपरीत लिंग की सुंदरता पर फिदा रहते हैं। वे अक्सर विपरीत लिंग पर नजरें गड़ाए रहते हैं, और व्यभिचार तक करते हैं, पुरुषों और महिलाओं के बीच पाप करते हैं। इनमें से कुछ लोग अविवाहित होते हैं, जबकि अन्य के परिवार होते हैं—कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बहुत अधिक उम्र के होने के बावजूद व्यभिचार में संलग्न रहते हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि कुछ लोग समान लिंग के लोगों को फुसलाकर उनके साथ शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करते हैं। यह वास्तव में घृणित है। इससे भी ज्यादा अविश्वसनीय बात यह है कि ऐसे लोग भी हैं, जो वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन यह नहीं मानते कि सत्य अन्य सभी से श्रेष्ठ है या यह कि परमेश्वर के वचन सब-कुछ करते हैं। ये लोग अक्सर अपना भाग्य जानने के लिए गुप्त रूप से ज्योतिषियों के पास जाते हैं, अगरबत्ती जलाकर बुद्ध या अन्य मूर्तियों की पूजा करते हैं, और कुछ तो अन्य लोगों को शाप देने के लिए जादुई गुड़ियों का उपयोग तक करते हैं, या मृतात्माओं से बात करने के लिए बैठकें तक बुलाते हैं, इत्यादि। इस तरह के दुष्ट जादू करना और भी गंभीर मुद्दा है; ऐसे लोग गैरविश्वासी हैं, और वे अविश्वासियों से अलग नहीं हैं। भले ही परिस्थितियाँ मामूली हों या गंभीर, जब व्यक्ति में ये अभिव्यक्तियाँ होती हैं, तो हम कह सकते हैं कि वे मानवता को इस तरह से जी रहे हैं जो असामान्य और दूषित है, कि उनके कुछ व्यवहार गलत या बेतुके तक हैं—कि वे वास्तव में पापपूर्ण व्यवहार हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद कुछ लोग बहुत उत्तेजक कपड़े पहनते हैं, वे सेक्सी दिखने को अविश्वासियों जितना ही महत्व देते हैं, और वे सांसारिक चलन के पीछे भागते हैं। वे संतों के समान बिल्कुल नहीं हैं। कुछ लोग सभाओं में तो ज्यादा सुरुचिपूर्ण कपड़े पहनकर जाते हैं, लेकिन घर आकर अविश्वासियों जैसे फैशनेबल कपड़े पहन लेते हैं। अपने पहनावे से वे विश्वासियों जैसे नहीं दिखते; उनमें और अविश्वासियों में कोई अंतर नहीं है। वे खीसें निपोरकर चीजों का मजाक उड़ाते हैं; वे अत्यंत आत्म-निरत होते हैं और कोई संयम नहीं दिखाते। क्या इस तरह के लोग सामान्य मानवता को जी रहे हैं? (नहीं, वे नहीं जी रहे।) वे सांसारिक चलन के पीछे भागते हैं, सेक्सी होना चाहते हैं, और दूसरों को आकर्षित और प्रभावित करना चाहते हैं। विपरीत लिंग को आकर्षित करने की कोशिश में वे पूरा दिन अच्छी तरह से सजने-सँवरने और भारी मेकअप करने में बिता देते हैं। ये लोग जिस चीज को जीते हैं, वह अपेक्षाकृत खराब होती है। वे अपने पहनावे, बोलचाल और व्यवहार में संयम भी नहीं रख पाते, और उनमें संत जैसी शालीनता भी नहीं होती, इसलिए जब हम उनका मूल्यांकन उन व्यवहारिक मानदंडों के अनुसार करते हैं, जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे जिस मानवता को जीते हैं, वह बहुत खराब होती है। इन ठोस उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि लोगों के व्यवहार और जिसे जीते हैं उसके बारे में परमेश्वर की माँगें पूरी तरह से सामान्य मानवता की माँगों के अनुरूप हैं—इसलिए, स्वाभाविक रूप से, सामान्य मानवता वाले उन्हें प्राप्त करने में सक्षम हैं। इस कथन का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अगर तुम इन चीजों को जीते हो, तो ही तुममें मानवीय समानता होती है, तुम एक सामान्य व्यक्ति दिखते हो, और तुममें सामान्य मानवता का न्यूनतम स्तर होता है। परमेश्वर की माँगों के विशिष्ट विवरण पर नजर डालकर हम देख सकते हैं कि इस तरह से मानवता को जीना नकली होना या दिखावा करना नहीं है, न ही यह दूसरों को चकमा देना है। बल्कि, यह वह तरीका है जिससे सामान्य मानवता प्रकट होनी चाहिए, और वह वास्तविकता है जो उसमें होनी चाहिए। जो लोग जरा-सी भी चालाकी के बिना, सामान्य मानवता के इन उद्गारों को जीते हैं, सिर्फ उन्हीं में मानवीय समानता होती है। सिर्फ इस तरह से सामान्य मानवता को जीकर ही लोग दूसरों का सम्मान प्राप्त कर सकते हैं और गरिमा के साथ जी सकते हैं। और सिर्फ इस तरह से सामान्य मानवता को जीने और संत जैसी शालीनता रखने से ही लोगों के सामान्य उद्गार परमेश्वर के लिए महिमा लाते हैं। क्योंकि तब, तुम जो कुछ भी जीते हो वह सकारात्मक होगा, और सकारात्मक चीजों की वास्तविकता होगी, और यह कोई अभिनय नहीं होगा। तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार मानवीय समानता को जी रहे होगे।

मनुष्य के अच्छे व्यवहार का सार और उस व्यवहार का सार जिसकी परमेश्वर माँग करता है, दोनों स्पष्ट और सुबोध ढंग से समझा दिए गए हैं। इसलिए, लोगों को कैसे अभ्यास करना चाहिए, और कैसे सामान्य मानवता को जीना चाहिए, यह भी स्पष्ट होना चाहिए, है न? सामान्य मानवता को जीने के सवालों पर लोग उत्तेजित नहीं होंगे या बाल की खाल नहीं निकालेंगे। क्या सामान्य मानवता को जीने का लोगों के जीवन में ऐसी तुच्छ चीजों से संबंध है, जिनका मानवता से कोई लेना-देना नहीं है? कुछ हास्यास्पद लोग हैं, जो इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते। वे कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर की संगति इतनी विस्तृत है, इसलिए हमें भी अपने जीवन के हर छोटे पहलू के बारे में सावधान रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या उबालने या भूनने से शकरकंद अधिक पौष्टिक हो जाता है?” क्या यह सामान्य मानवता को जीने से संबंधित है? बिल्कुल नहीं। लोगों को क्या खाना चाहिए और कैसे खाना चाहिए, यह सामान्य ज्ञान है, जो अब सभी लोगों को है। अगर कोई चीज खाने में दिक्कत न हो, तो तुम उसे जैसे चाहो खा सकते हो। अगर कोई सोचता है कि सामान्य ज्ञान के ऐसे सरल मामलों में भी उसे सत्य खोजने की आवश्यकता है, और ऐसी चीजों का अभ्यास इस तरह करने की आवश्यकता है मानो वे सत्य हों, तो क्या वह व्यक्ति हास्यास्पद और बेतुका नहीं है? अब कुछ लोग ऐसे हैं, जो उस तरह के मामलों में बहुत सावधानी बरतते हैं, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये लोग सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, और वे छोटे-छोटे मामलों की छानबीन और जाँच भी इस तरह करते हैं, मानो वे सत्य हों। कुछ तो इन चीजों पर बहस करते हुए शर्मिंदा तक हो जाते हैं। यह किस तरह की समस्या है? क्या यह आध्यात्मिक समझ के घोर अभाव का मामला नहीं है? यह तथ्य कि शकरकंद खाने के मामले में भी कुछ लोग इस तरह खोजते हैं, मानो वह सत्य हो, वास्तव में हास्यास्पद और कष्टप्रद है। ऐसे लोग गए-बीते होते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, और वे नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। वे जीवन में सामान्य ज्ञान के सरलतम मामले भी नहीं समझ सकते, और वे ये मुद्दे हल नहीं कर सकते—तो उनके इतने वर्षों तक जीने का क्या मतलब है? ये लोग ऐसे महत्वहीन मामले सभाओं में कैसे ला सकते हैं और कैसे उन पर इस तरह चर्चा और संगति कर सकते हैं, मानो वे ऐसे विषय हों जिनमें सत्य खोजा जा सकता है? इसका मुख्य कारण यह है कि इन लोगों की समझ विकृत है और इनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। वे किस संदर्भ में सावधानी बरत रहे हैं? उनमें ये विचार और भाव क्यों उत्पन्न हुए? सभाओं में वे शकरकंद खाने के बारे में चर्चा और संगति कैसे कर सकते हैं? क्या ऐसा इसलिए है कि जिन मुद्दों पर मैं संगति कर रहा हूँ, वे बहुत ठोस हैं, और इससे उन लोगों के बीच कुछ भ्रांतियाँ पैदा हो गई हैं, जो शब्दों को तोड़ना-मरोड़ना और बाल की खाल निकालना पसंद करते हैं? जब ये समस्याएँ और स्थितियाँ सामने आती हैं, तो मुझे लगता है कि इन लोगों से बात करना बंदरों के साथ ऐसा व्यवहार करना है, जैसे कि वे इंसान हों। बंदर ऐसे जीव हैं, जो पहाड़ों और जंगलों में रहते हैं। हालाँकि वे मनुष्यों जैसे दिखते हैं, और उनके कई व्यवहार और आदतें मनुष्यों जैसी होती हैं, और हालाँकि एक समय था जब मनुष्य बंदरों को अपने पूर्वजों के रूप में देखते थे, पर जो भी हो, बंदर फिर भी बंदर ही हैं। उन्हें जंगलों और पहाड़ों में ही रहना चाहिए। क्या उन्हें इंसानों के साथ रहने के लिए घर में रखना गलती नहीं होगी? क्या हमें बंदरों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जैसे कि वे इंसान हों? (नहीं, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।) तो, तुम लोग बंदर हो या इंसान? अगर तुम लोग इंसान हो, तो मुझे चाहे कितना भी बोलना पड़े या कितनी भी मेहनत करनी पड़े, मेरे लिए यह उचित और सार्थक है कि मैं तुम लोगों से ये चीजें कहूँ। अगर तुम लोग बंदर हो, तो क्या मेरे लिए यह उचित है कि मैं तुम लोगों के साथ इंसानों की तरह व्यवहार करूँ, और तुम लोगों के साथ सत्य और परमेश्वर की इच्छा पर चर्चा करके भैंस के आगे बीन बजाऊँ? क्या यह सार्थक है? (नहीं, यह सार्थक नहीं है।) तो फिर तुम लोग इंसान हो या बंदर? (हम इंसान हैं।) उम्मीद है, तुम इंसान हो। तुम लोग सभाओं में, शकरकंद कैसे खाएँ, इस पर संगति करने को कैसे देखते हो? क्या तुम ऐसे मामलों में भी सावधान रहोगे? उदाहरण के लिए, कुछ लोग पूछते हैं : “मुझे नीले कपड़े पहनने चाहिए या सफेद? अगर मैं सफेद कपड़े पहनूँ, तो किस तरह का सफेद? किस तरह का सफेद पवित्रता दर्शाता है और संत के उपयुक्त है? अगर मेरे लिए नीला उपयुक्त है, तो कौन-सा नीला? कौन-सा नीला उन माँगों और कसौटियों पर खरा उतरता है, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और जो परमेश्वर के लिए सबसे ज्यादा महिमा ला सकता है?” क्या तुम लोग कभी इन मामलों में सावधान रहे हो? क्या कभी किसी ने विचार किया है कि संत को कौन-सा केश-विन्यास, बोलचाल का कौन-सा तरीका और वाणी का कौन-सा लहजा शोभा देता है? क्या तुम लोग कभी इन चीजों के बारे में सावधान रहे हो? कुछ लोग इन चीजों में सावधान रहे हैं और इन पर मेहनत करते हैं। कुछ लोग हैं, जो अपने बाल सुनहरे, लाल या दूसरे अजीब रंगों से रँगना पसंद करते थे, लेकिन जब वे परमेश्वर में विश्वास करने लगे, तो उन्होंने देखा कि कलीसिया के अन्य भाई-बहन अपने बाल नहीं रँगते, इसलिए उन्होंने भी बाल रँगने बंद कर दिए। कई वर्षों के बाद ही वे पूरी तरह से समझ पाए कि बालों का रंग या केश-विन्यास महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति सामान्य मानवता को जी रहा है या नहीं, और वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। ऐसे मामलों में सावधानी बरतने वाले लोग, जिनका सामान्य मानवता से कोई लेना-देना नहीं है, धीरे-धीरे यह समझने लगे हैं कि इन चीजों पर मेहनत करना बेकार है, क्योंकि ये मामले सत्य से बिल्कुल भी संबंधित नहीं हैं। ये बस सामान्य मानवता के दायरे के भीतर कुछ मुद्दे हैं, और ये सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचते। जिस मानवता को तुम जी रहे हो, अगर वह परमेश्वर की माँगों और मानकों को पूरा करती है, तो यह पर्याप्त है। क्या तुम सभी लोग अतीत में इन मुद्दों से कुछ हद तक परेशान और भ्रमित नहीं हुए हो? (हाँ, हुए हैं।) सभाओं के दौरान शकरकंद खाने के बारे में बहस करने जितने चरम मुद्दे से न सही, लेकिन जीवन के कुछ छोटे, महत्वहीन मामलों से परेशान तो तुम भी हुए हो। ये तथ्य हैं। तो, क्या इन मामलों पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए? क्या तुम लोग इस बारे में स्पष्ट हो कि परमेश्वर की माँगों और मानकों के अनुसार सामान्य मानवता को जीते समय लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? क्या तुम जानते हो कि अगली बार कुछ विशेष परिस्थितियों का सामना करने पर तुम्हें सत्य कैसे खोजना है? कुछ लोग कहते हैं, “हालाँकि मैं अतियों पर नहीं जाता, जैसे यह पूछना कि शकरकंद कैसे खाएँ, लेकिन अगर मेरे दैनिक जीवन में कुछ मुद्दे उठते हैं, तो मैं भी थोड़ी देर के लिए भ्रमित महसूस करूँगा।” तो, मुझे एक उदाहरण दो—कौन-सा मुद्दा तुम लोगों को थोड़ी देर के लिए भ्रमित कर देगा? क्या तुम लोग कहोगे कि महिलाओं के लिए मेकअप करना गलत है? क्या यह सामान्य मानवता को जीने के लिए परमेश्वर की माँगों के अनुरूप है? (यह गलत नहीं है।) यहाँ “यह गलत नहीं है” का क्या अर्थ है? (अगर मेकअप संतों के उपयुक्त हो और भारी न हो, तो ठीक है।) अगर मेकअप भारी न हो, तो उचित है। कुछ लोग हैं, जो पूछते हैं, “अगर बहुत भारी न होने पर मेकअप करना उचित है, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम चाहते हो कि हम मेकअप करें?” क्या मैने यह कहा? (नहीं, तुमने यह नहीं कहा।) मेकअप करना कोई समस्या नहीं है, यह सामान्य मानवता को जीने के अनुरूप है। इसके लिए निर्धारक सिद्धांत यह है कि अगर मेकअप बहुत भारी न हो, तो ठीक है। यह मानक है। तो, सामान्य मानवता को जीने के अनुरूप होने के लिए महिलाओं को अपना मेकअप किस दायरे में रखना चाहिए? सीमा-रेखा कहाँ है? “भारी मेकअप” का क्या अर्थ है? किस तरह का मेकअप भारी माना जाता है? अगर सीमा स्पष्ट रूप से खींच दी जाए, तो लोगों को पता चल जाएगा कि क्या करना है। क्या यह विवरण नहीं है? भारी मेकअप का क्या मतलब है, यह समझाने के लिए मुझे एक उदाहरण दो। (यह तब होता है, जब चेहरा रँगकर बहुत सफेद कर लिया जाता है, होंठ बहुत लाल होते हैं, और आँखें बहुत काली होती हैं, जिससे वह देखने में बेहद अप्राकृतिक और असुविधाजनक लगता है।) उसे देखकर लोग भूत की तरह उछल पड़ते हैं, और दूसरे उसका प्राकृतिक रूप या चेहरा नहीं देख पाते। कुछ देशों और जातियों में, और साथ ही कुछ व्यवसायों में भी, लोग विशेष रूप से भारी मेकअप करते हैं। उदाहरण के लिए, क्या बार और नाइट-क्लबों में लोगों द्वारा किया जाने वाला मेकअप इसका निरूपण नहीं है? ये सभी लोग भारी मेकअप करते हैं, और यह शिक्षाप्रद नहीं है—उनके मेकअप का उद्देश्य दूसरों को लुभाना है। इस तरह का मेकअप भारी मेकअप होता है। तब, किस तरह का मेकअप सामान्य मानवता को जीने के अनुरूप है? हलका मेकअप, जैसा महिलाएँ कार्यस्थल पर करती हैं, जो बहुत ही गरिमापूर्ण और सुरुचिपूर्ण दिखता है। अगर तुम्हारा मेकअप इस सीमा से बाहर नहीं जाता, तो ठीक है। चीन में, पुरानी पीढ़ियों के बीच मेकअप करना फैशनेबल नहीं है। अगर कोई आम, बूढ़ा आदमी जिसकी समाज में कोई खास हैसियत या प्रतिष्ठा नहीं है, हमेशा घर से बाहर निकलते समय अच्छे कपड़े पहनता और मेकअप करता है, तो लोग कहेंगे कि वह अपनी उम्र के हिसाब से सम्मानपूर्वक काम नहीं कर रहा। हालाँकि, पश्चिम में मामला अलग है। वहाँ अगर तुम किसी से मिल रहे हो या काम पर जा रहे हो और थोड़ा-सा मेकअप नहीं करते और थोड़ा सजते-सँवरते नहीं, तो लोग कहेंगे कि तुम अपनी नौकरी का सम्मान नहीं करते, कि तुम पेशेवर नहीं हो, और तुम दूसरे लोगों के प्रति अशिष्ट हो। यह एक तरह की संस्कृति है। स्वाभाविक रूप से, इस तरह की स्थिति में, मेकअप करना उस स्तर तक सीमित होना चाहिए, जिसमें तुम दूसरे लोगों को प्रतिष्ठित, सीधे-सरल और सम्मानित व्यक्ति जैसे दिखाई दो। इसे एक वाक्य में सारांशित करें तो : अगर तुम मेकअप करते हो, तो उससे तुम एक सम्मानित व्यक्ति की तरह दिखने चाहिए, उससे लोगों के दिलों में वासना नहीं जगनी चाहिए—इस तरह का मेकअप उचित है। यही सिद्धांत है, और यह सीधी-सी बात है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर मैं घर से निकलते समय मेकअप न करूँ, तो क्या यह ठीक है? मुझे मेकअप करने की आदत नहीं है।” तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों के भीतर खोजना चाहिए। क्या परमेश्वर ने कहा कि मेकअप न करना गलत है? परमेश्वर ने यह नहीं कहा। परमेश्वर के घर ने कभी लोगों से मेकअप करने की अपेक्षा नहीं की। अगर तुम मेकअप करना पसंद करते हो, तो मैंने तुम्हें यह मानदंड और सीमा दी है, और तुम्हें बताया है कि तुम्हें क्या करना चाहिए कि तुम्हारा मेकअप उचित हो। अगर तुम मेकअप करना पसंद नहीं करते, तो परमेश्वर का घर इसकी अपेक्षा नहीं करता। लेकिन तुम्हें एक बात याद रखनी चाहिए : हालाँकि तुम्हारा मेकअप करना आवश्यक नहीं है, लेकिन तुम घर से भिखारी की तरह गंदे और मैले-कुचैले नहीं निकल सकते। उदाहरण के लिए, जब तुम सुसमाचार साझा करने बाहर जाते हो, तो अगर तुम घर से निकलने से पहले खुद को सुदर्शन नहीं बनाते या अपना चेहरा नहीं धोते, और यह कहते हुए मैले-कुचैले कपड़े पहनते हो, “यह ठीक है। जब हम सत्य समझते हैं, तो हम जैसे मरजी कपड़े पहनें!” क्या यह रचनात्मक है? एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जो परमेश्वर में विश्वास करता है, तुम्हारे पास अपने पहनावे और रूप-रंग के भी सिद्धांत होने चाहिए। इस सिद्धांत का न्यूनतम मानक यह है कि तुम्हें सामान्य मानवता को जीना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर को अपमानित करने वाला, या अपना चरित्र और गरिमा गिराने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए। कम से कम, तुम्हें ऐसा करना चाहिए कि दूसरे तुम्हारा सम्मान करें। अगर तुम धर्मपरायणता के स्तर तक नहीं भी पहुँचते, तो भी तुम्हें कम से कम खुद को संयमित करने में सक्षम होना चाहिए, और गरिमामय और सीधा-सरल होना चाहिए, और संतों जैसी शालीनता रखनी चाहिए। अगर तुम लोगों को यह आभास दे सको, तो यही काफी है। सामान्य मानवता को जीने के लिए यह सबसे बुनियादी आवश्यकता है।

जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए लोगों के बाहरी व्यवहारों और उनके द्वारा सामान्य मानवता को जीने के बारे में ये प्रश्न बोझ या कठिनाइयाँ नहीं होने चाहिए, क्योंकि ये वे सबसे बुनियादी चीजें हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति के पास, कम से कम, होनी चाहिए। इन मुद्दों को समझना आसान होना चाहिए; ये अमूर्त नहीं हैं। इसलिए, लोगों के बाहरी व्यवहारों और उनके द्वारा सामान्य मानवता को जीने के बारे में ये प्रश्न ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं बनने चाहिए, जिन पर कलीसियाई जीवन में अक्सर चर्चा की जाती है। इनके बारे में कभी-कभी बात करना ठीक है, लेकिन अगर तुम इन्हें सत्य की खोज के विषय समझते हो और इन्हें अक्सर उठाते हो, इन पर जोर देकर और गंभीरता से चर्चा करते हो, तो तुम कुछ हद तक अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करते हो। कौन-से लोग आम तौर पर अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करने वाले होते हैं? शकरकंद कैसे खाएँ जैसे सवाल उठाना, और इन सवालों के साथ इस तरह पेश आना मानो वे सत्य की खोज के विषय हों, सभाओं में और कभी-कभी बहु-स्तरीय सभाओं में उनकी जाँच और उन पर संगति करना, जबकि कलीसिया-अगुआ इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते—क्या ये सब उन विकृत लोगों की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है? (हाँ, हैं।) सभाओं में किन सवालों पर सबसे ज्यादा चर्चा की जानी चाहिए? जो सत्य और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित हों। सत्य और परमेश्वर के वचन कलीसियाई जीवन के अपरिवर्तनीय विषय हैं; सामान्य मानवता के बाहरी व्यवहारों के सबसे बुनियादी और साधारण विषय से संबंधित मामले कलीसियाई जीवन और सभाओं में संगति का मुख्य विषय नहीं होना चाहिए। अगर भाई-बहन इन चीजों के बारे में सभाओं के बाहर एक-दूसरे को सलाह दें, याद दिलाएँ और संगति करें, तो यह इन समस्याओं को हल करने के लिए पर्याप्त है। इन पर संगति और चर्चा करने में बहुत ज्यादा समय खर्च करना आवश्यक नहीं है। यह लोगों के सामान्य रूप से एकत्र होकर परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने को प्रभावित करेगा, और इसका उनके जीवन-प्रवेश पर असर पड़ेगा। कलीसियाई जीवन परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने का जीवन है। इसका जोर सत्य के बारे में संगति करने और व्यावहारिक समस्याएँ हल करने पर होना चाहिए, इस तरह, किसी के जीवन की प्रगति में देरी नहीं होगी। अगर तुममें सामान्य मानवता की भावना है, तो तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि सिद्धांतों के अनुसार इन मामलों का अभ्यास कैसे करना है। अगर तुम हमेशा उन छोटे-छोटे मामलों और चीजों के बारे में मीन-मेख निकालते हो, जिनका सत्य के सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है, अगर तुम हमेशा बाल की खाल निकालते हो, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम ज्ञानी और विद्वान हो, तो क्या इस मुद्दे का विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए? उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने पहनावे पर बहुत ज्यादा जोर देते हैं, और हमेशा पूछते हैं कि क्या विश्वासी असामान्य कपड़े पहन सकते हैं; कुछ लोग, जो हाल ही में परमेश्वर में विश्वास करने लगे हैं, हमेशा पूछते हैं कि क्या विश्वासियों को शराब पीनी चाहिए; कुछ लोग व्यवसाय करना पसंद करते हैं और हमेशा पूछते हैं कि क्या विश्वासियों को बहुत पैसा कमाना चाहिए; और कुछ लोग हमेशा पूछते हैं कि परमेश्वर का दिन कब आएगा। ये लोग सही उत्तर ढूँढ़ने के लिए इन मामलों में सत्य खोजने को तैयार नहीं होते। हालाँकि इन विषयों पर कोई सटीक वचन नहीं हैं, फिर भी परमेश्वर ने इन मुद्दों से निपटने के सिद्धांत बहुत स्पष्ट रूप से समझाए हैं। अगर व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को पढ़ने का प्रयास नहीं करता, तो उसे उत्तर नहीं मिलेंगे। वास्तव में, परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य, और इससे क्या प्राप्त करना है, इसे सभी जानते हैं। बात बस इतनी है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, फिर भी आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। यहीं उनकी कठिनाई है। इसलिए, सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने या सत्य के बारे में संगति करने को कभी महत्व नहीं दिया है। वे बस महत्वहीन सवालों पर अटक जाते हैं, और सभाओं में हमेशा इन सवालों पर संगति करके इनके निश्चित उत्तर प्राप्त करना चाहते हैं, और अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें रोक नहीं पाते। यह किस तरह की समस्या है? क्या ये लोग अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर रहे? अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और हमेशा गलत मार्ग पर चलना चाहते हो, तो तुम आत्मचिंतन कर खुद को जानते क्यों नहीं और आत्मविश्लेषण क्यों नहीं करते? तुम हमेशा लोगों को खुश करने में लगे रहते हो, अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार नहीं हो, जिद्दी हो, अपने आप में कानून, मनमाने और लापरवाह हो। तुम इस मामले में कर्तव्यनिष्ठ कैसे नहीं हो सकते? तुम जाँच और विश्लेषण कर यह पता कैसे नहीं लगा सकते कि वास्तव में क्या चल रहा है? जब भी तुम पर कुछ आकर पड़ता है, तो तुम परमेश्वर को दोष क्यों देते हो और उसे गलत क्यों समझते हो? तुम हमेशा अपने बारे में फैसले पर क्यों पहुँच जाते हो, और शिकायत क्यों करते हो कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है और कलीसिया अन्यायी है? क्या ये समस्याएँ नहीं हैं? क्या तुम्हें कलीसियाई जीवन में इन मुद्दों पर संगति और विश्लेषण नहीं करना चाहिए? जब परमेश्वर का घर कलीसिया को विभाजित कर लोगों का सफाया करता है, तो तुम कभी समर्पण नहीं करते और कभी संतुष्ट नहीं होते, तुम्हारे मन में हमेशा धारणाएँ होती हैं और तुम नकारात्मकता फैलाते हो। क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या तुम्हें इस मुद्दे की जाँच और विश्लेषण नहीं करना चाहिए? तुम हमेशा हैसियत के पीछे भागते हो, राजनीति करते हो और अपनी हैसियत का प्रबंधन करते हो। क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या तुम्हें इन मुद्दों पर संगति और विश्लेषण नहीं करना चाहिए? कलीसिया वर्तमान में सफाई का कार्य कर रही है, और कुछ लोग कहते हैं, “अगर लोग अपने कर्तव्यों में कुछ हद तक प्रभावी हैं, तो उन्हें हटाया नहीं जाएगा, इसलिए अगर मैं बस अपने कर्तव्य में कुछ हद तक प्रभावी बना रहता हूँ और हटाया नहीं जाता, तो यह काफी है।” यहाँ क्या समस्या है? क्या ये लोग निष्क्रिय विरोध में नहीं हैं? अगर कोई इस तरह का कपटपूर्ण स्वभाव दिखा सकता है, तो क्या इसे हल करने की आवश्यकता नहीं है? क्या भ्रष्ट स्वभावों और मनुष्य के सार और प्रकृति से जुड़ी समस्याएँ इससे ज्यादा गंभीर नहीं हैं कि शकरकंद कैसे खाएँ? क्या वे सभाओं और कलीसियाई जीवन में लाकर संगति और विश्लेषण किए जाने लायक नहीं हैं, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग विवेक प्राप्त कर सकें? क्या ये नकारात्मक व्यवहारों के अच्छे, विशिष्ट उदाहरण नहीं हैं? भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित समस्याएँ सीधे तौर पर मनुष्य के स्वभावगत बदलाव से संबंधित हैं, और वे मनुष्य के उद्धार को छूती हैं। ये छोटे मामले नहीं हैं, तो फिर तुम लोग सभाओं में इन मुद्दों पर संगति और विश्लेषण क्यों नहीं करते? अगर तुम सभाओं में इस तरह के महत्वपूर्ण मामले हल करने के लिए कभी सत्य नहीं खोजते, बल्कि निरंतर तुच्छ और उबाऊ चीजों पर संगति करते रहते हो, पूरी सभा किसी छोटे-से मुद्दे पर संगति करने में खर्च कर देते हो, कोई वास्तविक समस्या हल करने में असमर्थ रहते हो और समय भी बरबाद करते हो—क्या तुम अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर रहे हो? अगर तुम इस तरह से करते रहे, तो तुम सभी लोग कम क्षमता वाले बेकार व्यक्ति बन जाओगे, जो भ्रमित हैं, और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाते, और सत्य के स्तर तक नहीं पहुँच पाते। तुम लोग सभाओं में उन चीजों पर संगति नहीं करते, जिन पर तुम्हें संगति करनी चाहिए, बल्कि निरंतर उन चीजों पर संगति करते हो, जिन पर नहीं करनी चाहिए। तुम सभाओं में हमेशा उन चीजों पर संगति करते हो, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, जो तुम्हारी अपनी विकृत समझ और तुच्छ व्यक्तिगत मुद्दों से संबंधित हैं, अपने साथ सबसे उनकी जाँच-पड़ताल करवाते हो और व्यर्थ समय बरबाद करते हो। यह न सिर्फ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को प्रभावित करता है, बल्कि कलीसिया के कार्य की सामान्य प्रगति में भी देरी करता है। क्या यह कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करना और उसे बाधित करना नहीं है? इस तरह के व्यवहार को गड़बड़ी कहा जाना जाना चाहिए। यह जानबूझकर की जाने वाली गड़बड़ी है, और इस तरह से कार्य करने वाले लोगों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। भविष्य में, सभाएँ परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य पर संगति करने, भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित मुद्दे हल करने, और लोगों के कर्तव्यों में आने वाली कठिनाइयाँ और समस्याएँ सुलझाने तक सीमित होनी चाहिए। सभाओं में तुच्छ और अप्रासंगिक मामलों या दैनिक सामान्य ज्ञान से संबंधित मुद्दों पर संगति नहीं की जानी चाहिए। भाई-बहन आपस में संगति करके ये मुद्दे सुलझा सकते हैं; इन पर सभाओं में संगति करने की आवश्यकता नहीं है।

कलीसिया में हमेशा परमेश्वर के वचनों के बारे में विकृत समझ रखने वाले ऐसे लोग होते हैं, जो बाल की खाल निकाला करते हैं। जब मैं मनुष्य के अच्छे व्यवहारों के बारे में संगति करता हूँ, तो ये लोग वास्तव में अपने व्यवहार पर मेहनत करते हैं। वे नहीं जानते कि हमें इन चीजों पर संगति क्यों करनी चाहिए। मुझे बताओ, हमें इस मुद्दे पर संगति करने की आवश्यकता क्यों है? हम इस मुद्दे पर संगति करके क्या हासिल करना चाहते हैं? आओ, पहले इस बारे में बात करें कि हमें इस मुद्दे पर संगति क्यों करनी चाहिए। मनुष्य के अच्छे व्यवहारों का और उन व्यवहारों के मानदंडों का विषय, जिनकी परमेश्वर माँग करता है, किस संदर्भ में उठाया गया था? इसे तब उठाया गया था, जब हम “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” विषय पर संगति कर रहे थे। यह मुद्दा सीधे तौर पर इस बात से संबंधित है कि मनुष्य को सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने के परिणामस्वरूप लोग जो अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, वे सत्य से सरोकार रखते हैं और सत्य से संबंधित होते हैं। कोई भी व्यवहार मनुष्य को कितना भी अच्छा क्यों न लगे, अगर उसमें सत्य का अभ्यास करना शामिल नहीं है, तो यह सत्य से असंबंधित कोई चीज है। कुछ लोग कहेंगे, “यह गलत है! क्या तुमने यह नहीं कहा कि अच्छे व्यवहार सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचते? मुझे समझ नहीं आया।” क्या तुम लोग इस मुद्दे को स्पष्ट कर सकते हो? “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” पर संगति करने के संदर्भ में, मैंने उन व्यवहारों का विश्लेषण किया, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं के अनुसार अच्छा मानते हैं, और मैंने उनकी आलोचना और निंदा की। साथ ही, मैंने लोगों को बताया कि मनुष्य के व्यवहार के संबंध में परमेश्वर ने कौन-से मानदंड निर्धारित किए हैं, और मैंने उन्हें सामान्य मानवता को जीने का एक सही मार्ग दिया, जिससे वे सामान्य मानवता को जीने का मूल्यांकन कर सकते हैं। इस नींव पर, अंततः मैंने जो प्रभाव हासिल किया, वह लोगों को यह सूचित करना कि अपनी धारणाओं के अनुसार वे जिन व्यवहारों को अच्छा समझते हैं, वे सत्य की कसौटी नहीं हैं, न ही उनमें सत्य शामिल है, और न ही वे सत्य से संबंधित हैं, और इस तरह लोगों को गलती से यह मानने से रोकना था कि इन अच्छे व्यवहारों का पालन करना ही सत्य का अनुसरण है। साथ ही, मैंने लोगों को सूचित किया कि वे सामान्य मानवता को जीने के मानक सिर्फ तभी पूरे करते हैं, जब वे व्यवहार के वे मानदंड पूरे करते हैं जिनकी परमेश्वर माँग करता है। चूँकि मैंने लोगों से कहा है कि मनुष्य जिन अच्छे व्यवहारों की वकालत करता है, वे सब दिखावे और झूठ हैं, कि वे सब नाटक और दिखावा हैं, और वे सब गलत हैं, कि उन सबमें शैतान की चालों की मिलावट है, अब जबकि ये चीजें छीन ली गई हैं और लोगों को उनसे वंचित कर दिया गया है, वे नहीं जानते कि अभ्यास कैसे किया जाए। वे मन ही मन सोचते हैं, “तो फिर मुझे किसके अनुसार जीना चाहिए? परमेश्वर जिस व्यवहार की माँग करता है, उसके वास्तविक मानदंड क्या हैं?” मनुष्य के व्यवहार के बारे में परमेश्वर की जो माँगें, मानदंड और ठोस कथन हैं—वे बहुत ही सरल हैं। अगर लोग उन वास्तविकताओं को जीते हैं जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो वे सामान्य मानवता को जीने के मानक पूरे कर चुके होते हैं। वे इस मामले में बाल की खाल नहीं निकालेंगे, भ्रमित नहीं होंगे या उलझन में नहीं पड़ेंगे। जब व्यक्ति वे मानक पूरे करता है जिन्हें सामान्य मानवता को जीना चाहिए, तो क्या उन्होंने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर एक व्यावहारिक समस्या का समाधान नहीं कर लिया है? क्या उन्होंने सामान्य मानवता को जीने में एक बाधा दूर नहीं कर ली है और एक अवरोध नहीं हटा लिया है? कम से कम, अब तक, ऐसे बाहरी दृष्टिकोण जिनकी मानवता द्वारा प्रशंसा की जाती है, जैसे कि सुशिक्षित और शिष्ट, मिलनसार और सुलभ होना, अब मनुष्य की खोज के लक्ष्य नहीं हैं। या इसे ज्यादा सटीक शब्दों में कहें तो, यह अब कोई ऐसा लक्ष्य नहीं है जिसे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बाहरी रूप से जीने का प्रयास करते हों, न ही यह ऐसा मानक है जिसे सामान्य मानवता को जीना चाहिए। इसे संयमित रहने, संतों जैसी शालीनता रखने, इत्यादि की आवश्यकता से बदल दिया गया है। परमेश्वर की ये माँगें मनुष्य के लिए सामान्य मानवता को जीने का मापदंड हैं; ये वह समानता है, जिसे सामान्य मानवता को जीना चाहिए। इस तरह, क्या सत्य का अनुसरण करने की सबसे बुनियादी शर्त, लक्ष्य और दिशा की पुष्टि नहीं हुई है? सबसे आधारभूत, बुनियादी बात की पुष्टि हुई है, जो यह है कि सामान्य मानवता को जीने का लक्ष्य यह नहीं है कि लोग सुशिक्षित और शिष्ट, सौम्य और परिष्कृत, मिलनसार, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले हों। बल्कि, उन्हें सामान्य मानवता को जीना है, जैसा कि परमेश्वर माँग करता है। इसमें न तो कोई स्वाँग है और न ही शैतान की कोई चाल है; इसके बजाय, यह सामान्य मानवता को वास्तव में जीना, उसका वास्तविक उद्गार और व्यवहार है। क्या ऐसा ही नहीं है? (हाँ, है।) इस परिप्रेक्ष्य से, जब हम मनुष्य के अच्छे व्यवहारों पर संगति करते हैं, जो उन चीजों के विषय के अंतर्गत आते हैं जिन्हें लोग अपनी धारणाओं के अनुसार सही और अच्छा समझते हैं, और साथ ही उस व्यवहार के मानदंडों पर संगति करते हैं जिसकी परमेश्वर माँग करता है—तो क्या ये चीजें सत्य का अनुसरण करने से संबंधित हैं? (हाँ, हैं।) हाँ, ये संबंधित हैं। एक निश्चित सीमा तक, यह मनुष्य के सत्य के अनुसरण की मूल दिशा और लक्ष्य की पुष्टि करता है। इसका मतलब यह है कि, कम से कम, तुम्हारे सत्य का अनुसरण शुरू करने से पहले सामान्य मानवता को जीने का तुम्हारा लक्ष्य सही होगा। यह लक्ष्य मानव-निर्मित दृष्टिकोण नहीं है, यह पैकेजिंग या स्वाँग नहीं है। बल्कि, यह उस मानवता को सामान्य रूप से जीना है, जिसकी परमेश्वर माँग करता है। हालाँकि यह विषय अभी भी सत्य के वास्तविक अनुसरण से कुछ हद तक दूर है, फिर भी यह सत्य के अनुसरण की व्यापक दिशा के लिए आवश्यक है। यह व्यवहार का सबसे सरल और सबसे बुनियादी मानदंड है, जिसे मनुष्य को समझना चाहिए। संगति का यह विषय सत्य का अनुसरण करने और सत्य की कसौटी से चाहे कितना भी दूर हो, चूँकि यह परमेश्वर की उन माँगों और व्यवहारगत कसौटियों से संबंधित है जो परमेश्वर ने मनुष्य को दी हैं, इसलिए, स्वाभाविक रूप से, एक निश्चित सीमा तक यह सत्य की कसौटी से भी संबंधित है। इसलिए लोगों को इन मुद्दों को समझना चाहिए। मनुष्य के व्यवहार के लिए परमेश्वर की ये माँगें वे मानदंड हैं, जिनका लोगों को पालन करना चाहिए, और जिन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इन मुद्दों को समझने के बाद लोग, कम से कम, सामान्य मानवता को जीने में, और अपने बाहरी परिप्रेक्ष्यों में एक सुशिक्षित और शिष्ट, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, सुलभ या मिलनसार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करेंगे—जैसे पश्चिमी लोग, खास तौर से, पुरुषों से सज्जन होने, महिलाओं के लिए दरवाजे खोलने, महिला के बैठते समय उसके लिए कुर्सी खींचने, और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं को प्राथमिकता देने की उम्मीद करते हैं है—जब लोग इन अच्छे व्यवहारों पर विचार कर लेते हैं, तो वे, कम से कम, सामान्य मानवता को जीने का प्रयास करने पर या सामान्य मानवता के व्यवहारों का अनुसरण करने पर इन्हें अपने मानकों के रूप में नहीं लेंगे। इसके बजाय, वे इन चीजों को अपने दिलो-दिमाग से त्याग देंगे; वे अब इनसे प्रभावित और बाध्य नहीं होंगे। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम लोगों को करना चाहिए। अगर कोई है जो अभी भी कहता है, “अच्छा, वह व्यक्ति सुशिक्षित और शिष्ट नहीं है,” तो तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी? तुम उस पर नजर डालोगे, और उससे कहोगे, “तुमने गलत कहा। यह परमेश्वर का घर है। ‘सुशिक्षित और शिष्ट’ से तुम्हारा क्या मतलब है? यह सत्य नहीं है, और यह वो मानवीय समानता नहीं है जिसे जीना हमारे लिए अभीष्ट है।” कुछ लोग कहते हैं, “हमारी अगुआ बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह नहीं करती। मैं उम्र में पहले से ही बड़ी हूँ, फिर भी वह मुझे आंटी नहीं कहती, बस मुझे मेरे नाम से बुलाती है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। मेरे पोते-पोतियाँ उससे बड़े हैं! ऐसा करके क्या वह मेरा अनादर नहीं करती? वह लोगों के साथ भी मैत्रीपूर्ण या अच्छी नहीं है। उसके व्यवहार को देखते हुए, वह अगुआ बनने के लायक नहीं लगती।” तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? बड़ों का आदर और छोटों की परवाह करना सत्य नहीं है। तुम्हें लोगों का मूल्यांकन उनके बाहरी व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर करना चाहिए। केवल यही लोगों का मूल्यांकन करने के सिद्धांत हैं। तो फिर, हमें अगुआओं और कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन कैसे करना चाहिए? तुम्हें यह देखना चाहिए कि क्या वे व्यावहारिक कार्य करते हैं, क्या वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य समझने की ओर ले जा सकते हैं, क्या वे कलीसिया की समस्याएँ हल करने और कुछ महत्वपूर्ण कार्य पूरे करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, सुसमाचार का कार्य कैसा चल रहा है? कलीसियाई जीवन कैसा है? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभा रहे हैं? सभी विभिन्न विशेषज्ञ-कार्य किस तरह आगे बढ़ रहे हैं? क्या अविश्वासियों, दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों को हटा दिया गया है? ये कलीसिया के महत्वपूर्ण कार्य हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन मुख्य रूप से यह देखकर किया जाता है कि वे इन कार्यों को कितनी अच्छी तरह करते हैं। अगर वे इन सभी क्षेत्रों में प्रभावी हैं, तो वे सक्षम अगुआ हैं। अगर उनके व्यवहार में थोड़ी कमी भी है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। सिर्फ बाहरी व्यवहारों को देखना यह मूल्यांकन करने का मानक नहीं है कि कोई अगुआ या कार्यकर्ता उपयुक्त है या नहीं। अगर कोई व्यक्ति इसे मनुष्य के नजरिये से देखे, तो ऐसा लगेगा कि अगुआ असभ्य है, क्योंकि उसने कभी बड़ी उम्र की महिला को आंटी या दादी नहीं कहा। लेकिन अगर वह उसका मूल्यांकन करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करे, तो यह अगुआ संतोषजनक है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने सही व्यक्ति का चुनाव किया, क्योंकि वह कलीसिया के काम के हर पहलू को सँभाल सकती है, वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक के जीवन-प्रवेश में मददगार और लाभप्रद है, और वह सुसमाचार का काम अच्छे से करती है। सभी को उसकी अगुआई स्वीकारनी चाहिए और उसके काम में सहयोग करना चाहिए। अगर कोई इस अगुआ के काम में सहयोग नहीं करता, या उसके लिए चीजें कठिन बना देता है, या अगर वह उसका फायदा उठाने की कोशिश करता है ताकि उसकी सिर्फ इसलिए आलोचना कर सके कि इस अगुआ में अच्छे बाहरी व्यवहार नहीं हैं जैसे कि बड़ों का सम्मान करना और छोटों का ध्यान रखना, तो यह कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद नहीं है। यह अगुआ और कार्यकर्ता के प्रति सिद्धांतहीन तरीके से कार्य करना है, और यह कलीसिया के कार्य को अव्यवस्थित और बाधित करने की अभिव्यक्ति है। इस तरह के लोग सही नहीं हैं; वे बुराई कर रहे हैं। अगर तुम किसी ऐसे अगुआ या कार्यकर्ता को देखते हो जो अपने बड़ों का सम्मान नहीं करता, और नतीजतन, सोचते हो कि वह बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं है, और तुम उसकी अगुआई स्वीकार नहीं करते, यहाँ तक कि उसकी निंदा भी करते हो, तो तुम कौन-सी गलती कर रहे हो? यह परंपरागत संस्कृति के विचारों के अनुसार मनुष्य के मानकों का उपयोग करके लोगों का मूल्यांकन करने का दुष्परिणाम है। अगर सभी परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार लोगों का मूल्यांकन और अगुआओं और कार्यकर्ताओं का चुनाव कर सकें, तो यह सटीक और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होगा। लोग दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने और कलीसिया के काम की सामान्य प्रगति बनाए रखने, दोनों में सक्षम होंगे। परमेश्वर संतुष्ट होगा और मनुष्य भी संतुष्ट होगा। क्या यही मामला नही है?

जबसे मैंने मनुष्य के तथाकथित “अच्छे व्यवहारों” का विश्लेषण किया है और मनुष्य के व्यवहार के लिए परमेश्वर की माँगों के मानकों पर संगति की है, वह परिप्रेक्ष्य जिससे लोग दूसरों को देखते हैं, और वे मानक जिनका वे उनका मूल्यांकन करने के लिए उपयोग करते हैं, बदल गए हैं; चूँकि दृष्टि का वह क्षेत्र, जिसमें लोग दूसरों को देखते हैं, भिन्न होता है, इसलिए लोगों के मूल्यांकन के परिणाम भी भिन्न होते हैं। अगर लोग परमेश्वर के वचनों को अपने मूल्यांकन के आधार के रूप में उपयोग करें, तो परिणाम निश्चित रूप से सही, न्यायसंगत, वस्तुनिष्ठ और सबके हित में होगा। अगर लोगों के मूल्यांकन का परिप्रेक्ष्य, पद्धति और आधार ऐसी चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य सही और अच्छी समझता है, तो परिणाम क्या होगा? हो सकता है, कोई व्यक्ति अच्छे लोगों पर गलत तरीके से आरोप लगा बैठे या उनकी निंदा कर डाले, या पाखंडियों द्वारा गुमराह हो जाए, और व्यक्ति का मूल्यांकन और उसके साथ व्यवहार न्यायपूर्ण ढंग से करने में असमर्थ रहे। चूँकि मनुष्य का आधार गलत है, इसलिए अंतिम परिणाम निश्चित रूप से गलत, अन्यायपूर्ण और परमेश्वर की इच्छा के विपरीत होगा। तो, क्या अच्छे व्यवहार के बारे में लोगों की धारणाओं के सार का विश्लेषण करना और उसके बारे में संगति करना आवश्यक है? क्या इसका सत्य के अनुसरण से कोई संबंध है? ये बहुत घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं! भले ही यह विषय सिर्फ सामान्य मानवता को जीने वाले लोगों, और मनुष्य के बाहरी नजरियों और उद्गारों को छूता है, लेकिन जब लोगों के पास सामान्य मानवता को जीने के लिए सही मानदंड होंगे, जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो उनके पास दूसरों का मूल्यांकन करने, लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए सही और मानकीकृत आधार और मानदंड होंगे। तो, इस संबंध में, क्या सत्य के उनके अनुसरण की दिशा, मार्ग और लक्ष्य ज्यादा सटीक नहीं होंगे? (हाँ, होंगे।) वे ज्यादा सटीक और ज्यादा मानकीकृत होंगे। हालाँकि ये विषय कुछ हद तक सरल हैं, फिर भी ये लोगों और चीजों पर मनुष्य के विचारों से, और मनुष्य के आचरण और कार्यों से सबसे व्यावहारिक, वास्तविक और निकटतम तरीके से संबंधित हैं—ये बिल्कुल भी खोखले नहीं हैं।

मैं इस विषय पर पहले ही बहुत-कुछ बोल चुका हूँ कि लोग अपनी धारणाओं के अनुसार किसे सही और अच्छा मानते हैं—मैंने इसे बार-बार दोहराया है, ताकि तुम लोग यह समझ सको कि हालाँकि ये विषय सत्य से एक हद तक हटा दिए गए हैं, और वे सत्य की ऊँचाई तक नहीं पहुँचते, फिर भी वे लोगों और चीजों के बारे में मनुष्य के विचारों और उसके आचरण और कार्यों से संबंधित हैं। इसलिए, इन विषयों को गैर-सत्य या एक तरह का ज्ञान या सिद्धांत न समझो। ये खोखले नहीं हैं। जिन चीजों को लोग अपनी धारणाओं में सही और अच्छा मानते हैं, वे हमेशा उनके दिल की गहराइयों में रहती हैं, उनके विचारों को नियंत्रित करती हैं, उस परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को नियंत्रित करती हैं जिससे वे लोगों और चीजों को देखते और आचरण और कार्य करते हैं। इसलिए, इन चीजों को स्पष्ट रूप से समझाया जाना चाहिए, ताकि लोग इन्हें समझ सकें और इनके बारे में विवेक हासिल कर सकें, और इस तरह अच्छे व्यवहार और इस तरह की चीजों के बारे में अपनी धारणाएँ छोड़ दें, और फिर कभी इन चीजों को लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यों के लिए सकारात्मक या व्यवहारगत मानदंड न मानें। ये चीजें परमेश्वर के वचन बिल्कुल नहीं हैं, इनका सत्य होना तो दूर की बात है। तुम लोगों को जो करने की आवश्यकता है, वह है लगातार उस दृष्टिकोण और रुख को सही करना, जिससे तुम लोगों और चीजों को देखते हो और आचरण और कार्य करते हो, साथ ही लगातार यह भी जाँचते रहना कि तुम्हारे दिमाग में उठने वाली प्रत्येक धारणा और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप है या नहीं। तुम्हें तुरंत अपनी भ्रामक धारणाओं और दृष्टिकोणों को उलट देना चाहिए, और फिर सही रुख पर कायम रहना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित व्यवहारगत मानदंडों का उपयोग करते हुए परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए। यह सत्य के अनुसरण का सबसे बुनियादी अभ्यास है। यह एक तरह की अनुसरण की दिशा और लक्ष्य भी है, जो तुममें उद्धार प्राप्त करने और सामान्य मानवता को जीने का प्रयास करते समय होना चाहिए। चूँकि तुम लोगों ने ये वचन अभी-अभी सुने हैं, हो सकता है कि इनके बारे में तुम्हारी समझ उतनी गहरी या ठोस न हो, लेकिन चिंता न करो। जब परमेश्वर के वचनों का तुम्हारा अनुभव लगातार गहरा होगा, और जब तुम लोग परंपरागत संस्कृति की धारणाओं के भीतर सही मानी जाने वाली चीजों का लगातार विश्लेषण और उनकी पहचान करोगे, तो तुम अंततः परंपरागत संस्कृति के विभिन्न दावे छोड़ने में सक्षम होगे। तुम फिर कभी लोगों के व्यवहार का मूल्यांकन परंपरागत संस्कृति के अनुसार नहीं करोगे; इसके बजाय, तुम लोगों का मूल्यांकन परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार करोगे। इस तरह, तुम परंपरागत संस्कृति की धारणाओं को पूरी तरह से हटा और त्याग चुके होगे। अगर तुम सत्य नहीं समझते, और सिर्फ सरल सिद्धांत समझते हो, और जानते हो कि परंपरागत संस्कृति द्वारा अपेक्षित व्यवहार अमान्य हैं, तो तुम सोच सकते हो, “मैं एक आधुनिक व्यक्ति हूँ, जो सांसारिक जन-समूह से अलग है। मैं बहुत परंपरागत नहीं हूँ और मैं वास्तव में परंपरागत संस्कृति से तंग आ चुका हूँ, मुझे थकाऊ रीति-रिवाजों और संस्कारों का पालन करना पसंद नहीं है।” लेकिन जब तुम लोगों और चीजों को देखते हो, तो तुम अभी भी बहुत स्वाभाविक रूप से उन्हें देखने और उनका मूल्यांकन करने के लिए अपनी पिछली धारणाओं का उपयोग करोगे। उस समय तुम्हें पता चलेगा कि एक आधुनिक व्यक्ति, जो पुराने जमाने का या बहुत परंपरागत नहीं है, और जो सत्य स्वीकार सकता है, होने के बारे में तुम्हारे सभी दावे वास्तव में झूठे और गलत थे, और कि तुम अपनी भावनाओं से धोखा खा गए थे। सिर्फ तभी तुम्हें पता चलेगा कि पुराने विचार, दृष्टिकोण और धारणाएँ बहुत पहले ही तुम्हारे हृदय में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं, और तुम्हारे अपनी धारणाएँ बदलने या कुछ विचार त्यागने पर वे तुरंत गायब नहीं होतीं। यह कहना कि तुम नए युग के व्यक्ति, एक आधुनिक व्यक्ति हो, सिर्फ एक सतही ठप्पा है; यह सिर्फ इसलिए है कि तुम एक अलग पीढ़ी और युग में पैदा हुए हो, लेकिन वे सभी चीजें जो पुराने जमाने की और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, जो सभी मनुष्यों के लिए सामान्य हैं, बिना किसी अपवाद के तुममें भी मौजूद हैं। अगर तुम इंसान हो, तो तुममें ये चीजें होंगी। अगर तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो ज्यादा अनुभव प्राप्त करो। एक दिन आएगा, जब तुम मेरे इन वचनों पर “आमीन” कहोगे। जो लोग आध्यात्मिक मामले नहीं समझते, और जो अहंकारी और अहम्मन्य हैं, वे सोचते हैं, “मेरे पास स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट की डिग्रियाँ है। मैं इस समाज में कई वर्षों से रह रहा हूँ, और मैं नए युग की संस्कृति और शिक्षा, खासकर पश्चिमी शिक्षा के संपर्क में आया हूँ। मैं अभी भी वे पुराने जमाने की चीजें मन में कैसे रख सकता हूँ? परंपराएँ सबसे खराब हैं। मैं उन बेकार नियमों से घृणा करता हूँ। जब मेरा परिवार इकट्ठा होकर परंपरागत चीजों और नियमों के बारे में बात करता है, तो मैं बिल्कुल नहीं सुनना चाहता।” इसे नकारने में जल्दबाजी न करो। अंततः एक दिन आएगा, जब तुम अपने ये विचार छोड़ दोगे। तुम स्वीकारोगे कि शैतान-भ्रष्ट मानवजाति का तुमसे ज्यादा साधारण सदस्य कोई नहीं हो सकता। हालाँकि तुमने स्वेच्छा से अपने अंदर पुराने जमाने की धारणाओं को स्वीकारा या उड़ेला नहीं था, लेकिन परंपरागत संस्कृति और मानवजाति के पूर्वजों ने तुम्हें उनसे बहुत पहले ही संक्रमित और अनुकूलित कर दिया था। ये चीजें, बिना किसी अपवाद के, तुम्हारे आंतरिक परिदृश्य में, और तुम्हारे विचारों और धारणाओं में मौजूद हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू सरल कथन नहीं हैं, न ही ये सरल कहावतें या नजरिये हैं। बल्कि, ये एक तरह की सोच और सिद्धांत हैं। इनकी मनुष्य को गुमराह और भ्रष्ट करने की तासीर होती है। ये कहावतें और नजरिये भ्रष्ट मानवता से नहीं आते, ये शैतान से आते हैं। अगर तुम शैतान की सत्ता के अधीन रह रहे हो, तो तुम इन चीजों से अनुकूलित, गुमराह और भ्रष्ट होने से नहीं बच सकते। अब जबकि तुमने मेरे वचन सुन लिए हैं, तुम पाओगे कि ये सब तथ्य और सत्य हैं। जब तुम मेरे इन वचनों का अनुभव कर लोगे, तो तुम पाओगे कि हालाँकि तुम्हें परंपरागत संस्कृति या थकाऊ रीति-रिवाज या निरर्थक नियम पसंद नहीं हैं, फिर भी लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यों के आधार अनिवार्य रूप से मनुष्य से आते हैं। वे परंपरागत संस्कृति के मूल से संबंधित हैं, वे परंपरागत संस्कृति के भीतर की चीजें हैं। लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार और तुम्हारा आचरण और तुम्हारे कार्य, सत्य को अपनी कसौटी मानते हुए, परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं हैं। उस समय, तुम जान लोगे, तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि सत्य प्राप्त करने से पहले लोग अगर सत्य का अनुसरण नहीं करते या उसे समझते नहीं, तो वे सबसे बुनियादी सामान्य मानवता को जीते हुए अपने साथ शैतान का विष, शैतान का एक अंश और शैतान की साजिशें लिए रहते हैं। वे जो कुछ भी जीते हैं, वह नकारात्मक होता है, जिसे परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत किया जाता है। यह सब देह का होता है, जिसका उन सकारात्मक चीजों से कोई लेना-देना नहीं होता, जिन्हें परमेश्वर प्रस्तुत और पसंद करता है, और जो उसकी इच्छा के अनुरूप हैं। उनमें कोई परस्पर-व्याप्ति नहीं होती, यहाँ तक कि उनमें कोई समानता भी नहीं होती। इन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखना बहुत महत्वपूर्ण है, वरना लोग यह नहीं जान पाएँगे कि सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ है। वे हमेशा उन अच्छे व्यवहारों से चिपके रहेंगे, जिन्हें मनुष्य सकारात्मक चीजें मानता है, इसलिए उनके व्यवहार और अभिव्यक्तियों को कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, तो वह उसे स्वीकारने और उसका अनुसरण करने में सक्षम होगा। वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखेगा और आचरण और कार्य करेगा। इस तरह, वह उस जीवन-पथ पर चलने में सक्षम होगा, जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताया है। परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना—सत्य का यह सिद्धांत मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और अनिवार्य है। यह सत्य का वह सिद्धांत है, जो उद्धार का अनुसरण करते समय और एक सार्थक जीवन जीने का प्रयास करते समय व्यक्ति के पास होना चाहिए। तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए। इस मामले में विकल्प की कोई गुंजाइश नहीं है और किसी के लिए भी कोई अपवाद नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और सत्य के इस सिद्धांत को नहीं स्वीकारते, तो चाहे तुम बूढ़े हो या जवान, ज्ञानी हो या नहीं, चाहे तुम आस्था वाले व्यक्ति हो या कम आस्था वाले व्यक्ति, और चाहे तुम जिस भी सामाजिक वर्ग से संबंधित हो, या तुम्हारी जो भी नस्ल हो, बिना किसी अपवाद के, तुम्हारा उन मानकों से कोई लेना-देना नहीं होगा, जिनकी परमेश्वर माँग करता है। तुम्हें जो करना चाहिए, वह है परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। तुम्हें यह कहते हुए चुनाव नहीं करना चाहिए, “अगर कोई चीज मेरी धारणाओं के अनुरूप हुई, तो मैं उसे सत्य के रूप में स्वीकार लूँगा और अगर वह मेरी धारणाओं के अनुरूप न हुई, तो मैं उसे स्वीकारने से मना कर दूँगा। मैं चीजों को अपने तरीके से करूँगा, मुझे सत्य का अनुसरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे लोगों, मामलों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के दृष्टिकोण से देखने की जरूरत नहीं है; मेरे अपने विचार हैं, और वे काफी उदात्त, वस्तुनिष्ठ और सकारात्मक हैं। वे परमेश्वर के वचनों से उतने भिन्न नहीं हैं, इसलिए, निस्संदेह, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य का स्थान ले सकते हैं। मुझे इस संबंध में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने या उनके अनुसार कार्य करने की आवश्यकता नहीं है।” अनुसरण करने का इस तरह का दृष्टिकोण और तरीका गलत है। व्यक्ति के विचार कितने भी अच्छे या सही क्यों न हों, फिर भी वे गलत होते हैं। वे किसी भी तरह से सत्य का स्थान नहीं ले सकते। अगर तुम सत्य नहीं स्वीकार सकते, तो तुम जो भी अनुसरण करोगे, वह गलत होगा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोगों के पास “परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने” के मामले में कोई विकल्प नहीं है। तुम बस इतना ही कर सकते हो कि कर्तव्यपरायणता से इस वाक्यांश के अनुसार कार्य करो, इसे कार्यान्वित करो और इसका व्यक्तिगत रूप से अनुभव करो, धीरे-धीरे इसका ज्ञान प्राप्त करो, अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानो, और इस वाक्यांश की वास्तविकता में प्रवेश करो। सिर्फ तभी अंतत : तुम्हारे द्वारा प्राप्त किया जाने वाला लक्ष्य वह लक्ष्य होगा, जिसे सत्य का अनुसरण करके प्राप्त करना चाहिए। अन्यथा तुम्हारी कड़ी मेहनत, तुम्हारे द्वारा त्यागी गई हर चीज और तुम्हारे द्वारा चुकाई गई सभी कीमतें भाप बनकर उड़ जाएँगी, वे सब व्यर्थ हो जाएँगी। क्या तुम समझ रहे हो?

सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) यह सही है। इन वचनों का कर्तव्यनिष्ठा से, पूर्ण रूप से और व्यापक रूप से अभ्यास करो। इस वाक्यांश को अपने अनुसरण का लक्ष्य और अपने जीवन की वास्तविकता बना लो, तब तुम वह व्यक्ति होगे जो सत्य का अनुसरण करता है। किसी भी तरह से दूषित न होओ, मनुष्य की किसी भी इच्छा से दूषित न होओ, और भाग्य की किसी भी मानसिकता को पकड़े न रहो। कार्य करने का यही सही तरीका है, और तब तुम लोगों को सत्य प्राप्त करने की आशा होगी। तो, क्या अच्छे व्यवहार के बारे में मनुष्य की धारणाओं पर संगति और उनका विश्लेषण करना आवश्यक है? (हाँ, आवश्यक है।) यह तुम लोगों को क्या सकारात्मक मार्गदर्शन और सहायता प्रदान कर सकता है? क्या ये वचन इस बात का आधार और कसौटी बन सकते हैं कि तुम लोग, लोगों और चीजों को कैसे देखते हो और कैसे आचरण और कार्य करते हो? (हाँ, बन सकते हैं।) अगर बन सकते हैं, तो अपनी सभाओं और भक्ति के दौरान इन दो संगतियों का अच्छी तरह से प्रार्थना-पाठ करो। जब तुम इन वचनों को पूरी तरह से समझ लोगे, तो तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को सही ढंग से देखने और आचरण और कार्य करने में सक्षम हो जाओगे। इस तरह, तुम जो कहते और करते हो, उसके लिए तुम्हारे पास एक आधार और कसौटी होगी। तुम लोगों को सही ढंग से देख पाओगे और चीजों को देखने का तुम्हारा नजरिया और रुख भी सही होगा। अब तुम लोगों और चीजों को अपनी भावनाओं या अनुभूतियों के आधार पर नहीं देखोगे, न ही परंपरागत संस्कृति या शैतानी फलसफों के आधार पर देखोगे। जब तुम्हारे पास सही आधार होगा, तो लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों के परिणाम अपेक्षाकृत सटीक होगे। क्या ऐसा ही नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, तुम लोग इन वचनों को बस ले या छोड़ नहीं सकते। मैं तुम लोगों के साथ एकत्र होकर इन विषयों पर इसलिए संगति नहीं कर रहा कि समय गुजार सकूँ या ऊब जाने के करण अपना मनोरंजन कर सकूँ। मैं ऐसा इसलिए करता हूँ, क्योंकि ये समस्याएँ सभी लोगों में आम हैं, और ये ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें लोगों को सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने के अपने मार्ग पर समझना चाहिए। लेकिन लोग अभी भी इन मुद्दों पर स्पष्ट नहीं हैं। वे अक्सर इन्हीं चीजों में बँधे और उलझे रहते हैं। ये समस्याएँ उन्हें बाधित और परेशान करती हैं। निस्संदेह, लोग उद्धार प्राप्त करने के मार्ग को भी नहीं समझते। चाहे निष्क्रिय परिप्रेक्ष्य से हो या सक्रिय परिप्रेक्ष्य से, या चाहे सकारात्मक परिप्रेक्ष्य से हो या नकारात्मक परिप्रेक्ष्य से, लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे इन समस्याओं पर स्पष्ट हैं और इन्हें समझते हैं। इस तरह, जब तुम वास्तविक जीवन में इस तरह की समस्याओं का सामना करते हो और अपने सामने एक विकल्प पाते हो, तो तुम सत्य खोजने में सक्षम होगे; समस्या को देखने का तुम्हारा नजरिया और रुख सही होगा, और तुम सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होगे। इस तरह, तुम्हारे निर्णयों और विकल्पों का आधार होगा, और वे परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होंगे। फिर कभी तुम शैतानी फलसफो और भ्रांतियों से गुमराह नहीं होगे; फिर कभी तुम शैतान के विषों और बेतुके दावों से परेशान नहीं होगे। फिर, जब लोगों और चीजों को देखने की बात आती है, जो कि सबसे बुनियादी स्तर है, तो तुम किसी चीज या व्यक्ति को देखने के तरीके में वस्तुनिष्ठ और न्यायपूर्ण होने में सक्षम होगे; तुम अपनी भावनाओं या शैतानी फलसफों से प्रभावित या नियंत्रित नहीं होगे। इसलिए, हालाँकि उन व्यवहारों को पहचानना और समझना, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं के अनुसार अच्छा मानते हैं, सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में एक बड़ा मामला नहीं है, फिर भी यह लोगों के दैनिक जीवन से निकटता से जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में, लोग अपने दैनिक जीवन में इन चीजों का अक्सर सामना करते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कुछ होता है, और तुम एक तरह से कार्य करना चाहते हो, लेकिन कोई दूसरा व्यक्ति एक अलग दृष्टिकोण सामने रखता है, और तुम उस तरीके से सहज नहीं हो जिससे वह व्यक्ति आम तौर पर व्यवहार करता है—तो तुम्हें उसके विचार को कैसे लेना चाहिए? तुम्हें इस मामले को कैसे सँभालना चाहिए? तुम्हारा बस उसे अनदेखा कर देना गलत होगा। चूँकि तुम उसके बारे में एक खास दृष्टिकोण या आकलन रखते हो, या एक निष्कर्ष जो तुमने उसके बारे में निकाल लिया है, इसलिए ये चीजें तुम्हारी सोच और निर्णय को प्रभावित करेंगी, और इनसे इस मामले पर तुम्हारा फैसला प्रभावित होने की संभावना है। यही कारण है कि तुम्हें उसका भिन्न दृष्टिकोण शांति से समझना चाहिए, और उसे सत्य के अनुसार पहचानना और स्पष्ट रूप से देखना चाहिए। अगर उन्होंने जो कहा, वह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, तो तुम्हें उसे स्वीकारना चाहिए। इस तरह की स्थिति या व्यक्ति का फिर से सामना करने पर अगर तुम मामला स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, तो तुम हमेशा भ्रमित, अप्रस्तुत, उत्तेजित और उद्विग्न महसूस करोगे। कुछ लोग स्थिति को देखने और उससे निपटने के लिए आत्यंतिक उपाय भी अपना सकते हैं, जिनके अंतिम परिणाम निश्चित रूप से कोई नहीं देखना चाहता। अगर तुम किसी व्यक्ति को देखने के लिए माप के उन मानकों का उपयोग करते हो जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो अंतिम परिणाम अच्छा और सकारात्मक होने की संभावना है—तुम दोनों के बीच कोई संघर्ष नहीं होगा और तुम्हारी आपस में बनेगी। हालाँकि, अगर तुम व्यक्ति को देखने के लिए शैतान के तर्क और अच्छे व्यवहार की मनुष्य की धारणाओं के मानकों का उपयोग करते हो, तो तुम दोनों में लड़ाई और बहस होने की संभावना है। इसका परिणाम यह होगा कि तुम्हारी आपस में नहीं बनेगी, और उसके बाद बहुत-सी चीजें होंगी : तुम एक-दूसरे का अवमूल्यन कर सकते हो, एक-दूसरे को नीचा दिखा सकते हो, और एक-दूसरे की आलोचना कर सकते हो, गंभीर मामलों में तुम एक-दूसरे के साथ हाथापाई तक कर सकते हो, और अंत में, दोनों पक्ष आहत होगे और हारेंगे। कोई यह नहीं देखना चाहता। इसलिए, जो चीजें शैतान लोगों में बिठाता है, वे कभी भी उन्हें किसी व्यक्ति या चीज को वस्तुनिष्ठ, न्यायपूर्ण या यथोचित रूप से देखने में मदद नहीं कर सकतीं। लेकिन जब लोग किसी चीज या व्यक्ति को उस व्यवहारगत मानदंड के अनुसार, जिसकी परमेश्वर माँग करता है और जिसे उसने मनुष्य को सूचित किया है, और परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार देखते और उसका मूल्यांकन करते हैं, तो अंतिम परिणाम निश्चित रूप से वस्तुनिष्ठ होगा, क्योंकि वह उग्रता या मनुष्य की भावनाओं और अनुभूतियों से दूषित नहीं होता। उससे अच्छी चीजें ही आ सकती हैं। इसके आलोक में, लोगों को क्या स्वीकारने की आवश्यकता है : अच्छी चीजों के बारे में मनुष्य की धारणाएँ या वह व्यवहारगत मानदंड, जिसकी परमेश्वर माँग करता है? (वह व्यवहारगत मानदंड, जिसकी परमेश्वर माँग करता है।) तुम सभी लोग इस प्रश्न का उत्तर जानते हो, और इसका सही तरह से उत्तर दे सकते हो। ठीक है, हम इस विषय पर अपनी संगति यहीं छोड़ेंगे। तुम लोगों को आगे जो करने की आवश्यकता है, वह है इन चीजों पर विचार और संगति जारी रखना, इन मुद्दों को एक व्यवस्थित तरीके से संगठित करना, अभ्यास के कई सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों के साथ आना, और फिर लगातार अपने दैनिक जीवन में उनसे गुजरना और उनका अनुभव करना, और इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना। स्वाभाविक रूप से, इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना सत्य की पहली वास्तविकता है, जिसका लोग अनुसरण कर उसमें प्रवेश करते हैं। इस तरह, अनुभव के दौरान लोग धीरे-धीरे इस संगति की विषयवस्तु के प्रत्येक पहलू की अलग-अलग मात्रा में समझ और ज्ञान तक पहुँचते हैं, और विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से उत्तरोत्तर लाभ प्राप्त करते हैं। जितना ज्यादा तुम प्राप्त करोगे, इन वचनों में उतना ही गहरा तुम्हारा अनुभवात्मक ज्ञान और प्रवेश होगा। जितना गहरे तुम उनमें प्रवेश और उनका अनुभव करोगे, लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यों में तुम्हारा प्रवेश और अनुभवात्मक ज्ञान उतना ही गहरा होगा। इसके विपरीत, अगर तुम इन वचनों में बिल्कुल भी प्रवेश नहीं करते, और बस इन वचनों का शाब्दिक अर्थ देखते और समझते हो, और इसे उसी पर छोड़ देते हो, उसी तरह जीते रहते हो जैसे हमेशा जीते रहे हो, समस्याएँ उत्पन्न होने पर सत्य नहीं खोजते, और उन समस्याओं को तुलना के लिए परमेश्वर के वचनों के सामने नहीं रखते, या परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका समाधान नहीं करते, तो तुम कभी परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे। यह कहने का क्या अर्थ है कि तुम कभी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे? इसका अर्थ यह है कि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से प्रेम करता है, और तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करोगे, क्योंकि तुम कभी सत्य को अपनी कसौटी मानकर, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखोगे या आचरण और कार्य नहीं करोगे। तुम कहते हो, “मैं अभी भी अच्छी तरह से जी रहा हूँ, भले ही मैं परमेश्वर के वचनों को अपने आधार के रूप में नहीं लेता या सत्य को अपनी कसौटी नहीं मानता।” “अच्छी तरह से जीने” से तुम्हारा क्या मतलब है? अगर तुम मरे नहीं हो, तो क्या चीजें ठीक चल रही हैं? तुम्हारे अनुसरण का लक्ष्य उद्धार प्राप्त करना नहीं है, और तुम सत्य नहीं स्वीकारते या समझते, फिर भी तुम कहते हो कि तुम अच्छी तरह से जी रहे हो। अगर ऐसा है, तो तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता औसत से बहुत कम है, और जिस मानवता को तुम जीते हो उसकी गुणवत्ता बहुत निम्न है। बोलचाल की कहावत उद्धृत करें तो, तुम एक व्यक्ति से ज्यादा राक्षस हो, क्योंकि तुम परमेश्वर के वचन नहीं खाते-पीते और सत्य नहीं समझते, तुम अभी भी शैतानी स्वभाव और शैतानी फलसफों से जीते हो—तुम मानव की खाल पहने सिर्फ एक गैर-मानव हो। ऐसे व्यक्ति के जीवन का क्या गुण या मूल्य होता है? इसका तुम्हें या दूसरों को कोई फायदा नहीं। इस तरह के जीवन की गुणवत्ता बहुत खराब है—इसका कोई मूल्य नहीं है।

क्या तुम लोग जानते हो कि मैं आज इन परंपरागत धारणाओं और परंपरागत संस्कृति पर संगति कर इनका विश्लेषण क्यों कर रहा हूँ? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं इन्हें पसंद नहीं करता? (नहीं, यह कारण नहीं है।) तो फिर इन विषयों पर संगति करने का क्या महत्व है? इसका अंतिम लक्ष्य क्या है? (इससे हमें यह जाँच करने में मदद मिलती है कि हम अभी भी परंपरागत संस्कृति द्वारा आरोपित कौन-से व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ पालते हैं, और कौन-से शैतानी फलसफों से जीते हैं। जब हम सत्य समझेंगे और विवेक प्राप्त करेंगे, तो हम उन माँगों और मानदंडों के अनुसार सामान्य मानवता को जीने में सक्षम होंगे जो परमेश्वर ने हमें दिए हैं, और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पाएँगे।) यह सही है, लेकिन थोड़ा शब्द-बहुल है। सबसे सरल और सबसे सीधा उत्तर क्या है? इन विषयों पर संगति करने का सिर्फ एक ही अंतिम लक्ष्य है, और वह है लोगों को यह समझाना कि सत्य क्या है, और सत्य का अभ्यास क्या है। जब लोग इन दो चीजों के बारे में स्पष्ट हो जाते हैं, तो वे उन अच्छे व्यवहारों के बारे में समझ पाते हैं, जिन्हें परंपरागत संस्कृति बढ़ावा देती है। फिर वे उन अच्छे व्यवहारों को सत्य का अभ्यास करने या मानवीय समानता को जीने के मानक नहीं समझते। सिर्फ सत्य समझकर ही लोग परंपरागत संस्कृति की बेड़ियाँ उतारकर फेंक सकते हैं, और सत्य का अभ्यास करने और उन अच्छे व्यवहारों के बारे में, जो लोगों के पास होने चाहिए, अपनी गलत समझ और विचारों को दूर कर सकते हैं। केवल इसी तरह से लोग सही तरीके से सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर सकते हैं। अगर लोग नहीं जानते कि सत्य क्या है और वे परंपरागत संस्कृति को ही सत्य मान लेते हैं, तो उनके अनुसरण की दिशा, लक्ष्य और मार्ग सब गलत हो जाएँगे। वे परमेश्वर के वचनों से अलग हो गए होंगे, सत्य का उल्लंघन कर चुके होंगे, और सच्चे मार्ग से भटक गए होंगे। इस तरह, वे अपनी ही राह पर चल रहे हैं और भटक रहे हैं। अगर सत्य को न समझने वाले लोग उसे खोजकर उसका अभ्यास करने में अक्षम रहते हैं, तो इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? वे सत्य प्राप्त नहीं करेंगे। और अगर वे सत्य प्राप्त नहीं करते, तो वे लोग चाहे कितनी भी मेहनत से विश्वास करें, वह कुछ नहीं माना जाएगा। इसलिए, इन परंपरागत धारणाओं और परंपरागत संस्कृति के इन दावों पर आज की संगति और इनका विश्लेषण सभी विश्वासियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और अत्यधिक अर्थपूर्ण विषय है। तुम लोग परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन क्या तुम वास्तव में समझते हो कि सत्य क्या है? क्या तुम वास्तव में जानते हो कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है? क्या तुम अपने लक्ष्यों के बारे में निश्चित हो? क्या तुम अपने मार्ग के बारे में निश्चित हो? अगर तुम किसी भी चीज के बारे में निश्चित नहीं हो, तो तुम सत्य का अनुसरण कैसे कर सकते हो? क्या तुम गलत चीज का अनुसरण कर सकते हो? क्या तुम मार्ग से भटक सकते हो? इसकी अत्यधिक संभावना है। इसलिए, हालाँकि आज मैं जिन वचनों पर संगति कर रहा हूँ, वे सतह पर बहुत सरल लगते हैं, वचन जिन्हें लोग सुनते ही तुरंत समझ जाते हैं, और तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य से, वे उल्लेखनीय तक नहीं लगते, फिर भी यह विषय और यह विषयवस्तु सीधे सत्य से संबंधित है, और परमेश्वर की माँगों से सरोकार रखती है। यह वह चीज है, जिसके बारे में तुम लोगों में से अधिकांश को जानकारी नहीं है। हालाँकि, सिद्धांत के तौर पर, तुम लोग समझते हो कि परंपरागत संस्कृति और मनुष्य के सामाजिक विज्ञान सत्य नहीं हैं, और कि नस्ली रीति-रिवाज और प्रथाएँ निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं, पर क्या तुम लोग वास्तव में इन चीजों का सार स्पष्ट रूप से देखते हो? क्या तुम लोगों ने वास्तव में इन चीजों की बेड़ियाँ उतार फेंकी हैं? आवश्यक रूप से नहीं। परमेश्वर के घर ने कभी भी लोगों से नस्ली संस्कृति, रीति-रिवाजों और प्रथाओं का अध्ययन करने के लिए प्रयास करने की अपेक्षा नहीं की है, और परमेश्वर के घर ने निश्चित रूप से लोगों से परंपरागत संस्कृति से कुछ भी स्वीकार नहीं करवाया है। परमेश्वर के घर ने कभी भी इन चीजों का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी, आज जिस विषय पर मैं संगति कर रहा हूँ, वह बहुत महत्वपूर्ण है। मेरे लिए यह स्पष्ट रूप से कहना आवश्यक है, ताकि तुम लोग समझ सको। मेरे इन चीजों को कहने का लक्ष्य लोगों को सत्य और परमेश्वर की इच्छा समझाने के अलावा कुछ नहीं है, लेकिन क्या तुम सब लोग समझ सकते हो कि मैं क्या कह रहा हूँ? अगर तुम लोग कुछ प्रयास करते हो, थोड़ी कीमत चुकाते हो, और इसमें कुछ ऊर्जा लगाते हो, तो तुम अंततः इस क्षेत्र में लाभ प्राप्त करने में सक्षम होगे और इन सत्यों को समझने में सफल होगे। और इन सत्यों को समझकर, और फिर इन सत्यों की वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करके, तुम्हारे लिए परिणाम प्राप्त करना आसान होगा।

जिन चीजों को लोग अपनी धारणाओं के अनुसार सही और अच्छा मानते हैं, उनका एक पहलू, जिस पर हमने पहले संगति की थी, मनुष्य का अच्छा व्यवहार था। दूसरा पहलू क्या था? (नैतिकता और मनुष्य की मानवता की गुणवत्ता।) सरल शब्दों में, यह मनुष्य का नैतिक आचरण है। हालाँकि सभी भ्रष्ट मनुष्य अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, फिर भी वे स्वाँग रचने में असाधारण रूप से अच्छे होते हैं। खास तौर से सतह-स्तर के नजरियों और व्यवहारों से संबंधित कहावतों के अलावा उन्होंने मनुष्य के नैतिक आचरण से संबंधित कई कथन और अपेक्षाएँ भी प्रस्तुत की हैं। नैतिक आचरण के बारे में कौन-सी कहावतें लोगों के बीच प्रचलित हैं? जिन्हें तुम लोग जानते हो और जिनसे परिचित हो, उन्हें सूचीबद्ध करो, फिर हम विश्लेषण और संगति करने के लिए कुछ आम कहावतें चुनेंगे। (उठाए गए धन को जेब में मत रखो। दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ।) (दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए।) (दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो।) (बुराई का बदला भलाई से चुकाओ।) (महिला को धार्मिक, दयालु और विनम्र होना चाहिए।) (अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो।) हाँ, ये सभी अच्छे उदाहरण हैं। इनके अलावा ये भी हैं, “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” और “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें।” ये सभी अपेक्षाएँ मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में रखी गई हैं। क्या कोई और भी हैं? (एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।) यह भी मनुष्य की परंपरागत संस्कृति द्वारा मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में और लोगों के नैतिक आचरण के मूल्यांकन के लिए एक मानक के रूप में रखी गई अपेक्षा है। और क्या है? (दूसरों के साथ वह मत करो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते।) यह थोड़ा सरल है, यह मायने भी रखता है। ये भी हैं, “मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा,” “वफादार मंत्री दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकता, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” और “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो।” क्या ये कुछ और उदाहरण नहीं हैं? (हाँ, हैं।) ऐसा ही यह है, “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती ख़त्म होने तक जलती रहेंगी।” देखो, मनुष्य के आचरण और व्यवहार के लिए उनकी अपेक्षाएँ कितनी ऊँची हैं! वे चाहते हैं कि लोग पूरी जिंदगी मोमबत्ती की तरह जलते रहें और राख हो जाएँ। व्यक्ति को उच्च नैतिक चरित्र वाला तभी माना जाता है, जब वह इस तरह से आचरण करता है। क्या यह बड़ी अपेक्षा नहीं है? (हाँ, है।) हजारों वर्षों से लोग परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं से प्रभावित और बँधे हैं, और इसका परिणाम क्या हुआ है? क्या वे इंसानों की तरह जी रहे हैं? क्या वे सार्थक जीवन जी रहे हैं? लोग परंपरागत संस्कृति द्वारा अपेक्षित इन चीजों के लिए जीते हैं, इनके लिए अपनी जवानी या अपना पूरा जीवन तक कुरबान कर देते हैं, और पूरे समय यह मानते रहते हैं कि उनका जीवन बहुत गर्वपूर्ण और गौरवशाली है। अंत में, जब वे मरते हैं, तो वे नहीं जानते कि वे किसलिए मरे, या क्या उनकी मृत्यु का कोई मूल्य और अर्थ था, या क्या उन्होंने अपने स्रष्टा की माँगें पूरी कीं। लोग इन चीजों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में परंपरागत संस्कृति की और कौन-सी कहावतें और अपेक्षाएँ हैं? “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” और “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे अच्छी तरह से सँभालने की पूरी कोशिश करो,” ये उपयुक्त हैं। यह भी है, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” यह एक ऐसी अपेक्षा है, जो मनुष्य की विश्वसनीयता से संबंधित है। क्या कुछ और है? (कीचड़ में कमल की तरह साफ-सुथरे उगो।) इस वाक्यांश की इस विषय के साथ कुछ अतिव्याप्ति है। मैं समझता हूँ, हमने पर्याप्त उदाहरण सूचीबद्ध कर दिए हैं। जो कहावतें हमने अभी-अभी शामिल की हैं, उनमें मनुष्य के समर्पण, देशभक्ति, विश्वसनीयता, शुद्धता; साथ ही दूसरों के साथ बातचीत करने के सिद्धांतों, और लोगों को अपनी मदद करने वाले व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, या दयालुता का बदला कैसे चुकाना चाहिए, इत्यादि के बारे में की गई अपेक्षाएँ शामिल हैं। इनमें से कुछ कहावतें सरल हैं, जबकि दूसरी कहावतें थोड़ी गहरी हैं। सबसे सरल हैं : “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” और, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए।” ये माँगें मनुष्य के आचरण से संबंधित हैं। “वफादार मंत्री दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकता, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” लोगों की नैतिक अखंडता और शुद्धता से संबंधित माँग है। ये कमोबेश परंपरागत चीनी संस्कृति की “परोपकार, धार्मिकता, औचित्य, ज्ञान और विश्वसनीयता,” की अवधारणाओं के दायरे में आती हैं। हमने अभी कितनी कहावतें सूचीबद्ध की हैं? (इक्कीस।) मुझे वे पढ़कर सुनाओ। (“उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो,” “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ,” “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” “महिला को धार्मिक, दयालु और विनम्र होना चाहिए,” “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें,” “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “दूसरों के साथ वह मत करो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” “मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा,” “वफादार मंत्री दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकता, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती ख़त्म होने तक जलती रहेंगी,” “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे अच्छी तरह से सँभालने की पूरी कोशिश करो,” “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” और “कीचड़ में कमल की तरह साफ-सुथरे उगो।”) आज हम उन सभी प्रकार के “अच्छे” गुणों का एक उन्नत अध्ययन करेंगे, जिन्हें मनुष्य ने नैतिक आचरण के बारे में सारांशित किया है। नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति के विभिन्न दावे मनुष्य की मानवता और नैतिक आचरण के लिए विभिन्न अपेक्षाएँ सामने रखते हैं। कुछ अपेक्षा करते हैं कि लोग खुद को मिली दयालुता का बदला चुकाएँ, कुछ माँग करते हैं कि लोग दूसरों की मदद करने में आनंद लें, कुछ ऐसे लोगों से व्यवहार करने के तरीके हैं जिन्हें व्यक्ति नापसंद करता है, जबकि अन्य दूसरे लोगों की खामियों और कमियों से या ऐसे लोगों निपटने के तरीके हैं जिनके साथ समस्याएँ हैं। इन क्षेत्रों में, वे लोगों को सीमाएँ प्रदान करते हैं, और कुछ माँगें और मानक सामने रखते हैं। ये सभी ऐसी माँगें और मानक हैं, जो परंपरागत संस्कृति में मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में हैं, और ये सभी ऐसी चीजें हैं जो लोगों के बीच परिचालित की जाती हैं। जो कोई भी चीन में पला-बढ़ा है, उसने ये चीजें अक्सर सुनी होंगी, और वह इन्हें दिल से जानता होगा। परंपरागत संस्कृति से नैतिक आचरण के बारे में ये दावे कमोबेश परोपकार, धार्मिकता, औचित्य, ज्ञान और विश्वसनीयता के दायरे में आते हैं। बेशक, कुछ कहावतें इस दायरे से बाहर भी हैं, लेकिन सभी प्रमुख कहावतें कमोबेश इसके दायरे में आती हैं। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए।

आज हम इस बारे में ठोस तरीके से संगति नहीं करेंगे कि नैतिक आचरण पर किसी विशेष कथन का क्या प्रयोजन है, न ही हम ठोस तरीके से इसका विश्लेषण करेंगे कि किसी विशेष कहावत का सार क्या है। मैं तुम लोगों से पहले थोड़ा प्रारंभिक अध्ययन करवाऊँगा। देखो कि नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति के दावों और उन मानकों के बीच क्या अंतर हैं, जिनकी माँग परमेश्वर मनुष्य से सामान्य मानवता को जीने के लिए करता है। परंपरागत संस्कृति की कौन-सी कहावतें स्पष्ट रूप से परमेश्वर के वचनों और सत्य के विपरीत हैं? अगर शाब्दिक रूप से व्याख्या की जाए, तो कौन-सी कहावतें परमेश्वर के वचनों और सत्य से मिलती-जुलती हैं, या उनसे कुछ हद तक जुड़ी हुई हैं? इनमें से किन कहावतों को तुम सकारात्मक चीजें मानते हो, और परमेश्वर में विश्वास करने के बाद तुमने इनमें से किन कहावतों से तुम कड़ाई से चिपके रहे हो और उनका अभ्यास और अनुपालन ऐसे किया है, मानो वे सत्य के तुम्हारे अनुसरण के मानदंड हों? उदाहरण के लिए, “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो।” क्या तुम सभी लोग इस कहावत से परिचित हो? परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद, क्या तुमने नहीं सोचा कि तुम्हें इस तरह का अच्छा इंसान बनना चाहिए? और जब तुमने दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दिए, तो क्या तुमने यह नहीं सोचा कि तुममें बहुत अच्छी मानवता है और परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पसंद करेगा? या, परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, शायद तुम मानते थे कि जिन लोगों में “बुराई का बदला भलाई से चुकाने” का गुण है, वे अच्छे लोग हैं—तुम ऐसा करने के इच्छुक नहीं थे, तुम ऐसा करने में असमर्थ थे, और इसे कायम नहीं रख पाए थे, लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, तुमने खुद को उस मानक पर कायम रखा, और तुम उन लोगों के प्रति “क्षमा करके भूलने” का अभ्यास करने में सक्षम हो गए, जिन्होंने तुम्हें अतीत में चोट पहुँचाई थी या जिनसे तुम नाराज थे या जिन्हें नापसंद करते थे। शायद तुम्हें लगे कि नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत उसके अनुरूप है कि जब प्रभु यीशु ने लोगों को सात बार के सत्तर गुने तक क्षमा करने के लिए कहा था, और इस तरह, इसके अनुसार तुम खुद को संयमित करने के बहुत इच्छुक हो गए। तुम इसका इस तरह अभ्यास और पालन भी कर सकते हो, जैसे कि यह सत्य हो, और सोच सकते हो कि जो लोग बुराई का बदला भलाई से चुकाने का अभ्यास करते हैं, वे ऐसे लोग हैं, जो सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हैं। क्या तुम लोगों में इस तरह के विचार या अभिव्यक्तियाँ हैं? तुम लोगों को अब भी कौन-सी कहावत सार में सत्य और परमेश्वर के वचनों के इस हद तक समान लगती है कि वह सत्य का स्थान तक ले सकती है, और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह सत्य है? बेशक, इस कहावत को समझना आसान होना चाहिए : “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” अधिकांश लोग देख सकते हैं कि यह कहावत सत्य नहीं है, और यह सिर्फ एक भ्रामक, आडंबरपूर्ण नारा है। “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” ऐसी चीज है, जो परमेश्वर में आस्था न रखने वाले अविश्वासियों से कही जाती है; यह वह अपेक्षा है, जो किसी देश की सरकार अपने लोगों से करती है ताकि वे अपने देश से प्यार करना सीखें। यह कहावत सत्य के साथ असंगत है, और परमेश्वर के वचनों में इसका बिल्कुल भी कोई आधार नहीं है। कहा जा सकता है कि यह कहावत मूलभूत रूप से सत्य नहीं है, और यह सत्य का स्थान नहीं ले सकती। यह कहावत वह दृष्टिकोण है, जो पूरी तरह से शैतान से आता है और शैतान में उत्पन्न होता है, और यह शासक वर्ग के काम आता है। इसका परमेश्वर के वचनों या सत्य से बिल्कुल भी कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” कहावत बिल्कुल भी सत्य नहीं है, और न ही यह कोई ऐसी चीज है, जिसका पालन सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को करना चाहिए। तो, किस तरह के लोग इस कहावत को सत्य समझने की भूल कर सकते हैं? वे लोग, जो हमेशा प्रतिष्ठा, हैसियत और व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के तरीके खोजते रहते हैं, और वे लोग, जो अधिकारी बनना चाहते हैं। शासक वर्गों की लल्लो-चप्पो करके अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे इस कहावत का अभ्यास इस तरह करते हैं, जैसे कि यह सत्य हो। कुछ कहावतें ऐसी हैं, जिन्हें समझ पाना लोगों के लिए आसान नहीं होता। हालाँकि लोग जानते हैं कि ये कहावतें सत्य नहीं हैं, फिर भी वे अपने हृदय में महसूस करते हैं कि ये कहावतें सही और सिद्धांत के अनुरूप हैं। अपनी नैतिकता का स्तर बढ़ाने और अपना व्यक्तिगत आकर्षण बढ़ाने लिए वे इन कहावतों के अनुसार जीना और आचरण करना चाहते हैं, और साथ ही इसलिए भी ऐसा करना चाहते हैं ताकि दूसरे यह सोचें कि उनमें मानवता है और वे गैर-मानव नहीं हैं। तुम लोगों के लिए कौन-सी कहावतें समझना मुश्किल था? (मुझे लगता है कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” को समझना बहुत मुश्किल था। मैंने इसे ऐसे लिया, जैसे कि यह एक सकारात्मक चीज हो, और मुझे लगता था कि जो लोग दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाते हैं, वे वो लोग हैं जिनमें जमीर है। “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे अच्छी तरह से सँभालने की पूरी कोशिश करो,” ऐसी दूसरी कहावत है। इसका मतलब यह है कि चूँकि किसी ने किसी और से कोई कार्य स्वीकार किया है, इसलिए उसे यह सुनिश्चित करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए कि उसे अच्छी तरह से किया जाए। मैंने महसूस किया कि यह एक सकारात्मक चीज है, और ऐसी चीज है जिसे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति को करना चाहिए।) और कौन बताना चाहेगा? (यह भी है, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।” मुझे लगता था कि जो व्यक्ति ऐसा कर सकता है, वह सापेक्ष मानवता और नैतिकता वाला व्यक्ति है।) और कुछ? (“सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” मैं सोचता था कि अगर कोई व्यक्ति वह करता है जो वह कहता है और विश्वसनीय है, तो यह अच्छा नैतिक आचरण है।) पहले, तुम सोचते थे कि यह अच्छा नैतिक आचरण है। अब तुम इसे कैसे देखते हो? (हमें यह देखना होगा कि इस “वचन” की प्रकृति क्या है—यह सही है या गलत है? यह सकारात्मक है या नकारात्मक है? अगर कोई दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों से कहता है, “मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” और फिर, जब परमेश्वर का घर जाँच कर स्थिति की छानबीन करता है, और यह व्यक्ति उन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों की रक्षा करता है, तो वह बुराई और परमेश्वर का विरोध कर रहा है।) यह समझ सही है। तुम्हें इस “वचन” की प्रकृति अवश्य देखनी चाहिए—कि यह सकारात्मक है या नकारात्मक। अगर कोई “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” का अभ्यास करते हुए कुछ खराब या बुरा करता है, तो उसके दुष्कर्म के पदचिह्न तेज घोड़ों की विक्षिप्त दौड़ की तरह होते हैं, जो दौड़ते हुए सीधे नरक में जाते हैं और अथाह गड्ढे में जा गिरते हैं। लेकिन अगर उसका “वचन” सत्य के अनुरूप है, और उसमें धार्मिकता का बोध है, और वह परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करता है, और परमेश्वर को प्रसन्न करता है, तो “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” का अभ्यास करना सही है। इन उदाहरणों से तुम समझ सकते हो कि तुम्हें परंपरागत संस्कृति के वचनों के प्रति विवेकशील होना चाहिए। तुम्हें विभिन्न स्थितियों और पृष्ठभूमियों को पहचानना चाहिए, तुम इन शब्दों का अंधाधुंध उपयोग नहीं कर सकते। कुछ शब्द हैं, जो स्पष्ट रूप से वास्तविकता से मेल नहीं खाते, और स्पष्ट रूप से गलत हैं। इन शब्दों के साथ पेश आते समय तुम्हें विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए। तुम्हें उनसे वैसे ही पेश आना चाहिए जैसे पाखंडों और भ्रांतियों से आते हो। कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जो सिर्फ कुछ संदर्भों और दायरों में ही सही होते हैं। अलग संदर्भ या परिवेश में वे शब्द नहीं टिकते; वे गलत और लोगों के लिए हानिकारक होते हैं। अगर तुम उन्हें पहचान नहीं सकते, तो उनके द्वारा तुम्हें विषाक्त किए जाने और नुकसान पहुँचाए जाने की संभावना है। चाहे परंपरागत संस्कृति के शब्द सही हों या गलत, या चाहे वे मनुष्य की नजरों में सही हों या नहीं, उनमें से कोई भी सत्य नहीं है और उनमें से कोई भी परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है। यह निश्चित है। जिन चीजों को मनुष्य सही मानता है, जरूरी नहीं कि उन्हें परमेश्वर भी सही मानता हो। जिन बातों को मनुष्य अच्छा समझता है, जरूरी नहीं कि अभ्यास में लाए जाने पर वे लोगों के लिए लाभदायक ही हों। जो भी हो, चाहे लोग उनका अभ्यास करें या न करें, या उनके लिए उनका उपयोग हो या नहीं, जो चीजें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, वे सत्य नहीं हैं, वे सब मनुष्य के लिए हानिकारक हैं, उन्हें स्वीकार और उनका उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो इन चीजों को समझने में असमर्थ हैं। वे उन चीजों को सत्य मानते हैं, जिन्हें मनुष्य सही मानता है या जिन्हें भ्रष्ट मानवजाति आम तौर पर सही मानती है, और उनका इस तरह पालन और अभ्यास करते हैं मानो वे सत्य हों। क्या यह उचित है? क्या झूठे और छद्म सत्यों का अभ्यास करके परमेश्वर की स्वीकृति पाई जा सकती है? जिस किसी चीज को मानवजाति सामान्य रूप से सही और सत्य स्वीकारती है, वह झूठ है, नकल है, और उसे हमेशा के लिए खारिज कर दिया जाना चाहिए। अब, क्या वे चीजें, जिन्हें तुम लोग सही और सकारात्मक समझते हो, वास्तव में सत्य हैं? हजारों वर्षों में, किसी भी व्यक्ति ने कभी इन शब्दों का खंडन नहीं किया है; सभी लोग मानते हैं कि ये शब्द सही और सकारात्मक हैं, पर क्या ये शब्द वास्तव में सत्य बन सकते हैं? (नहीं, वे नहीं बन सकते।) अगर ये शब्द सत्य नहीं बन सकते, तो क्या वे सत्य हैं? (नहीं, वे सत्य नहीं हैं।) वे सत्य नहीं हैं। अगर लोग इन शब्दों को सत्य मानते हैं, और इन्हें परमेश्वर के वचनों के साथ मिलाकर इनका एक-साथ अभ्यास करते हैं, तो क्या ये शब्द और कहावतें सत्य के स्तर तक उठ सकती हैं? वे बिल्कुल नहीं उठ सकतीं। चाहे लोग इन चीजों का कैसे भी अनुसरण करें या कैसे भी उनसे चिपके रहें, परमेश्वर उन्हें कभी स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि परमेश्वर पवित्र है। वह भ्रष्ट मनुष्यों को सत्य या अपने वचनों में शैतानी चीजें बिल्कुल भी मिलाने नहीं देता। मनुष्य के विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होने वाली सभी चीजें शैतान से आती हैं—चाहे वे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, वे सत्य नहीं हैं और वे व्यक्ति का जीवन नहीं बन सकतीं।

नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति की कहावतें शैतान से आती हैं। वे भ्रष्ट मनुष्यों के बीच उत्पन्न हुई हैं, और वे सिर्फ अविश्वासियों और सत्य से प्रेम न करने वालों के लिए ही उपयुक्त हैं। परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को पहले इन चीजों को समझने और नकारने में सक्षम होना चाहिए, क्योंकि इन कहावतों का लोगों पर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, वे उन्हें दिग्भ्रमित कर गलत रास्ते पर ले जाएँगी। उदाहरण के लिए, हमने अभी जो उदाहरण दिए, उनमें एक कहावत है : “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती।” आओ, पहले इस बारे में बात करते हैं, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती।” अगर यह राजा एक बुद्धिमान, सक्षम और सकारात्मक व्यक्ति है, तो तुम्हारा उसका समर्थन, अनुसरण और बचाव करना दर्शाता है कि तुममें मानवता, आचार-विचार और नेक चरित्र है। लेकिन अगर राजा निरंकुश और मूर्ख है, शैतान है, और तुम फिर भी उसका अनुसरण और बचाव करते हो और उसके खिलाफ नहीं जाते, तो तुममें यह कैसी “वफादारी” है? यह एक मूर्खतापूर्ण, अंधी वफादारी है; यह अंधी और मूर्खतापूर्ण है। उस स्थिति में, तुम्हारी वफादारी गलत है और वह एक नकारात्मक चीज बन गई है। जब इस तरह के राक्षस राजा और शैतान की बात आती है, तो तुम्हें अब इस कहावत : “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती,” का पालन नहीं करना चाहिए। तुम्हें इस राजा को त्याग और नकार देना चाहिए और उससे दूर हो जाना चाहिए—तुम्हें अँधेरा त्याग देना चाहिए और प्रकाश चुनना चाहिए। अगर तुम अभी भी इस दानव राजा के प्रति वफादार रहना चुनते हो, तो तुम उसके अनुचर और अपराध के साथी हो। इसलिए, कुछ परिस्थितियों और संदर्भों में, वह विचार या सकारात्मक अर्थ और मूल्य, जिनकी यह कहावत बड़ाई करती है, मौजूद नहीं रहते। इससे तुम देख सकते हो कि हालाँकि यह कहावत बहुत धार्मिक और सकारात्मक लगती है, इसका प्रयोग कुछ विशेष परिस्थितियों और संदर्भों तक ही सीमित है; यह हर परिस्थिति या संदर्भ में लागू नहीं होती। अगर लोग आँख मूँदकर और मूर्खतापूर्वक इस कहावत का पालन करते हैं, तो वे अपना रास्ता खो देंगे और गलत रास्ते पर जा गिरेंगे। इसके परिणाम अकल्पनीय हैं। इस कहावत में अगला खंड है : “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती।” “अच्छी महिला” से यहाँ क्या आशय है? यह एक ऐसी महिला को संदर्भित करता है जो पवित्र है, जो सिर्फ एक पति के प्रति वफादार है। उसे अंत तक उसी के प्रति वफादार रहना चाहिए, और कभी उसका मन बदलना नहीं चाहिए, चाहे वह अच्छा व्यक्ति हो या नहीं। अगर उसका पति मर भी जाए, तो भी उसे आजीवन विधवा ही रहना चाहिए। वह एक तथाकथित पवित्र और वफादार पत्नी है। परंपरागत संस्कृति सभी महिलाओं से पवित्र और वफादार पत्नी होने की अपेक्षा करती है। क्या यह महिलाओं के साथ पेश आने का उचित तरीका था? पुरुष एक से ज्यादा पत्नियाँ क्यों रख सकते थे, और पति के मर जाने पर भी महिलाएँ पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती थीं? पुरुषों और महिलाओं को समान दर्जा प्राप्त नहीं था। अगर महिला इन शब्दों से विवश रहे कि “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” और पवित्र और वफादार पत्नी बनने का चुनाव करे, तो उसे क्या हासिल होगा? ज्यादा से ज्यादा, उसकी मृत्यु के बाद उसकी पवित्रता की याद में एक स्मारक बनाया जाता। क्या यह सार्थक है? क्या तुम लोग इस बात से सहमत हो कि जीवन में महिलाओं की नियति बहुत कठिन थी? पति की मृत्यु के बाद उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार क्यों नहीं था? यह वह दृष्टिकोण है, जिसकी परंपरागत संस्कृति बड़ाई करती है, और यह एक ऐसी धारणा है, जिससे मानवजाति हमेशा चिपकी रही है। अगर किसी महिला का पति अपने पीछे कई बच्चे छोड़कर मर गया हो और वह उनकी देखभाल करने में असमर्थ हो, तो वह क्या कर सकती थी? उसे भोजन के लिए भीख माँगनी पड़ती। अगर वह अपने बच्चों को कष्ट में न देखना चाहती और जीवित रहने का कोई रास्ता खोजना चाहती, तो उसे पुनर्विवाह करना पड़ता और बदनाम होना, और जनमत की निंदा सहनी होती और समाज और जनता द्वारा परित्यक्त और तिरस्कृत होकर रहना पड़ता। उसे शर्मिंदा होना पड़ता और समाज के हाथों अपमान सहना पड़ता, ताकि उसके बच्चों की सामान्य परवरिश हो सके। इस परिप्रेक्ष्य से, हालाँकि वह “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” के मानक पर खरी नहीं उतरी, पर क्या उसके व्यवहार, नजरिये और बलिदान सम्मान के योग्य नहीं थे? कम से कम जब उसके बच्चे बड़े होंगे और अपनी माँ के प्यार को समझेंगे, तो वे उसका सम्मान करेंगे और निश्चित रूप से उसके व्यवहार के लिए उसे नीची निगाह से नहीं देखेंगे या उससे किनारा नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे उसके आभारी होंगे, और सोचेंगे कि उनकी जैसी माँ असाधारण है। हालाँकि, जनमत उनसे सहमत नहीं होगा। समाज के परिप्रेक्ष्य से, जो “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” के परिप्रेक्ष्य के समान है, जिसकी मनुष्य वकालत करता है, चाहे तुम इसे कैसे भी देखो, यह माँ एक अच्छी इंसान नहीं थी, क्योंकि उसने नैतिकता की इस परंपरागत धारणा का उल्लंघन किया। नतीजतन, वे उस पर समस्याग्रस्त नैतिक आचरण का ठप्पा लगाएँगे। तो फिर, उसके प्रति उसके बच्चों के विचार और दृष्टिकोण परंपरागत संस्कृति के दृष्टिकोण से भिन्न क्यों होंगे? क्योंकि उसके बच्चे इस मुद्दे को जीवित रहने के परिप्रेक्ष्य से देखेंगे। अगर इस महिला ने पुनर्विवाह न किया होता, तो उसके और उसके बच्चों के पास जीवित रहने का कोई साधन न होता। अगर वह इस परंपरागत धारणा पर टिकी होती, तो उसके पास जीने का कोई रास्ता न होता—वह भूखों मर जाती। उसने अपनी और अपने बच्चों की जान बचाने के लिए दोबारा शादी करने का चुनाव किया। इस संदर्भ के आलोक में, क्या परंपरागत संस्कृति और जनमत द्वारा उसकी निंदा पूरी तरह से गलत नहीं है? उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि लोग जीते हैं या मरते हैं! तो, नैतिकता की इस परंपरागत धारणा को बनाए रखने का क्या अर्थ और मूल्य है? कहा जा सकता है कि इसमें कोई मूल्य ही नहीं है। यह ऐसी चीज है, जो लोगों को चोट और नुकसान पहुँचाती है। इस धारणा के शिकार के रूप में, इस महिला और उसके बच्चों ने इस तथ्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया, लेकिन किसी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया या उनके साथ सहानुभूति नहीं जताई। वे अपना दर्द सहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। तुम लोग क्या सोचते हो, क्या यह समाज न्यायसंगत है? इस तरह का समाज और देश इतना दुष्ट और अँधकार से भरा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परंपरागत संस्कृति, जिसे शैतान ने मनुष्य में रोपा है, अभी भी लोगों की सोच को नियंत्रित करती है और जनमत पर हावी है। आज तक कोई भी व्यक्ति इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया है। अविश्वासी अभी भी परंपरागत संस्कृति की धारणाओं और विचारों से चिपके हुए हैं, और सोचते हैं कि वे सही हैं। आज तक उन्होंने इन चीजों का त्याग नहीं किया है।

अब, जब हम इस कहावत को देखते हैं, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” तो तुम देख सकते हो कि चाहे हम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखें, यह सकारात्मक चीज नहीं है, यह विशुद्ध रूप से मनुष्य की धारणा और कल्पना है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह सकारात्मक चीज नहीं है? (क्योंकि यह सत्य नहीं है, यह मनुष्य की धारणा और कल्पना है।) वास्तव में, बहुत कम लोग वह कर सकते हैं, जो यह वाक्यांश कहता है। यह सिर्फ एक खोखला सिद्धांत और मनुष्य की धारणा और कल्पना है, लेकिन चूँकि इसने लोगों के दिलों में जड़ें जमा लीं, इसलिए यह एक तरह का लोकप्रिय जनमत बन गया, और कई लोगों ने इसी के अनुसार इस तरह के मामलों का आकलन किया। तो, उस परिप्रेक्ष्य और रुख का सार क्या है, जिससे लोकप्रिय जनमत इस तरह के मामलों का आकलन करता है? लोकप्रिय जनमत ने पुनर्विवाह करने वाली महिला का इतनी कठोरता से आकलन क्यों किया? लोगों ने इस तरह के इंसान की आलोचना क्यों की, उससे दूर क्यों रहे और उसे हेय दृष्टि से क्यों देखा? कारण क्या था? तुम लोग नहीं समझते, है न? जब तथ्यों की बात आती है, तो तुम लोग अस्पष्ट रहते हो; तुम बस इतना जानते हो कि यह सत्य नहीं है और यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है। ठीक है, मैं तुम लोगों को बताऊँगा, जब मैं अपनी बात पूरी कर लूँगा तो तुम लोग इस तरह की चीज स्पष्टता से देख पाओगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोकप्रिय जनमत ने इस महिला को सिर्फ एक चीज और एक कार्य—उसके पुनर्विवाह—के आधार पर आँका और उसकी मानवता की वास्तविक गुणवत्ता को देखने के बजाय उसी एक चीज के आधार पर उसकी मानवता की गुणवत्ता को संकीर्ण रूप से परिभाषित किया। क्या यह अनुचित और अन्यायपूर्ण नहीं है? लोकप्रिय जनमत ने यह नहीं देखा कि महिला की मानवता आम तौर पर कैसी थी—वह एक दुष्ट इंसान थी या एक दयालु इंसान, वह सकारात्मक चीजों से प्यार करती थी या नहीं, क्या उसने अन्य लोगों को चोट या नुकसान पहुँचाया, या पुनर्विवाह करने से पहले क्या वह दुराचारी महिला थी। क्या समाज और लोकप्रिय जनमत में लोगों ने इन चीजों के आधार पर इस महिला का विस्तार से मूल्यांकन किया? (नहीं, उन्होंने नहीं किया।) तो उस समय लोगों ने उसका मूल्यांकन किस आधार पर किया था? “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” इस कहावत के आधार पर किया। सभी ने सोचा, “महिलाओं को सिर्फ एक बार शादी करनी चाहिए। अगर तुम्हारे पति की मृत्यु हो जाती है, तो भी तुम्हें जीवन भर विधवा ही रहना चाहिए। आखिर तुम एक महिला हो। अगर तुम अपने पति की स्मृति के प्रति वफादार रहती हो और पुनर्विवाह नहीं करती, तो हम तुम्हारी पवित्रता की याद में एक स्मारक बना देंगे—हम तो दस स्मारक भी बना सकते हैं! किसी को परवाह नहीं होगी कि तुम कितना कष्ट उठाती हो, या तुम्हारे लिए अपने बच्चों की परवरिश करना कितना मुश्किल है। अगर तुम्हें खाने के लिए सड़कों पर भीख भी माँगनी पड़े, तो भी कोई परवाह नहीं करेगा। तुम्हें फिर भी इस कहावत का पालन करना चाहिए : ‘अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती।’ यह करके ही तुम एक अच्छी महिला बनोगी और तुममें मानवता और शील होगा। अगर तुम पुनर्विवाह करती हो, तो तुम एक बुरी औरत और पतुरिया हो।” इसका तात्पर्य यह है कि सिर्फ पुनर्विवाह न करके ही कोई महिला अच्छे नैतिक आचरण और चरित्र वाली एक अच्छी, पवित्र और वफादार इंसान बन सकती है। परंपरागत संस्कृति की परोपकार, धार्मिकता, औचित्य, ज्ञान और विश्वसनीयता की अवधारणाओं के भीतर “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” यह कहावत लोगों का मूल्यांकन करने का आधार बन गई। लोगों ने इस कहावत को सत्य मान लिया और इसे दूसरों के मूल्यांकन के लिए एक मानक के रूप में इस्तेमाल किया। यही इस मामले का सार है। चूँकि किसी का व्यवहार परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रस्तुत अपेक्षाओं और मानकों के अनुरूप नहीं था, इसलिए उस पर निम्न गुणवत्ता वाली मानवता और निम्न नैतिक आचरण वाला, खराब और भयानक मानवता वाला इंसान होने का ठप्पा लगा दिया गया। क्या यह जरा भी उचित है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) फिर, एक अच्छी महिला होने के लिए परिस्थितियाँ क्या होंगी और तुम्हें क्या कीमत चुकानी होगी? अगर तुम एक अच्छी महिला बनना चाहती हो, तो तुम्हें सिर्फ एक पति के प्रति वफादार होना चाहिए, और अगर तुम्हारे पति की मृत्यु हो जाती है, तो तुम्हें विधवा रहना चाहिए। तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को गलियों में जाकर भीख माँगनी चाहिए, और दूसरों का उपहास, मारपीट, चिल्लाना, धौंस और अपमान सहना चाहिए। क्या यह महिलाओं के साथ पेश आने का सही तरीका है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) फिर भी मनुष्य यही करते हैं, बल्कि वे तुम्हें सड़कों पर भीख तक माँगते, बेघर होकर जीते देखना पसंद करेंगे, उन्हें पता नहीं तुम्हारा अगला भोजन कहाँ से आएगा, और कोई तुम्हारी परवाह नहीं करेगा, तुमसे सहानुभूति नहीं रखेगा, या तुम पर ध्यान नहीं देगा। चाहे तुम्हारे कितने भी बच्चे हों या तुम्हारा जीवन कितना भी कठिन हो, भले ही तुम्हारे बच्चे भूखे मर जाएँ, कोई परवाह नहीं करेगा। लेकिन अगर तुम पुनर्विवाह करती हो, तो तुम अच्छी महिला नहीं हो। तुम्हें तिरस्कार और घृणा के शब्दों से लाद दिया जाएगा, और तुम्हें गाली और निंदा के कुछ शब्दों से कहीं अधिक झेलना होगा। तुम्हें हर तरह की बातें कही जाएँगी, और सिर्फ तुम्हारे बच्चे और कुछ रिश्तेदार और दोस्त ही तुमसे सहानुभूति और समर्थन के शब्द कहेंगे। यह कैसे हो गया? यह सीधे परंपरागत संस्कृति की शिक्षा और अनुकूलन से जुड़ा है। यह इस कहावत का परिणाम है, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” जिसकी वकालत परंपरागत संस्कृति करती है। इन चीजों से क्या देखा जा सकता है? “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” इस कहावत में क्या छिपा है? मनुष्य का झूठ, पाखंड और क्रूरता। किसी महिला के पास खाने के लिए कुछ न हो, वह जीवित रहने में असमर्थ हो, और भूख से मरने के कगार पर हो, पर कोई उसके साथ सहानुभूति नहीं रखेगा; इसके बजाय, सभी उससे अपेक्षा करेंगे कि वह अपनी पवित्रता बनाए रखे। लोग उसे जिंदा रहने का चुनाव न करने देकर भूख से मरते देखना पसंद करेंगे और उसके सम्मान में एक स्मारक बनवाएँगे। एक संदर्भ में, यह मुद्दा मानवजाति की हठधर्मिता उजागर करता है। दूसरे संदर्भ में, यह मानवजाति का झूठ और उसकी क्रूरता उजागर करता है। मानवजाति कमजोर समूहों या दया के योग्य लोगों को कोई सहानुभूति, समझ या सहायता प्रदान नहीं करती। इसके अतिरिक्त, मानवजाति इस हास्यास्पद सिद्धांत और नियम का उपयोग करके कि “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” कटे पर नमक छिड़कती है, ताकि लोगों की निंदा कर उन्हें मौत के मुँह में धकेले। यह लोगों के साथ उचित व्यवहार नहीं है। यह न सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सृष्टि के प्रभु द्वारा मानवजाति से की जाने वाली माँगों के विरुद्ध जाता है, बल्कि मनुष्य के जमीर और विवेक के मानकों का भी खंडन करता है। तो क्या महिला के बच्चों ने जिस परिप्रेक्ष्य से इस मुद्दे को देखा, वह उचित है? क्या उन्हें अपनी माँ की दूसरी शादी और उसके द्वारा चुकाई गई कीमत से वास्तविक तौर पर लाभ नहीं हुआ? खुद इस कार्य के संबंध में, बच्चों ने अपनी माँ का सम्मान और समर्थन किया, लेकिन वह समर्थन कहाँ से आया? ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि उनकी माँ ने उनके अस्तित्व के लिए पुनर्विवाह करना चुना, जिससे वे जीवित रह सकें और अपनी जान बचा सकें। बस इतना ही। अगर उनकी माँ ने उनकी जान बचाने के लिए ऐसा न किया होता, तो वे पुनर्विवाह के उसके फैसले को स्वीकार या उसका समर्थन न करते। इसलिए, उसके बच्चों का अपनी माँ के पुनर्विवाह के बारे में विचार वास्तव में न्यायसंगत नहीं था। किसी भी तरह से, चाहे वह लोकप्रिय जनमत के परिप्रेक्ष्य से हो या उसके बच्चों के परिप्रेक्ष्य से, जिस तरह से लोगों ने इस माँ के साथ व्यवहार किया और उसके मूल्यांकन के लिए जिन मानकों का इस्तेमाल किया, वे उसकी मानवता की वास्तविक प्रकृति पर आधारित नहीं थे। यह वह गलती थी, जो मनुष्यों ने पुनर्विवाह करने वाली महिला के साथ अपने व्यवहार में की। इससे, यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रस्तुत यह कहावत, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” परमेश्वर से नहीं, बल्कि शैतान से आती है, और इसका सत्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जिन परिप्रेक्ष्यों से लोग सभी चीजों को देखते हैं, और जिस तरह से वे किसी व्यक्ति की नैतिकता या अनैतिकता को देखते हैं, वे सत्य या परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं हैं, वे परंपरागत संस्कृति के विचारों और परंपरागत संस्कृति की परोपकार, धार्मिकता, औचित्य, ज्ञान और विश्वसनीयता की अवधारणाओं द्वारा मनुष्य से की गई माँगों पर आधारित हैं। परोपकार, धार्मिकता, औचित्य, ज्ञान और विश्वसनीयता क्या हैं? ये अवधारणाएँ कहाँ से आती हैं? ऊपर से तो ऐसा लगता है जैसे वे पुराने संतों और प्रसिद्ध लोगों से आती हैं, लेकिन वास्तव में वे शैतान से आती हैं। ये वे विभिन्न कहावतें हैं, जिन्हें शैतान ने लोगों के व्यवहार को नियंत्रित और प्रतिबंधित करने के लिए, और लोगों के नैतिक आचरण के लिए एक मानक, प्रतिमान और साँचा स्थापित करने के लिए प्रस्तुत किया है। वास्तव में, इन पुराने संतों और प्रसिद्ध लोगों की शैतानी प्रकृति थी और वे सभी शैतान के लिए सेवा प्रदान करते थे। वे लोगों को गुमराह करने वाले दानव थे। इसलिए, यह कहना पूरी तरह से तथ्यात्मक है कि ये अवधारणाएँ शैतान से आई हैं।

जब लोग दूसरों के नैतिक चरित्र का और इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि उनकी मानवता अच्छी है या बुरी, तो वे सिर्फ परंपरागत संस्कृति की एक प्रसिद्ध कहावत के आधार पर ऐसा करते हैं; वे दूसरे लोगों की मानवता की गुणवत्ता पर सिर्फ इस आधार पर किसी निर्णय और निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि वे किसी एक मामले को कैसे देखते हैं। यह स्पष्ट रूप से गलत और अनुचित है। तो, व्यक्ति सटीक, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष तरीके से यह मूल्यांकन कैसे कर सकता है कि किसी की मानवता अच्छी है या बुरी? उसके मूल्यांकन के लिए क्या सिद्धांत और मानक हैं? सटीक शब्दों में, इस मूल्यांकन के सिद्धांत और मानक सत्य होना चाहिए। सिर्फ सृष्टिकर्ता के वचन ही सत्य हैं और सिर्फ उन्हीं में अधिकार और सामर्थ्य है। भ्रष्ट मनुष्यों के वचन सत्य नहीं हैं, उनमें कोई अधिकार नहीं है, और उन्हें किसी के मूल्यांकन के लिए आधार या सिद्धांतों के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए, लोगों के नैतिक चरित्र का और इस बात का मूल्यांकन करने का कि उनकी मानवता अच्छी है या बुरी, एकमात्र सटीक, वस्तुनिष्ठ और उचित तरीका है अपने आधार के रूप में सृष्टिकर्ता के वचनों और सत्य का उपयोग करना। “वफादार मंत्री दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकता, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” भ्रष्ट मनुष्यों के बीच एक प्रसिद्ध कहावत है। इसका स्रोत सही नहीं है, यह शैतान से आती है। अगर लोग शैतान के शब्दों के आधार पर दूसरों की मानवता की गुणवत्ता मापते हैं, तो उनके निष्कर्ष निश्चित रूप से गलत और अनुचित होंगे। तो, कोई व्यक्ति किसी की नैतिकता की गुणवत्ता और इस बात का निष्पक्ष और सटीक रूप से मूल्यांकन कैसे कर सकता है कि उसकी मानवता अच्छी है या बुरी? इसे उस व्यक्ति के कार्यों के इरादे, लक्ष्य और परिणामों के साथ-साथ उसके द्वारा किए गए कार्यों के अर्थ और मूल्य पर आधारित करना चाहिए, साथ ही इसे उसके विचारों और इस बारे में उसके द्वारा चुने गए विकल्पों पर भी आधारित करना चाहिए कि वह सकारात्मक चीजों के साथ कैसा व्यवहार करता है। यह बिल्कुल सटीक होगा। उस व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास करने वाला होने की आवश्यकता नहीं है—तुम देख सकते हो कि कुछ ऐसे अविश्वासी हैं, जिन्हें हालाँकि परमेश्वर द्वारा नहीं चुना गया, फिर भी उनमें वस्तुनिष्ठ रूप से अच्छी मानवता है, इस हद तक कि उनकी मानवता उन कुछ लोगों से भी उच्च गुणवत्ता वाली है, जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे कुछ धार्मिक लोग, जिन्होंने अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है, और जो कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, भाई-बहनों की मेजबानी करने पर हमेशा कलीसिया से पैसे माँगने के बारे में सोचते हैं, और भाई-बहनों के सामने हमेशा रोना रोते हैं कि वे गरीब हैं, जबकि वे पैसे और चीजों का लालच करते रहते हैं। जब भाई-बहन उन्हें मेजबानी करते समय इस्तेमाल करने के लिए कुछ माँस, सब्जियाँ, अनाज आदि देते हैं, तो वे उन्हें चुपके से अपने परिवार के खाने के लिए रख लेते हैं। ये किस तरह के लोग हैं? उनकी मानवता अच्छी है या बुरी? (वह बुरी है।) इस तरह के लोग लालची होते हैं, वे लोगों का फायदा उठाना पसंद करते हैं, और उनका चरित्र नीचा होता है। अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य सीधे स्वीकार लेने वाले कुछ अविश्वासी भाई-बहनों की मेजबानी करने के खूब इच्छुक रहते हैं। वे उनकी मेजबानी करने के लिए अपने ही पैसे का उपयोग करने पर जोर देते हैं और कलीसिया का पैसा लेने से मना कर देते हैं। चाहे कलीसिया उन्हें कितना भी पैसा दे, वे उसके एक प्रतिशत का भी उपयोग नहीं करते, और वे उसमें से थोड़े पैसों का भी लालच नहीं करते—वे उसे पूरा बचाते हैं और बाद में वापस कलीसिया को दे देते हैं। जब भाई-बहन उनके मेजबानी करने पर उनके उपयोग के लिए चीजें खरीदते हैं, तो वे उन सबको उन भाई-बहनों के इस्तेमाल और खाने के लिए सहेज लेते हैं, जिनकी वे मेजबानी करते हैं। उन भाई-बहनों के चले जाने के बाद वे उन चीजों को भंडार-गृह में रख देते हैं, और उन्हें फिर से तभी बाहर निकालते हैं, जब अगली बार कुछ भाई-बहन रहने के लिए उनके पास आते हैं। उनके मन में एक बहुत स्पष्ट अंतर होता है और उन्होंने कभी भी कलीसिया की किसी भी चीज का दुरुपयोग नहीं किया होता। उन्हें यह किसने सिखाया? उनसे किसी ने नहीं कहा, तो फिर उन्होंने कैसे जाना कि उन्हें क्या करना है? वे इसे कैसे कर पाए? अधिकांश लोग ऐसा करने में असमर्थ रहते हैं, लेकिन वे कर पाते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या यह मानवता में अंतर नहीं है? यह उनकी मानवता की गुणवत्ता में अंतर है, और उनके आचार-विचार में अंतर है। चूँकि इन दो तरह के लोगों के आचार-विचार में अंतर होता है, तो क्या सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उनके रवैये में भी अंतर होता है? (हाँ, होता है।) इन दो तरह के लोगों में से किस तरह के लोगों के लिए सत्य में प्रवेश करना आसान होगा? किस तरह के लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने की ज्यादा संभावना है? अच्छे आचार-विचार वाले लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने की ज्यादा संभावना है। क्या तुम लोग इसे इसी तरह से देखते हो? तुम लोग इसे इस तरह से नहीं देखते, तुम बस यह सोचते हुए आँख मूँदकर नियम लागू कर देते हो कि धार्मिक लोगों को, जो सिद्धांत के वचन और वाक्यांश बोलना जानते हैं, ऐसा करने में सक्षम होना चाहिए, और अविश्वासी, जिन्होंने अभी परमेश्वर में विश्वास करना शुरू ही किया है और जो अभी सिद्धांत के वचन और वाक्यांश बोलने में सक्षम नहीं हैं, ऐसा करने में असमर्थ हैं। हालाँकि, वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। क्या लोगों और चीजों को इस तरह से देखना तुम लोगों के लिए गलत और हास्यास्पद नहीं है? मैं चीजों को इस तरह से नहीं देखता। जब मैं लोगों के साथ बातचीत करता हूँ, तो मैं व्यापक रूप से विभिन्न चीजों के प्रति उनका रवैया देखता हूँ, विशेष रूप से यह कि एक ही स्थिति आने पर दो अलग-अलग तरह के लोग कैसे व्यवहार करते और क्या विकल्प चुनते हैं। यह इस बात का बेहतर उदाहरण होता है कि उनकी मानवता कैसी है। इन दो नजरियों में से कौन-सा न्यायपूर्ण और ज्यादा वस्तुनिष्ठ है? व्यक्ति का मूल्यांकन उसके बाहरी कार्यों के बजाय उसकी प्रकृति और सार के आधार पर करना ज्यादा उचित है। अगर कोई अपना मूल्यांकन परंपरागत संस्कृति के विचारों पर आधारित करता है और एक स्थिति में किए गए व्यक्ति के कार्यों को लेकर उनका इस्तेमाल उसके बारे में निर्णय और निष्कर्ष देने के लिए करता है, तो यह गलत है और यह उस व्यक्ति के प्रति अन्याय है। व्यक्ति को उसकी मानवता की गुणवत्ता, समग्र रूप से उसके व्यवहार, और जिस मार्ग पर वह चलता है, उसके आधार पर सटीक मूल्यांकन करना चाहिए। सिर्फ यही उचित और तर्कसंगत है, और यह उस व्यक्ति के प्रति न्यायसंगत भी है।

नैतिक आचरण के बारे में जो दावे हमने आज यहाँ सूचीबद्ध किए हैं, उनमें से किसी का भी परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना नहीं है, और उनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है। कोई कहावत कितनी भी परंपरागत या सकारात्मक क्यों न हो, वह सत्य नहीं बन सकती। नैतिक आचरण के बारे में कहावतें परंपरागत संस्कृति द्वारा सराही गई चीजों से उत्पन्न होती हैं, और उनका उन सत्यों से कोई लेना-देना नहीं होता, जिनका अनुसरण करने की परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। चाहे लोग मनुष्य के नैतिक आचरण से संबंधित इन विभिन्न कहावतों को कितना भी अच्छा बताते हों, या लोग कितने भी अच्छे ढंग से उन पर खरे उतरते हों, या लोग कितनी भी दृढ़ता से उनसे चिपके रहते हों, इसका अर्थ यह नहीं कि ये कहावतें सत्य हैं। भले ही पृथ्वी पर अधिकांश लोग इन चीजों से चिपके रहते हों और इन पर विश्वास करते हों, वे सत्य नहीं बनेंगी—ठीक वैसे ही, जैसे झूठ फिर भी झूठ ही रहता है, भले ही तुम उसे हजार बार कहो। झूठ कभी सत्य नहीं बन सकता। झूठ झूठी निर्मितियाँ होते हैं जिनमें शैतान की चालें होती हैं, इसलिए वे सत्य की जगह नहीं ले सकते, सत्य बनने की तो बात ही छोड़ दो। इसी तरह, नैतिक आचरण के संबंध में लोगों द्वारा की जाने वाली विभिन्न अपेक्षाएँ भी सत्य नहीं हो सकतीं। चाहे तुम उनसे कितने भी चिपके रहो या कितनी भी अच्छी तरह चिपके रहो, वह सब तुम्हारे बारे में यही कहता है है कि मनुष्य की दृष्टि में तुम्हारे पास अच्छा नैतिक आचरण है—लेकिन क्या परमेश्वर की नजर में तुम्हारे पास मानवता है? आवश्यक रूप से नहीं। इसके विपरीत, अगर तुम परंपरागत संस्कृति की परोपकार, धार्मिकता, औचित्य, ज्ञान और विश्वसनीयता की अवधारणाओं के हर पहलू और नियम पर बहुत अच्छी तरह से और बारीकी से बने रहते हो, तो तुम सत्य से बहुत दूर भटक गए होगे। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम नैतिक आचरण के बारे में इन दावों के अनुसार और इन्हें अपने मानदंड के रूप में इस्तेमाल करते हुए लोगों और चीजों को देख रहे होगे और आचरण और कार्य कर रहे होगे। यह दीवार-घड़ी देखने के लिए अपना सिर झुकाने जैसा है—तुम्हारा दृष्टिकोण गलत होगा। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यों का सत्य से या परमेश्वर की माँगों से कोई लेना-देना नहीं होगा, और तुम परमेश्वर के उस मार्ग से दूर होगे जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए—तुम विपरीत दिशा में भी दौड़ सकते हो, और इस तरह से कार्य कर सकते हो जो तुम्हारे लक्ष्य पूरे न होने दे। जितना ज्यादा तुम नैतिक आचरण के बारे में इन कहावतों से चिपके रहते हो और इन्हें सँजोते हो, उतना ही ज्यादा परमेश्वर तुमसे उकता जाएगा, तुम परमेश्वर और सत्य से उतने ही दूर चले जाओगे, और उतने ही ज्यादा तुम परमेश्वर के विरोध में होगे। चाहे तुम नैतिक आचरण के बारे में इनमें से किसी एक कहावत को कितना भी सही मानो, या तुम कितने भी समय तक उससे चिपके रहो, इसका मतलब यह नहीं कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। चाहे तुम परंपरागत संस्कृति के व्यवहारगत मानकों में से जिसे भी सही और तर्कसंगत मानो, यह सकारात्मक चीजों की वास्तविकता नहीं है; यह बिल्कुल भी सत्य नहीं है, न ही यह सत्य के अनुरूप है। मैं तुमसे आग्रह करता हूँ कि तुम जल्दी से आत्मचिंतन करो : तुम जिस चीज से चिपके हुए हो, वह कहाँ से आती है? क्या लोगों का मूल्यांकन और उनसे माँग करने के लिए इसे सिद्धांत और मानक के रूप में उपयोग करने का परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? क्या इसका सत्य में कोई आधार है? क्या तुम्हें स्पष्ट है कि तुम्हारे परंपरागत संस्कृति की इस माँग का अभ्यास करने के क्या परिणाम होंगे? क्या इसका सत्य से कोई लेना-देना है? तुम्हें यह समझना और विश्लेषण करना चाहिए कि परंपरागत संस्कृति की इस माँग का अपने कार्यों के आधार और अपनी कसौटी के रूप में उपयोग करके और इसे एक सकारात्मक चीज समझकर तुम सत्य का खंडन कर रहे हो, परमेश्वर का विरोध कर रहे हो और सत्य का उल्लंघन कर रहे हो। अगर तुम परंपरागत संस्कृति द्वारा सराहे गए गए विचारों और कहावतों से आँख मूँदकर चिपके रहोगे, तो इसका क्या परिणाम होगा? अगर तुम इन कहावतों से गुमराह किए या छले जाते हो, तो तुम कल्पना कर सकते हो कि तुम्हारा परिणाम और अंत क्या होगा। अगर तुम लोगों और चीजों को परंपरागत संस्कृति के परिप्रेक्ष्य से देखते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना कठिन होगा। तुम कभी भी लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार नहीं देख पाओगे। जो व्यक्ति सत्य समझता है, उसे नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति के विभिन्न दावों और माँगों का विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें विश्लेषण करना चाहिए कि तुम उनमें से किसे सबसे ज्यादा सँजोते और किससे हमेशा चिपके रहते हो, जो हमेशा तुम्हारे लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का आधार और कसौटी बनती है। फिर, तुम्हें उन चीजों को, जिनसे तुम चिपके रहते हो, तुलना के लिए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के सामने रखकर यह देखना चाहिए कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों का विरोध तो नहीं करते या उनसे टकराते तो नहीं। अगर वाकई कोई समस्या नजर आए, तो तुम्हें तुरंत विश्लेषण करना चाहिए कि वह वास्तव में कहाँ है, कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू गलत और बेतुके हैं। जब तुम इन मुद्दों पर स्पष्ट होगे, तो तुम जान जाओगे कि क्या सत्य है और क्या भ्रांति; तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग होगा, और तुम वह मार्ग चुन पाओगे जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। इस तरह सत्य की खोज करके तुम अपना व्यवहार सुधारने में सक्षम हो जाओगे। चाहे लोगों के नैतिक चरित्र के बारे में मनुष्य की तथाकथित अपेक्षाएँ और कहावतें कितनी भी मानकीकृत हों, या चाहे वे जनता की रुचियों, दृष्टिकोणों, इच्छाओं, यहाँ तक कि उसके हितों के लिए कितने भी उपयुक्त हों, वे सत्य नहीं हैं। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम्हें समझना चाहिए। और चूँकि वे सत्य नहीं हैं, इसलिए तुम्हें उन्हें नकारने और त्यागने में जल्दी करनी चाहिए। तुम्हें उनके सार का, और उनके द्वारा जीने वाले लोगों से मिलने वाले परिणामों का भी, विश्लेषण करना चाहिए। क्या वे वास्तव में तुममें सच्चा पश्चात्ताप जगा सकते हैं? क्या वे वाकई खुद को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं? क्या वे वाकई तुम्हें इंसान के समान जीने के लिए मजबूर कर सकते हैं? वे इनमें से कुछ नहीं कर सकते। वे तुम्हें केवल पाखंडी और आत्म-तुष्ट बना सकते हैं। वे तुम्हें और ज्यादा चालाक और दुष्ट बना देंगे। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “अतीत में जब हम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं पर विश्वास रखते थे, तो हमें लगा, हम अच्छे लोग हैं। जब दूसरे लोगों ने देखा कि हम कैसा व्यवहार करते हैं, तो उन्हें भी लगा कि हम अच्छे लोग हैं। लेकिन वास्तव में, हम अपने दिल में जानते हैं कि हम किस तरह की बुराई करने में सक्षम हैं। थोड़ा-सा अच्छा करना सिर्फ उसे छिपाता है। लेकिन अगर हम वे अच्छे व्यवहार छोड़ दें, जिसकी परंपरागत संस्कृति हमसे माँग करती है, तो हमें उनके बजाय क्या करना चाहिए? कौन-से व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के लिए महिमा लाएँगे?” तुम इस प्रश्न के बारे में क्या सोचते हो? क्या वे अब भी नहीं जानते कि परमेश्वर के विश्वासियों को किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, और बहुत सारे सत्य हैं जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। तो तुम क्यों सत्य का अभ्यास करने से इनकार करते हो, और झूठमूठ के सज्जन बनने और पाखंडी होने पर जोर देते हो? तुम दिखावा क्यों कर रहे हो? कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “परंपरागत संस्कृति के कई अच्छे पहलू हैं! जैसे, ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए’—यह एक अद्भुत कहावत है! यही है, जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। तुम इसे एक तरफ कैसे फेंक सकते हो? और ‘मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा’—कितना वफादार और वीर है! जीवन में ऐसा मित्र होना प्रतिष्ठा-वर्धक है। यह कहावत भी है, ‘वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती ख़त्म होने तक जलती रहेंगी।’ यह कहावत बहुत गहरी और संस्कृति से समृद्ध है! अगर तुम हमें इन कहावतों से नहीं जीने देते, तो हम किससे जिएँ?” अगर तुम यही सोचते हो, तो तुमने जो वर्ष प्रवचन सुनने में बिताए हैं, वे सब व्यर्थ गए। तुम यह तक नहीं समझते कि व्यक्ति को, कम से कम, जमीर और विवेक के मानकों के अनुसार जीते हुए आचरण करना चाहिए। तुमने रत्ती भर भी सत्य प्राप्त नहीं किया है, और तुमने ये वर्ष व्यर्थ ही जिए हैं।

संक्षेप में, हालाँकि हमने परंपरागत संस्कृति से नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें सूचीबद्ध कर ली हैं, फिर भी इसका उद्देश्य केवल तुम लोगों को यह सूचित करना नहीं है कि ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और ये शैतान से आती हैं, और कुछ नहीं। यह तुम लोगों को यह स्पष्ट रूप से समझाने के लिए है कि इन चीजों का सार झूठा, गुप्त और कपटपूर्ण है। अगर लोगों में ये अच्छे व्यवहार हों भी, तो इसका किसी भी तरह से यह मतलब नहीं कि वे सामान्य मानवता जी रहे हैं। बल्कि, वे इन झूठे व्यवहारों का इस्तेमाल अपने इरादों और लक्ष्यों पर पर्दा डालने, और अपने भ्रष्ट स्वभाव, प्रकृति और सार छिपाने के लिए कर रहे हैं। नतीजतन, लोग ढोंग करने और दूसरों को बरगलाने में ज्यादा से ज्यादा बेहतर होते जा रहे हैं, जिसके कारण वे और भी ज्यादा भ्रष्ट और दुष्ट बनते जा रहे हैं। भ्रष्ट मनुष्य परंपरागत संस्कृति के जिन नैतिक मानकों से चिपका रहता है, वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों के साथ असंगत हैं, और वे परमेश्वर द्वारा लोगों को सिखाए गए किसी भी वचन के साथ संगत नहीं हैं, उनका आपस में कोई संबंध नहीं है। अगर तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के पहलुओं से चिपके रहते हो, तो तुम पूरी तरह से गुमराह और विषाक्त किए जा चुके हो। अगर कोई ऐसा मामला है, जिसमें तुम परंपरागत संस्कृति से चिपके रहते हो और उसके सिद्धांतों और विचारों का पालन करते हो, तो तुम उस मामले में परमेश्वर के प्रति विद्रोह और सत्य का उल्लंघन कर रहे हो, और परमेश्वर के खिलाफ जा रहे हो। अगर तुम नैतिक आचरण के बारे में इन दावों में से किसी से चिपके रहते हो और उसके लिए खुद को प्रतिबद्ध करते हो और उसे लोगों या चीजों को देखने का मानदंड या आधार मानते हो, तो यहाँ तुम गलती करते हो, और अगर तुम कुछ हद तक लोगों की आलोचना करते हो या उन्हें नुकसान पहुँचाते हो, तो तुम पाप करते हो। अगर तुम हमेशा सभी को परंपरागत संस्कृति के नैतिक मानकों से मापने पर जोर देते हो, तो उन लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी, जिनकी तुम निंदा करते और जिनके साथ तुम गलत करते हो, और तुम निश्चित रूप से परमेश्वर की निंदा और विरोध करोगे, और तब तुम घोर पापी होगे। क्या तुम लोग नहीं देखते कि संपूर्ण मानवजाति परंपरागत संस्कृति की शिक्षा और अनुकूलन के तहत अधिकाधिक दुष्ट होती जा रही है? क्या दुनिया ज्यादा अंधकारपूर्ण नहीं हो रही? जो जितना ज्यादा शैतान और दानवों का होता है, वह उतना ही ज्यादा पूजा जाता है; जितना ज्यादा कोई सत्य का अभ्यास करता है, परमेश्वर के लिए गवाही देता है और परमेश्वर को प्रसन्न करता है, उतना ही ज्यादा उसका दमन, बहिष्कार, निंदा की जाएगी, यहाँ तक कि सूली पर चढ़ाकर मौत के घाट भी उतार दिया जाएगा। क्या यह तथ्य नहीं है? आगे बढ़ते हुए, आज हमने यहाँ जिस बारे में संगति की है, उस पर तुम लोगों को अक्सर संगति करनी चाहिए। अगर ऐसी चीजें हों, जिन्हें तुम उन पर संगति करने के बाद भी न समझ पाओ, तो उन्हें फिलहाल अलग रख देना और उन हिस्सों पर संगति करना, जिन्हें तुम सँभाल सकते हो, जब तक कि तुम उन्हें समझ नहीं जाते। इन वचनों पर तब तक संगति करो, जब तक ये पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो जाते और तुम इन्हें पूरी तरह से समझ नहीं लेते, तब तुम लोग सत्य का सटीक रूप से अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगे। जब तुम स्पष्ट रूप से यह पहचानने में सक्षम होते हो कि क्या कोई कहावत या चीज सत्य है, या क्या यह परंपरागत संस्कृति है और सत्य नहीं, तब तुम लोगों के पास सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए ज्यादा मार्ग होगा। अंत में, जब तुम संगति के माध्यम से हर उस सत्य को समझने में सक्षम हो जाते हो, जिसका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए, और एक आम सहमति पर पहुँच जाते हो, जब तुम अपने विचारों और समझ में सुसंगत होते हो, जब तुम जानते हो कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, कौन-सी चीजें परमेश्वर से आती हैं और कौन-सी शैतान से, और तुम इस विषय पर तब तक संगति कर लेते हो जब तक ये चीजें तुम पर स्पष्ट और पारदर्शी नहीं हो जातीं, सिर्फ तभी तुम सत्य समझ पाओगे। फिर, सत्य के वे सिद्धांत चुनो, जिनका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए। इस तरह, तुम वे व्यवहारगत मानक पूरे करोगे जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं, और कम से कम, तुममें कुछ मानवीय समानता होगी। अगर तुम सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो, तो तुम पूरी तरह से मानवीय समानता को जीने में सक्षम होगे। सिर्फ तभी तुम पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होगे।

5 मार्च, 2022

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