अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है

तुममें से ज्यादातर लोगों ने अनेक वर्षों से परमेश्वर में आस्था रखी है, और सच्चे मार्ग पर एक बुनियाद लगभग बना ली है। अब तुम लोग परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए परिवार और दीन-दुनिया के मायाजाल को छोड़ने में समर्थ हो। तुम परमेश्वर के घर में एक कर्तव्य निभाने का प्रशिक्षण ले रहे हो, परमेश्वर के लिए खपने और सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करने को तैयार हो। यानी तुम लोग चीजें समझने लगे हो, और तुममें थोड़ा जमीर और विवेक है। यह अच्छी बात है। कर्तव्य निभाने की महत्ता बहुत महान होती है! तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकते हो या नहीं, उसका सीधा संबंध तुम्हारे उद्धार और पूर्णता से है। कहा जा सकता है कि कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके ही जीवन-प्रवेश पाया जा सकता है, और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाकर ही परमेश्वर की स्वीकृति पाई जा सकती है। इसलिए, तुम्हारे कर्तव्य, काट-छाँट और निपटान के मामले में, तुम लोगों से ज्यादा की अपेक्षा करना तुम्हारे लिए ही फायदेमंद होगा। कम-से-कम तुम जीवन में जल्द तरक्की करोगे। तुम लोगों से ज्यादा की अपेक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं है, न ही तुम सबकी परीक्षा लेने के लिए कभी-कभी तुम्हें एक कठिन समस्या में डालना बुरी बात है। यह सब जीवन में आगे बढ़ने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने, और व्यावसायिक ज्ञान को बेहतर समझकर अपने कर्तव्य में अधिक प्रभावी होने में तुम सबकी मदद करने के लिए है। अगर तुम सबसे ये अपेक्षाएँ न रखी जातीं, तो परिणाम क्या होता? तुम सब केवल धर्मसिद्धांत का प्रचार करने और नियमों का अनुसरण करने में समर्थ होते, और परमेश्वर में अनेक वर्षों तक विश्वास रखने के बाद भी नहीं बदलते। स्थिति ऐसी हो तो, तुम सब आगे कब बढ़ पाओगे? तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभा पाओगे? न सिर्फ तुम सत्य के बारे में कोई प्रगति नहीं करोगे, अपने कर्तव्य के लिए जरूरी व्यावसायिक ज्ञान भी ज्यादा हासिल नहीं कर पाओगे। फिर क्या तुम अपना कर्तव्य स्वीकार्य स्तर का करके परमेश्वर की गवाही दे पाओगे? जहाँ तक तुम्हारे मौजूदा आध्यात्मिक कद का सवाल है, सत्य की तुम्हारी समझ बहुत उथली है, और तुमने अपना कर्तव्य निभाने के सिद्धांत नहीं समझे हैं। तुम संतोषजनक रूप से अपना कर्तव्य निभाने के मानक स्तर से भी बहुत दूर हो। फिर भी तुम सब इससे अनभिज्ञ हो और तुम्हें लगता है मानो तुम अच्छा कर रहे हो, और कभी-कभी तुम बहुत ज्यादा दंभी और ढीठ भी बन जाते हो। तुम्हारी कथनी और करनी कभी प्रकाश में नहीं आती, और ये सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होतीं। जब कोई तुम्हारी कोई समस्या बताता है, तो तुम उसे स्वीकार नहीं कर पाते, न ही तुम सत्य खोजते हो, तुम अपने लिए बहाने भी बनाते हो। यहाँ समस्या क्या है? वह यह है कि तुममें सही ढंग से आचरण करने के लिए जरूरी बुनियादी समझ भी नहीं है। तुम जो भी करो, जरूरी है कि कम-से-कम ज्यादातर लोग उसे उपयुक्त मानें। तुम्हें सबके सुझाव सुनने चाहिए—अगर उनका कहा सही हो, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर अपनी गलती सुधारनी चाहिए। अगर सभी लोग सोचते हैं कि तुम्हारे द्वारा प्राप्त नतीजे ठीक हैं, और सभी उन्हें स्वीकृति देते हैं, तभी तुम्हारे कर्मों को स्वीकार्य माना जा सकता है। इस प्रकार, एक तरफ तुम सब अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार कर्म कर पाओगे, और समस्याएँ सुलझाने में अधिक परिपक्व और अनुभवी हो जाओगे। दूसरी तरफ, तुम लोग ज्यादा सीख सकोगे, और साथ ही साथ तुम सत्य को समझ कर जीवन में प्रवेश कर सकोगे। इसलिए जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाए, तो तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना और सबक सीखना चाहिए। तुम्हें ज्यादा सीखने के लिए खुद को मुक्त करना होगा। अगर तुम सोचते हो, “मैं इस विषय में तुम सबसे बड़ा विशेषज्ञ हूँ, इसलिए मुझे प्रभारी होना चाहिए, और तुम सबको मेरी बात सुननी चाहिए!”—तो यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकार और दंभ है। यह शैतानी और भ्रष्ट स्वभाव है, और यह इंसानियत के दायरे के बाहर है। तो दंभी न होने का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ है सबके सुझाव सुनना और सभी से विचार-विमर्श करना।) तुम्हारे निजी विचार और राय जो भी हों, अगर तुम आँख बंद करके तय मान लोगे कि ये सही हैं, और चीजें इसी ढंग से की जानी चाहिए, तो यह अहंकार और दंभ है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे कुछ विचार या राय सही हैं, मगर तुम्हें खुद पर पूरा विश्वास नहीं है, और साधना और संगति से तुम इनकी पुष्टि कर सकते हो, तो यह है दंभी न होना। काम करने का वाजिब तरीका काम से पहले सबका साथ और स्वीकृति पाने की प्रतीक्षा करना है। अगर कोई तुमसे असहमत हो, तो तुम्हें शुद्ध अंत:करण से इस पर प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए, और अपने काम के व्यवसायिक पहलुओं पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए। तुम्हें यह कहकर इससे नजर नहीं फेरनी चाहिए, “इसे तुम बेहतर समझते हो या मैं? काम के इस क्षेत्र से मैं इतने वर्षों से जुड़ा हुआ हूँ—क्या इसकी समझ मुझे तुमसे ज्यादा नहीं है? तुम्हें इस बारे में क्या मालूम? तुम इसे नहीं समझते!” यह अच्छा स्वभाव नहीं है, यह बहुत अहंकारी और दंभी है। संभव है तुमसे असहमत होने वाला व्यक्ति नौसिखिया हो, और उसे काम के इस क्षेत्र की अच्छी समझ न हो; शायद तुम सही हो और तुम चीजें सही ढंग से कर रहे हो, मगर समस्या तुम्हारे स्वभाव की है। तो फिर व्यवहार और कर्म करने का सही तरीका क्या है? सत्य के सिद्धांतों के अनुसार तुम व्यवहार और कर्म कैसे कर सकते हो? तुम्हें अपने विचार सामने रखने चाहिए और सभी को देखने देना चाहिए कि क्या उनमें कोई समस्या है। अगर कोई सुझाव दे, तो पहले तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, और तब सभी को अभ्यास के सही मार्ग की पुष्टि करने देना चाहिए। अगर उनमें से किसी को कोई समस्या न हो, तब तुम कर्म करने का सबसे उपयुक्त तरीका तय कर कर्म कर सकते हो। कोई समस्या नजर आने पर तुम्हें सबकी राय माँगनी चाहिए और तुम सबको साथ मिलकर एक साथ सत्य खोजकर उस पर एक साथ संगति करनी चाहिए, और इस तरह तुम लोग पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। जब तुम्हारे दिल प्रकाशित हों, और तुम्हारे सामने बेहतर मार्ग हो, तो तुम्हें प्राप्त होने वाले नतीजे पहले से बेहतर होंगे। क्या यह परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं है? यह अद्भुत चीज है! अगर तुम दंभी होने से बच सको, अपनी कल्पनाएँ और विचार त्याग सको, और दूसरों के सही विचार सुन सको, तो तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। तुम्हारा दिल प्रकाशित हो जाएगा और तुम सही मार्ग पा सकोगे। तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा, और जब इस पर अमल करोगे, तो यह यकीनन सत्य के अनुरूप होगा। ऐसे अभ्यास और अनुभव के जरिए तुम सीख सकोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, और साथ ही काम के उस क्षेत्र के बारे में तुम कुछ नया सीख सकोगे। क्या यह अच्छी बात नहीं है? इसके जरिए तुम्हें एहसास होगा कि अपने साथ कुछ घटने पर तुम्हें दंभी नहीं होना चाहिए सत्य को खोजना चाहिए, और अगर तुम दंभी होकर सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो सब तुमसे नफरत करेंगे और परमेश्वर यकीनन तुमसे घृणा करेगा। क्या यह सबक सीखना नहीं है? अगर तुम हमेशा इस प्रकार अनुसरण करते हो और सत्य पर अमल करते हो, तो तुम अपने कर्तव्य में प्रयोग होने वाले व्यावसायिक कौशल को पैना बनाते जाओगे, अपने कर्तव्य में बेहतर-से-बेहतर नतीजे पाओगे, परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध कर आशीष देगा, और भी ज्यादा हासिल करने देगा। इसके अलावा, तुम्हारे पास सत्य पर अमल करने का मार्ग होगा, और जब तुम जान लोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, तो धीरे-धीरे सिद्धांतों को समझ लोगे। जब तुम जान लोगे कि किन कर्मों से परमेश्वर से प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिलेगा, किनसे वह घृणा कर तुम्हें बर्खास्त कर देगा, और किनसे उसकी स्वीकृति और आशीष मिलेंगे, तो तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा। जब लोगों को परमेश्वर के आशीष और प्रबुद्धता मिलेगा, तो उनके जीवन की प्रगति तेजी से होगी। उन्हें हर दिन परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिलेगा, और उनके दिलों में शांति और खुशी होगी। क्या इससे उन्हें आनंद नहीं मिलेगा? जब तुम्हारे कर्मों को परमेश्वर के सामने पेश किया जा सकेगा और उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी, तो तुम्हें दिल में आनंद का अनुभव होगा, और भीतर से शांति और खुशी मिलेगी। शांति और खुशी की ये भावनाएँ परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं, ये वे संवेदनाएँ हैं जो पवित्र आत्मा ने तुम्हें दी हैं।

अहंकारी और दंभी होना इंसान का सबसे प्रत्यक्ष शैतानी स्वभाव है, और अगर लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके पास इसे साफ करने का कोई मार्ग नहीं होगा। सभी लोगों का स्वभाव अहंकारी और दंभी होता है, और वे हमेशा घमंडी होते हैं। वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। संभव है तुम जो कहो, वह सचमुच सही और वाजिब हो, या तुम्हारा किया सही और त्रुटिहीन हो, मगर तुमने कैसा स्वभाव प्रदर्शित किया है? क्या यह अहंकारी और दंभी स्वभाव नहीं है? अगर तुम इस अहंकारी और दंभी स्वभाव को नहीं छोड़ते, तो क्या इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सत्य का तुम्हारा अभ्यास प्रभावित नहीं होगा? अगर तुम अपने अहंकारी और दंभी स्वभाव को ठीक नहीं कर लेते, तो क्या इससे भविष्य में गंभीर रुकावटें पैदा नहीं होंगी? यकीनन रुकावटें आएंगी, यह होकर ही रहेगा। बोलो, क्या परमेश्वर इंसान के इस बर्ताव को देख सकता है? परमेश्वर यह देखने में बहुत समर्थ है! परमेश्वर न सिर्फ लोगों के दिलों की गहराई जाँचता है, वह हर जगह हमेशा उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : “तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।” तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित रवैया या व्यवहार त्रुटिपूर्ण नहीं, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का प्रदर्शन है। किस स्वभाव का प्रदर्शन? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से ऊब चुके हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुमसे घृणा करेगा, तुम्हें ठुकरा देगा, और तुम्हें अनदेखा करेगा। लोगों के नजरिये से देखें, तो ज्यादा-से-ज्यादा वे कहेंगे : “इस व्यक्ति का स्वभाव बुरा है, यह बेहद जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी है! इसके साथ निभाना बहुत मुश्किल है, यह सत्य से प्रेम नहीं करता। इसने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया, और यह सत्य पर अमल नहीं करता।” ज्यादा-से-ज्यादा, सब लोग तुम्हारा यही आकलन करेंगे, मगर क्या यह आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला कर सकता है? लोग तुम्हारा जो आकलन करते हैं, वह तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर सकता, मगर एक चीज है जो तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए : परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच करता है, और साथ ही साथ वह उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। अगर परमेश्वर तुम्हें इस तरह परिभाषित करता है, और अगर वह मात्र इतना नहीं कहता कि तुम्हारा स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है, या तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, बल्कि कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, तो क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? (यह गंभीर है।) इससे मुसीबत होगी, और यह मुसीबत इसमें नहीं है कि लोग तुम्हें किस नजर से देखते हैं, या तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, यह इस बात में है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो परमेश्वर इसे किस नजर से देखता है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ यह तय कर दिया है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, इससे प्रेम नहीं करते, और कुछ नहीं? क्या यह इतना सरल है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतिनिधित्व करता है? (यह परमेश्वर को दर्शाता है।) इस पर विचार करो : अगर एक इंसान सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर अपने नजरिए से उसे कैसे देखेगा? (अपने शत्रु के रूप में।) क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है, तो वह परमेश्वर से घृणा करता है! मैं क्यों कहता हूँ कि वह परमेश्वर से घृणा करता है? क्या उन्होंने परमेश्वर को शाप दिया? क्या उन्होंने परमेश्वर के सामने उसका विरोध किया? क्या उन्होंने उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना या निंदा की? ऐसा जरूरी नहीं। तो मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से घृणा करने वाला स्वभाव दर्शाना परमेश्वर से घृणा करना है? यह राई का पहाड़ बनाना नहीं है, यह स्थिति की वास्तविकता है। यह पाखंडी फरीसियों जैसा होना है, जिन्होंने सत्य से अपनी घृणा के कारण प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया—बाद में हुए परिणाम भयावह थे। इसका यह अर्थ है कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव ऐसा है कि वह सत्य से ऊब चुका है और उससे घृणा करता है, तो यह कभी भी कहीं भी उफन कर बाहर आ सकता है, और अगर वे इसी के सहारे जीते हैं तो क्या वे परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो सत्य से या विकल्प चुनने से जुड़ी होती है, तो अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे जीते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे परमेश्वर का विरोध करेंगे, और उसे धोखा देंगे, क्योंकि उनका भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर और सत्य से घृणा करता है। अगर तुम्हारा स्वभाव ऐसा है तो परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों को लेकर भी तुम सवाल उठाओगे, और उनका विश्लेषण और समालोचना करना चाहोगे। फिर तुम परमेश्वर के वचनों को शक से देखोगे, और कहोगे, “क्या ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं? ये मुझे सत्य जैसे नहीं लगते, ये सब मुझे अनिवार्यतः सही नहीं लगते!” इस प्रकार क्या सत्य से घृणा करने वाला तुम्हारा स्वभाव बाहर नहीं आ गया? इस प्रकार सोचने पर, क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे? यकीनन नहीं। अगर तुम परमेश्वर को समर्पित नहीं हो सकते, तो क्या वह अभी भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं। फिर तुम्हारे लिए परमेश्वर क्या होगा? तुम उससे शोध के एक विषय के रूप में पेश आओगे, ऐसा जिस पर शक किया जाना चाहिए, जिसकी निंदा होनी चाहिए; तुम उससे एक साधारण और आम इंसान की तरह पेश आओगे, और ऐसे ही उसकी निंदा करोगे। ऐसा करके तुम ऐसे इंसान बन जाओगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध और उसका तिरस्कार करता हो। किस प्रकार के स्वभाव के कारण ऐसा होता है? यह ऐसे अहंकारी स्वभाव के कारण होता है जो कुछ हद तक फूल चुका हो; न सिर्फ तुम्हारा शैतानी स्वभाव दिखाई देने लगेगा, बल्कि तुम्हारे शैतानी रूप का भी पूरी तरह खुलासा हो जाएगा। परमेश्वर का प्रतिरोध करने के स्तर तक पहुँच चुके इंसान, जिसका विद्रोहीपन एक विशेष सीमा तक पहुँच चुका हो, उसके और परमेश्वर के बीच के रिश्ते का क्या होता है? यह शत्रुता का रिश्ता बन जाता है, जिसमें व्यक्ति परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा कर लेता है। परमेश्वर में अपनी आस्था में, अगर तुम सत्य को स्वीकार कर उसका आज्ञापालन नहीं कर सकते, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं रह जाता। अगर तुम सत्य को मना करके उसे ठुकरा देते हो, तो तुम ऐसे इंसान बन चुके होगे, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। फिर भी क्या परमेश्वर तुम्हें बचा सकेगा? यकीनन नहीं। परमेश्वर तुम्हें अपना उद्धार पाने का एक मौका देता है, और तुम्हें एक शत्रु के रूप में नहीं देखता, मगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते और परमेश्वर को अपने विरोध में खड़ा देते हो; परमेश्वर को अपने सत्य और अपने मार्ग के रूप में स्वीकार करने की तुम्हारी असमर्थता तुम्हें एक ऐसा इंसान बना देती है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। इस समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है? तुम्हें जल्द प्रायश्चित्त कर अपना मार्ग बदल लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम्हारे सामने कोई समस्या या कठिनाई आए, और तुम उसे सुलझाना न जानो, तो तुम्हें बिना सोचे-विचारे उस पर मनन नहीं करना चाहिए, तुम्हें पहले परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना चाहिए, प्रार्थना कर उससे जानना चाहिए और देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचन इस बारे में क्या कहते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद भी अगर तुम न समझो, और न जान पाओ कि यह मसला किन सत्यों से संबंधित है, तो तुम्हें एक सिद्धांत को कसकर थामे रहना चाहिए—यानी पहले आज्ञाकारी बनो, कोई निजी विचार या सोच न रखो, शांतचित्त होकर प्रतीक्षा करो, और देखो कि परमेश्वर क्या कुछ करने की इच्छा और इरादा रखता है। जब तुम सत्य को न समझ सको, तो तुम्हें उसे खोजना चाहिए, और बिना विचारे लापरवाही से कुछ करने के बजाय परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है। सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से ऊबा हुआ और उससे घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से नहीं ऊबता—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य की वो वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है।

क्या यह नीचता नहीं है कि कुछ लोग अपने साथ कुछ भी घटने पर, उसके बाल की खाल निकालकर बेमतलब की बातों में वक्त जाया करते हैं। यह एक बड़ी समस्या है। साफ सोचवाले लोग ऐसी गल्ती नहीं करते, बेतुके लोग ही ऐसे होते हैं। वे हमेशा कल्पना करते हैं कि दूसरे लोग उनका जीना दूभर कर रहे हैं, उन्हें मुश्किलों में डाल रहे हैं, इसलिए वे हमेशा दूसरों से दुश्मनी मोल लेते हैं। क्या यह भटकाव नहीं है? सत्य को लेकर वे प्रयास नहीं करते, उनके साथ कुछ घटने पर वे बेकार की बातों में उलझना पसंद करते हैं, सफाई माँगते हैं, लाज बचाने की कोशिश करते हैं, और इन मामलों को सुलझाने के लिए वे हमेशा इंसानी हल ढूँढ़ते हैं। जीवन-प्रवेश में यह सबसे बड़ी बाधा है। अगर तुम परमेश्वर में यूँ विश्वास रखते हो, या इस तरह अभ्यास करते हो, तो कभी भी सत्य हासिल नहीं कर पाओगे, क्योंकि तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो कुछ तय कर रखा है, वह पाने के लिए तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते, न ही तुम इस तक पहुँचने के लिए सत्य का प्रयोग करते हो, बल्कि इसके बजाय तुम चीजों तक पहुँचने के लिए इंसानी समाधानों का प्रयोग करते हो। इसलिए, परमेश्वर की दृष्टि में, तुम उससे बहुत दूर भटक गए हो। न सिर्फ तुम्हारा दिल उससे भटक गया है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसकी मौजूदगी में नहीं जीता है। हमेशा जरूरत से ज्यादा विश्लेषण कर बाल की खाल निकालनेवालों को परमेश्वर इसी नजर से देखता है। ऐसे लोग भी हैं, जो चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, जिनके दिमाग तेज और चालाक हैं, जो सोचते हैं, “मेरे बारे में अच्छी बातें होती हैं। सभी दूसरे लोग सच में मेरी प्रशंसा कर मुझे सम्मान और ऊंचा दर्जा देते हैं। आमतौर पर लोग मेरा कहा मानते हैं।” क्या यह उपयोगी है? तुमने लोगों के बीच अपनी प्रतिष्ठा बनाई है, मगर परमेश्वर के सामने तुम जैसा व्यवहार करते हो, उससे उसे खुशी नहीं मिलती। परमेश्वर कहता है कि तुम एक गैर-विश्वासी हो, सत्य से घृणा करते हो। लोगों के बीच तुम परिष्कृत और चिकने-चुपड़े हो सकते हो, शायद तुम चीजें अच्छी तरह संभालते भी होगे, किसी के भी साथ मिल-जुल जाते होगे; किसी भी स्थिति में चीजें संभालने और उनकी देखभाल करने में तुम हमेशा रास्ता पा लेते होगे, मगर तुम समस्याएँ सुलझाने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आते और सत्य नहीं खोजते। ऐसे लोग बड़े दुखदाई होते हैं। तुम जैसे लोगों के आकलन में परमेश्वर के पास कहने को सिर्फ एक बात है: “तुम एक गैर-विश्वासी हो, परमेश्वर में विश्वास रखने के बहाने तुम आशीष पाने के लिए इस मौके का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हो। तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य को स्वीकार करता है।” इस प्रकार के आकलन पर तुम्हारी क्या सोच है? क्या तुम यही चाहते हो? यकीनन नहीं। संभव है कुछ लोग परवाह न करें और कहें, “परमेश्वर हमें किस नजर से देखता है, इससे हमें फर्क नहीं पड़ता, वैसे भी हम परमेश्वर को नहीं देख सकते। हमारी तात्कालिक समस्या अपने इर्द-गिर्द के लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाना है। एक बार हमारे पाँव जम जाएँ, तो हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जीत सकते हैं, ताकि सब हमारी प्रशंसा करें।” यह कैसा व्यक्ति है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति है? यकीनन नहीं; ऐसे लोग गैर-विश्वासी हैं। परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले लोगों को हमेशा परमेश्वर की मौजूदगी में रहना चाहिए; उनका सामना जैसे भी मसलों से हो, सत्य खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर के सामने आना होगा ताकि अंत में परमेश्वर कहे, “तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है, जो परमेश्वर को प्रसन्न करता है, और जो परमेश्वर को स्वीकार्य है। परमेश्वर ने तुम्हारा दिल देखा है, तुम्हारी आज्ञाकारिता भी देखी है।” ऐसे आकलन के बारे में तुम क्या सोचते हो? सिर्फ ऐसे लोगों को ही परमेश्वर की प्रशंसा मिलती है। क्या तुम सब इस बात को पूरी तरह समझ सकते हो? मैं तुम सबको बताता हूँ कि परमेश्वर का कोई विश्वासी कोई भी कर्तव्य निभाए—वे बाहरी मामले संभालते हों, या कोई ऐसा कर्तव्य जिनका संबंध परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्यों या विशेषज्ञता के क्षेत्रों से हो—अगर वे अक्सर परमेश्वर के सामने नहीं आते, उसकी मौजूदगी में नहीं रहते, उसकी जाँच स्वीकारने की हिम्मत नहीं रखते, और वे परमेश्वर से सत्य प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो वे गैर-विश्वासी हैं, और अविश्वासियों से अलग नहीं हैं। क्या तुम सब यह बात समझ पा रहे हो? संभव है कुछ लोग फिलहाल माहौल उपयुक्त न होने के कारण कोई कर्तव्य नहीं निभा पाते; वे अविश्वासियों के माहौल में रहते हैं, फिर भी उन्हें अक्सर परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिलता है। ऐसा कैसे हो सकता है? सबसे अहम बातें ये हैं कि वे परमेश्वर से प्रार्थना करने, परमेश्वर के वचनों का खान-पान करने, सत्य को खोजकर उस पर अमल कर सकने और परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध कायम रखने में समर्थ थे। ये बातें हैं जो यह तय करने में अहम हैं कि कोई व्यक्ति हमेशा परमेश्वर की मौजूदगी में रह सकता है या नहीं। अगर तुम्हें अक्सर परमेश्वर की अनुभूति नहीं होती, अक्सर कमजोर और नकारात्मक हो जाते हो, अक्सर स्वच्छंद रहते हो या अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठाते, हमेशा संभ्रमित रहते हो, तो यह एक अच्छी दशा है या बुरी? क्या यह परमेश्वर के सामने जीने की दशा है, या परमेश्वर के सामने बिल्कुल न जीने की दशा है? (यह परमेश्वर के सामने न जीने की दशा है।) तो तुम सबको इसे मापना होगा—तुम अक्सर परमेश्वर के सामने जीते हो या नहीं? अगर तुम विरले ही ऐसा करते हो, प्रार्थना भी नहीं करते, या परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, तो इसका अर्थ है सामने मुसीबत खड़ी है, यानी तुम एक अविश्वासी हो। कुछ लोग विरले ही उचित मामलों में ध्यान लगाते हैं, वे स्वच्छंद और संयमहीन होते हैं, और जब उनके साथ चीजें घटती हैं, तो वे हमेशा पशोपेश में रहते हैं और नहीं जान पाते कि सत्य को कैसे खोजें। वे यह भी नहीं जानते कि उन्हें अपने कर्तव्य के परिणाम मिले हैं या नहीं। वे नहीं जानते कि उनका कौन-सा नित्य कर्म परमेश्वर का अपमान करता है, कौन-से परमेश्वर को स्वीकार्य हैं, और किनसे परमेश्वर को घृणा है। वे बस दिन-ब-दिन गड़बड़ करते रहते हैं। इस दशा के बारे में तुम क्या सोचते हो? ऐसी दशाओं में रहनेवाले लोगों के दिलों में क्या परमेश्वर से भय होता है? क्या उनके कर्मों का कोई सिद्धांत हो सकता है? क्या वे समझदारी के काम कर सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय क्या वे कह सकते हैं, “मुझे संयम से रहना चाहिए, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहिए, मुझे इसे पूरी लगन और शक्ति से निभाना चाहिए”? क्या वे समर्पित हो सकते हैं? (नहीं।) तो फिर ऐसे लोग क्या कर रहे हैं? वे सिर्फ मेहनत कर रहे हैं! क्या ऐसे लोगों ने सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) यह एक बहुत बड़ी क्षति है। बेवकूफों की यह टोली सत्य का अनुसरण करना कैसे नहीं जानती? इन लोगों ने दस-बीस साल से परमेश्वर में विश्वास रखा है और बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी वे नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास के जरिए क्या पाना है, सत्य का अनुसरण कैसे करें, सत्य पर अमल कैसे करें या अपना कर्तव्य कैसे निभाएँ। अगर उनके मन में इन अहम बातों के बारे में भी स्पष्टता नहीं हैं, तो क्या वे थोड़े बेवकूफ नहीं हैं? वे बहुत मंदबुद्धि और सुन्न हैं। सत्य पर वे कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते, और यह खतरनाक है। परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में सबसे अहम बात क्या है? यह सत्य प्राप्त करने के लिए है। सत्य प्राप्त कर के कोई व्यक्ति कौन-सी समस्याएँ सुलझा सकता है? मुख्य रूप से अपने पाप, अपना भ्रष्ट स्वभाव, परमेश्वर में अपने विश्वास की कठिनाइयाँ और अपना गलत नजरिया। ये सभी समस्याएँ सुलझाई जा सकेंगी। सत्य प्राप्त करके इंसान को उसका किसमें उपयोग करना चाहिए? अपने कर्तव्य-निर्वाह में, और परमेश्वर की गवाही देने में—ये सबसे अहम चीजें हैं। फिलहाल, शायद तुम्हें इसका सच्चा ज्ञान न हो, तुमने अब भी सत्य का मूल्य या महत्ता को पहचाना न हो, मगर एक दिन जरूर जान लोगे।

क्या तुमने अय्यूब की किताब पढ़ी है? इसे पढ़ते समय क्या तुमने प्रेरणा महसूस की? क्या तुम्हें ऐसी ललक मिली, जिससे तुमने अय्यूब जैसा व्यक्ति बनना चाहा हो। (हाँ।) ऐसी दशा और मन:स्थिति कितने समय तक बनी रह सकती है? एक-दो दिन, एक-दो महीने, या एक-दो साल? (दो-तीन दिन।) तो ऐसी दशा और मन:स्थिति दो-तीन दिन में गायब हो सकती है? प्रेरित महसूस होने पर तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से कहना चाहिए कि तुम अय्यूब जैसा व्यक्ति बनना चाहते हो, तुम सत्य को समझना चाहते हो, परमेश्वर का ज्ञान हासिल करना चाहते हो, और एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हो जो परमेश्वर से डरता हो और बुराई से दूर रहता हो। तुम्हें परमेश्वर से विनती करनी चाहिए कि तुममें यह गुण लाये, तुम्हें रास्ता दिखाए, तुम्हें सही माहौल मुहैया करे, शक्ति दे, और तुम्हारी रक्षा करे ताकि तुम हर स्थिति में अडिग रह सको, परमेश्वर का प्रतिरोध न करो, और इसके बजाय परमेश्वर से भयभीत होनेवाले और बुराई से दूर रहनेवाले काम करो और उसकी इच्छा संतुष्ट करो। इस लक्ष्य के लिए और तुम जो कुछ पाना चाहते हो, उसके लिए तुम्हें हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना और याचना करनी चाहिए और जब परमेश्वर तुम्हारा सच्चा दिल देखेगा तो वह कार्य करेगा। परमेश्वर के कुछ करने पर डरना मत। परमेश्वर ने जब अय्यूब की परीक्षा ली थी, वैसे शायद तुम्हारा शरीर फोड़ों से न भर दे और तुम्हारी तमाम चीजें तुमसे न छीने। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा; वह तुम्हारे आध्यात्मिक कद के अनुसार धीरे-धीरे और ज्यादा बोझ डालेगा। तुम्हें परमेश्वर को ईमानदारी से पुकारना चाहिए—अय्यूब की किताब पढ़ने के दो दिन बाद तक और उससे प्रेरित रहने तक उसे न पुकारो, और तीसरे दिन उसे न पढ़ते समय और उसे दिल में न बसाए होने पर उसे भूल जाओ। अगर तुम ऐसा करोगे, तो मुसीबत में पड़ जाओगे! अगर तुम अय्यूब जैसे लोगों की सराहना करते हो, और उस जैसा व्यक्ति बनना चाहते हो, तो तुम्हारे सामने वैसा व्यक्ति बनने का रास्ता होना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना दिल बिछाना होगा, इसके लिए अक्सर उससे प्रार्थना करनी होगी, इस पर अक्सर मनन करना होगा, और परमेश्वर द्वारा अय्यूब के लिए बोले गए वचनों का खान-पान करना होगा, बार-बार नियमितता से उन पर सोच-विचार करना होगा, और इसके बाद तुम्हें इस प्रकार के अनुभव और ज्ञानवाले लोगों से संगति करनी होगी। तुम्हें इस लक्ष्य के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। तुम्हें कड़ी मेहनत कैसे करनी चाहिए? तुम सिर्फ देखते और प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहोगे, तो यह कड़ी मेहनत करना नहीं है। तुम्हें इस पर अमल करना होगा, तुम्हें इसके लिए समर्पित प्रयास करने होंगे, साथ ही साथ कष्ट सहने और ललकवाला दिल रखने का संकल्प लेना होगा, और फिर इसके लिए प्रार्थना करनी होगी, परमेश्वर से कुछ करने की विनती करनी होगी। अगर परमेश्वर कार्य न करे, तो लोगों में जितना भी जोश क्यों न हो, उसका कोई लाभ नहीं। परमेश्वर कार्य कैसे करेगा? परमेश्वर तुम्हारे आध्यात्मिक कद के लायक माहौल का आयोजन और व्यवस्था करना शुरू कर देगा। तुम्हें परमेश्वर को बताना होगा कि तुम अपनी आस्था में कौन-से लक्ष्य पाना चाहते हो, तुम्हारे संकल्प किस प्रकार के हैं। क्या तुमने इसके लिए परमेश्वर से प्रार्थना और विनती की है? तुमने कितने समय से इसके लिए प्रार्थना और विनती की है? अगर तुम कभी-कभार एक-दो प्रार्थनाएँ करके देखो कि परमेश्वर ने कुछ नहीं किया है, और सोचने लगो, “छोड़ो, जैसा है चलने दो। जो होगा, होने दो, मैं बस उस बहाव के साथ चला जाऊंगा। मेरे साथ जो भी हो, मुझे परवाह नहीं,” तो यह ठीक नहीं, तुम निष्ठावान नहीं हो। अगर तुम्हारा उत्साह सिर्फ दो मिनट का है, तो क्या परमेश्वर तुम्हारे लिए कार्य कर सकेगा और तुम्हारे लिए माहौल तैयार करने में मदद कर सकेगा? परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा! परमेश्वर तुम्हारी निष्ठा देखना चाहता है, और यह कि तुम्हारी निष्ठा और दृढ़ता कब तक टिक पाती है, और क्या तुम्हारा दिल सच्चा है या झूठा। परमेश्वर प्रतीक्षा करेगा। वह तुम्हारी प्रार्थनाएँ और विनतियाँ सुनता है, तुम उसे विश्वास में लेकर जो संकल्प और आकांक्षाएँ बताते हो, वह सुनता है, मगर जब तक वह कष्ट सहने का तुम्हारा संकल्प देख नहीं लेता, कुछ नहीं करेगा। अगर प्रार्थना कर लेने के बाद तुम बिना कुछ किए गायब हो जाते हो, तो क्या ऐसी स्थिति में परमेश्वर कुछ करेगा? बिल्कुल और यकीनन नहीं। तुम्हें परमेश्वर से और अधिक प्रार्थना और विनती करनी होगी, इसमें ज्यादा प्रयास करना होगा, मनन करना होगा, और फिर परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तैयार किए गए माहौल का बारीकी से आनंद लेना होगा; इस माहौल में तुम थोड़ा-थोड़ा करके रमोगे, और परमेश्वर कार्य शुरू करेगा। अगर तुम्हारा दिल सच्चा नहीं है तो यह कारगर नहीं होगा। तुम कह सकते हो, “मैं अय्यूब और पतरस की कितनी सराहना करता हूँ!” मगर तुम्हारी सराहना का क्या फायदा? तुम जितना चाहो उनकी सराहना कर सकते हो, मगर तुम वे नहीं हो, और तुम्हारी इस पूरी सराहना को देखकर परमेश्वर वैसा कार्य नहीं करेगा जो उसने उनके लिए किया, क्योंकि तुम उन्हीं के जैसे व्यक्ति नहीं हो। तुममें उनका संकल्प नहीं है, न इंसानियत है, न वह दिल है जिससे उन्होंने सत्य की लालसा की, उसका अनुसरण किया। ये चीजें हासिल कर लेने के बाद ही परमेश्वर तुम्हें और ज्यादा प्रदान करेगा।

क्या तुममें अब सत्य के अनुसरण, सत्य को हासिल करने और परमेश्वर से उद्धार पाकर पूर्ण होने का संकल्प है? (हाँ।) तुम्हारा संकल्प कितना बड़ा है? तुम इसे कब तक कायम रख सकते हो? (अच्छी दशा में होने पर मुझमें संकल्प होता है, मगर मेरी धारणाओं और देह-सुख के विपरीत कुछ घटित होने पर या जब मुझे शुद्धिकरण से गुजरना होता है या कुछ कठिनाइयाँ आती हैं, तो मैं निराशा की दशा में फंस जाता हूँ, और शुरू में जो आस्था और संकल्प मुझमें था वह धीरे-धीरे गायब होने लगता है।) ऐसे काम नहीं चलेगा। तुम बहुत कमजोर हो। तुम्हें ऐसे स्थान पर पहुँचना होगा जहाँ तुम्हारा किसी भी स्थिति से सामना हो, तुम्हारा संकल्प नहीं बदल सकता। तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जो सचमुच सत्य से प्रेम कर उसका अनुसरण करता है। अगर मुसीबत आने या किसी कठनाई का सामना होने पर, तुम पीछे हट जाते हो, निराश और नकारात्मक हो जाते हो, और अपना संकल्प छोड़ देते हो, तो यह नहीं चलेगा। तुममें ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि जान की कुर्बानी देने और यह कहने को तैयार रहो, “कुछ भी हो जाए—मैं मर भी जाऊँ तो भी सत्य या सत्य के अनुसरण के अपने लक्ष्य का त्याग नहीं करूँगा।” फिर तुम्हें कोई भी चीज रोक नहीं सकेगी। अगर सच में कठिनाइयों का सामना होने पर तुम असहाय हो जाते हो, तो परमेश्वर अपना कार्य करेगा। इसके अलावा, तुम्हें यह समझ होनी चाहिए: “मेरा सामना किसी भी चीज से हो, ये सब सबक हैं जो मुझे सत्य के अनुसरण में सीखने चाहिए—इन सबकी व्यवस्था परमेश्वर ने की है। मैं कमजोर हो सकता हूँ, मगर निराश नहीं हूँ, और ये सबक सीखने का मौका देने के लिए परमेश्वर का आभारी हूँ। मेरे लिए यह स्थिति तय करने के लिए मैं परमेश्वर का आभारी हूँ। मैं परमेश्वर का अनुसरण करने और सत्य प्राप्त करने का अपना संकल्प त्याग नहीं सकता। अगर मैं त्याग दूँ, तो यह शैतान से हार मानने जैसा होगा, खुद को बरबाद करना और परमेश्वर को धोखा देना होगा।” तुम्हें ऐसा संकल्प रखना होगा। जिन भी छोटे-छोटे मामलों से तुम्हारा सामना होता है, ये सब तुम्हारे जीवन विकास क्रम के छोटे-छोटे किस्से हैं। इनको तुम्हारी तरक्की की दिशा रोकने का अवसर नहीं देना चाहिए। कठिनाइयाँ आने पर तुम्हें खोजना और प्रतीक्षा करनी चाहिए। मगर तुम्हारी तरक्की की दिशा नहीं बदलनी चाहिए, क्या यह सही नहीं है? (सही है।) दूसरे जो भी कहें, या तुमसे जैसे भी पेश आएँ, और परमेश्वर तुमसे जैसे भी पेश आए, तुम्हारा संकल्प नहीं बदलना चाहिए। अगर परमेश्वर कहे, “तुम सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, मैं तुमसे घृणा करता हूँ,” और तुम कहो, “परमेश्वर मुझसे घृणा करता है, तो मेरे जीवन का क्या अर्थ रह गया है? मैं मर जाऊँ और इन सबसे छूट जाऊं, यही ठीक रहेगा!” तो तुम परमेश्वर को गलत समझ रहे होगे। यह सही है कि परमेश्वर तुमसे घृणा करता है, मगर तुम्हें लड़ते रहना चाहिए, सत्य को स्वीकार करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तब तुम एक बेकार इंसान नहीं रहोगे और परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें ठुकरा नहीं देगा। फिलहाल, तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुमने परमेश्वर की परीक्षा का स्तर अभी नहीं पाया है। वह एकमात्र चीज क्या है जो तुम कर सकते हो? तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए: “हे परमेश्वर, मुझे रास्ता दिखाओ, प्रबुद्ध करो, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा को समझ सकूँ और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की आस्था और दृढ़ता पा सकूँ, ताकि मैं परमेश्वर से भयभीत होकर बुराई से दूर रहूँ। हालाँकि मैं कमजोर हूँ, मेरा आध्यात्मिक कद सयाना नहीं है, फिर भी मैं तुमसे मुझे शक्ति देने और मेरी रक्षा करने की भीख मांगता हूँ, ताकि मैं अंत तक तुम्हारा अनुसरण कर सकूँ।” तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। दूसरे लोग सांसारिक चीजों की लालसा रख सकते हैं, देह-सुख में लिप्त रह सकते हैं, और सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भाग सकते हैं, लेकिन तुम्हें उनके साथ नहीं रहना चाहिए—बस अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान देना चाहिए। जब दूसरे निराश महसूस करें और अपना कर्तव्य न निभाएँ, तो तुम्हें लाचार महसूस नहीं करना चाहिए, और तुम्हें उनकी मदद के लिए सत्य खोजना चाहिए। जब दूसरे ऐशो-आराम में लिप्त हों, तो तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के सामने जीने से संबंध रखना चाहिए। जब दूसरे लोग प्रतिष्ठा, लाभ, और रुतबे के पीछे भागें, तो तुम्हें उनके लिए प्रार्थना कर उनकी मदद करनी चाहिए, परमेश्वर के सामने शांत चित्त होकर इन चीजों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हारे इर्द-गिर्द जो भी घटे, तुम्हें परमेश्वर से हर चीज के बारे में प्रार्थना करनी चाहिए। तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए, खुद को संयम में रखना चाहिए, सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहे हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। परमेश्वर लोगों की हमेशा जाँच करता रहता है, और पवित्र आत्मा ऐसे लोगों के भीतर काम करता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के दिल की जाँच कैसे करता है? वह सिर्फ अपनी नजरों से नहीं देखता, बल्कि तुम्हारे लिए माहौल तैयार करता है और अपने हाथों से तुम्हारे दिल को छूता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इसलिए कि जब परमेश्वर तुम्हारे लिए एक माहौल तैयार करता है, तो देखता है कि क्या तुम उससे नाखुश हो, उससे घृणा करते हो, या उसे पसंद कर उसे समर्पित हो जाते हो, क्या तुम निष्क्रियता से प्रतीक्षा करते हो या सक्रियता से सत्य खोजते हो। परमेश्वर देखता है कि तुम्हारा दिल और सोच कैसे बदलते हैं, और किस दिशा में विकसित हो रहे हैं। तुम्हारे दिल की दशा कभी-कभी सकारात्मक होती है, और कभी-कभी नकारात्मक। अगर तुम सत्य को स्वीकार कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर से लोग, घटनाएँ, चीजें और विविध माहौल पा सकोगे, जो उसने तुम्हारे लिए तैयार किए हैं, और तुम उन तक सही ढंग से पहुँच सकोगे। परमेश्वर के वचन पढ़कर और सोच-विचार से तुम्हारे सारे विचार, सारी राय, और तमाम मन:स्थितियाँ उसके वचनों के आधार पर बदल जाएँगी। तुम्हारे मन में इस बारे में स्पष्टता आएगी, और परमेश्वर इन सबकी भी जाँच करेगा। हालाँकि तुमने इस बारे में किसी से बात नहीं की होगी, या इस बारे में प्रार्थना नहीं की होगी, और तुम सिर्फ यही सोचोगे कि यह तुम्हारे दिल में है, तुम्हारी दुनिया में है, मगर परमेश्वर के नजरिए से यह स्पष्ट हो चुका होगा—उसके लिए यह जाहिर होगा। लोग तुम्हें अपनी नजरों से देखते हैं, मगर परमेश्वर अपने दिल से तुम्हारे दिल को छूता है, वह तुम्हारे इतना करीब है। अगर तुम परमेश्वर की जाँच को महसूस कर सकते हो, तो तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहे हो। अगर तुम उसकी जाँच को जरा भी महसूस नहीं कर रहे, अपनी ही दुनिया में जी रहे हो, और अपनी ही भावनाओं और भ्रष्ट स्वभाव के साथ जी रहे हो, तो तुम मुसीबत में हो। अगर तुम परमेश्वर की मौजूदगी में नहीं जीते, अगर तुम्हारे और परमेश्वर के बीच एक बड़ी खाई है, और तुम उससे बहुत दूर हो, अगर तुम उसकी इच्छा का जरा भी ख्याल नहीं रखते, और तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो परमेश्वर यह सब जान लेगा। इसे भाँप लेना उसके लिए बहुत आसान होगा। इसलिए, जब तुममें संकल्प और एक लक्ष्य होगा, तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने और एक ऐसा व्यक्ति बनने को तैयार हो जाओगे जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करता है और उससे डरता है, बुराई से दूर रहता है, जब तुम्हारे मन में यह संकल्प होगा, और तुम इन चीजों के लिए अक्सर प्रार्थना और विनती कर सकोगे, और परमेश्वर से दूरी बनाए बिना या उसे छोड़े बिना, परमेश्वर की मौजूदगी में रह सकोगे, तब तुम्हारे मन में इन चीजों के बारे में स्पष्टता होगी, और परमेश्वर भी ये सब जानता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं स्वयं इस बारे में स्पष्ट हूँ, लेकिन परमेश्वर को यह मालूम है या नहीं?” यह प्रश्न अवैध है। अगर तुम यह कहते हो, तो साबित होता है कि तुमने कभी भी परमेश्वर से संवाद नहीं किया है, और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच जरा भी संबंध नहीं है। मैं क्यों कहता हूँ कि तुम्हारे और परमेश्वर के बीच कोई संबंध नहीं है? तुमने परमेश्वर के सामने जीवन नहीं जिया है, और इसलिए तुम भाँप नहीं सकते कि क्या वह तुम्हारे साथ है, तुम्हें रास्ता दिखाता है, तुम्हारी रक्षा करता है, और तुम्हारे कुछ गलत करने पर क्या वह तुम्हें फटकारता है। अगर तुम्हें इन तमाम चीजों का अंदाजा नहीं है, तो तुम परमेश्वर के सामने नहीं रहते, तुम बस इसकी कल्पना करके मजे ले रहे हो—तुम अपनी ही दुनिया में जी रहे हो, परमेश्वर के सामने नहीं, और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच कोई भी संबंध नहीं है।

लोग परमेश्वर से एक सामान्य संबंध कैसे कायम रख सकते हैं? कायम रखना किस पर निर्भर करता है? यह परमेश्वर से उनके दिल से विनती और प्रार्थना करने और उससे संसर्ग करने पर निर्भर है। इस प्रकार के संबंध से लोग हमेशा परमेश्वर के सामने जी पाते हैं। इसलिए, परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित करने के लिए लोगों को पहले शांत रहना चाहिए। कुछ लोग हमेशा बाहर कुछ-न-कुछ करते रहते हैं, और सिर्फ बाहरी मामलों में उलझे रहते हैं। उन्हें एक-दो दिन आध्यात्मिक जीवन न मिले, तो भी वे जान नहीं पाएँगे। तीन-चार दिन या एक-दो महीने बाद भी वे जान नहीं पाएँगे, क्योंकि उन्होंने प्रार्थना या विनती नहीं की है, परमेश्वर से संवाद नहीं किया है। विनती तब की जाती है जब तुम्हारे साथ कुछ घट जाए, और तुम चाहो कि परमेश्वर तुम्हारी मदद करे, तुम्हें रास्ता दिखाए, तुम्हें मुहैया करे, प्रबुद्ध करे, तुम्हें समझाए कि उसकी इच्छा क्या है, सत्य क्या है, सत्य का अभ्यास कैसे करें—ऐसी विनती ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होती है। प्रार्थना का दायरा अपेक्षाकृत बड़ा होता है। कभी-कभी तुम अपने मन की बातें बता सकते हो—कठिनाइयों ने घेर लिया हो, या जब तुम निराश और कमजोर महसूस कर रहे हो, तुम परमेश्वर के साथ दिल से ये बातें कर सकते हो; तुम परमेश्वर से उस वक्त भी प्रार्थना कर सकते हो जब तुम अवज्ञाकारी हो, या रोजमर्रा की अपनी समस्याओं के बारे में बता सकते हो, वो जिन्हें तुम समझ पा रहे हो और वो भी जो तुम्हारे बस के बाहर हैं—इसे प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना परमेश्वर से अपने दिल की बात कहना है, या परमेश्वर से सत्य खोजना है। कभी-कभी यह एक नियत समय पर की जाती है, कभी-कभी किसी नियत समय पर नहीं; तुम कभी भी कहीं भी प्रार्थना कर सकते हो। आध्यात्मिक संगति का कोई आकार, कोई रूप नहीं होता : कोई बात तुम्हें परेशान कर रही हो या नहीं, तुम कुछ कहना चाहते हो या नहीं। जब तुम्हें कोई बात परेशान कर रही हो, तो तुम्हें परमेश्वर से इस बारे में बात करके प्रार्थना करनी चाहिए। आम तौर पर तुम्हें ऐसे सवालों पर सोच-विचार करने की कोशिश करनी चाहिए जैसे कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम कैसे करता है, वह मनुष्य के बारे में कैसे चिंता करता है, वह मनुष्य की काट-छाँट और उसका निपटान क्यों करता है, सच में परमेश्वर की आज्ञा मानने का अर्थ क्या है, आदि-आदि, हमेशा हर जगह परमेश्वर से संवाद करना, परमेश्वर से प्रार्थना करना, और उससे कुछ जानने की कोशिश करना। यह आध्यात्मिक संगति या संक्षेप में “आत्मा संगति” है। कभी-कभी सड़क पर जाते हुए तुम्हें ऐसा कोई विचार आ सकता है जो तुम्हें बहुत परेशान कर देता है; तुम्हें झुककर आँखें बंद करने की जरूरत नहीं। तुम बस अपने मन में परमेश्वर से बात कर सकते हो, “हे परमेश्वर, मुझ पर यह मुसीबत आ पड़ी है और मुझे इससे निपटना नहीं आता, मुझे इस मामले में तुम्हारा मार्गदर्शन चाहिए।” जब तुम्हारे दिल में कोई हलचल हो, और तुम इस बारे में परमेश्वर से कुछ दिल को छूनेवाली बातें कहो, तो वह जान जाएगा। कभी-कभी तुम्हें घर की बड़ी याद आ रही है, और तुम कहते हो, “हे परमेश्वर, मुझे घर की याद आ रही है।” तो तुम नहीं बताते कि विशेष रूप से तुम्हें किसकी याद सता रही है, बस इतना ही कि तुम दुखी हो, और परमेश्वर से इस बारे में बता रहे हो। तुम अपनी समस्याएँ तभी सुलझा सकते हो जब परमेश्वर से प्रार्थना करो और उसे बताओ कि तुम्हारे दिल में क्या है। क्या किसी दूसरे व्यक्ति से बात करके तुम अपनी समस्याएँ सुलझा सकते हो? सत्य समझनेवाले किसी व्यक्ति से मिलने के परिणाम उतने बुरे नहीं होंगे—न सिर्फ तुम अपनी समस्याएँ सुलझा पाओगे, इससे तुम्हें लाभ भी होगा। लेकिन अगर तुम किसी ऐसे इंसान से मिलोगे जो सत्य नहीं समझता, तो तुम अपनी समस्याएँ नहीं सुलझा सकोगे, और इससे वे भी प्रभावित हो सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर से बात करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें सुकून पहुँचाएगा और प्रेरित करेगा। अगर तुम परमेश्वर के सामने शांतचित्त बैठकर उसके वचन पढ़ सको, और फिर सोच-विचार कर प्रार्थना कर सको, तो तुम सत्य को समझ कर अपनी समस्याएँ सुलझा सकते हो। परमेश्वर के वचनों से तुम्हें अपनी कठिनाइयों से पार लगने का रास्ता पाने में मदद मिल सकती है, और जब तुम इस छोटी-सी बाधा को पार कर जाओगे, तो तुम गिरोगे नहीं, लाचार महसूस नहीं करोगे, न ही यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह को प्रभावित करेगा। कभी-कभी ऐसे पल आएँगे जब तुम उदासी और अंधियारा महसूस करोगे। ऐसा होने पर, तुम्हें फौरन परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और उसके करीब जाना चाहिए, यानी अपने मन की बात बतानी चाहिए, और हमेशा हर जगह उसे विश्वास में लेकर अपना दिल खोल देना चाहिए। इस तरह तुम्हारी दशा ठीक हो सकती है। तुम्हें विश्वास होना चाहिए: “हर पल परमेश्वर मेरे साथ है, उसने मुझे कभी नहीं छोड़ा है, मैं महसूस कर सकता हूँ। मैं कहीं भी रहूँ, कुछ भी करूँ—किसी सभा में शामिल हूँ, या अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ—मैं दिल से जानता हूँ कि परमेश्वर मेरा हाथ थाम कर मेरी अगुआई कर रहा है, और उसने मुझे कभी नहीं छोड़ा।” कभी-कभी जब तुम्हें याद आता है कि इतने सालों से तुमने इस तरह कैसे दिन गुजारे, तो तुम्हें महसूस होगा कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद ऊंचा हो गया है, परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहा है, और परमेश्वर का प्रेम हमेशा तुम्हारी रक्षा करता रहा है। ये बातें सोचते हुए तुम अपने मन में प्रार्थना करोगे, परमेश्वर का धन्यवाद करोगे : “हे परमेश्वर, तुम्हारा धन्यवाद! मैं बहुत कमजोर, दब्बू, और बहुत ज्यादा भ्रष्ट हूँ। अगर मुझे तुम्हारा मार्गदर्शन न मिला होता, तो मैं अपने-आप इस मुकाम पर नहीं पहुँच पाया होता।” क्या यह आध्यात्मिक संगति नहीं है? अगर लोग इस प्रकार परमेश्वर से अक्सर संगति कर सकें, तो क्या उनके पास परमेश्वर से कहने को बहुत कुछ नहीं होगा? ऐसे ज्यादा दिन नहीं जाएँगे जब वे परमेश्वर से एक भी बात न कह सकें। तुम्हारे पास परमेश्वर से कहने को कुछ भी नहीं है, तो परमेश्वर तुम्हारे दिल में अनुपस्थित है। अगर परमेश्वर तुम्हारे दिल में है, और तुम परमेश्वर में आस्था रखते हो, तो तुम अपने मन की सारी बातें उससे कह सकते हो, वो सब भी जो तुम अपने विश्वासपात्रों से कहोगे। दरअसल परमेश्वर तुम्हारा सबसे करीबी विश्वासपात्र है। अगर तुम परमेश्वर से एक करीबी विश्वासपात्र की तरह पेश आओगे, उस परिवार की तरह जिस पर तुम सबसे ज्यादा निर्भर हो, जो तुम्हारा सबसे भरोसेमंद, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे नजदीकी है, तो परमेश्वर से कहने के लिए कुछ न होना नामुमकिन है। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से कहने के लिए हमेशा कुछ है, तो क्या तुम हमेशा उसकी मौजूदगी में नहीं रहोगे? अगर तुम हमेशा परमेश्वर की मौजूदगी में रहोगे, तो तुम्हें हर पल यह एहसास होगा कि परमेश्वर तुम्हें कैसे प्रबुद्ध कर तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, कैसे तुम्हारी परवाह कर तुम्हारी रक्षा करता है, और तुम्हें शांति और खुशी देता है, कैसे वह तुम्हें आशीष देता है, और कैसे वह तुम्हें फटकारता है, अनुशासित करता है, संयत करता है, न्याय कर तुम्हें ताड़ना देता है। यह सब तुम्हें स्पष्ट और प्रत्यक्ष नजर आएगा। अगर तुम हर दिन गड़बड़ करोगे, सिर्फ बातों से परमेश्वर में विश्वास रखोगे, परमेश्वर को दिल में नहीं बसाओगे, और ऊपर-ऊपर से ही अपना कर्तव्य निभाकर सभाओं में यूँ ही समय गुजारोगे, हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़कर प्रार्थना करने का दिखावा करोगे, तो यह परमेश्वर में आस्था नहीं है—तुम्हारी इन धार्मिक रीतियों में से एक का भी सत्य के साथ कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले लोगों को हर दिन परमेश्वर के वचनों का एक अंश पूरे ध्यान से पढ़ना चाहिए, और इन वचनों के दायरे में प्रार्थना कर संगति करनी चाहिए। हर दिन परमेश्वर के वचनों से थोड़ी रोशनी पानी चाहिए, और थोड़ा सत्य समझना चाहिए। विशेष रूप से उन्हें अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य खोजकर मामलों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालना चाहिए, और हर दिन जीवन के अनुभव प्राप्त करने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने में समर्थ होना चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति एक सच्चा विश्वासी होता है जो परमेश्वर का अनुसरण करता है।

परमेश्वर की आस्था में सबसे अहम मसला कौन-सा है, जिसका समाधान सबसे ज्यादा जरूरी है? यह परमेश्वर के साथ तुम्हारे सामान्य संबंध का मसला है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, मगर वह तुम्हारे दिल में बसा हुआ नहीं है, तुमने उसके साथ अपना संबंध तोड़ दिया है, और तुम परमेश्वर से अपने घनिष्ठ, भरोसेमंद और परिवार के बेहद करीबी और विश्वासपात्र सदस्य की तरह पेश नहीं आते, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। मेरे कथनों के अनुसार कुछ समय तक अभ्यास करके देखो कि क्या तुम्हारी आतंरिक दशा में बदलाव आया है। मेरे कथनों के अनुसार अभ्यास करके तुम सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहे हो, तुम्हारी अवस्था और दशा सामान्य है। जब किसी व्यक्ति की दशा सामान्य होती है, और वह अपने जीवन-अनुभव के सभी चरणों में किसी भी घटना, व्यक्ति चीज या उस पर छाये किसी माहौल से प्रभावित न होता हो, और अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने में डटे रहने में समर्थ हो, तो उसका आध्यात्मिक कद सच्चा है, और वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर चुका है।

जुलाई 13, 2017

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