X. झूठे चरवाहों, मसीह-विरोधियों और झूठे मसीहों को कैसे पहचानें

1. योग्य कर्मी का कार्य लोगों को सही मार्ग पर लाकर उन्हें सत्य में बेहतर प्रवेश प्रदान कर सकता है। उसका कार्य लोगों को परमेश्वर के सम्मुख ला सकता है। इसके अतिरिक्त, जो कार्य वह करता है, वह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है, और वह नियमों से बँधा हुआ नहीं होता, उन्हें मुक्ति और स्वतंत्रता तथा जीवन में क्रमश: आगे बढ़ने और सत्य में अधिक गहन प्रवेश करने की क्षमता प्रदान करता है। अयोग्य कर्मी का कार्य कम पड़ जाता है। उसका कार्य मूर्खतापूर्ण होता है। वह लोगों को केवल नियमों के अधीन ला सकता है; और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ हर व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न नहीं होतीं; वह लोगों की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुसार कार्य नहीं करता। इस प्रकार के कार्य में बहुत अधिक नियम और सिद्धांत होते हैं, और वह लोगों को वास्तविकता में नहीं ला सकता, न ही वह उन्हें जीवन में विकास के सामान्य अभ्यास में ला सकता है। वह लोगों को केवल कुछ बेकार नियमों का पालन करने में ही सक्षम बना सकता है। ऐसा मार्गदर्शन लोगों को केवल भटका सकता है। वह तुम्हें अपने जैसा बनाने में तुम्हारी अगुआई करता है; वह तुम्हें अपने स्वरूप में ला सकता है। इस बात को समझने के लिए कि अगुआ योग्य हैं या नहीं, अनुयायियों को अगुवाओं के उस मार्ग को जिस पर वे लोगों को ले जा रहे हैं और उनके कार्य के परिणामों को देखना चाहिए, और यह भी देखना चाहिए कि अनुयायी सत्य के अनुसार सिद्धांत पाते हैं या नहीं और अपने रूपांतरण के लिए उपयुक्त अभ्यास के तरीके प्राप्त करते हैं या नहीं। तुम्हें विभिन्न प्रकार के लोगों के विभिन्न कार्यों के बीच भेद करना चाहिए; तुम्हें मूर्ख अनुयायी नहीं होना चाहिए। यह लोगों के प्रवेश के मामले पर प्रभाव डालता है। यदि तुम यह भेद करने में असमर्थ हो कि किस व्यक्ति की अगुआई में एक मार्ग है और किसकी अगुआई में नहीं है, तो तुम आसानी से धोखा खा जाओगे। इस सबका तुम्हारे अपने जीवन के साथ सीधा संबंध है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य' से उद्धृत

2. जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के कार्य में प्रवेश नहीं किया है और चाहे वो कितना भी काम करें या उनकी पीड़ा जितनी भी ज़्यादा हो या वो कितनी ही भागदौड़ करें, परमेश्वर के लिए इनमें से किसी बात का कोई महत्व नहीं और वह उनकी सराहना नहीं करेगा। आज वो सभी जो परमेश्वर के वर्तमान वचनों का पालन करते हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह में हैं; जो लोग आज परमेश्वर के वचनों से अनभिज्ञ हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह से बाहर हैं और ऐसे लोगों की परमेश्वर द्वारा सराहना नहीं की जाती। वह सेवा जो पवित्र आत्मा के वर्तमान कथनों से जुदा हो, वह देह और धारणाओं की सेवा है और इसका परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होना असंभव है। यदि लोग धार्मिक धारणाओंमें रहते हैं, तो वो ऐसा कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं, जो परमेश्वर की इच्छा के अनुकूल हो और भले ही वो परमेश्वर की सेवा करें, वो अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के घेरे में ही सेवा करते हैं और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करने में असमर्थ हैं, वो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते और जो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते, वो परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकते। परमेश्वर ऐसी सेवा चाहता है जो इच्छाके मुताबिक हो; वह ऐसी सेवा नहीं चाहता, जो धारणाओं और देह की हो। यदि लोग पवित्र आत्मा के कार्य के चरणों का पालन करने में असमर्थ हैं, तो वो धारणाओं के बीच रहते हैं। ऐसे लोगों की सेवा बाधा डालती है और परेशान करती है और ऐसी सेवा परमेश्वर के विरुद्ध चलती है। इस प्रकार, जो लोग परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में असमर्थ हैं, वो परमेश्वर की सेवा करने में असमर्थ हैं; जो लोग परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में असमर्थ हैं, वो निश्चित रूप से परमेश्वर का विरोध करते हैं और वो परमेश्वर के साथ सुसंगत होने में असमर्थ हैं।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो' से उद्धृत

3. जो कार्य मनुष्य के मन में होता है उसे वह बहुत आसानी से प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, धार्मिक संसार के पादरी और अगुवे अपना कार्य करने के लिए अपनी प्रतिभाओं और पदों पर भरोसा रखते हैं। जो लोग लम्बे समय तक उनका अनुसरण करते हैं वे उनकी प्रतिभाओं से संक्रमित होकर उनके अस्तित्व के कुछ हिस्से से प्रभावित हो जाते हैं। वे लोगों की प्रतिभा, योग्यता और ज्ञान को निशाना बनाते हैं, वे अलौकिक चीज़ों और अनेक गहन और अवास्तविक सिद्धांतों पर ध्यान देते हैं (निस्संदेह, ये गहन सिद्धांत अप्राप्य हैं)। वे लोगों के स्वभाव में बदलाव पर ध्यान न देकर, लोगों को उपदेश देने और कार्य करने का प्रशिक्षण देने, लोगों के ज्ञान और उनके भरपूर धार्मिक सिद्धांतों को सुधारने पर ध्यान देते हैं। वे इस बात पर ध्यान नहीं देते कि लोगों के स्वभाव में कितना परिवर्तन हुआ है, न ही इस बात पर ध्यान देते हैं कि लोग कितना सत्य समझते हैं। उन्हें लोगों के सार से कोई लेना-देना नहीं होता, वे लोगों की सामान्य और असामान्य दशा को जानने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते। वे लोगों की धारणाओं का विरोध नहीं करते, न ही वे अपनी धारणाओं को प्रकट करते हैं, वे लोगों की कमियों या भ्रष्टता के लिए उनकी काट-छाँट तो बिल्कुल भी नहीं करते। उनका अनुसरण करने वाले अधिकांश लोग अपनी प्रतिभा से सेवा करते हैं, और जो कुछ वे प्रदर्शित करते हैं, वह धार्मिक धारणाएँ और धर्म-संबंधी सिद्धांत होते हैं, जिनका वास्तविकता से कोई नाता नहीं होता और वे लोगों को जीवन प्रदान करने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं। वास्तव में, उनके कार्य का सार प्रतिभाओं का पोषण करना, प्रतिभाहीन व्यक्ति का पोषण करके उसे एक योग्य सेमेनरी स्नातक बनाना है जो बाद में कार्य और अगुवाई करता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य' से उद्धृत

4. मेरी पीठ पीछे बहुत-से लोग हैसियत के लाभों की अभिलाषा करते हैं, वे ठूँस-ठूँसकर खाना खाते हैं, सोना पसंद करते हैं तथा देह की इच्छाओं पर पूरा ध्यान देते हैं, हमेशा भयभीत रहते हैं कि देह से बाहर कोई मार्ग नहीं है। वे कलीसिया में अपना उपयुक्त कार्य नहीं करते, पर मुफ़्त में कलीसिया से खाते हैं, या फिर मेरे वचनों से अपने भाई-बहनों की भर्त्सना करते हैं, और अधिकार के पदों से दूसरों के ऊपर आधिपत्य जताते हैं। ये लोग निरंतर कहते रहते हैं कि वे परमेश्वर की इच्छा पूरी कर रहे हैं और हमेशा कहते हैं कि वे परमेश्वर के अंतरंग हैं—क्या यह बेतुका नहीं है? यदि तुम्हारे इरादे सही हैं, पर तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने में असमर्थ हो, तो तुम मूर्ख हो; किंतु यदि तुम्हारे इरादे सही नहीं हैं, और फिर भी तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर की सेवा करते हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर का विरोध करता है, और तुम्हें परमेश्वर द्वारा दंडित किया जाना चाहिए! ऐसे लोगों से मुझे कोई सहानुभूति नहीं है! परमेश्वर के घर में वे मुफ़्तखोरी करते हैं, हमेशा देह के आराम का लोभ करते हैं, और परमेश्वर की इच्छाओं का कोई विचार नहीं करते; वे हमेशा उसकी खोज करते हैं जो उनके लिए अच्छा है, और परमेश्वर की इच्छा पर कोई ध्यान नहीं देते। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें परमेश्वर के आत्मा की जाँच-पड़ताल स्वीकार नहीं करते। वे अपने भाई-बहनों के साथ हमेशा छल करते हैं और उन्हें धोखा देते रहते हैं, और दो-मुँहे होकर वे, अंगूर के बाग़ में घुसी लोमड़ी के समान, हमेशा अंगूर चुराते हैं और अंगूर के बाग़ को रौंदते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर के अंतरंग हो सकते हैं? क्या तुम परमेश्वर के आशीष प्राप्त करने लायक़ हो? तुम अपने जीवन एवं कलीसिया के लिए कोई उत्तरदायित्व नहीं लेते, क्या तुम परमेश्वर का आदेश लेने के लायक़ हो? तुम जैसे व्यक्ति पर कौन भरोसा करने की हिम्मत करेगा? जब तुम इस प्रकार से सेवा करते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें कोई बड़ा काम सौंपने की जुर्रत कर सकता है? क्या इससे कार्य में विलंब नहीं होगा?

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप सेवा कैसे करें' से उद्धृत

5. तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक ज़िद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह दुनिया में जीने का मनुष्य का जीवन-दर्शन है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को धोखा देते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय बहिष्कृत कर दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और नियंत्रित करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालती है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए' से उद्धृत

6. तू उतना अधिक ज्ञान बोल पाता है जितनी समुद्र तट पर रेत है, फिर भी इसमें से कुछ भी वास्तविक मार्ग नहीं है। यह करके क्या तू लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयत्न नहीं कर रहा है? क्या तू खोखला प्रदर्शन नहीं कर रहा है, जिसके समर्थन के लिए कुछ भी ठोस नहीं है? ऐसा समूचा व्यवहार लोगों के लिए हानिकारक है! जितना अधिक ऊँचा सिद्धांत और उतना ही अधिक यह वास्तविकता से रहित, उतना ही अधिक यह लोगों को वास्तविकता में ले जाने में अक्षम; जितना अधिक ऊँचा सिद्धांत, उतना ही अधिक यह तुझसे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करवाता है। ऊँचे से ऊँचे सिद्धांतों को अनमोल खजाने की तरह मत बरत; वे दुखदाई हैं और किसी काम के नहीं हैं! शायद कुछ लोग ऊँचे से ऊँचे सिद्धांतों की बात कर पाते हैं—लेकिन इनमें वास्तविकता का लेशमात्र भी नहीं होता, क्योंकि इन लोगों ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से अनुभव नहीं किया है, और इसलिए उनके पास अभ्यास करने का कोई मार्ग नहीं है। ऐसे लोग दूसरों को सही राह पर ले जाने में अक्षम होते हैं और उन्हें केवल गुमराह ही करेंगे। क्या यह लोगों के लिए हानिकारक नहीं है? कम से कम, तुझे लोगों के वर्तमान कष्टों का निवारण तो करना ही चाहिए, उन्हें प्रवेश करने देना चाहिए; केवल यही समर्पण माना जाता है, और तभी तू परमेश्वर के लिए कार्य करने योग्य होगा। हमेशा आडंबरपूर्ण, काल्पनिक शब्द मत बोला कर, और दूसरों को अपने आज्ञापालन में बाँधने के लिए अनुपयुक्त अभ्यासों का उपयोग मत कर। ऐसा करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और यह केवल उनके भ्रम को ही बढ़ा सकता है। इस तरह करते रहने से बहुत वाद उत्पन्न होगा, जो लोगों को तुझसे घृणा करवाएगा। ऐसी है मनुष्य की कमी, और यह सचमुच अत्यंत लज्जाजनक है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'वास्तविकता पर अधिक ध्यान केंद्रित करो' से उद्धृत

7. हर पंथ और संप्रदाय के अगुवाओं को देखो। वे सभी अभिमानी और आत्म-तुष्ट हैं, और वे बाइबल की व्याख्या संदर्भ के बाहर और उनकी अपनी कल्पना के अनुसार करते हैं। वे सभी अपना काम करने के लिए प्रतिभा और पांडित्य पर भरोसा करते हैं। यदि वे कुछ भी उपदेश करने में असमर्थ होते, तो क्या वे लोग उनका अनुसरण करते? कुछ भी हो, उनके पास कुछ ज्ञान तो है ही, और वे सिद्धांत के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, या वे जानते हैं कि दूसरों को कैसे जीता जाए, और कुछ चालाकियों का उपयोग कैसे करें, जिनके माध्यम से वे लोगों को अपने सामने ले आए हैं और उन्हें धोखा दे चुके हैं। नाम मात्र के लिए, वे लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपने अगुवाओं का अनुसरण करते हैं। अगर वे उन लोगों का सामना करते हैं जो सच्चे मार्ग का प्रचार करते हैं, तो उनमें से कुछ कहेंगे, "हमें परमेश्वर में अपने विश्वास के बारे में हमारे अगुवा से परामर्श करना है।" देखिये, परमेश्वर में विश्वास करने के लिए कैसे उन्हें किसी की सहमति की आवश्यकता है; क्या यह एक समस्या नहीं है? तो फिर, वे सब अगुवा क्या बन गए हैं? क्या वे फरीसी, झूठे चरवाहे, मसीह-विरोधी, और लोगों के सही मार्ग को स्वीकार करने में अवरोध नहीं बन चुके हैं? इस तरह के लोग पौलुस के प्रकार के ही हैं।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अनुसरण करना ही परमेश्वर में सच्चे अर्थ में विश्वास करना है' से उद्धृत

8. अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और इच्छानुसार चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी हरकतें करने का अर्थ है कि उनके अहंकार का सार महादूत जैसा ही बन गया है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो इससे यह तय हो जाता है कि वे महादूत हैं और वे परमेश्वर को दरकिनार कर देंगे। यदि तुम्हारा स्वभाव ऐसा ही अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा।

हमने धार्मिक मंडलियों के भीतर बार-बार कई अगुवाओं को सुसमाचार का उपदेश दिया है, किन्तु हम उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति क्यों न करें, वे इसे स्वीकार नहीं करते। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका घमंड मूल प्रवृत्ति बन गया है और उनके हृदयों में परमेश्वर का अब और स्थान नहीं रह गया है! कुछ लोग कह सकते हैं: "धार्मिक दुनिया के कुछ निश्चित पादरियों की अगुवाई में लोगों में वास्तव में बहुत अधिक प्रेरणा होती है; यह ऐसा है मानो परमेश्वर उनके बीच ही है!" क्या तुम उत्साह होने को अत्यधिक प्रेरणा होना मानते हो? उन पादरियों के धर्मोपदेश भले ही कितने भी उत्कृष्ट क्यों न प्रतीत होते हों, क्या वे परमेश्वर को जानते हैं? यदि उनके अंतर्तम में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा होती, तो क्या वे लोगों से अपना अनुसरण करवाते और अपना उत्कर्ष करवाते? क्या वे दूसरों पर एकाधिकार करते? क्या वे अन्य लोगों को सत्य की तलाश करने और सच्चे मार्ग की जाँच करने से रोकने की हिम्मत करते? यदि वे मानते हैं कि परमेश्वर की भेड़ें वास्तव में उनकी हैं, और उन्हें उनकी बात सुननी चाहिए, तो क्या बात ऐसी नहीं है कि वे स्वयं को परमेश्वर मानते हैं? ऐसे लोग फरीसियों से भी बदतर हैं। क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? इस प्रकार, उनकी यह अभिमानी प्रकृति उन्हें ऐसी चीज़ें करने के लिए नियंत्रित कर सकती है जो परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती हैं।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अहंकारी स्वभाव ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ है' से उद्धृत

9. परमेश्वर जब देहधारण कर इंसानों के बीच काम करने आता है, तो सभी उसे देखते और उसके वचनों को सुनते हैं, और सभी लोग उन कर्मों को देखते हैं जो परमेश्वर देह रूप में करता है। उस क्षण, इंसान की तमाम धारणाएँ साबुन के झाग बन जाती हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को देहधारण करते हुए देखा है, यदि वे अपनी इच्छा से उसका आज्ञापालन करेंगे, तो उनका तिरस्कार नहीं किया जाएगा, जबकि जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करने वाले माने जाएँगे। ऐसे लोग मसीह-विरोधी और शत्रु हैं जो जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं। ... जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, उनका विरोध परमेश्वर के प्रति उनकी धारणाओं से उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप वे परमेश्वर के कार्य में व्यवधान पैदा करते हैं। ये लोग जानते-बूझते परमेश्वर के कार्य का विरोध करते हैं और उसे नष्ट करते हैं। परमेश्वर के बारे में न केवल उनकी धारणाएँ होती हैं, बल्कि वे उन कामों में भी लिप्त रहते हैं जो परमेश्वर के कार्य में व्यवधान डालते हैं, और यही कारण है कि इस तरह के लोगों की निंदा की जाएगी।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं' से उद्धृत

10. सबसे अधिक विद्रोही वे लोग होते हैं जो जानबूझकर परमेश्वर की अवहेलना और उसका विरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु और मसीह विरोधी हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के नए कार्य के प्रति निरंतर शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, ऐसे व्यक्ति में कभी भी समर्पण का कोई भाव नहीं होता, न ही उसने कभी खुशी से समर्पण किया होता है या दीनता का भाव दिखाया है। ऐसे लोग दूसरों के सामने अपने आपको ऊँचा उठाते हैं और कभी किसी के आगे नहीं झुकते। परमेश्वर के सामने, ये लोग वचनों का उपदेश देने में स्वयं को सबसे ज़्यादा निपुण समझते हैं और दूसरों पर कार्य करने में अपने आपको सबसे अधिक कुशल समझते हैं। इनके कब्ज़े में जो "खज़ाना" होता है, ये लोग उसे कभी नहीं छोड़ते, दूसरों को इसके बारे में उपदेश देने के लिए, अपने परिवार की पूजे जाने योग्य विरासत समझते हैं, और उन मूर्खों को उपदेश देने के लिए इनका उपयोग करते हैं जो उनकी पूजा करते हैं। कलीसिया में वास्तव में इस तरह के कुछ ऐसे लोग हैं। ये कहा जा सकता है कि वे "अदम्य नायक" हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परमेश्वर के घर में डेरा डाले हुए हैं। वे वचन (सिद्धांत) का उपदेश देना अपना सर्वोत्तम कर्तव्य समझते हैं। साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपने "पवित्र और अलंघनीय" कर्तव्य को पूरी प्रबलता से लागू करते रहते हैं। कोई उन्हें छूने का साहस नहीं करता; एक भी व्यक्ति खुलकर उनकी निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाता। वे परमेश्वर के घर में "राजा" बनकर युगों-युगों तक बेकाबू होकर दूसरों पर अत्याचार करते चले आ रहे हैं। दुष्टात्माओं का यह झुंड संगठित होकर काम करने और मेरे कार्य का विध्वंस करने की कोशिश करता है; मैं इन जीती-जागती दुष्ट आत्माओं को अपनी आँखों के सामने कैसे अस्तित्व में बने रहने दे सकता हूँ?

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे' से उद्धृत

11. तुम लोगों का परमेश्वर के प्रति विरोध और पवित्र आत्मा के कार्य में अवरोध तुम लोगों की धारणाओं और तुम लोगों के अंतर्निहित अहंकार के कारण है। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर का कार्य गलत है, बल्कि इसलिए है कि तुम लोग प्राकृतिक रूप से अत्यंत अवज्ञाकारी हो। परमेश्वर में विश्वास हो जाने के बाद भी, कुछ लोग यकीन से यह भी नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य कहाँ से आया, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्यों के सही और गलत होने के बारे में बताते हुए सार्वजनिक भाषण देने का साहस करते हैं। यहाँ तक कि वे उन प्रेरितों को भी व्याख्यान देते हैं जिनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य है, उन पर टिप्पणी करते हैं और बेमतलब बोलते रहते हैं; उनकी मानवता बहुत ही निम्न है, और उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं होती है। क्या वह दिन नहीं आएगा जब इस प्रकार के लोग पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाएँगे, और नरक की आग द्वारा भस्म कर दिए जाएँगे? वे परमेश्वर के कार्यों को नहीं जानते हैं, फिर भी उसके कार्य की आलोचना करते हैं और परमेश्वर को यह निर्देश देने की कोशिश करते हैं कि कार्य किस प्रकार किया जाए। इस प्रकार के अविवेकी लोग परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? मनुष्य खोजने और अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ही परमेश्वर को जान पाता है; न कि अपनी सनक में उसकी आलोचना करने के द्वारा मनुष्य पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से परमेश्वर को जान पाया है। परमेश्वर के बारे में लोगों का ज्ञान जितना अधिक सही होता जाता है, उतना ही कम वे उसका विरोध करते हैं। इसके विपरीत, लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की संभावना रहती है। तुम लोगों की धारणाएँ, तुम्हारी पुरानी प्रकृति, और तुम्हारी मानवता, चरित्र और नैतिक दृष्टिकोण वह पूँजी है जिससे तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और जितना अधिक तुम्हारी नैतिकता जितनी भ्रष्ट होगी, तुम्हारे गुण जितने तुच्छ और तुम्हारी मानवता जितनी निम्न होगी, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के शत्रु बन जाते हो। जो लोग प्रबल धारणाएँ रखते हैं और आत्मतुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे देहधारी परमेश्वर के प्रति और भी अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं; इस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी हैं।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है' से उद्धृत

12. ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी कलीसियाओं में दिन-भर बाइबल पढ़ते रहते हैं, फिर भी उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझता हो। उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो परमेश्वर को जान पाता हो; उनमें से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तो एक भी नहीं होता। वे सबके सब निकम्मे और अधम लोग हैं, जिनमें से प्रत्येक परमेश्वर को सिखाने के लिए ऊँचे पायदान पर खड़ा रहता है। वे लोग परमेश्वर के नाम का झंडा उठाकर, जानबूझकर उसका विरोध करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं, फिर भी मनुष्यों का माँस खाते और रक्त पीते हैं। ऐसे सभी मनुष्य शैतान हैं जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते हैं, ऐसे मुख्य राक्षस हैं जो जानबूझकर उन्हें विचलित करते हैं जो सही मार्ग पर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं और ऐसी बाधाएँ हैं जो परमेश्वर को खोजने वालों के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। वे "मज़बूत देह" वाले दिख सकते हैं, किंतु उसके अनुयायियों को कैसे पता चलेगा कि वे मसीह-विरोधी हैं जो लोगों से परमेश्वर का विरोध करवाते हैं? अनुयायी कैसे जानेंगे कि वे जीवित शैतान हैं जो इंसानी आत्माओं को निगलने को तैयार बैठे हैं?

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं' से उद्धृत

13. जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर का सार होगा और जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर की अभिव्यक्ति होगी। चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उस कार्य को सामने लाएगा, जो वह करना चाहता है, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है और वह मनुष्य के लिए सत्य को लाने, उसे जीवन प्रदान करने और उसे मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस देह में परमेश्वर का सार नहीं है, वह निश्चित रूप से देहधारी परमेश्वर नहीं है; इसमें कोई संदेह नहीं। अगर मनुष्य यह पता करना चाहता है कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, तो इसकी पुष्टि उसे उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव और उसके द्वारा बोले गए वचनों से करनी चाहिए। इसे ऐसे कहें, व्यक्ति को इस बात का निश्चय कि यह देहधारी परमेश्वर है या नहीं और कि यह सही मार्ग है या नहीं, उसके सार से करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने की कुंजी कि यह देहधारी परमेश्वर की देह है या नहीं, उसके बाहरी स्वरूप के बजाय उसके सार (उसका कार्य, उसके कथन, उसका स्वभाव और कई अन्य पहलू) में निहित है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी स्वरूप की ही जाँच करता है, और परिणामस्वरूप उसके सार की अनदेखी करता है, तो इससे उसके अनाड़ी और अज्ञानी होने का पता चलता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना' से उद्धृत

14. देहधारी हुए परमेश्वर को मसीह कहा जाता है, और इसलिए वह मसीह जो लोगों को सत्य दे सकता है परमेश्वर कहलाता है। इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि वह परमेश्वर का सार धारण करता है, और अपने कार्य में परमेश्वर का स्वभाव और बुद्धि धारण करता है, जो मनुष्य के लिए अप्राप्य हैं। वे जो अपने आप को मसीह कहते हैं, परंतु परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते हैं, धोखेबाज हैं। मसीह पृथ्वी पर परमेश्वर की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, बल्कि वह विशेष देह भी है जिसे धारण करके परमेश्वर मनुष्य के बीच रहकर अपना कार्य करता और पूरा करता है। यह देह किसी भी आम मनुष्य द्वारा उसके बदले धारण नहीं की जा सकती है, बल्कि यह वह देह है जो पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पर्याप्त रूप से संभाल सकती है और परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त कर सकती है, और परमेश्वर का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व कर सकती है, और मनुष्य को जीवन प्रदान कर सकती है। जो मसीह का भेस धारण करते हैं, उनका देर-सवेर पतन हो जाएगा, क्योंकि वे भले ही मसीह होने का दावा करते हैं, किंतु उनमें मसीह के सार का लेशमात्र भी नहीं है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि मसीह की प्रामाणिकता मनुष्य द्वारा परिभाषित नहीं की जा सकती, बल्कि स्वयं परमेश्वर द्वारा ही इसका उत्तर दिया और निर्णय लिया जा सकता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है' से उद्धृत

15. देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है और मसीह परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की गई देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है; वह आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण दिव्यता दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियां बनाए रखती है, जबकि उसकी दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य अभ्यास में लाती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा को समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, यानी दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा और वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता, जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, न ही वह ऐसे वचन कहेगा, जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरुद्ध जाते हों।

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यद्यपि मसीह देह में स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है और व्यक्तिगत रूप से वह कार्य करता है, जिसे स्वयं परमेश्वर को करना चाहिए, वह स्वर्ग में परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं नकारता, न ही वह उत्तेजनापूर्वक अपने स्वयं के कर्मों की घोषणा करता है। इसके बजाय, वह विनम्रतापूर्वक अपनी देह के भीतर छिपा रहता है। मसीह के अलावा, जो मसीह होने का झूठा दावा करते हैं, उनमें उसकी विशेषताएं नहीं हैं। अभिमानी और ख़ुद की बढ़ाई के स्वभाव वाले उन झूठे मसीहों से तुलना में यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में किस प्रकार की देह में मसीह है। जितने वे झूठे होते हैं, उतना ही अधिक इस प्रकार के झूठे मसीह स्वयं का दिखावा करते हैं और उतना ही लोगों को धोखा देने के लिये वे ऐसे संकेत और चमत्कार करने में समर्थ होते हैं। झूठे मसीहों में परमेश्वर के गुण नहीं होते; मसीह पर झूठे मसीहों से संबंधित किसी भी तत्व का दाग़ नहीं लगता। परमेश्वर केवल देह का कार्य पूर्ण करने के लिए देहधारी बनता है, न कि महज़ मनुष्यों को उसे देखने की अनुमति देने के लिए। इसके बजाय, वह अपने कार्य से अपनी पहचान की पुष्टि होने देता है और जो वह प्रकट करता है, उसे अपना सार प्रमाणित करने देता है। उसका सार निराधार नहीं है; उसकी पहचान उसके हाथ से ज़ब्त नहीं की गई थी; यह उसके कार्य और उसके सार से निर्धारित होती है। ...

मसीह का कार्य तथा अभिव्यक्ति उसके सार को निर्धारित करते हैं। वह अपने सच्चे हृदय से उस कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है, जो उसे सौंपा गया है। वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है और सच्चे हृदय से परमपिता परमेश्वर की इच्छा खोजने में सक्षम है। यह सब उसके सार द्वारा निर्धारित होता है। और इसी प्रकार उसका प्राकृतिक प्रकाशन भी उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है; इसे मैं उसका “प्राकृतिक प्रकाशन" कहता हूँ क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति कोई नकल नहीं है, या मनुष्य द्वारा शिक्षा का परिणाम, या मनुष्य द्वारा कई वर्षों का संवर्धन का परिणाम नहीं है। उसने इसे सीखा या इससे स्वयं को सँवारा नहीं; बल्कि, यह उसमें अंतर्निहित है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है' से उद्धृत

16. यदि वर्तमान समय में ऐसा कोई व्यक्ति उभरे, जो चिह्न और चमत्कार प्रदर्शित करने, दुष्टात्माओं को निकालने, बीमारों को चंगा करने और कई चमत्कार दिखाने में समर्थ हो, और यदि वह व्यक्ति दावा करे कि वह यीशु है जो आ गया है, तो यह बुरी आत्माओं द्वारा उत्पन्न नकली व्यक्ति होगा, जो यीशु की नकल उतार रहा होगा। यह याद रखो! परमेश्वर वही कार्य नहीं दोहराता। कार्य का यीशु का चरण पहले ही पूरा हो चुका है, और परमेश्वर कार्य के उस चरण को पुनः कभी हाथ में नहीं लेगा। परमेश्वर का कार्य मनुष्य की धारणाओं के साथ मेल नहीं खाता; उदाहरण के लिए, पुराने नियम ने मसीहा के आगमन की भविष्यवाणी की, और इस भविष्यवाणी का परिणाम यीशु का आगमन था। चूँकि यह पहले ही घटित हो चुका है, इसलिए एक और मसीहा का पुनः आना ग़लत होगा। यीशु एक बार पहले ही आ चुका है, और यदि यीशु को इस समय फिर आना पड़ा, तो यह गलत होगा। प्रत्येक युग के लिए एक नाम है, और प्रत्येक नाम में उस युग का चरित्र-चित्रण होता है। मनुष्य की धारणाओं के अनुसार, परमेश्वर को सदैव चिह्न और चमत्कार दिखाने चाहिए, सदैव बीमारों को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना चाहिए, और सदैव ठीक यीशु के समान होना चाहिए। परंतु इस बार परमेश्वर इसके समान बिल्कुल नहीं है। यदि अंत के दिनों के दौरान, परमेश्वर अब भी चिह्नों और चमत्कारों को प्रदर्शित करे, और अब भी दुष्टात्माओं को निकाले और बीमारों को चंगा करे—यदि वह बिल्कुल यीशु की तरह करे—तो परमेश्वर वही कार्य दोहरा रहा होगा, और यीशु के कार्य का कोई महत्व या मूल्य नहीं रह जाएगा। इसलिए परमेश्वर प्रत्येक युग में कार्य का एक चरण पूरा करता है। ज्यों ही उसके कार्य का प्रत्येक चरण पूरा होता है, बुरी आत्माएँ शीघ्र ही उसकी नकल करने लगती हैं, और जब शैतान परमेश्वर के बिल्कुल पीछे-पीछे चलने लगता है, तब परमेश्वर तरीक़ा बदलकर भिन्न तरीक़ा अपना लेता है। ज्यों ही परमेश्वर ने अपने कार्य का एक चरण पूरा किया, बुरी आत्माएँ उसकी नकल कर लेती हैं। तुम लोगों को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'आज परमेश्वर के कार्य को जानना' से उद्धृत

17. कुछ ऐसे लोग हैं, जो दुष्टात्माओं से ग्रस्त हैं और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते रहते हैं, "मैं परमेश्‍वर हूँ!" लेकिन अंत में, उनका भेद खुल जाता है, क्योंकि वे गलत चीज़ का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं, और पवित्र आत्मा उन पर कोई ध्यान नहीं देता। तुम अपने आपको कितना भी बड़ा ठहराओ या तुम कितना भी जोर से चिल्लाओ, तुम फिर भी एक सृजित प्राणी ही रहते हो और एक ऐसा प्राणी, जो शैतान से संबंधित है। मैं कभी नहीं चिल्लाता, "मैं परमेश्वर हूँ, मैं परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ!" परंतु जो कार्य मैं करता हूँ, वह परमेश्वर का कार्य है। क्या मुझे चिल्लाने की आवश्यकता है? मुझे ऊँचा उठाए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर अपना काम स्वयं करता है और वह नहीं चाहता कि मनुष्य उसे हैसियत या सम्मानजनक उपाधि प्रदान करे : उसका काम उसकी पहचान और हैसियत का प्रतिनिधित्व करता है। अपने बपतिस्मा से पहले क्या यीशु स्वयं परमेश्वर नहीं था? क्या वह परमेश्वर द्वारा धारित देह नहीं था? निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि केवल गवाही मिलने के पश्चात् ही वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र बना। क्या उसके द्वारा काम शुरू करने से बहुत पहले ही यीशु नाम का कोई व्यक्ति नहीं था? तुम नए मार्ग लाने या पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ हो। तुम पवित्र आत्मा के कार्य को या उसके द्वारा बोले जाने वाले वचनों को व्यक्त नहीं कर सकते। तुम स्वयं परमेश्वर का या पवित्रात्मा का कार्य करने में असमर्थ हो। परमेश्वर की बुद्धि, चमत्कार और अगाधता, और उसके स्वभाव की समग्रता, जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को ताड़ना देता है—इन सबको व्यक्त करना तुम्हारी क्षमता के बाहर है। इसलिए परमेश्वर होने का दावा करने की कोशिश करना व्यर्थ होगा; तुम्हारे पास सिर्फ़ नाम होगा और कोई सार नहीं होगा। स्वयं परमेश्वर आ गया है, किंतु कोई उसे नहीं पहचानता, फिर भी वह अपना काम जारी रखता है और ऐसा वह पवित्रात्मा के प्रतिनिधित्व में करता है। चाहे तुम उसे मनुष्य कहो या परमेश्वर, प्रभु कहो या मसीह, या उसे बहन कहो, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। परंतु जो कार्य वह करता है, वह पवित्रात्मा का है और वह स्वयं परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता कि मनुष्य उसे किस नाम से पुकारता है। क्या वह नाम उसके काम का निर्धारण कर सकता है? चाहे तुम उसे कुछ भी कहकर पुकारो, जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारी स्वरूप है; वह पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके द्वारा अनुमोदित है। यदि तुम एक नए युग के लिए मार्ग नहीं बना सकते, या पुराने युग का समापन नहीं कर सकते, या एक नए युग का सूत्रपात या नया कार्य नहीं कर सकते, तो तुम्हें परमेश्वर नहीं कहा जा सकता!

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'देहधारण का रहस्य (1)' से उद्धृत

18. यदि कोई मनुष्य अपने आपको परमेश्वर कहता है, मगर अपनी दिव्यता व्यक्त करने, स्वयं परमेश्वर का कार्य करने या परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है, तो वह नि:संदेह परमेश्वर नहीं है, क्योंकि उसमें परमेश्वर का सार नहीं है, और परमेश्वर जो सहज रूप से प्राप्त कर सकता है, वह उसके भीतर विद्यमान नहीं है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर' से उद्धृत

पिछला: IX. परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच अंतर

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